Book Title: Jinsutra Lecture 23 Jivan ki Bhavyata Abhi aur Yahi
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Osho Rajnish
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेईसवां प्रवचन जीवन की भव्यताः अभी और यहीं For Private & Wewenal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदहदि य पत्तेदि य, रोचेदि य तह पुणो य फासेदि। धम्म भोगनिमित्तं, ण दु सो कम्मक्खयणिमित्तं / / 55 / / सुहपरिणामो पुण्णं, असुहो पाव ति भणियमन्नेसु। परिणामो णन्नगदो, दुक्खक्खयकारणं समये।।५६।। पुण्णं पि जो समिच्छदि, संसारो तेण ईहिदो होदि। पुण्णं सुगईहेंदु, पुण्णखएणेव णिव्वाणं / / 57 / / कम्ममसुहं कुसीलं, सुहकम्मं चावि जाण व सुसीलं कह तं होदि सुसीलं, जं संसारं पवेसेदि।।५८।। सोवण्णियं पि णियलं, बंधदि कालायसं पि जह पुरिसं। बंधदि एवं जीवं, सुहमसुहं वा कदं कम्भ।।५९।। तम्हा दु कुसीलेहिं य, रायं मा कुणह मा व संसग्गं। साहीणो हि विणासो, कुसीलसंसग्गरायेण।।६०।। वरं वयतवेहि सग्गो, मा दुक्खं होउ णिरई इयरेहिं। छायातवट्ठियाणं, पडिवालंताण गुरुभेयं / / 61 / / Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हला सूत्र : 'अभव्य जीव यद्यपि धर्म में श्रद्धा | का संसार है। बाहर के संसार के कारण पाने की वासना नहीं है। / रखता है, उसकी प्रतीति करता है, उसमें रुचि तो तुम संसार को छोड़ भी दो और तुम्हारे भीतर की वासना की रखता है, उसका पालन भी करता है, किंतु यह सब आग सुलगती रह जाये तो कुछ अंतर न हुआ। वह धर्म को भोग का निमित्त समझकर करता है, कर्मक्षय का महावीर कहते हैं ऐसे धार्मिक व्यक्ति को-'अभव्य जीव।' कारण समझकर नहीं।' वह सिर्फ भव्य दिखायी पड़ता है, लेकिन उसकी भव्यता संसार की आदत आसानी से नहीं जाती। जन्मों-जन्मों तक बाहर-बाहर है. भीतर उसके राग खडा है. भीतर लोभ खडा है। जिसे पाला है, संवारा है, वह आदत संसार को छोड़ने भी चलो __तुमने ऐसा धार्मिक व्यक्ति देखा, जिसके भीतर लोभ न हो? तो भी साथ चलती है। तुमने ऐसा धार्मिक व्यक्ति देखा जो धार्मिक हो, धार्मिक होने के इसे समझें, क्योंकि इसे बिना समझे कोई कभी धार्मिक न हो | आनंद के कारण; जो यह नहीं कहता हो कि धार्मिक श्रम, पायेगा। बहुत हैं जिन्होंने संसार छोड़ दिया। बाहर दिखायी पुरुषार्थ से मैं कुछ भविष्य में कमाने जा रहा हूं? तुमने ऐसा पड़नेवाला संसार छोड़ देना कठिन भी नहीं। आश्चर्य तो यही है | धार्मिक व्यक्ति देखा जिसके मन में भविष्य की कोई आकांक्षा न कि बाहर दिखायी पड़नेवाले संसार को लोग कैसे पकड़े रहते हैं! | हो, फलाकांक्षा न हो? इतना व्यर्थ है, इतना असार है कि किसी भी थोड़ी-सी प्रज्ञावान तो तुम अगर अपने धार्मिक गुरुओं से, साधुओं से जाकर पूछो चेतना को छोड़ने का खयाल आ जाये तो कुछ आश्चर्यचकित कि आप ये पुण्य, तपश्चर्या, साधना, ध्यान, सामायिक, होने की बात नहीं। कुछ भी मिलता हुआ दिखायी नहीं पड़ता, उपवास, व्रत, नियम, इन सबका पालन कर रहे तो छोड़ने का मन आ जाता है। हैं—किसलिए? और अगर वे बता सकें कि किसलिए तो लेकिन बाहर के संसार से भी ज्यादा भीतर एक संसार है। वह | समझना कि वे अभव्य जीव हैं। अभी उनमें भव्यता का जन्म संसार है कि अगर हम छोड़ते भी हैं कुछ, तो कुछ पाने के लिए नहीं हुआ। और वे सभी बता सकेंगे कि पुण्य के लिए, स्वर्ग के ही छोड़ते हैं। वह पाने की वृत्ति नहीं जाती। तो लोग संसार छोड़ लिए; भविष्य में उच्च योनियां मिलें, देवलोक मिले-इसलिए देते हैं तो सोचते हैं, मोक्ष पाने के लिए; धन छोड़ देते हैं तो या उनमें जो बहुत ज्यादा तर्ककुशल हैं, वे कहेंगे, मोक्ष के लिए: सोचते हैं, पुण्य पाने के लिए। लेकिन पाने की वासना भीतर सबसे छुटकारा हो जाये, इसलिए। खड़ी रहती है। लेकिन जो आदमी छूटना चाहता है, उसका छुटकारा हो नहीं महावीर इन सूत्रों में यही बात साफ करना चाहते हैं कि असली सकता, क्योंकि अभी कोई चाह बची-छटने की चाह बची। संसार 'पाने की वासना' में है। पाने की वासना के कारण बाहर तो सब चाहें निमज्जित हो जाएं छूटने की चाह में, तो छूटने की 495 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः चाह एक मजबूत रस्से की तरह हो जायेगी। छोटी-छोटी चाहें तो आनंद है, सामायिक परम शांति है। थोड़े-थोड़े धागे हैं, उन सबको एक ही रस्से में इकट्ठा कर भेद समझ लेना, क्योंकि दोनों की बातें एक-सी लगती हैं। लिया–छूटने की चाह, मोक्ष की आकांक्षा। तो जैसा धार्मिक कहता है, शांति के लिए सामायिक में बैठता हूं। तो छोटी-छोटी वासनाओं ने बांधा था, उससे भी ज्यादा यह मोक्ष महावीर कहेंगे अभव्य है, अभी कृपण है, अभी वासना लगी है। की रस्सी बांध लेगी। अभी सामायिक को भी यह साधन बना रहा है। तो कभी इसने महावीर कहते हैं, अगर तुमने कुछ पाने के लिए छोड़ा तो छोड़ा | धन को साधन बनाया था-सोचा था, धन से सुख मिलेगा; ही नहीं। धोखा किसको दिया? अपने को दे लिया। कभी इसने पद को साधन बनाया था—सोचा था पद-प्रतिष्ठा से उपनिषदों में एक बड़ा अदभुत सूत्र है : कृपणा फलहेतवः। जो | सुख मिलेगा; कभी यह सेनापति हो गया था, दुर्धर्ष युद्ध में उतरा व्यक्ति फल की आकांक्षा से कुछ काम करता है वह कृपण है, था, हजारों की गर्दन काट दी थीं सोचा था इससे सुख वह कंजूस है। उसे जीवन की कला ही न आयी। उसने जीवन | मिलेगा। लेकिन एक बात अभी भी कायम है कि सुख को पाना का सत्य ही न जाना। होगा किसी साधन से। कभी धन साधन, कभी पद साधन, कभी महावीर का यह सूत्र भी यही कह रहा है कि अगर तुमने कुछ | तलवार साधन; अब व्रत, उपवास, नियम-साधन; योग, पाने की आकांक्षा से-भला वह आकांक्षा मोक्ष की ही ध्यान, सामायिक-साधन। लेकिन मूल गणित वही है। जो भी हो-धर्म किया तो धर्म किया ही नहीं, धर्म का धोखा किया। कर रहा है, अधार्मिक व्यक्ति उसमें रस नहीं लेता। उसका रस अभव्य जीव यद्यपि धर्म में श्रद्धा रखता है लेकिन उसकी श्रद्धा में हमेशा फल में है। गीता में कृष्ण जो कहते हैं : फलाकांक्षा! वह 'यद्यपि' जुड़ा हुआ है। उसकी प्रतीति भी करता है। उसमें रुचि देख रहा है आगेः यह मिलेगा, यह मिलेगा, यह भी रखता है, उसका यथाशक्य पालन भी करता है फिर भी मिलेगा—इसलिए कर रहा है। अगर पता चल जाये नहीं वह धर्म को निमित्त समझकर करता है, साध्य समझकर नहीं। मिलेगा तो उसका करना अभी रुक जाये। तो वह पूछेगा, फिर धर्म का भी साधन बनाता है। धर्म से भी कुछ पाना है, इसलिए कैसे मिलेगा? करता है। अगर धर्म के बिना जो वह पाना चाहता है मिल जाये| महावीर कहते हैं, जिस व्यक्ति को धर्म में साध्य दिखायी पड़ने तो वह धर्म को कूड़े-कर्कट में फेंक देगा। अगर तुम्हारे | लगा वही व्यक्ति भव्य है। तो तुम मंदिर जाओ, मस्जिद जाओ, साधु-संन्यासियों और मुनि महाराजों को पता चल जाये कि स्वर्ग | कुरान पढ़ो, गीता पढ़ो, पूजा करो, प्रार्थना करो-एक बात पहुंचने का कोई शार्टकट भी है तो वे सब अपने पीछी-कमंडल भीतर खोजते रहना : ये तुम साधन की तरह कर रहे हो, निमित्त छोड़कर भाग खड़े होंगे, क्योंकि उसी के लिए तो वे इस लंबे की तरह? तो महावीर की दृष्टि में अभव्य हो। अभी तुम्हारे रास्ते से जा रहे थे। अगर कोई पास का रास्ता मिल गया है, कोई | भीतर उस पवित्र उन्मेष का जन्म नहीं हुआ जो तुम्हें दिव्य बना दे, सुगम रास्ता मिल गया है, तो कौन कष्ट उठायेगा! भव्य बना दे। पास का रास्ता मिल जाने पर भी जो धर्म के रास्ते पर खड़ा रहे, 'भव्य' शब्द महावीर का अपना है। दिव्य शब्द का वे उसे ही जानना कि वह धार्मिक है। क्यों? क्योंकि उसके लिए उपयोग नहीं कर सकते, क्योंकि