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________________ दर्शन, ज्ञान, चरित्र-और मोक्ष तुम्हारा आचरण है वह कल तुम्हारा विचार था। भी ज्यादा जल्दबाजी में हैं, वे चरित्र से शुरू कर देते हैं। जब भी विचार और आचरण एक ही यात्रा के हिस्से हैं। विचार पहला तुम्हें खयाल उठता है, तुम सोचने लगते हो चरित्र को कैसे कदम है; आचरण अंतिम। अगर कोई विचार आचरण न बनता | बदलें। तुम आखिरी बात पहले लाना चाहते हो? तुम भ्रांति में हो तो इस बात का एक ही अर्थ होता है कि वह विचार तुम्हारा पड़ रहे हो। तुम सिर के बल खड़े हो जाओगे। नहीं है। इसलिए कैसे आचरण बने? इसलिए मैं कहता हूं, जैन मुनि सौ में निन्यानबे सिर के बल चिकित्सकों से पूछो! अगर तुम्हारे शरीर में खून की कमी हो खड़े हैं। उन्होंने चरित्र से शुरुआत कर दी। और महावीर के बड़े जाये तो हर किसी का खून तुम्हारे काम न पड़ेगा। तुम्हारा ही | सीधे-साफ सूत्र हैं। इनको समझने के लिए कोई बहुत बुद्धिमत्ता टाइप चाहिए। मतलब हुआ कि तुम्हारा खून ही तुम्हारा शरीर नहीं चाहिए। इनमें उलझाव कुछ भी नहीं है। महावीर की स्वीकार करता है और किसी तरह का खून स्वीकार नहीं उलझाने की आदत नहीं है; चीजों को बिलकुल साफ-साफ रख करता। अगर तुम्हारे चेहरे पर प्लास्टिक सर्जन कुछ आपरेशन देने की आदत है। अब इससे ज्यादा साफ सूत्र क्या होगा: करे और चमड़ी बदलनी हो तो तुम्हारे ही पैर या जांघ की चमड़ी 'दर्शन के बिना ज्ञान नहीं! ज्ञान के बिना चरित्र नहीं। चरित्र के निकालकर लगानी पड़ती है। क्योंकि दूसरी किसी की चमड़ी बिना मोक्ष नहीं।' तुम्हारा शरीर स्वीकार नहीं करता। | लेकिन जैन मुनि क्या कर रहा है? वह चरित्र को साध रहा है। जो शरीर के संबंध में सही है वह आत्मा के संबंध में और भी वह कहता है, जब चरित्र शुद्ध होगा तो ज्ञान शुद्ध होगा। जब ज्यादा सही है। तुम्हारा ही हो अनुभव तो ही तुम्हारी आत्मा ज्ञान शुद्ध होगा तो दर्शन शुद्ध होगा। उसने सारी प्रक्रिया उलटी कार करती है, अन्यथा नहीं स्वीकार करती। तम्हारे ही प्राणों कर ली है। वह सिर के बल खड़ा हो गया है। इसलिए न तो में पगा हो तो ही तुम्हारी आत्मा उसे अपने भीतर लेती है, अन्यथा दर्शन उत्पन्न होता, न ज्ञान उत्पन्न होता, न चरित्र उत्पन्न होता। बाहर फेंक देती है। जैसे हर किसी के खून को तुम्हारे भीतर नहीं | सब बासा है। सब उधार है। सब मुर्दा और लाश की भांति है। डाला जा सकता और जैसे हर किसी की चमड़ी तुम्हारे पैर पर या / कोई उत्सव नहीं है सत्य का। कोई परमात्मा की जीवंत अनभति तुम्हारे चेहरे पर नहीं चिपकायी जा सकती–शरीर तो बाहर है, | नहीं है। आत्मा तो बहुत गहरे है, तुम्हारा आखिरी, आत्यंतिक अस्तित्व 'क्रिया-विहीन ज्ञान व्यर्थ है।' हयं नाणं कियाहीणं। और है। वहां तो केवल तुम ही तुम हो। तुम्हारा ही जो है, वही वहां अज्ञानियों की क्रिया भी व्यर्थ है।' पाएगा जगह; शेष सब अस्वीकृत हो जाता है। _ये सूत्र बड़े बहुमूल्य हैं! इसलिए महावीर कहते हैं, सम्यक दर्शन के बिना ज्ञान नहीं। 'हया अण्णाणओ किया।' ज्ञान के बिना चारित्र्य नहीं। चारित्र्य के बिना मोक्ष नहीं। __'क्रियाविहीन ज्ञान व्यर्थ है।' अगर ऐसा कोई ज्ञान तुम्हारे और जो अभी चरित्र में शुद्ध नहीं हुआ, उसकी मुक्ति कहां! पास है जो जीवन में आचरित नहीं हो रहा है, अपने-आप जीवन क्योंकि मोक्ष तो जो गलत है उससे छुट जाने का नाम है, बंधन के में उतर नहीं रहा है तो व्यर्थ है, गलत है। और अगर तुम अज्ञानी टूट जाने का नाम है। हो और क्रिया में लग गये हो, चरित्र बनाने में लग गये हो, तो और मोक्ष के बिना निर्वाण कहां, आनंद कहां? वह भी व्यर्थ है। तो तुम अगर दुखी हो तो आकस्मिक नहीं। तुम दुखी रहोगे क्रियाहीन ज्ञान तो व्यर्थ है; क्योंकि जानते तुम हो, लेकिन ही, क्योंकि आनंद तक जाने की तुम यात्रा नहीं कर रहे हो। और जीवन में काम में नहीं लाते हो। यह तो ऐसे ही है कि भोजन रखा अगर कभी तुम उत्सुक भी होते हो तो तुम जल्दबाजी में हो, है और तुम भूखे बैठे हो। यह भोजन व्यर्थ है। हो या न हो, अधैर्य है बहुत। तो तुम सोचते हो, दो-चार कदम एक साथ उठ | बराबर है। यह सर्दी पड़ रही है, कंबल सामने रखे बैठे हो, जायें कि दो-चार सीढ़ियां एक साथ छलांग लग जायें, कि जल्दी ओढ़ते नहीं हो—कि धूप निकली है, तुम सर्दी में कंप रहे हो, कुछ हो जाये। कुछ हैं जो ज्ञान से शुरू करते हैं। कुछ, जो और | जाकर धूप में नहीं बैठ जाते हो कि थोड़ा धूप का आनंद ले लो 545/ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340125
Book TitleJinsutra Lecture 25 Darshan Gyan Charitra aur Moksh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Jinsutra_MP3_and_PDF_Files
File Size39 MB
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