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________________ हला सूत्र : 'अभव्य जीव यद्यपि धर्म में श्रद्धा | का संसार है। बाहर के संसार के कारण पाने की वासना नहीं है। / रखता है, उसकी प्रतीति करता है, उसमें रुचि तो तुम संसार को छोड़ भी दो और तुम्हारे भीतर की वासना की रखता है, उसका पालन भी करता है, किंतु यह सब आग सुलगती रह जाये तो कुछ अंतर न हुआ। वह धर्म को भोग का निमित्त समझकर करता है, कर्मक्षय का महावीर कहते हैं ऐसे धार्मिक व्यक्ति को-'अभव्य जीव।' कारण समझकर नहीं।' वह सिर्फ भव्य दिखायी पड़ता है, लेकिन उसकी भव्यता संसार की आदत आसानी से नहीं जाती। जन्मों-जन्मों तक बाहर-बाहर है. भीतर उसके राग खडा है. भीतर लोभ खडा है। जिसे पाला है, संवारा है, वह आदत संसार को छोड़ने भी चलो __तुमने ऐसा धार्मिक व्यक्ति देखा, जिसके भीतर लोभ न हो? तो भी साथ चलती है। तुमने ऐसा धार्मिक व्यक्ति देखा जो धार्मिक हो, धार्मिक होने के इसे समझें, क्योंकि इसे बिना समझे कोई कभी धार्मिक न हो | आनंद के कारण; जो यह नहीं कहता हो कि धार्मिक श्रम, पायेगा। बहुत हैं जिन्होंने संसार छोड़ दिया। बाहर दिखायी पुरुषार्थ से मैं कुछ भविष्य में कमाने जा रहा हूं? तुमने ऐसा पड़नेवाला संसार छोड़ देना कठिन भी नहीं। आश्चर्य तो यही है | धार्मिक व्यक्ति देखा जिसके मन में भविष्य की कोई आकांक्षा न कि बाहर दिखायी पड़नेवाले संसार को लोग कैसे पकड़े रहते हैं! | हो, फलाकांक्षा न हो? इतना व्यर्थ है, इतना असार है कि किसी भी थोड़ी-सी प्रज्ञावान तो तुम अगर अपने धार्मिक गुरुओं से, साधुओं से जाकर पूछो चेतना को छोड़ने का खयाल आ जाये तो कुछ आश्चर्यचकित कि आप ये पुण्य, तपश्चर्या, साधना, ध्यान, सामायिक, होने की बात नहीं। कुछ भी मिलता हुआ दिखायी नहीं पड़ता, उपवास, व्रत, नियम, इन सबका पालन कर रहे तो छोड़ने का मन आ जाता है। हैं—किसलिए? और अगर वे बता सकें कि किसलिए तो लेकिन बाहर के संसार से भी ज्यादा भीतर एक संसार है। वह | समझना कि वे अभव्य जीव हैं। अभी उनमें भव्यता का जन्म संसार है कि अगर हम छोड़ते भी हैं कुछ, तो कुछ पाने के लिए नहीं हुआ। और वे सभी बता सकेंगे कि पुण्य के लिए, स्वर्ग के ही छोड़ते हैं। वह पाने की वृत्ति नहीं जाती। तो लोग संसार छोड़ लिए; भविष्य में उच्च योनियां मिलें, देवलोक मिले-इसलिए देते हैं तो सोचते हैं, मोक्ष पाने के लिए; धन छोड़ देते हैं तो या उनमें जो बहुत ज्यादा तर्ककुशल हैं, वे कहेंगे, मोक्ष के लिए: सोचते हैं, पुण्य पाने के लिए। लेकिन पाने की वासना भीतर सबसे छुटकारा हो जाये, इसलिए। खड़ी रहती है। लेकिन जो आदमी छूटना चाहता है, उसका छुटकारा हो नहीं महावीर इन सूत्रों में यही बात साफ करना चाहते हैं कि असली सकता, क्योंकि अभी कोई चाह बची-छटने की चाह बची। संसार 'पाने की वासना' में है। पाने की वासना के कारण बाहर तो सब चाहें निमज्जित हो जाएं छूटने की चाह में, तो छूटने की 495 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340123
Book TitleJinsutra Lecture 23 Jivan ki Bhavyata Abhi aur Yahi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Jinsutra_MP3_and_PDF_Files
File Size36 MB
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