दिव्य से तो देवता और अंततः धर्म साध्य है, साधन नहीं। परमात्मा का खयाल आ जाता है। इसलिए महावीर की भाषा में ये दो शब्द बड़े विचारणीय हैं। धर्म साधन नहीं, साध्य है। तो | भव्य का वही अर्थ है जो समस्त अन्य धर्मों की भाषा में दिव्य का जल्दी क्या है? तो जाना कहां है? है। भव्य का अर्थ है : जिसका जीवन प्रतिपल साध्य हुआ। वास्तविक धार्मिक व्यक्ति का प्रत्येक पल मोक्ष है। वह ध्यान | भव्य का अर्थ है : जो कपण न रहा। कपणा फलहेतवः। अब करता है क्योंकि ध्यान में परम आनंद है। इसलिए नहीं कि जिसके लिए फल का कोई सवाल ही नहीं है! अब जिसकी सारी आनंद मिलेगा। धार्मिक व्यक्ति के लिए 'इसलिए' जैसी कोई कृपणता मिटी, कंजूसी मिटी! अब जो जिंदगी में चाह के ढंग से बात ही नहीं। वह सामायिक में बैठता है। क्योंकि सामायिक नहीं जीता-अचाह का मजा ले रहा है; अचाह में डूबता है, रस 496 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन की भव्यता : अभी और यहीं लेता है! नहीं कि दान से स्वर्ग मिलेगा-दान में स्वर्ग है। देता हूं, क्योंकि एक क्षण को भी तुम्हें पता चल जाये कि ऐसा भी जीने का ढंग देने में ही फूल खिल रहे हैं। फूल कल नहीं हैं, भविष्य में नहीं है जिसमें भविष्य की कोई जरूरत नहीं, वहीं भव्यता उतरती है। हैं-अभी खिल रहे हैं, यहीं खिल रहे हैं। यहां देने का खयाल 'भविष्य' शब्द भी सोचने जैसा है, क्योंकि उसकी भी मूल | नहीं उठा कि वहां फूल खिलने लगेयहां शांत बैठने का खयाल धातु भव्य की ही है। नहीं उठा कि शांति होने लगी! यहां आनंदित होने की उमंग उठी जिससे भव्य बना है, उसी से भविष्य बना है। दोनों शब्दों का कि आनंद आ गया! मूलस्रोत एक ही है। यह बड़े सोचने जैसी बात है! हम भविष्य युगपत साधन और साध्य मिल जाते हैं -एक ही क्षण में, एक को भव्य क्यों कहते हैं? अतीत तो किसी तरह काट लिया, ही पल में। वर्तमान भी किसी तरह गुजार रहे हैं; सारी आशा भविष्य में लगी गुरजिएफ के एक शिष्य बनेट ने एक अनूठा संस्मरण लिखा है। तो हम भविष्य को तो भव्य बनाते हैं! उटोपिया! जो नहीं है। बैनेट गुरजिएफ का सबसे लंबे समय तक शिष्य रहा। हुआ है वह भविष्य में होगा। इसलिए भव्य भविष्य को हम पश्चिम से जो व्यक्ति सबसे पहले गुरजिएफ के पास पहुंचा वह मानते हैं कि भविष्य भव्य है। हमारी सारी आकांक्षाओं का बैनेट था। और अंत तक जो गुरजिएफ के साथ लगा रहा वह भी सार-निचोड़ भविष्य में है। जो होना था और नहीं हो पाया, वह बैनेट था। कोई पैंतालीस साल का संबंध था। बैनेट ने लिखा है भविष्य में होगा, कल होगा। जो हमें बनना था और नहीं बन | कि गुरजिएफ के साथ काम करते हुए, एक दिन गुरजिएफ ने उसे पाये वह हम कल बनेंगे। जो वर्षा हमारे जीवन में घटनी थी और कहा था वह गड्ढे खोदता रहे, तो दिनभर गड्ढे खोदता रहा। वह नहीं घट पायी, सूखे रह गये, वह कल होगी। इतना थक गया था...! वह गुरजिएफ की एक प्रक्रिया थी थका इसलिए सभी लोगों के मन में भविष्य तो भव्य होता है। दीन | देना, इतना थका देना कि हाथ हिलाने की भी स्थिति न रह जाये। से दीन, दुखी से दुखी, पीड़ित से पीड़ित व्यक्ति के मन में भी क्योंकि गुरजिएफ कहता था कि जब तुम इतने थक जाते हो कि भविष्य भव्य होता है-इसीलिए उसे भविष्य कहते हैं। हाथ हिलाने की भी स्थिति नहीं रह जाती तभी तुम्हारा परम शक्ति / लेकिन महावीर कहते हैं, भव्य वह है जिसका कोई भविष्य | से संबंध जुड़ता है। जब तक तुममें शक्ति होती है तब तक परम नहीं; जो 'अभी और यहीं बिना किसी चाह के जीने लगे। शक्ति तुममें प्रवाहित नहीं होती। तो उसे थका दिया था। वह जब तक भविष्य है तब तक तुम अभव्य हो। भविष्य है ही दिनभर से थक गया था। तीन रात से सोया भी न था। वह तरकीब झुठलाने की, जीवन में प्रवंचना की। ऐसे कल्पनाओं का | गिरा-गिरा हो रहा था। खोद रहा था, लेकिन अब उसे समझ में जाल बुन-बुनकर तुम अपने को समझा लेते हो, सांत्वना दे लेते नहीं आ रहा था कि अगली बार कुदाली उठा सकेगा कि नहीं। हो। कभी धन के माध्यम से दी थी, अब धर्म के माध्यम से देते कदाली उठाये-उठाये झपकी खा रहा था। तब गरजिएफ आया हो। महावीर कहते हैं, बहुत फर्क नहीं है। चाहे कितनी ही तुम और उसने कहा कि यह क्या कर रहे हो? इतने जल्दी नहीं, श्रद्धा दिखाओ, कितनी ही प्रतीति जतलाओ, कितनी ही रुचि अभी तो जंगल जाना है और कुछ लकड़ियां काटकर लानी हैं। प्रगट करो, पालन भी कर लो-लेकिन तुम्हारे पालन करने में तो गुरजिएफ की शर्तों में एक शर्त थी कि वह जो कहे, करना भी अभव्यता रहेगी, क्योंकि तुम्हारी नजर भविष्य पर लगी ही होगा। क्योंकि उसी माध्यम से वह सोयी हई चेतना को जगा रहेगी। तुम करोगे, लेकिन व्यवसायी की तरह करोगे। धर्म सकता है। तो बैनेट की बिलकुल इच्छा नहीं थी। जाने का तुम्हारा कृत्य ही रहेगा, तुम्हारे जीवन की लीला न हो पायेगी। जंगल तो सवाल ही नहीं था। अपने कमरे तक कैसे और जब धर्म जीवन की लीला बन जाये...। लौटेगा-यह चिंता थी। कहीं बीच में गिरकर सो तो नहीं - अगर तुम्हें कभी कोई ऐसा व्यक्ति मिल जाये जो कहे कि ध्यान जायेगा। लेकिन जब गुरजिएफ ने कहा तो गया। जंगल गया, में आनंद है, इसलिए ध्यान कर रहा हूं; ध्यान से आनंद मिलेगा, लकड़ियां काटी। जब वह लकड़ियां काट रहा था, तब अचानक इसलिए नहीं-ध्यान ही आनंद है। दान कर रहा हूं, इसलिए घटना घटी। अचानक उसे लगा सारी सुस्ती खो गयी और एक Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 1 बड़ी ऊर्जा का जैसे बांध टूट गया! यहां बिलकुल खाली हो गया इसको ही हिंदुओं ने कल्पवृक्ष की अवस्था कहा है। था शक्ति से; जगह, स्थान निर्मित हो गया था। भीतर जहां | कल्पवृक्ष स्वर्ग में लगा हुआ कोई वक्ष नहीं है। कल्पवृक्ष ऊर्जा भरी है, वहां से टूट पड़ी। बही गड्ढे की तरफ। गड्ढा बन तुम्हारे भीतर की एक चैतन्य अवस्था है। गया था थकान के कारण। ऊर्जा बही और सारा शरीर, बैनेट के उल्लेख से तुम समझ सकते हो कल्पवृक्ष का क्या रोआं-रोआं ऐसी शक्ति से भर गया जैसा कभी भी न हुआ था। अर्थ होगा। कल्पवृक्ष का अर्थ होगा कि जहां साधन और साध्य उसने कभी ऐसी शक्ति जानी ही न थी। उस क्षण उसे लगा, इस का फासला न रहा, जहां दोनों के बीच कोई दूरी न रही। यहां समय मैं जो चाहूं वह हो सकता है। इतनी शक्ति थी! तो उसने साधन हुआ नहीं कि साध्य आ ही गया। एक साथ, युगपत! सोचा, क्या चाहूं? जिंदगीभर सोचा था आनंदित...तो उसने क्षणभर का भी, क्षण के खंड का भी हिस्सा नहीं है-यही कहा, मैं आनंदित होना चाहता हूं। ऐसा भाव करना था कि वह कल्पवृक्ष की धारणा है।। एकदम आनंदित हो गया। उसे भरोसा ही न आया कि आदमी के कल्पवृक्ष की धारणा है कि जिस वृक्ष के नीचे तुम बैठे, इधर बस में है क्या आनंदित होना! चाहते तो सभी हैं—होता कौन तुमने मांगा उधर मिला। ऐसे कोई वृक्ष कहीं नहीं हैं, लेकिन ऐसे है! उसने सोचा कि आनंदित हो जाऊं...यह तो सिर्फ खेल कर वृक्ष तुम बन सकते हो। और उस बनने की दिशा में जो पहला रहा था शक्ति को देखकर। इतनी शक्ति नाच रही थी चारों| कदम है वह यह कि साधन और साध्य की दूरी कम करो। तरफ, रोआं-रोआं ऐसा भरा-पूरा था कि उसको लगा इस क्षण क्योंकि जहां साधन और साध्य मिलते हैं, वहीं वह घटना घटती में तो अगर मैं जो भी चाहूंगा हो जायेगा तो क्या चाहूं! | है कल्पवृक्ष की। 