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________________ जिन सूत्र भागः1 पर बहुत ध्यान मत देना। देखा-देखी बात! देखो तो ही कुछ जानना है? विवेकानंद झिझके! 'अभी जानना है कि थोड़ी देर बात हुई। लिखा-लिखी की है नहीं, देखा-देखी बात। रुकोगे?' विवेकानंद ने कहा, मैंने सोचा नहीं। यह तो मैंने नाणेण जाणई भावे, दंसणेण य सद्दहे। सोचा ही न था कि कोई इस तरह पूछेगा जैसे कि पास के कमरे में 'दर्शन से ही श्रद्धा उत्पन्न होती है।' है ईश्वर, दरवाजा खोला कि दिखा देंगे! श्रद्धा का अर्थ है, जुड़ गये तार तुम्हारे हृदय से; बात बुद्धि की रामकृष्ण ने कहा, उस कमरे से भी पास है। तुम्हारे भीतर है! न रही; बात केवल मत न रही, 'ओपिनियन' न रही। अब | मेरे भीतर है! तुम कहो तो मैं दिखा दं। और तमने अभी तैयारी न ऐसा नहीं कि ऐसा हम सोचते हैं-ऐसा है। श्रद्धा का अर्थ की हो तो सोचकर आ जाना।। हुआ : ऐसा है। ऐसा नहीं कि हम सोचते हैं; ऐसा नहीं कि और और इसके पहले कि विवेकानंद कुछ कहें-रामकृष्ण तो थोड़े लोग कहते हैं; ऐसा नहीं कि जाननेवालों ने कहा है; ऐसा नहीं पागल-से आदमी थे-उन्होंने विवेकानंद की छाती पर पैर लगा कि हमने सुना है-ऐसा है। दिया। विवेकानंद धड़ाम से गिर पड़े। बेहोश हो गये। घंटेभर विवेकानंद परमात्मा की खोज में भटकते थे। अनेक गुरुओं के बाद जब होश में आये तो कंप रहे थे पत्ते की तरह तूफान में! रोने पास गये। पूछा, ईश्वर है? विवेकानंद की निष्ठा और लगे। क्योंकि जो दिखाया, जो प्रतीति हुई उस घड़ी में, उसने विवेकानंद की जलती हुई खोज! जिससे पूछते वह घबड़ा | सारा, सारा जीवन बदल दिया। फिर रामकृष्ण से बहुत भागने जाता। वे बलशाली व्यक्ति थे। वे ऐसे पूछते कि अगर उत्तर की कोशिश की, बहुत भागने की कोशिश की, सब उपाय ठीक न मिला तो शायद चढ़ पड़ेंगे, शायद गर्दन दबा देंगे। किए–लेकिन भाग न सके। इस आदमी ने विवेकानंद की रामकृष्ण के पास भी गये। औरों ने ईश्वर के बाबत चर्चा की | आंखें किसी तरफ खोल दीं। थी। उसमें कई बड़े-बड़े लोग थे। उसमें रवींद्रनाथ के दादा थे; अब यह सवाल ज्ञान का न रहा। इसको महावीर श्रद्धान कहते वे महर्षि समझे जाते थे। उनके पास भी विवेकानंद पहुंच गये हैं। श्रद्धा हुई। यह गैर पढ़ा-लिखा आदमी रामकृष्ण, महर्षि थे। वे एक बजरे में रहते थे नाव में। आधी रात तैरकर नाव में देवेंद्रनाथ को हरा दिया। वे बड़े ज्ञानी थे, बड़े पंडित थे, चढ़ गए। पूरी नाव कंप गयी। वे ध्यान कर रहे थे अंदर। ब्रह्म-समाज के जन्मदाताओं में एक थे। लेकिन श्रुति थी, स्मृति दरवाजा धक्का देकर तोड़ दिया। भीतर पहुंच गये पागल की थी-श्रद्धान न था। तरह। आधी रात! पानी में सरोबोर! पूछा, 'क्या बात है। महावीर कहते हैं, ज्ञान से जाना जाता है; दर्शन से श्रद्धा होती युवक! कैसे आये?' तो विवेकानंद ने कहा, 'ईश्वर है?' तो है। और जब श्रद्धा होती है तो चरित्र का जन्म होता है। क्योंकि उन्होंने कहा, 'बैठो मैं तुम्हें समझाऊंगा।' विवेकानंद ने कहा, जिस पर श्रद्धा ही नहीं है वह तुम्हारे चरित्र में कभी न उतर 'मैं समझने नहीं आया। मैं यह जानना चाहता हूं, ईश्वर है? | सकेगा। उतार लोगे तो पाखंड होगा। ऊपर-ऊपर होगा। किसी ऐसा तुम्हें अनुभव हुआ है?' और को दिखाने को होगा। अंतर्तम में तुम विपरीत रहोगे, भिन्न झिझके महर्षि! विवेकानंद छलांग लगाकर नदी में कूद गये। रहोगे। बाहर के दरवाजे से एक, भीतर के दरवाजे से दूसरे बुलाया कि 'सुनो, आये...चले?' विवेकानंद ने कहा, झिझक रहोगे। कहोगे कुछ, करोगे कुछ। वह तुम्हारे चरित्र में न आ ने सब कह दिया। समझने में आया नहीं, जानने में आया नहीं। सकेगा। चरित्र में तो कोई बात तभी आती है जब श्रद्धा की भूमि मैं तो यह पूछने आया हूं कि तुमने देखा है? मैं किसी ऐसे में बीज पड़ता है। आदमी की तलाश में है, जिसका हाथ ईश्वर के हाथ में हो। जीसस ने कहा है, किसान बीज फेंकता है। कुछ रास्ते पर पड़ शास्त्र तो मैं भी पढ़ लूंगा। शास्त्र ही समझना हो तो तमसे क्या जाते हैं, जहां पथरीली जगह है: कभी उगते. समझेंगे, खुद ही पढ़ लेंगे। किनारे पड़ जाते हैं, जहां जमीन तो ठीक है, लेकिन लोग गुजरते फिर रामकृष्ण के पास भी वही सवाल किया था, कि ईश्वर हैं, पैरों में दब जाते हैं: उग भी आते हैं तो मर जाते हैं। कछ उस | है ? तो रामकृष्ण ने क्या उत्तर दिया? रामकृष्ण ने कहा, तुम्हें भूमि में पड़ते हैं, गीली, कोमल-जहां पैदा भी होते हैं, सुरक्षित 5401 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340125
Book TitleJinsutra Lecture 25 Darshan Gyan Charitra aur Moksh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Jinsutra_MP3_and_PDF_Files
File Size39 MB
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