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________________ जिन सूत्र भागः चाह एक मजबूत रस्से की तरह हो जायेगी। छोटी-छोटी चाहें तो आनंद है, सामायिक परम शांति है। थोड़े-थोड़े धागे हैं, उन सबको एक ही रस्से में इकट्ठा कर भेद समझ लेना, क्योंकि दोनों की बातें एक-सी लगती हैं। लिया–छूटने की चाह, मोक्ष की आकांक्षा। तो जैसा धार्मिक कहता है, शांति के लिए सामायिक में बैठता हूं। तो छोटी-छोटी वासनाओं ने बांधा था, उससे भी ज्यादा यह मोक्ष महावीर कहेंगे अभव्य है, अभी कृपण है, अभी वासना लगी है। की रस्सी बांध लेगी। अभी सामायिक को भी यह साधन बना रहा है। तो कभी इसने महावीर कहते हैं, अगर तुमने कुछ पाने के लिए छोड़ा तो छोड़ा | धन को साधन बनाया था-सोचा था, धन से सुख मिलेगा; ही नहीं। धोखा किसको दिया? अपने को दे लिया। कभी इसने पद को साधन बनाया था—सोचा था पद-प्रतिष्ठा से उपनिषदों में एक बड़ा अदभुत सूत्र है : कृपणा फलहेतवः। जो | सुख मिलेगा; कभी यह सेनापति हो गया था, दुर्धर्ष युद्ध में उतरा व्यक्ति फल की आकांक्षा से कुछ काम करता है वह कृपण है, था, हजारों की गर्दन काट दी थीं सोचा था इससे सुख वह कंजूस है। उसे जीवन की कला ही न आयी। उसने जीवन | मिलेगा। लेकिन एक बात अभी भी कायम है कि सुख को पाना का सत्य ही न जाना। होगा किसी साधन से। कभी धन साधन, कभी पद साधन, कभी महावीर का यह सूत्र भी यही कह रहा है कि अगर तुमने कुछ | तलवार साधन; अब व्रत, उपवास, नियम-साधन; योग, पाने की आकांक्षा से-भला वह आकांक्षा मोक्ष की ही ध्यान, सामायिक-साधन। लेकिन मूल गणित वही है। जो भी हो-धर्म किया तो धर्म किया ही नहीं, धर्म का धोखा किया। कर रहा है, अधार्मिक व्यक्ति उसमें रस नहीं लेता। उसका रस अभव्य जीव यद्यपि धर्म में श्रद्धा रखता है लेकिन उसकी श्रद्धा में हमेशा फल में है। गीता में कृष्ण जो कहते हैं : फलाकांक्षा! वह 'यद्यपि' जुड़ा हुआ है। उसकी प्रतीति भी करता है। उसमें रुचि देख रहा है आगेः यह मिलेगा, यह मिलेगा, यह भी रखता है, उसका यथाशक्य पालन भी करता है फिर भी मिलेगा—इसलिए कर रहा है। अगर पता चल जाये नहीं वह धर्म को निमित्त समझकर करता है, साध्य समझकर नहीं। मिलेगा तो उसका करना अभी रुक जाये। तो वह पूछेगा, फिर धर्म का भी साधन बनाता है। धर्म से भी कुछ पाना है, इसलिए कैसे मिलेगा? करता है। अगर धर्म के बिना जो वह पाना चाहता है मिल जाये| महावीर कहते हैं, जिस व्यक्ति को धर्म में साध्य दिखायी पड़ने तो वह धर्म को कूड़े-कर्कट में फेंक देगा। अगर तुम्हारे | लगा वही व्यक्ति भव्य है। तो तुम मंदिर जाओ, मस्जिद जाओ, साधु-संन्यासियों और मुनि महाराजों को पता चल जाये कि स्वर्ग | कुरान पढ़ो, गीता पढ़ो, पूजा करो, प्रार्थना करो-एक बात पहुंचने का कोई शार्टकट भी है तो वे सब अपने पीछी-कमंडल भीतर खोजते रहना : ये तुम साधन की तरह कर रहे हो, निमित्त छोड़कर भाग खड़े होंगे, क्योंकि उसी के लिए तो वे इस लंबे की तरह? तो महावीर की दृष्टि में अभव्य हो। अभी तुम्हारे रास्ते से जा रहे थे। अगर कोई पास का रास्ता मिल गया है, कोई | भीतर उस पवित्र उन्मेष का जन्म नहीं हुआ जो तुम्हें दिव्य बना दे, सुगम रास्ता मिल गया है, तो कौन कष्ट उठायेगा! भव्य बना दे। पास का रास्ता मिल जाने पर भी जो धर्म के रास्ते पर खड़ा रहे, 'भव्य' शब्द महावीर का अपना है। दिव्य शब्द का वे उसे ही जानना कि वह धार्मिक है। क्यों? क्योंकि उसके लिए उपयोग नहीं कर सकते, क्योंकि दिव्य से तो देवता और अंततः धर्म साध्य है, साधन नहीं। परमात्मा का खयाल आ जाता है। इसलिए महावीर की भाषा में ये दो शब्द बड़े विचारणीय हैं। धर्म साधन नहीं, साध्य है। तो | भव्य का वही अर्थ है जो समस्त अन्य धर्मों की भाषा में दिव्य का जल्दी क्या है? तो जाना कहां है? है। भव्य का अर्थ है : जिसका जीवन प्रतिपल साध्य हुआ। वास्तविक धार्मिक व्यक्ति का प्रत्येक पल मोक्ष है। वह ध्यान | भव्य का अर्थ है : जो कपण न रहा। कपणा फलहेतवः। अब करता है क्योंकि ध्यान में परम आनंद है। इसलिए नहीं कि जिसके लिए फल का कोई सवाल ही नहीं है! अब जिसकी सारी आनंद मिलेगा। धार्मिक व्यक्ति के लिए 'इसलिए' जैसी कोई कृपणता मिटी, कंजूसी मिटी! अब जो जिंदगी में चाह के ढंग से बात ही नहीं। वह सामायिक में बैठता है। क्योंकि सामायिक नहीं जीता-अचाह का मजा ले रहा है; अचाह में डूबता है, रस 496 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340123
Book TitleJinsutra Lecture 23 Jivan ki Bhavyata Abhi aur Yahi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Jinsutra_MP3_and_PDF_Files
File Size36 MB
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