'आनंदित!' ऐसा सोचना था, यह शब्द का उठना और तुमने खूब दूरी बना रखी है। तुम तो सदा दूरी निर्मित था-आनंद-कि उसकी पुलक-पुलक नाच उठी। उसे बस | करते चले जाते हो। तुम कहते हो, कल मिले। तुम्हें यह भरोसा भरोसा न आया। उसने कहा कोई धोखा तो नहीं खा रहा हूं, कोई ही नहीं आता कि आज मिल सकता है, अभी मिल सकता है, सपना तो नहीं देख रहा हूं, कोई मजाक तो नहीं की जा रही है मेरे | इसी क्षण मिल सकता है। साथ। तो उसने सोचा कि उलटा करके देख लूं: दुखी हो जाऊं! तुमने आत्मबल खो दिया है। तुमने जन्मों-जन्मों तक वासना ऐसा सोचना था कि 'दुखी हो जाऊं' कि एकदम गिर पड़ा! के चक्कर में पड़कर...वासना का चक्कर ही यही है: साध्य चारों तरफ जैसे अंधेरा छा गया। जैसे अचानक सूरज डूब गया! | और साधन की दूरी यानी वासना; साध्य और साधन का मिलन जैसे सब तरफ दुख ही दुख और दुख की तरंगें उठने लगीं। वह यानी आत्मा।...तो तुमने इतनी दूरी बना ली है कि इस जन्म में घबराया कि यह तो मैं नर्क में गिरने लगा। यह हो क्या रहा है! भी तुम्हें भरोसा नहीं आता कि मिलेगा, तो तुम कहते हो, अगले उसने कहा, मैं शांत हो जाऊं, वह तत्क्षण शांत हो गया। जन्म में! अगले जन्म पर भी भरोसा नहीं आता, क्योंकि तुम उसने सब मनोभाव उठाकर देखे। फिर तो एक-एक पर प्रयोग जानते हो अपने आपको भलीभांति कि कितने जन्मों से तो भटक करके देखा-क्रोध, घृणा, प्रेम-और जो भाव उसने उठाया रहे हो कुछ मिलता तो नहीं। तो तुम कहते हो, स्वर्ग में, परलोक वही भाव परिपूर्ण रूप से प्रगट हुआ। में; इस लोक में नहीं तो परलोक में। तुम दूर हटाये जा रहे हो। वह भागा हुआ आया। उसने गुरजिएफ को कहा कि चकित हो तुम साध्य और साधन के बीच समय की बड़ी दूरी बनाये जा रहे गया हूं। उसने कहा, अब चकित होने की जरूरत नहीं, चुपचाप हो। यह समय को हटा दो और गिरा दो। सो जा! अब जो हुआ है इसे चुपचाप संभालकर रख और याद कृष्ण कहते हैं, फलाकांक्षा छोड़ दो। उपनिषद कहते हैं, रखना, कभी भूलना मत कि अगर आदमी ठीक स्थिति में हो तो कंजूस मत बनो। महावीर कहते हैं, भव्य हो जाओ। भविष्य के जो चाहता है, वही हो जाता है। गैर-ठीक स्थिति में तुम चाहते | पीछे क्यों पड़े हो? तुम भव्य हो सकते हो। तुमने भविष्य को रहो, चाहते रहो, कुछ भी नहीं होता। ठीक स्थिति में जब भीतर भव्यता दे रखी है। के तार मिलते हैं तो साधन और साध्य की दरी खो जाती है। भव्य का अर्थ हआ : ऐसी घड़ी जहां तम्हें पाने को कुछ भी 498 , Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन की भव्यता : अभी और यहीं नहीं; जहां सब मिला हुआ है। ऐसी परितृप्ति, ऐसा परितोष! वह जो वासना है, उसको भी बड़े फूल खिलाना आता है। तुम तो फिर भी तुम्हारे जीवन से धर्म होता है, लेकिन अब धर्म | अगर भागे संसार से तो वह धर्म के फूल खिलाने लगती है। तुम खेल की तरह है। जैसे कोई संगीतज्ञ अपनी वीणा पर धुन उठाता अगर भागे विचार से तो वह ध्यान के फूल खिलाने लगती है। है-नहीं कि कुछ पाना है, बल्कि इसलिए कि इतना मिला है, हविश को आ गया है गुल खिलाना इसे गुनगुनाए, इसे गाए, इसका स्वाद लेता है, कि कोई नर्तक जरा ए जिंदगी! दामन बचाना। / है नहीं कि कोई देखे; कोई देख ले, यह उसका जरा सावधान रहना। तुम्हारी तष्णा बड़े-बड़े रूप रख लेती सौभाग्य है, न देखे उसका दुर्भाग्य है। है। तृष्णा बड़ी बहुरूपिया है। तुम जैसा रूप चाहते हो वह वैसा | वानगाग के चित्रों को देखने एक आदमी आया। उसे कुछ ही रखकर नाचने लगती है। वह कहती है, चलो यही सही। समझ में न आया कि इन चित्रों में क्या है। उसने इधर-उधर देखा लेकिन जब तक तुम उसको ठीक से पहचान न लोगे, उसके सब और फिर वह जाने लगा तो उसने वानगाग को कहा कि मेरी कुछ रूपों में, जब तुम एक बुनियादी बात न पहचान लोगे कि तृष्णा समझ में नहीं आता। मैं तो यह भी तय नहीं कर सकता कि चित्र | साधन और साध्य की दूरी है...फिर जहां भी साधन और साध्य सीधे लटके हैं कि उलटे लटके हैं। इनमें है क्या? की दूरी हो, समझना कि तृष्णा ने रूप धरा। सावधान हो जाना! वानगाग की आंख में, कहते हैं आंसू आ गये। उस आदमी ने जरा ए जिंदगी! दामन बचाना! कहा कि क्या मैंने आपको दुख पहुंचाया? वानगाग ने कहा, ...तब तुम सावधान हो जाना कि फिर आया भविष्य; कहीं से | नहीं! लेकिन मैं परमात्मा से प्रार्थना करता हूं: काश, तुम्हारे तृष्णा ने द्वार खटखटाया। फिर तुमने कहा, कल-तृष्णा आ पास मेरे जैसी देखनेवाली आंखें होती! तुम बिलकुल अंधे हो, गयी! फिर तुमने कहा, ऐसा हो जाये, ऐसा होता, और उसका इसलिए आंख में आंसू आ गये, और कोई कारण नहीं। तुम आयोजन करने लगे-बस तृष्णा आ गयी! जिस घड़ी तुम जो व्यक्ति धार्मिक है, उसके पास एक आंख है, जो अधार्मिक बैठे हो या चल रहे हो या उठे हो, खड़े हो, और उस घड़ी में कोई के पास नहीं है। उसके पास एक तीसरा नेत्र है। उसके पास तृष्णा नहीं है-तुम बैठे हो तो बस बैठे हो आनंदित; खड़े हो तो दिव्य चक्षु है। और वह दिव्य चक्षु प्रत्येक चीज को भव्य कर खड़े हो आनंदित; चल रहे हो तो चल रहे आनंदित-जीवन के देता है, सुंदर कर देता है। वह जहां भी आंख डालता है, वहीं ये छोटे-छोटे कर्म भव्य हो जाते हैं। मिट्टी सोना हो जाती है। वह जहां हाथ रखता है. वहीं मिट्टी सोने झेन फकीर कहते हैं, जिसने साधारण में असाधारण को खोज में बदल जाती है। वह जिस तरफ उठता है, बैठता है, उसी तरफ लिया, उसी ने खोजा। जो असाधारण के चक्कर में लगा है, वह कल्पवृक्ष निर्मित होने लगता है। | तो साधारण ही रह जायेगा। क्योंकि असाधारण का चक्कर यह तुम्हारे बस में है कि तुम भव्य हो जाओ। लेकिन भव्य | तृष्णा का चक्कर है। होने का एक ही उपाय है कि भविष्य गिर जाए। भविष्य से ले लो एक झेन फकीर से किसी ने पूछा कि जब तुम ज्ञान को उपलब्ध वापस, तुमने जो भव्यता उसे दी है। और उस भविष्य से छीनी नहीं हुए थे, तब तुम क्या करते थे? उसने कहा, लकड़ी काटता गयी भव्यता को अपने हृदय में आरोपित करो। था, कुएं से पानी भरकर लाता था। और उसने पूछा, अब जब 'अभव्य जीव धर्म को भोग का निमित्त समझकर करता है कि तुम ज्ञान को उपलब्ध हो गये हो, अब क्या करते हो? उसने कर्मक्षय का कारण समझकर नहीं।' / कहा, अब भी लकड़ी काटता हूं, अब भी कुएं से पानी भरकर वह तो धर्म से भी कर्म का जाल ही फैलाता है, कर्म का क्षय लाता हूं। तो उसने कहा, फिर फर्क क्या है? फर्क बहुत बड़ा नहीं होता। वह तो धर्म के नाम पर ही इस संसार की ही वृत्तियों | है। पहले भी कुएं से पानी भरकर लाता था, लेकिन कुछ पाने की को फिर-फिर आरोपित कर लेता है। आकांक्षा थी उसके द्वारा; पहले भी लकड़ी काटता था, लेकिन हविश को आ गया है गुल खिलाना वासना कहीं भविष्य में थी। जरा ए जिंदगी! दामन बचाना। ...अब भी लकड़ी काटता है, अब भी पानी भरकर लाता 499 www.jainelibrary org Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग 1 है-करोगे भी क्या? जीवन तो इन्हीं छोटी-छोटी चीजों से | और अशभ परिणाम पाप है। फिर धर्म क्या है? धर्म पाप और मिलकर बना है। लकड़ी भी काटोगे, पानी भी भरकर लाओगे, पुण्य से मुक्ति है-न दिया और न छीना। धर्म अनन्यगत, दूसरे घर में बुहारी लगाओगे, खाना बनाओगे, कपड़े धोओगे, स्नान से मुक्त हो जाना है। करोगे, भोजन करोगे, सोओगे, उठोगे, बैठोगे, चलोगे-जीवन | 'अर्थात स्व-द्रव्य में प्रवृत्त परिणाम है, जो यथासमय दुखों के इन्हीं छोटे-छोटे अणुओं से बना है। क्षय का कारण होता है।' लेकिन फर्क एक आ जायेगा। ये महावीर के मूल आधार-सूत्र हैं, 'स्व-द्रव्य में प्रवृत्त कृत्य भव्य हो जाता है जब उसमें कोई तृष्णा नहीं होती। जैसे | परिणाम!' ये उनके पारिभाषिक शब्द हैं। ही तृष्णा से छूटा कि कृत्य पवित्र हुआ। जो अपने में ही रमण कर रहा है... लेकिन हम तो ऐसे उलझ गये हैं तृष्णा में कि कभी-कभी जहां तुम बैठे हो, कुछ भी नहीं कर रहे हो, सिर्फ बैठे हो : अपने में उलझे हैं वहां से भाग भी खड़े होते हैं तो और सब तो छोड़ ही रमण हो रहा है! तुम अपने में ही डूबे हो, लीन हो, तल्लीन जाते हैं लेकिन तष्णा हमारे साथ चली जाती है। हो। मन कहीं जा ही नहीं रहा है। न भविष्य में जा रहा है, न ये न जाना था इस महफिल में दिल रह जायेगा दूसरे में जा रहा है। क्योंकि दूसरे में भी जाना भविष्य में जाना हम ये समझे थे चले आयेंगे दमभर देखकर। है। तुम दूसरे का कोई चिंतन ही नहीं कर रहे-सारा चिंतन रुक लेकिन लगाव कुछ ऐसा बन जाता है कि दिल महफिल में रह गया है। तुम विचार ही नहीं कर रहे हो, क्योंकि सभी विचार जाता है और महफिल दिल में समा जाती है। फिर तुम भागते दुसरे के हैं। तुम सिर्फ हो। फिरते हो, लेकिन कुछ अंतर नहीं पड़ता। तुम जहां जाते हो फिर यह स्व-द्रव्य में होना-तुम मात्र हो, कुछ भी नहीं हो रहा है। वहां एक संसार खड़ा हो जाता है, क्योंकि संसार का जो तुम कोई संबंध निर्मित नहीं कर रहे। तुम कोई सेतु नहीं बना रहे। 