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________________ जीवन की भव्यता : अभी और यहीं 'कोई फिक्र मत करना। कहा मैंने, माना कि सोने की जंजीर है | होने की खबर है। पुण्य, लेकिन अभी जल्दी मत करना; पहले लोहे की जंजीर को इसलिए जिस व्यक्ति का मोक्ष और निर्वाण करीब आ रहा है, सोने से बदल लेना। इतना तो करो। सोने की जंजीर थोड़ी। उसके दुख बड़े सघन हो जाते हैं। सभी फल अनंत-अनंत जन्मों हलकी होगी; लोहे की जंजीर जैसी भारी न होगी। सोने की के इकट्ठे पकने लगते हैं। यथासमय! आ गई घड़ी। जंजीर थोड़ी प्रीतिकर होगी। तुम उतने कुरूप न मालूम पड़ोगे महावीर बड़ी बुरी तरह बीमार हुए। बुद्ध का शरीर भी विषाक्त जितने लोहे की जंजीर में मालूम पड़ते थे।' हो गया था। रामकृष्ण कैंसर से विदा हुए; रमण भी। संसार को थोड़ा बदलो संन्यास में। और जो दूसरा आत्यंतिक बहुतों के मन में सवाल उठता है कि क्यों ऐसे सदपुरुष, और वक्तव्य है-पारमार्थिक चरम-वह तभी सार्थक है जब क्यों ऐसा दुखद अंत? संन्यास फल जाए। जब पहला कांटा निकल जाए और दूसरा हमें समझ में नहीं आता है। हमें जीवन के गणित का पता नहीं कांटा व्यर्थ हो जाए, तब उसे फेंक देना। है। जिनकी आखिरी घड़ी करीब आ गयी है, तो जन्मों-जन्मों जीवन को ऐसे गुजारो जैसे पिछले किये हुए कर्मों का फल है। के, अनंत-अनंत फल शीघ्रता से पकने शुरू हो जाते हैं, क्योंकि तटस्थता से, बड़ी दूरी के भाव से, उपेक्षा से, बिना प्रतिक्रिया वे विदा होंगे जब, पूरी तरह से विदा होंगे, फिर दुबारा उनका किये, बिना छोटी-छोटी बातों में उलझे-ऐसे गुजर जाओ जैसे आना नहीं है तो सारा निपटारा, सारा कर्मक्षय त्वरा से होता राह की धूल जब गुजरते हो तो पड़ती है। जब राह से चलते हो है, तीव्रता से होता है। सब तरह की पीडाएं जिनको अब तक कुत्ते भी भौंकते हैं; जब राह से चलते हो, धूप भी पड़ती दबाकर बैठे रहे थे, उभरकर सामने आती हैं। और आ जाना है-सबको तुम गुजार देते हो। जन्मों-जन्मों तक जो निर्मित जरूरी है। वह न केवल पुराने कर्मों का फल है बल्कि भविष्य किया है उसे धीरे-धीरे इसी तरह छोड़ने का उपाय-उपेक्षा! की तैयारी भी। उनको वे कितनी शांति से देख लेते हैं, कितने दुख आये तो उसे भी ठहर जाने देना। उसके साथ भी शत्रुता मत | सहज भाव से उनको गुजर जाने देते हैं उससे उनकी अंतिम बांधना। न हो, ऐसा मत कहना। तैयारी होती है; अंतिम पाथेय निर्मित होता है। है और कितनी दूर तेरी मंजिले-कयाम ऐशमा! सुबह होती है रोती है किसलिए रह-रहके पूछते हैं यह उम्रे-रवां से हम। थोड़ी-सी रह गयी है इसे भी गुजार दे। साधक यही पूछता रहता है अपने भीतर : 'और, और कितनी संसार को छोड़ना है, क्योंकि संसार में जो वसंत दिखायी यात्रा है?' अपनी जाती हुई, उम्र से पूछता है : 'और कितना, पड़ता है वह झूठा है, इसलिए संसार को छोड़ते वक्त व्यक्ति के और कितना?' लेकिन जो घटता है, उसे स्वीकार कर लेता है। जीवन में सारे फूल गिर जायेंगे, पतझड़ हो जायेगी; पत्ते भी गिर जो घटता है, उसे स्वीकार करके बैठ नहीं जाता। जो घटता है, / जायेंगे; रूखे, नंगे वृक्ष खड़े रह जायेंगे। लेकिन यह कोई अंतिम उसे स्वीकार कर लेता है और यात्रा जारी रखता है। अवस्था नहीं है। यह भी बीच का ही पड़ाव है। जिसने इस है और कितनी दूर तेरी मंजिले-कयाम-और भीतर खयाल | पतझड़ को भी पूरे भाव से स्वीकार कर लिया, उसके भीतर फिर रखता है कि तेरा अंतिम लक्ष्य और कितनी दूर है? रह-रहके एक और तरह का वसंत उठता है जिसकी कोई पतझड़ नहीं। पछते हैं यह उप्रे-रवा से हम-जाती हई उम्र से पछता रहता है जिसने इस पतझड़ को भी पूरे आत्मभाव से अंगीकार कर लिया, कि और कितनी दूर है? और अपने को सम्हाले रखता है। स्वागत से, और जरा भी ना-नुच न की, इनकार न किया-तप विषाद में नहीं गिरने देता। यही अर्थ रखता है तो उसके जीवन में फिर फूल खिलते हैं। ऐशमा। सुबह होती है रोती है किसलिए वे फूल विराट के हैं। वे फूल परम सागर के हैं, परम सत्य के हैं। थोड़ी-सी रह गयी है इसे भी गुजार दे। इन्हीं बजते हुए पत्तों से गुलशन फूट निकलेंगे जैसे सुबह होने के करीब है, रात गहरी अंधेरी हो जाती है। बहारों का यह मातम सिर्फ अंजामे-खिजां तक है। सुबह होने के करीब रात सर्वाधिक अंधेरी हो जाती है। वह सुबह | तो तुम ऐसा मत देखना कि त्यागी दखी है। ऊपर से शायद 5071 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340123
Book TitleJinsutra Lecture 23 Jivan ki Bhavyata Abhi aur Yahi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Jinsutra_MP3_and_PDF_Files
File Size36 MB
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