________________ wapसिर जिन सत्र भागः / दिखायी भी पड़े। तुम ऐसा मत सोचना कि त्यागी दुखवादी है। कहा कि मालूम होता है तूने झांक लिया। ऊपर से शायद दिखायी भी पड़े। क्योंकि तुम जिसे सुख मानते वहां कुछ है नहीं! न रेलगाड़ी है, न हवाई जहाज, न हाथी है। हो उसे वह छोड़ रहा है, तो तुम्हें लगेगा दुखवादी है। लेकिन | मुट्ठी खोलने पर मुट्ठी खाली है। अगर मुट्ठी में कुछ है तो वह है। क्योंकि जिसे तुम सुख कहते हो वह सुख नहीं है। जिसे तुम तो तुम्हारे सुख को छोड़ने में तो क्षणभर की देर नहीं लगती। केवल तुम्हारी आकांक्षा है, आशा है, तृष्णा है। __ इसलिए तो लोग मुट्ठी खोलकर नहीं देखते कि कहीं पता न हविश को आ गया है गुल खिलाना, चल जाये कि कुछ भी नहीं है। मुट्ठी बांधे रहो! कहते हैं, बंधी जरा ए जिंदगी! दामन बचाना। लाख की! मैं भी मानता हूं : बंधी लाख की, खुली खाक की! जिसे तम सख कहते हो वह तो केवल हविश है, वह तो एक क्योंकि है ही नहीं कछ वहां। बंधी है. इसलिए लाख मालम होते तृष्णा है, जो कभी भरती नहीं, दुष्पूर है। और जिसे तुम दुख हैं। बांधे रखो मुट्ठी, तिजोड़ी पर ताले डाले रखो। खोलकर मत देखना, अन्यथा खाली हाथ पाओगे। तो त्यागी वह है जो तुम्हारे सुख को सुख नहीं देखता, सिर्फ तो सुख तो यूं ही छोड़ा जा सकता है। तत्क्षण छोड़ा जा सकता तुम्हारा सपना मानता है; और तुम्हारे दुख को वास्तविक मानता | है। जरा-सा साक्षी-भाव-सुख गया। लेकिन दुख? दुख है, क्योंकि वह अतीत जन्मों में किये गये कर्मों का फल है। तो थोड़ा समय लेगा। अनंत-अनंत जन्मों में वह जो गलत-गलत तुम्हारे सुख को तो वह बिलकुल छोड़ देता है, क्योंकि कल्पना धारणाओं के घाव छूट गये हैं, लकीरें छूट गयी हैं...। को छोड़ने में देर क्या लगती है! कल्पना ही है, छोड़ने को कुछ है तो सुख का त्याग और दुख का स्वीकार—यही महावीर का भी नहीं। कल्पना ही छोड़नी है; थी ही नहीं, सिर्फ विचार था। संन्यास है। और इस संन्यास का जो परम फल है, वह अपने तो तुम्हारे सुख को तो तत्क्षण छोड़ देता है। आप घटता है। वह परम फल निर्वाण है। वह परम फल सुख जो तुम्हारे सुख को छोड़ देता है, वही संन्यासी है। लेकिन दुख नहीं है, पण्य नहीं है, स्वर्ग नहीं है। वह परम फल मोक्ष है. परम को इतनी आसानी से नहीं छोड़ा जा सकता। क्योंकि दुख अब स्वतंत्रता है। कल्पना नहीं है। तुम्हारी अनंत-अनंत कल्पनाओं ने जो घाव तुम स्वतंत्रता का इतना बड़ा उपदेष्टा कभी नहीं हुआ। और भी पर छोड़ दिये हैं, दुख उनका नाम है। तो दुख को वह स्वीकार स्वतंत्रता की बात करनेवाले लोग हुए हैं; लेकिन महावीर की करता है। स्वतंत्रता के साथ ऐसी पकड़ है, ऐसी गहरी पकड़ है कि कल्पना का त्याग संन्यास; दुख का स्वीकार संन्यास। सुख स्वतंत्रता को बचाने के लिए वे परमात्मा तक को स्वतंत्रता की तो यूं छूट जाता है क्योंकि सुख है कहां? छोड़ने-योग्य कुछ है वेदी पर आहुति दे देते हैं। लेकिन स्वतंत्रता की आहुति परमात्मा ही नहीं, मुट्ठी खाली है। की वेदी पर नहीं देते। वे कहते हैं, परमात्मा रहेगा तो स्वतंत्रता दो पागल बात कर रहे थे—पागलखाने में बैठे। एक पागल ने पूरी न रहेगी। इसलिए परमात्मा नहीं है। स्वतंत्रता परिपूर्ण है। मुट्ठी बांध ली तो उसने कहा कि अनुमान लगाओ, मेरी मुट्ठी में और इस परम स्वतंत्रता को पा लेने की ही सारी दौड़, सारी यात्रा, क्या है? तो पहले. पागल ने कहा कि कुछ थोड़े संकेत तो दो। सारा धर्म, जन्मों-जन्मों के भटकाव! उसने कहा, कोई संकेत नहीं। तीन मौके तुम्हें। तो पहले पागल कैसे इसे हम पायें? ने कहा कि हवाई जहाज। दूसरे पागल ने कहा कि नहीं। तो धीरे-धीरे तुम स्वतंत्रता के सूत्रों को अपने जीवन में जगह देने पहले पागल ने कहा, हाथी। तो दूसरे पागल ने कहा, नहीं। तो लगो। जो-जो बांधता हो, उस-उससे जागने लगो। पहले पाप पहले पागल ने कहा, रेलगाड़ी। तो उसने कहा, ठहर भाई, जरा | से जागोगे, क्योंकि वह बांधता है, इस बीच के उपाय में पुण्य का मुझे देख लेने दे। उसने धीरे-से अपनी मुट्ठी खोलकर देखा और सहारा ले लेना। कहीं तो हाथ रखने के लिए जगह चाहिए। पाप 508 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary:org