'ब्लू-प्रिंट' है, उसका जो बुनियादी नक्शा है, वह तुम्हारी तृष्णा दूसरे के पास जाने की कोई आकांक्षा नहीं। दूसरे से दूर जाने की भी कोई आकांक्षा नहीं। दूसरा तुम्हारी कल्पना के लोक में है ही 'वह अभव्य जीव नहीं जानता कि पर-द्रव्य में प्रवृत्त शुभ नहीं। बस अकेले तुम अपने से भरे हो! अपने से भरपूर, परिणाम पुण्य है और अशुभ परिणाम पाप है। धर्म अनन्यगत लबालब, कहीं जाते हुए नहीं! तरंग भी नहीं, लहर भी नहीं। अर्थात स्व-द्रव्य में प्रवृत्त परिणाम है, जो यथासमय दुःखों के क्योंकि लहर भी कहीं जाती है। तुम बस यहीं हो। ऐसी घड़ी को क्षय का कारण होता है।' | महावीर कहते हैं धर्म। 'पर-द्रव्य में प्रवृत्त शुभ परिणाम पुण्य है।' पुण्य की लहर उठी-और अगर लहर दूसरे के हित में हुई तो पुण्य, परिभाषा महावीर कर रहे हैं। दूसरे के साथ शुभ परिणाम का अहित में हुई तो पाप। लहर ही न उठी, तुम स्व-द्रव्य में लीन संबंध पुण्य है। अन्य के साथ शुभ परिणाम का संबंध पुण्य है। | बैठे रहे तो धर्म। तो धर्म पुण्य और पाप के पार है। तुमने किसी को दान दिया-एक संबंध निर्मित हुआ। लेकिन जो पुण्य और पाप के पार है उसका भविष्य नहीं हो सकता। पण्य का संबंध है-तमने दिया। तमने किसी से छीन लिया, तुम अपने में तो बस अभी और यहीं हो सकते हो—यही वर्तमान चोरी की, तो फिर एक संबंध बना-तुमने किसी से छीना! दोनों | के क्षण में। तुम अपनी आत्म-सत्ता का अनुभव कर सकते हो, अलग-अलग हैं। किसी को दिया-छीनने से बिलकुल उलटा क्योंकि सत्ता उपलब्ध ही है। उसके लिए कल तक रुकने की है। छीनना देने से बिलकुल उलटा है। देना पुण्य है, तो छीनना जरूरत नहीं; यह कहने की जरूरत नहीं कि कल अपने में प्रवेश पाप है। करूंगा। हां, दूसरे में प्रवेश करना हो तो कल तक रुकना लेकिन दोनों हालत में एक बात है समान–दूसरा मौजूद है। | पड़ेगा; दूसरे को राजी करना होगा, समझाना-बुझाना पड़ेगा। दिया तो दूसरे को, छीना तो दूसरे से। दूसरा तो है ही! लेकिन अपने में प्रवेश करना हो तो इसके लिए तो कल तक तो महावीर कहते हैं, पर-द्रव्य में प्रवृत्त शुभ परिणाम पुण्य है छोड़ने की जरूरत नहीं। इसके लिए तो कोई भी साधन जरूरी 500 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन की भव्यता: अभी और यहीं नहीं है। क्योंकि वहां तो तुम हो ही; सिर्फ थोड़ा विस्मरण हुआ दुबारा बीज मत बोना। जो लग गए हैं फल वह तो पकेंगे और है। स्मरण आते ही तुम अचानक पाते हो कि तुम सदा अपने घर गिरेंगे-पककर ही गिरेंगे; परिपक्व होकर ही गिरेंगे। में थे। यह अपने घर में होना धर्म है। उन्हें चुपचाप स्वीकार कर लेना। बड़ा दुख होगा, उसे स्वीकार पाप तो बांधता ही है, पुण्य भी बांध लेता है। इसलिए महावीर | कर लेना। उसी को महावीर तप कहते हैं। जो दुख हमने बोये थे कहते हैं, जिसने पुण्य को धर्म समझा, उसने अभी धर्म को नहीं और अब पक गए हैं, अब उन दुखों को हमें भोगना होगा। उन्हें समझा। उसने अपनी पाप की वृत्ति को ही सजा लिया, सुंदर चुपचाप भोग लेना। उनके प्रति कोई भी प्रतिक्रिया न करना। बना लिया; लेकिन पाप को जाना नहीं कि पाप क्या था। पाप यह भी मत कहना कि यह बुरा है। उन्हें हटाने की कोशिश मत यही था कि अपने से बाहर चले गये थे। दूसरे की हत्या करने करना। उनसे बचने और भागने की कोशिश मत करना। क्योंकि गये थे कि दूसरे को बचाने गये थे, दोनों बातें बराबर हैं। अपने तुम्हारी सब कोशिश विलंब करेगी। से बाहर चले गये थे। वहीं मौलिक पाप हो गया। तुम तो अहोभाव से स्वीकार कर लेना कि अहो, जो दुख बोये सितम है ऐ रोशनी सितम है कि वह भी अब धूप की है जद में थे उनके फल पक गये और दुख भोगने का क्षण आ गया। जरा-सा साया जो रह गया था घने दरख्तों की तीरगी में। धन्यभागी हूं, छुटकारा हुआ! तुम बैठे हो छिपे, दरख्तों के नीचे, थोड़ी-सी छाया है, भरी सद चाक हुआ गो जाम-ए-तन मजबूरी थी सीना ही पड़ा दोपहरी में-लेकिन धीरे-धीरे धूप वहां भी पहुंच जाती है। मरने का वक्त मुकर्रर था, मरने के लिए जीना ही पड़ा। धीरे-धीरे धूप उसे भी छीन लेती है। महावीर कहते हैं, जीना ऐसे जैसे कि मरने का वक्त तो तय है। सितम है ऐ रोशनी! सितम है कि वह भी है अब धूप की जद तो क्या करें, जीना पड़ेगा! और जीवन के लिए व्यवस्था ऐसे ही में-वह भी आ गया अब धूप के घेरे में-जरा-सा साया जो जुटा लेना जैसे कि अब जीना है, फटे वस्त्र हैं तो सी लेता है रह गया था घने दरख्तों की तीरगी में। आदमी। सद चाक हुआ गो जाम-ए-तन मजबूरी थी सीना ही तो पहले आदमी पाप से बचता है और पुण्य की छाया में बैठना पड़ा-हजार-हजार बार कपड़े फट गये; लेकिन मजबूरी थी, चाहता है। लेकिन ज्यादा देर नहीं लगती कि पता चलता है पुण्य विवशता थी-सीना ही पड़ा। मरने का वक्त मुकर्रर था, मरने भी पाप का ही विस्तार है। ज्यादा देर नहीं लगती कि पता चलता के लिए जीना ही पड़ा। है कि पुण्य भी सजायी हुई बेड़ी है, जंजीर है। जल्दी ही पता चुपचाप, हर हाल उस समय तक प्रतीक्षा करनी होगी जब पाप चलता है कि यह भी डूब गया पाप में। के फल पक जाएं और गिर जाएं-यथासमय। महावीर कहते जिस दिन पुण्य भी पाप जैसा दिखायी पड़ने लगता है, उस दिन हैं, वह अपने-आप! जैसे फलों के पकने का समय है, मौसम व्यक्ति धर्म को उपलब्ध होता है। | है, ऐसे सारे जीवन के कर्मों के पकने का समय है। वह महावीर की धर्म की परिभाषा बड़ी पराकाष्ठा की है, अपने-आप पक जाते हैं, तुम्हें उनकी चिंता नहीं करनी। तुम आत्यंतिक है; उससे ज्यादा शुद्ध परिभाषा खोजनी मुश्किल है। भविष्य की चिंता छोड़ो! तुम वर्तमान में, स्वयं में, स्व-परिणाम 'धर्म है अनन्यगत अर्थात स्व-द्रव्य में प्रवृत्त परिणाम और तब में लीन होना सीखो। धीरे-धीरे बाकी सब अपने से आप यथासमय दुखों के क्षय का कारण होता है।' यथासमय हो जायेगा। उसका तुम्हें हिसाब भी नहीं रखना। जब वह तुम्हें सोचना नहीं है कि दुख क्षय हों या दख के कारणों का | पाप का फल आये और दुख हो, पीड़ा हो, तो उसे स्वीकार कर क्षय हो। वह तो यथासमय हो जाता है। यह यथासमय की बात | लेना। वही तप है। भी समझ लेनी चाहिए। 'जो पुण्य की इच्छा करता है, वह भी संसार की ही इच्छा महावीर कहते हैं, हमने पाप किये जन्मों-जन्मों, बीज बोए, करता है। पुण्य सुगति का हेतु अवश्य है। किंतु निर्वाण तो पुण्य वृक्ष लगाए। यथासमय फल पकेंगे और गिर जायेंगे। उसमें के क्षय से ही होता है।' जल्दी नहीं की जा सकती। इतना ही किया जा सकता है कि महावीर कहते हैं, शुभ है पुण्य की इच्छा करना; लेकिन है 1501 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग संसार की ही इच्छा। इसलिए पुण्य की इच्छा पर ही मत रुक तक चेष्टा है, वासना है, तब तक पीड़ा ही हाथ आती है। जब जाना। पुण्य की इच्छा करना ताकि पाप से छुटकारा हो सके। तक मांगना है, तब तक परम संपदा नहीं मिलती। एक कांटा लग जाए, दूसरे से निकाल लेते हैं ऐसे ही पुण्य की | यहां मांगने से भीख नहीं मिलती, परम संपदा कहां मिलेगी! इच्छा करना ताकि पाप निकल जाये। लेकिन जब एक कांटा परम संपदा मिलती है सम्राटों को, जिन्होंने भीतर के क्षीर-सागर निकल जाये तो दूसरे को घाव में मत रख लेना। दूसरा भी उतना पर अपनी ही ऊर्जा के शेषनाग की कुंडलिनियों पर विश्राम लगा ही कांटा है; माना कि पहले को निकालने में सहयोगी हुआ। दिया है, बिस्तर लगा दिया है। धन्यवाद दे देना और दोनों को फेंक देना। पाप जब निकल जाये नहीं, बाहर कोई जगह नहीं है इस जीवन के मरुस्थल में जहां तो पुण्य को मत सम्हालने लगना; अन्यथा संसार ही सम्हाला विश्राम मिल सके। यहां तो दौड़ना ही दौड़ना होगा। यहां तो हर जाता है। बिंदु जो विश्राम का मालूम पड़ता है, केवल नयी दौड़ का प्रारंभ __ 'जो पुण्य की इच्छा करता है वह भी संसार की ही इच्छा करता सिद्ध होता है। सोचकर आते हैं कि अब, अब विश्राम का क्षण है। पुण्य सुगति का हेतु है, किंतु निर्वाण तो पुण्य के क्षय से ही आया; पहुंचते-पहुंचते विश्राम का क्षितिज और आगे सरक होता है।' जाता है। इधर अंधेरे की लानते हैं, उधर उजाले की जहमतें हैं वासना में कभी किसी ने विश्राम नहीं जाना। विश्राम वहां नहीं तेरे मुसाफिर लगाएं बिस्तर कहां पे सहराए-जिंदगी में? बड़ी कठिनाई है! इधर अंधेरे की लानते हैं—यहां अंधेरे की जहां तृष्णा शून्य हो जाती है। तकलीफें हैं। उधर उजाले की जहमतें हैं—उधर प्रकाश की भी 'अशुभ कर्म को कुशील और शुभ कर्म को सुशील जानो।' झंझटें हैं। इधर पाप सताता है, उधर पुण्य भी सताता है। तेरे इस वचन को गौर से सुनना। मुसाफिर लगाएं बिस्तर कहां पे सहराए-जिंदगी में? यह जो 'अशुभ कर्म को कुशील और शुभ कर्म को सशील जानो। जिंदगी का मरुस्थल है, इस पर कहां विश्राम करें? इस जिंदगी किंतु उसे सुशील कैसे कहा जा सकता है, जो संसार में प्रविष्ट के मरुस्थल में विश्राम की कोई जगह नहीं। विश्राम की जगह तो कराता है ?' मुसाफिर के भीतर है। यहां बाहर बिस्तर लगाया तो भटके। पहले महावीर कहते हैं, अशुभ कर्म को कुशील, शुभ कर्म को यहां तो भीतर बिस्तर लगाना होगा। उस भीतर बिस्तर लगाने सुशील जानो। तत्क्षण दूसरे वाक्य में खंडन करते हैं। कहते हैं, को महावीर कहते हैं, 'अनन्यगत; स्व-द्रव्य में प्रवृत्त किंतु उसे सुशील कैसे कहा जा सकता है जो संसार में प्रविष्ट परिणाम।' लगा लिया भीतर बिस्तर! कराता है? तर्क से भरी हुई बुद्धि को लगेगा, यह क्या मामला देखा विष्णु को, सो रहे हैं क्षीर-सागर में! लगाया बिस्तर | है! यह तो वक्तव्य तत्क्षण विपरीत हो गया। एक वाक्य पहले क्षीर-सागर में! कथा प्रीतिकर है! ही कहा कि अशुभ को कुशील, शुभ को सुशील जानो-और [ अर्थ है: अमृत का सागर, जिसका कोई अंत | फिर कहते हैं कि सुशील कैसे जाना जा सकता है शुभ को, नहीं आता। उस पर बिस्तर लगा है। और बिस्तर किसका है? क्योंकि वह संसार में प्रवेश कराता है! शेषनाग का। उसने कुंडली मारी है। ___ यह दो तलों के लोगों के लिए कहा गया वक्तव्य है। महावीर नाग प्रतीक है तुम्हारी ऊर्जा का, कुंडलिनी का, तुम्हारे भीतर | जैसे व्यक्तियों के वक्तव्यों में अगर असंगति मिले तो इतना ही छिपी हुई ऊर्जा का। उसी ऊर्जा की कुंडली मारकर अनंत के | समझना कि वह वक्तव्य कई तलों पर दिये गये हैं। पहले वे कह सागर पर जो बिस्तर लगाकर लेट गया है...! लक्ष्मी उसके पैर रहे हैं उससे, जो पाप में रत है। उससे वे कह रहे हैं कि अशुभ दबाती है! सारे सुख उसके पैर दबाने लगते हैं। सब वैभव कर्म को कुशील जान, शुभ कर्म को सुशील। फिर जब वह पाप सहज ही उसे उपलब्ध हो जाते हैं। नहीं कि वह उनकी चेष्टा से मुक्त हो गया है, तो वे उससे कहते हैं, 'लेकिन सुन! उसे करता है। जब तक चेष्टा है तब तक दुख ही पैर दबाता है। जब सुशील कैसे कहा जा सकता है जो संसार में प्रविष्ट कराता है? 502] Jan Education International Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन की भव्यता : अभी और यहीं यह भी सुशील नहीं है। यह तो कामचलाऊ बात थी, चलाने जैसा क्या है? वह तो मजबूरी से कर रहा है कि खूब पाप व्यवहारिक थी। किए हैं, अब उनको धोना है; खूब गंदगी इकट्ठी कर ली है, अब महावीर ने कहा है, वक्तव्य उनके दो आधारों पर स्नान करना है। तो तुम स्नान-घर अपना मकान के सामने थोड़े हैं-व्यवहारिक-नय और निश्चय-नय। एक वक्तव्य ऐसा है ही बनाते हो—कि खड़े हैं बीच सड़क पर और स्नान कर रहे हैं; जो व्यवहारिक है। एक कांटे को दूसरे कांटे से निकालना है; कि सारा गांव देख ले कि कैसे स्वच्छ हो रहे हैं! स्नान-घर में तो इसलिए वे कहते हैं, यह कांटा बड़ा शुभ है, इससे तुम लगे हुए तुम छिपकर चुपचाप स्नान कर लेते हो। तुम्हारा पुण्य का गृह भी कांटे को निकाल लो। जब कांटा निकल जाता है तब वे निश्चय ऐसा ही छुपा होना चाहिए। क्योंकि अगर तुमने इससे प्रशंसा वक्तव्य देते हैं। वे कहते हैं, अब दोनों कांटों को फेंक दो क्योंकि पायी तो यह एक नया उपद्रव बन जायेगा। तो फिर तुम प्रशंसा कोई कांटा सुशील कैसे हो सकता है! कांटा तो दुशील ही है, पाने का जो मजा है उसके लिए पुण्य करने लगोगे। फिर भव्य न कुशील ही है। रहे, अभव्य हो गए। तो महावीर की सारी वाणी दो तलों पर है। एक तल है जहां तो पुण्य को जो चुपचाप करे वही भव्य है। पुण्य की जो तुम खड़े हो, तुमसे बोल रहे हैं। और दूसरा तल है जब तुम घोषणा करके करे वह अभव्य है। लेकिन हम तो पुण्य करते ही उनकी सुन लोगे, समझ लोगे, मान लोगे, तब तत्क्षण वे तुमसे इसलिए हैं ताकि घोषणा हो। हम तो पुण्य करने के लिए राजी ही कहेंगे, अब इस कांटे को पकड़कर पूजा मत करने लगना। इसीलिए होते हैं, पुण्य के लिए थोड़े ही, घोषणा के लिए। पुण्य अच्छा है कामचलाऊ दृष्टि से; क्योंकि पाप से छुटकारा जो लोग दान इकट्ठा करते हैं वे भलीभांति जानते हैं। वे गांव के दिलाने में सहयोगी है। लेकिन इसको पकड़कर मत बैठ जाना। दो-चार धनी-मानी व्यक्तियों से पहले लिस्ट पर नाम लिखवा पुण्य ही तुम्हारे जीवन की अंतिम दिशा न बन जाये। अन्यथा लाते हैं। वे कहते हैं, न देना आप दस हजार, देना हजार; बीमारी से छूटे, औषधि से पकड़ गये। औषधि शुभ है, बीमारी लेकिन लिख तो दो दस हजार, ताकि दूसरे लोगों को देखकर से छुटा देने को; लेकिन औषधि की पूजा मत करना। पुण्य के लगे कि फलां ने दस हजार दिये, ईर्ष्या जगे, स्पर्धा पैदा हो गुणगान मत गाना। 'अच्छा तो यह अपने को समझता क्या है! दस हजार दिये तो लेकिन यही होता है। एक आदमी जरा-सा दान कर देता है तो लिखो ग्यारह हजार!' उसकी चर्चा करता है। न केवल चर्चा करता है, आयोजन करता दान के लिए भी अहंकार को ही फुसलाना पड़ता है। पुण्य के है कि लोग जानें कि इसने दान किया; अखबार में खबर छपे, | लिए भी बीमारी को ही खुजलाना पड़ता है। फिर जब दान हो फोटो छपे कि इसने दान किया। जाए तो दानी प्रतीक्षा करता है: अब प्रतिफल! शोभा-यात्रा महावीर कहते हैं, दान किया, यह तो ऐसा ही था कि पाप किया निकले। बैंड-बाजे बजें! सारे गांव में चर्चा हो! दूर-दूरदिगंत था, उसका प्रक्षालन किया; पाप किया था, उसका पश्चात्ताप तक उसकी खबर पहुंचे! किया- इसमें शोरगुल क्या मचा रहे हो? किसी आदमी को एक सज्जन मुझे मिलने आये थे। पत्नी भी साथ थी। तो पत्नी टी. बी. हो गयी थी, उसने दवा ली, ठीक हो गया तो वह ने मुझसे कहा कि शायद आपको मेरे पति का परिचय नहीं है। कोई अखबारों में खबर देने जाता है कि देखो, मैं कैसा महापुरुष, पत्नी मुझे एक-दो बार आकर मिल गयी थी। मैंने कहा कि ये कि दवा ली और ठीक हो गया! तो हम उसे पागल कहेंगे। पहली दफे आये हैं। उसने कहा, 'ये बड़े दानी हैं। एक लाख महावीर कहते हैं, खूब पाप किया है, थोड़ा-थोड़ा पुण्य करके | रुपया अब तक दान कर चुके हैं।' उसे छांटते हो, तो इसमें शोरगुल मचाने की कोई जरूरत नहीं। पति ने तत्क्षण पत्नी का पैर दबाया और कहा, 'एक लाख नहीं तो वास्तविक पुण्यात्मा व्यक्ति तो ऐसे करेगा पुण्य कि एक हाथ | एक लाख दस हजार!' वह दस हजार भी कम बोल रही है तो से करे और दूसरे हाथ को पता न चले। चुपचाप करेगा। पता ही पति को कष्ट हो गया; सुधार किया। नहीं चले किसी को क्योंकि पुण्य तो पश्चात्ताप है, इसमें पता दानी दान से मान इकट्ठा नहीं कर सकता। दानी मानी नहीं हो 503 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः 1 सकता। क्योंकि जो मानी है वह दानी कैसे हो सकेगा? थोड़ी देर पुण्य में विश्राम कर लेना-लेकिन जाना है मोक्ष। तो महावीर कहते हैं, 'अशुभ कर्म को कुशील और शुभ को ये मय छलक के भी उस हुस्न को पहंच न सकी सुशील जानो किंतु उसे सुशील कैसे कहा जा सकता है जो संसार | ये फूल खिलके भी तेरा शबाब हो न सका। में प्रविष्ट करा दे?' नहीं वह भी कुशील है अंततः। अगर पाप पुण्य को कितना ही छलकाओ, पुण्य को कितना ही प्रदर्शित की दृष्टि से सोचो तो पुण्य सुशील है। अगर मोक्ष की दृष्टि से | करो, इससे तुम्हारा भव्य रूप प्रगट न होगा। शुभ रूप प्रगट सोचो तो पुण्य कुशील है! होगा, भव्य रूप नहीं क्योंकि भव्य तो शुभ से भी उतना ही दूर है इसलिए महावीर के सभी वक्तव्य दृष्टि-वक्तव्य हैं। इसको | जितना शुभ अशुभ से दूर है। भव्य तो बड़ा लोकतीत है। महावीर की परिभाषा में 'नय' कहते हैं-देखने का एक ढंग। ये मय छलक के भी उस हस्न को पहंच न सकी महावीर कहते हैं, कोई भी वक्तव्य निरपेक्ष नहीं है, सापेक्ष है। ये फूल खिलके भी तेरा शबाब हो न सका।। तुम कहते हो, फलां आदमी बहुत लंबा। इसका कोई मतलब वह जो तुम्हारा परम सौंदर्य है, जो अंतसौंदर्य है, उसको पुण्य नहीं होता, क्योंकि कोई ऊंट से लंबा नहीं होगा, पहाड़ से लंबा | भी नहीं छू सकता। क्योंकि पुण्य भी कृत्य है। कृत्य कितना ही नहीं होगा, झाड़ से लंबा नहीं होगा। तुम जब कहते हो फलां | बड़ा हो, आत्मा से छोटा होता है। कृत्य कितना ही बड़ा हो, आदमी लंबा, तो तुम मानकर चलते हो कि आदमी की एक कर्ता से छोटा होता है। तुमने जो किया है वह तुमसे बड़ा नहीं हो सामान्य ऊंचाई है, छह फीट, वह सात फीट है। लेकिन पहाड़ | सकता। करनेवाला सदा ही बड़ा है। के नीचे है। यह बड़ा मूलभूत दृष्टिकोण है कि कर्ता कृत्य से बड़ा है। जिस कहते हैं, ऊंट पहाड़ के पास जाने से डरते हैं। डरते होंगे, | जीवन की ऊर्जा से छोटी-छोटी लहरें पुण्य की उठती हैं, वे लहरें क्योंकि जब रेगिस्तान में चलते रहते हैं तो वही पहाड़ है। जब उस जीवन-ऊर्जा से बड़ी नहीं हो सकतीं। सागर में कितनी ही पहाड़ करीब आने लगता है तो दीनता प्रगट होती है। बड़ी लहर उठती हो, सागर से बड़ी नहीं हो सकती। हमारे सभी वक्तव्य सापेक्ष हैं। एक दृष्टि से ठीक होंगे, तुम सोच सकते हो सागर में ऐसी कोई लहर कभी उठ सकती तत्क्षण दूसरी दृष्टि से गलत हो जायेंगे। है जो सागर से बड़ी हो? असंभव! कितनी ही बड़ी लहर उठे, आइंस्टीन ने तो बहुत बाद में, ढाई हजार साल बाद महावीर | एक बात तय रहेगी कि सागर से छोटी रहेगी। अब तुम कोई के, विज्ञान के जगत में सापेक्षता का नियम सिद्ध किया। पर चाय की प्याली में थोड़े ही सागर की लहर उठा सकते हो। चाय महावीर ने ढाई हजार साल पहले धर्म के जगत में वही नियम की प्याली में चाय की प्याली की ही लहर उठेगी। वह चाय की सिद्ध किया था। प्याली से छोटी रहेगी। महावीर और आइंस्टीन बड़े एक साथ खड़े हैं। जो दान | महावीर कहते हैं कि जो हमारी अंतरात्मा है वह विराट है। महावीर का धर्म के जगत में है, वही दान आइंस्टीन का विज्ञान के | कृत्य तो छोटी-छोटी तरंगें हैं। उन छोटी-छोटी तरंगों को तुम जगत में है। आइंस्टीन ने डांवांडोल कर दिया विज्ञान का सारा | सब कुछ मत मान लेना। वे पुण्य की भी हों तरंगें तो भी तुम्हारे जगत। सारी चीजें सापेक्ष हो गयीं। निरपेक्ष कोई वक्तव्य न परम सौंदर्य को न छू पायेंगी। और कितने ही पुण्य के फूल रहा। कोई ऐसा वक्तव्य नहीं है जो तुम बिना किसी शर्त के कह | खिलते जाएं तो भी तुम्हारे परम सौंदर्य के सामने चरणों में चढ़ाने सको। सभी वक्तव्यों के पीछे शर्त है। | के योग्य भी न हो पायेंगे। महावीर ने भी कहा, सभी वक्तव्यों के पीछे शर्त है। इसलिए इस संसार में तो हम जो भी करते हैं वह कृत्य है। पुण्य करें, इसमें तुम विरोध मत देखना और विसंगति मत देखना। यह दो | पाप करें; अच्छा करें, बुरा करें-जो भी हम बाहर करते हैं वह दृष्टियों से कही गयी बात है। कृत्य है। जो भीतर बैठा है, करने के पार, साक्षी-वह इस कितनी ही चेष्टा करो, पुण्य के द्वारा तुम्हारा परम रूप प्रगट न | संसार का हिस्सा नहीं है। हो सकेगा। पुण्य बीच की मंजिल हो सकती है। पाप से हटकर | वही है हमारा परम सौंदर्य। वही है मुक्ति, मोक्ष। 504 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन की भव्यता : अभी और यहीं - मेरी रंगतें न निखर सकीं, मेरी निहकतें न बिखर सकीं | खोज, विराट में ही सुख है। मैं वह फूल हूं कि जो इस चमन में गिला-गुजारे सबा रहा। 'बेड़ी सोने की हो चाहे लोहे की, पुरुष को दोनों ही बेड़ियां तुम कितनी ही लाख चेष्टाएं करो, तुम्हारे कृत्यों के कारण बांधती हैं। इस प्रकार जीव को उसके शुभ-अशुभ कर्म बांधते तुम्हारा रंग न निखरेगा। पाप से तो निखरेगा ही कैसे। और कालिख लग जायेगी। पुण्य से भी न निखरेगा। कितना ही सोना महावीर कहते हैं, बेड़ी सोने की या लोहे की, दोनों बांध लेती चढ़ा लो अपने ऊपर, तो भी न निखरेगा। | हैं। तुम इससे प्रसन्न मत हो जाना कि तुम कारागृह में बड़े खास मेरी रंगतें न निखर सकी, मेरी निहकतें न बिखर सकी कैदी हो। तुम्हारे हाथ में सोने की जंजीरें पड़ी हैं; दूसरे साधारण और न तुम्हारी सुगंध बिखर सकेगी तुम्हारे कृत्यों से। क्योंकि कैदी हैं, लोहे से बंधे हैं—इससे तुम बहुत ज्यादा प्रसन्न मत हो | तुम अपने कृत्यों से बहुत बड़े हो। | जाना। भिखारी बंधा होगा लोहे की जंजीरों में, सम्राट बंधा है मैं वह फूल हूं कि जो इस चमन में गिला-गुजारे सबा रहा। सोने की जंजीरों में। लेकिन असली सवाल तो बंधे होने का है। तुम्हारी शिकायत बनी ही रहेगी-तुम कितने ही बुरे कर्म तो जो बुरा कर्म करता है, वह भी बंधा हुआ है। पापी तो बंधा ही | करो; तुम नादिर हो जाओ, चंगेज हो जाओ, तैमूर, हिटलर हो | होता है, पुण्यात्मा भी बंधा होता है। और कभी-कभी तो ऐसा जाओ; या तुम कितने ही पुण्य-कर्म करो। तुम सम्राट अशोक होता है कि पुण्यात्मा पापी से भी ज्यादा बंधा होता है। क्योंकि हो जाओ कि सम्राट वू हो जाओ; तुम कितने ही पुण्य-कर्म करो पापी तो लोहे की बेड़ियां छोड़ना चाहता है; पुण्यात्मा सोने की | तो भी तम्हारा अंतिम निखार कृत्य से आनेवाला नहीं है। बेड़ियां बचाना चाहता है। तुम कृत्य से बड़े हो। ऐसे लहरों को निखार-निखारकर कहीं तो कभी-कभी तो ऐसा हो जाता है कि अपराधी भी छूटने को सागर निखरेगा? | उत्सुक होता है, लेकिन साधु छूटने को उत्सुक नहीं होता। सागर तो निखरेगा साक्षी-भाव में। सागर तो निखरेगा अनन्य क्योंकि उससे तुम कैसे छूटने को उत्सुक होओगे जिससे बड़ा भाव से स्व-द्रव्य में लीन हो जाने से। सुख मिल रहा है और जिसके कारण बड़ा सम्मान मिल रहा है। उपनिषदों में बड़े बहुमूल्य वक्तव्य हैं: 'यो वै भूमा जिसके कारण अहंकार भरता है, फलता-फूलता है! तत्सुख'- विशाल में है सुख। विराट में है सुख। 'नाल्पे तो कभी-कभी तो ऐसा हुआ है कि वे लोग अभागे हैं जिनके सुखमस्ति'-लघु में सुख कहाँ! छोटे में सुख कहां! 'भूमैव हाथ में सोने की जंजीरें पड़ी हैं; वे उनको बचाने लगते हैं: वे सुख'-निश्चय ही विराट में ही सुख है। 'भूमा त्वेव उनको आभूषण समझने लगते हैं। विजिज्ञासितव्यः।' इसलिए उस एक विराट को ही जानने को 'अतः परमार्थतः दोनों ही प्रकार के कर्मों को कुशील जानकर आकांक्षा कर। विराट! जहां कोई सीमा नहीं, जिसकी कोई उनके साथ न राग करना चाहिए और न उनका संसर्ग। क्योंकि परिभाषा नहीं! कशील कर्मों के प्रति राग और संसर्ग करने से स्वाधीनता नष्ट महावीर कहते हैं, वह विराट तुम्हारे भीतर छपा है। तम्हारे होती है।' कृत्य तो छोटी-छोटी ऊर्मियां हैं-शुभ और अशुभ-लेकिन और स्वाधीनता महावीर के लिए परम मूल्य है-अल्टीमेट सभी ऊर्मियां हैं। दूसरे के किनारे की तरफ चल पड़ती हैं। जब वैल्यू! उसके पार कुछ भी नहीं। जब तुम परिपूर्ण स्वाधीन हो, क्योंकि किनारे की तरफ कुछ भी नहीं जा रहा है। जब सागर में स्वाधीनता पर कोई बाधा नहीं, अनवरुद्ध तुम्हारी स्वतंत्रता कोई ऊर्मियां नहीं होती तो सागर किनारे से टूटा होता है-तभी तुम विराट हो, तभी तुम भूमा हो। तब तुम छोटे न है-तटहीन। तब सागर विराट होता है। रहे। और स्वतंत्रता तो दोनों से ही नष्ट हो जाती है। इसलिए न _ 'यो वै भूमा तत्सुख'-विराट में सुख है। 'नाल्पे पाप को पकड़ना न पुण्य को; न संसार को पकड़ना, न त्याग सुखमस्ति'-छोटे में कहां सुख! 'भूमैव सुख'-विराट को को। संसार को मत पकड़ना, संन्यास को मत पकड़ना। संसार 505 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | जिन सूत्र भाग : 1 छोड़ने के लिए संन्यास का उपयोग कर लेना, बस। फिर उससे लेने को आये हो, अभी जल्दी मत करो।' पर उन्होंने कहा, भी पार हो जाना। अगर अंततः छोड़ ही देना है तो लेने से सार क्या? माना कि यहां कारागृह से थक जाना तो जरूरी है; जिसको हम घर | औषधि अंततः छोड़ देनी होगी–लेकिन तब जब बीमारी जा कहते हैं, अपना घर कहते हैं, आशियां कहते हैं उससे भी | चुकी हो। तुम यह तो नहीं कहते चिकित्सक को कि औषधि लेने थक जाना जरूरी है। से फायदा क्या, अंततः तो छोड़ ही देनी है! अगर न लोगे तो वोह बिजलियों की चश्मके-पैहम कि कुछ न पूछ | बीमारी में अटके रह जाओगे। औषधि तो लेनी होगी और तंग आ गए हैं जिंदगीए-आशियां से हम। छोड़नी भी होगी। सीढ़ियां चढ़नी भी होंगी और छोड़नी भी अगर कोई गौर से देखे उथल-पुथल आंधियों की, तो तुम होंगी। तुमने कहा, जब छोड़ ही देनी है तो चढ़ना क्या, तो फिर कारागृह से थोड़े ही थकोगे, घर से भी थक जाओगे। तुम नीचे ही रह जाओगे। वोह बिजलियों की चश्मके-पैहम कि कुछ न पूछ महावीर को तत्क्षण खयाल उठा होगा, यह जो मैंने कहा कि तंग आ गए हैं जिंदगीए-आशियां से हम। पाप भी छोड़ दो, पुण्य भी छोड़ दो, क्योंकि दोनों बंधन हैं तो तब तुम जिंदगी के घर से भी थक जाओगे। जहां सुरक्षा शायद आदमी चोरी तो नहीं छोड़ेगा, दान करना छोड़ देगा: मिलती है, शरण मिलती है, उससे भी थक जाओगे। जहां 'क्या फायदा! इतना ही बंधन काफी है चोरी का ही, अब और सहारा मिलता है, आसरा मिलता है, उससे भी थक जाओगे। दान का बंधन क्यों सिर पर लेना! संसार का बंधन ही काफी है, शत्रु से तो थकोगे ही, मित्र से भी थक जाओगे। पराये से तो अब संन्यास का बंधन और क्यों सिर पर लेना! एक ही बंधन थकोगे ही अपने से भी थक जाओगे; क्योंकि वस्तुतः तो अपना बहुत है—हाथ में लोहे की जंजीरें पड़ी हैं, अब सोने की और भी पराया है। | क्या डालना!' तथापि, फिर महावीर कहते हैं, 'परमार्थतः दोनों प्रकार के तो महावीर को तत्क्षण कहना पड़ा, 'व्रत व तपादि के द्वारा कर्मों को कुशील जानकर उनसे राग न करना चाहिए। क्योंकि स्वर्ग की प्राप्ति उत्तम है। इनके न करने पर नर्कादि के दुख उठाना उनका संसर्ग...कुशील कर्मों के प्रति राग और संसर्ग करने से ठीक नहीं...।' स्वाधीनता नष्ट होती है।' औषधि कड़वी भी हो तो भी उसका कड़वापन झेल लेना उचित 'तथापि, व्रत व तपादि के द्वारा स्वर्ग की प्राप्ति उत्तम है। इनके है। क्योंकि उसके बिना फिर बीमारी का नर्क है। न करने पर नर्कादि के दुख उठाना ठीक नहीं। क्योंकि कष्ट सहते ...क्योंकि कष्ट सहते हुए धूप में खड़े रहने की अपेक्षा छाया हुए धूप में खड़े रहने की अपेक्षा छाया में खड़े रहना कहीं बेहतर, में खड़े रहने कहीं अच्छा है।' कहीं अच्छा है।' संन्यास की एक छाया है। आत्यंतिक छाया नहीं, आखिरी महावीर जब कह रहे हैं कि छोड़ दो सब-पुण्य भी, पाप छाया नहीं-आखिरी छाया तो आत्मा की है। संन्यास की एक भी-तब तत्क्षण उन्हें खयाल आया होगा कि आदमी बड़ा सुरक्षा है; अंतिम सुरक्षा नहीं, बीच का पड़ाव है। लंबी यात्रा में बेईमान है। उससे कहो, छोड़ दो पुण्य भी, पाप भी, तो पाप तो बीच में पड़ी धर्मशाला है। वहां विश्राम करके सुबह चल शायद न छोड़ेगा, पुण्य छोड़ देगा। वह कहेगा, बिलकुल ठीक! पड़ना। लेकिन यह मत सोचना कि जब सुबह चल ही पड़ना है अभी मैंने कहा कि छोड़ दो संसार, छोड़ दो संन्यास! तुम में से तो रात विश्राम क्या करना, चलते ही रहो! तो फिर तुम ज्यादा न कई के मन में उठा होगाः अरे, यह तो बिलकुल बेहतर, तो छोड़ चल पाओगे। तो फिर तुम बहुत दूर न पहुंच पाओगे। दो संन्यास! महावीर जैसे व्यक्तियों को निरंतर एक अड़चन खड़ी रहती है : हम अपने मतलब की सुन लेते हैं। | जब भी वे बोलते हैं तो एक तो वे बोलते हैं जो उन्हें लगता है ठीक एक मित्र ने संन्यास लिया और मुझसे पूछा कि 'अंततः तो सब | है, और तत्क्षण उन्हें तुम्हारा भी ध्यान रखना पड़ता है, तब वे वह छोड़ ही देना है?' मैंने कहा, 'अभी तुम लिये भी नहीं, अभी | भी बोलते हैं जो तुम कहीं गलत न समझ लो। तो वे कहते हैं, 506 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन की भव्यता : अभी और यहीं 'कोई फिक्र मत करना। कहा मैंने, माना कि सोने की जंजीर है | होने की खबर है। पुण्य, लेकिन अभी जल्दी मत करना; पहले लोहे की जंजीर को इसलिए जिस व्यक्ति का मोक्ष और निर्वाण करीब आ रहा है, सोने से बदल लेना। इतना तो करो। सोने की जंजीर थोड़ी। उसके दुख बड़े सघन हो जाते हैं। सभी फल अनंत-अनंत जन्मों हलकी होगी; लोहे की जंजीर जैसी भारी न होगी। सोने की के इकट्ठे पकने लगते हैं। यथासमय! आ गई घड़ी। जंजीर थोड़ी प्रीतिकर होगी। तुम उतने कुरूप न मालूम पड़ोगे महावीर बड़ी बुरी तरह बीमार हुए। बुद्ध का शरीर भी विषाक्त जितने लोहे की जंजीर में मालूम पड़ते थे।' हो गया था। रामकृष्ण कैंसर से विदा हुए; रमण भी। संसार को थोड़ा बदलो संन्यास में। और जो दूसरा आत्यंतिक बहुतों के मन में सवाल उठता है कि क्यों ऐसे सदपुरुष, और वक्तव्य है-पारमार्थिक चरम-वह तभी सार्थक है जब क्यों ऐसा दुखद अंत? संन्यास फल जाए। जब पहला कांटा निकल जाए और दूसरा हमें समझ में नहीं आता है। हमें जीवन के गणित का पता नहीं कांटा व्यर्थ हो जाए, तब उसे फेंक देना। है। जिनकी आखिरी घड़ी करीब आ गयी है, तो जन्मों-जन्मों जीवन को ऐसे गुजारो जैसे पिछले किये हुए कर्मों का फल है। के, अनंत-अनंत फल शीघ्रता से पकने शुरू हो जाते हैं, क्योंकि तटस्थता से, बड़ी दूरी के भाव से, उपेक्षा से, बिना प्रतिक्रिया वे विदा होंगे जब, पूरी तरह से विदा होंगे, फिर दुबारा उनका किये, बिना छोटी-छोटी बातों में उलझे-ऐसे गुजर जाओ जैसे आना नहीं है तो सारा निपटारा, सारा कर्मक्षय त्वरा से होता राह की धूल जब गुजरते हो तो पड़ती है। जब राह से चलते हो है, तीव्रता से होता है। सब तरह की पीडाएं जिनको अब तक कुत्ते भी भौंकते हैं; जब राह से चलते हो, धूप भी पड़ती दबाकर बैठे रहे थे, उभरकर सामने आती हैं। और आ जाना है-सबको तुम गुजार देते हो। जन्मों-जन्मों तक जो निर्मित जरूरी है। वह न केवल पुराने कर्मों का फल है बल्कि भविष्य किया है उसे धीरे-धीरे इसी तरह छोड़ने का उपाय-उपेक्षा! की तैयारी भी। उनको वे कितनी शांति से देख लेते हैं, कितने दुख आये तो उसे भी ठहर जाने देना। उसके साथ भी शत्रुता मत | सहज भाव से उनको गुजर जाने देते हैं उससे उनकी अंतिम बांधना। न हो, ऐसा मत कहना। तैयारी होती है; अंतिम पाथेय निर्मित होता है। है और कितनी दूर तेरी मंजिले-कयाम ऐशमा! सुबह होती है रोती है किसलिए रह-रहके पूछते हैं यह उम्रे-रवां से हम। थोड़ी-सी रह गयी है इसे भी गुजार दे। साधक यही पूछता रहता है अपने भीतर : 'और, और कितनी संसार को छोड़ना है, क्योंकि संसार में जो वसंत दिखायी यात्रा है?' अपनी जाती हुई, उम्र से पूछता है : 'और कितना, पड़ता है वह झूठा है, इसलिए संसार को छोड़ते वक्त व्यक्ति के और कितना?' लेकिन जो घटता है, उसे स्वीकार कर लेता है। जीवन में सारे फूल गिर जायेंगे, पतझड़ हो जायेगी; पत्ते भी गिर जो घटता है, उसे स्वीकार करके बैठ नहीं जाता। जो घटता है, / जायेंगे; रूखे, नंगे वृक्ष खड़े रह जायेंगे। लेकिन यह कोई अंतिम उसे स्वीकार कर लेता है और यात्रा जारी रखता है। अवस्था नहीं है। यह भी बीच का ही पड़ाव है। जिसने इस है और कितनी दूर तेरी मंजिले-कयाम-और भीतर खयाल | पतझड़ को भी पूरे भाव से स्वीकार कर लिया, उसके भीतर फिर रखता है कि तेरा अंतिम लक्ष्य और कितनी दूर है? रह-रहके एक और तरह का वसंत उठता है जिसकी कोई पतझड़ नहीं। पछते हैं यह उप्रे-रवा से हम-जाती हई उम्र से पछता रहता है जिसने इस पतझड़ को भी पूरे आत्मभाव से अंगीकार कर लिया, कि और कितनी दूर है? और अपने को सम्हाले रखता है। स्वागत से, और जरा भी ना-नुच न की, इनकार न किया-तप विषाद में नहीं गिरने देता। यही अर्थ रखता है तो उसके जीवन में फिर फूल खिलते हैं। ऐशमा। सुबह होती है रोती है किसलिए वे फूल विराट के हैं। वे फूल परम सागर के हैं, परम सत्य के हैं। थोड़ी-सी रह गयी है इसे भी गुजार दे। इन्हीं बजते हुए पत्तों से गुलशन फूट निकलेंगे जैसे सुबह होने के करीब है, रात गहरी अंधेरी हो जाती है। बहारों का यह मातम सिर्फ अंजामे-खिजां तक है। सुबह होने के करीब रात सर्वाधिक अंधेरी हो जाती है। वह सुबह | तो तुम ऐसा मत देखना कि त्यागी दखी है। ऊपर से शायद 5071 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wapसिर जिन सत्र भागः / दिखायी भी पड़े। तुम ऐसा मत सोचना कि त्यागी दुखवादी है। कहा कि मालूम होता है तूने झांक लिया। ऊपर से शायद दिखायी भी पड़े। क्योंकि तुम जिसे सुख मानते वहां कुछ है नहीं! न रेलगाड़ी है, न हवाई जहाज, न हाथी है। हो उसे वह छोड़ रहा है, तो तुम्हें लगेगा दुखवादी है। लेकिन | मुट्ठी खोलने पर मुट्ठी खाली है। अगर मुट्ठी में कुछ है तो वह है। क्योंकि जिसे तुम सुख कहते हो वह सुख नहीं है। जिसे तुम तो तुम्हारे सुख को छोड़ने में तो क्षणभर की देर नहीं लगती। केवल तुम्हारी आकांक्षा है, आशा है, तृष्णा है। __ इसलिए तो लोग मुट्ठी खोलकर नहीं देखते कि कहीं पता न हविश को आ गया है गुल खिलाना, चल जाये कि कुछ भी नहीं है। मुट्ठी बांधे रहो! कहते हैं, बंधी जरा ए जिंदगी! दामन बचाना। लाख की! मैं भी मानता हूं : बंधी लाख की, खुली खाक की! जिसे तम सख कहते हो वह तो केवल हविश है, वह तो एक क्योंकि है ही नहीं कछ वहां। बंधी है. इसलिए लाख मालम होते तृष्णा है, जो कभी भरती नहीं, दुष्पूर है। और जिसे तुम दुख हैं। बांधे रखो मुट्ठी, तिजोड़ी पर ताले डाले रखो। खोलकर मत देखना, अन्यथा खाली हाथ पाओगे। तो त्यागी वह है जो तुम्हारे सुख को सुख नहीं देखता, सिर्फ तो सुख तो यूं ही छोड़ा जा सकता है। तत्क्षण छोड़ा जा सकता तुम्हारा सपना मानता है; और तुम्हारे दुख को वास्तविक मानता | है। जरा-सा साक्षी-भाव-सुख गया। लेकिन दुख? दुख है, क्योंकि वह अतीत जन्मों में किये गये कर्मों का फल है। तो थोड़ा समय लेगा। अनंत-अनंत जन्मों में वह जो गलत-गलत तुम्हारे सुख को तो वह बिलकुल छोड़ देता है, क्योंकि कल्पना धारणाओं के घाव छूट गये हैं, लकीरें छूट गयी हैं...। को छोड़ने में देर क्या लगती है! कल्पना ही है, छोड़ने को कुछ है तो सुख का त्याग और दुख का स्वीकार—यही महावीर का भी नहीं। कल्पना ही छोड़नी है; थी ही नहीं, सिर्फ विचार था। संन्यास है। और इस संन्यास का जो परम फल है, वह अपने तो तुम्हारे सुख को तो तत्क्षण छोड़ देता है। आप घटता है। वह परम फल निर्वाण है। वह परम फल सुख जो तुम्हारे सुख को छोड़ देता है, वही संन्यासी है। लेकिन दुख नहीं है, पण्य नहीं है, स्वर्ग नहीं है। वह परम फल मोक्ष है. परम को इतनी आसानी से नहीं छोड़ा जा सकता। क्योंकि दुख अब स्वतंत्रता है। कल्पना नहीं है। तुम्हारी अनंत-अनंत कल्पनाओं ने जो घाव तुम स्वतंत्रता का इतना बड़ा उपदेष्टा कभी नहीं हुआ। और भी पर छोड़ दिये हैं, दुख उनका नाम है। तो दुख को वह स्वीकार स्वतंत्रता की बात करनेवाले लोग हुए हैं; लेकिन महावीर की करता है। स्वतंत्रता के साथ ऐसी पकड़ है, ऐसी गहरी पकड़ है कि कल्पना का त्याग संन्यास; दुख का स्वीकार संन्यास। सुख स्वतंत्रता को बचाने के लिए वे परमात्मा तक को स्वतंत्रता की तो यूं छूट जाता है क्योंकि सुख है कहां? छोड़ने-योग्य कुछ है वेदी पर आहुति दे देते हैं। लेकिन स्वतंत्रता की आहुति परमात्मा ही नहीं, मुट्ठी खाली है। की वेदी पर नहीं देते। वे कहते हैं, परमात्मा रहेगा तो स्वतंत्रता दो पागल बात कर रहे थे—पागलखाने में बैठे। एक पागल ने पूरी न रहेगी। इसलिए परमात्मा नहीं है। स्वतंत्रता परिपूर्ण है। मुट्ठी बांध ली तो उसने कहा कि अनुमान लगाओ, मेरी मुट्ठी में और इस परम स्वतंत्रता को पा लेने की ही सारी दौड़, सारी यात्रा, क्या है? तो पहले. पागल ने कहा कि कुछ थोड़े संकेत तो दो। सारा धर्म, जन्मों-जन्मों के भटकाव! उसने कहा, कोई संकेत नहीं। तीन मौके तुम्हें। तो पहले पागल कैसे इसे हम पायें? ने कहा कि हवाई जहाज। दूसरे पागल ने कहा कि नहीं। तो धीरे-धीरे तुम स्वतंत्रता के सूत्रों को अपने जीवन में जगह देने पहले पागल ने कहा, हाथी। तो दूसरे पागल ने कहा, नहीं। तो लगो। जो-जो बांधता हो, उस-उससे जागने लगो। पहले पाप पहले पागल ने कहा, रेलगाड़ी। तो उसने कहा, ठहर भाई, जरा | से जागोगे, क्योंकि वह बांधता है, इस बीच के उपाय में पुण्य का मुझे देख लेने दे। उसने धीरे-से अपनी मुट्ठी खोलकर देखा और सहारा ले लेना। कहीं तो हाथ रखने के लिए जगह चाहिए। पाप 508 www.jainelibrary:org Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन की भव्यता : अभी और यहीं MINALS लेकिन उस पर इतनी ज्यादा देर खड़े मत रहना कि फिर वहां घर जाना। तब सब किनारे खो जाते हैं। 'यो वै भूमा. तत्सख'-और तब है सख विराट में। 'नाल्पे सुखमस्ति'-लघु में सुख कहां! 'भूमैव सुख'-उस भूमा में ही सुख है। उस भूमा की ही हम जिज्ञासा करें, उस भूमा को ही हम खोजें! वह भूमा हममें छुपा है। वह स्वतंत्रता हमारा स्वभाव है। आज इतना ही। 509 www.jainelibrarorg