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________________ जीवन की भव्यता: अभी और यहीं नहीं है। क्योंकि वहां तो तुम हो ही; सिर्फ थोड़ा विस्मरण हुआ दुबारा बीज मत बोना। जो लग गए हैं फल वह तो पकेंगे और है। स्मरण आते ही तुम अचानक पाते हो कि तुम सदा अपने घर गिरेंगे-पककर ही गिरेंगे; परिपक्व होकर ही गिरेंगे। में थे। यह अपने घर में होना धर्म है। उन्हें चुपचाप स्वीकार कर लेना। बड़ा दुख होगा, उसे स्वीकार पाप तो बांधता ही है, पुण्य भी बांध लेता है। इसलिए महावीर | कर लेना। उसी को महावीर तप कहते हैं। जो दुख हमने बोये थे कहते हैं, जिसने पुण्य को धर्म समझा, उसने अभी धर्म को नहीं और अब पक गए हैं, अब उन दुखों को हमें भोगना होगा। उन्हें समझा। उसने अपनी पाप की वृत्ति को ही सजा लिया, सुंदर चुपचाप भोग लेना। उनके प्रति कोई भी प्रतिक्रिया न करना। बना लिया; लेकिन पाप को जाना नहीं कि पाप क्या था। पाप यह भी मत कहना कि यह बुरा है। उन्हें हटाने की कोशिश मत यही था कि अपने से बाहर चले गये थे। दूसरे की हत्या करने करना। उनसे बचने और भागने की कोशिश मत करना। क्योंकि गये थे कि दूसरे को बचाने गये थे, दोनों बातें बराबर हैं। अपने तुम्हारी सब कोशिश विलंब करेगी। से बाहर चले गये थे। वहीं मौलिक पाप हो गया। तुम तो अहोभाव से स्वीकार कर लेना कि अहो, जो दुख बोये सितम है ऐ रोशनी सितम है कि वह भी अब धूप की है जद में थे उनके फल पक गये और दुख भोगने का क्षण आ गया। जरा-सा साया जो रह गया था घने दरख्तों की तीरगी में। धन्यभागी हूं, छुटकारा हुआ! तुम बैठे हो छिपे, दरख्तों के नीचे, थोड़ी-सी छाया है, भरी सद चाक हुआ गो जाम-ए-तन मजबूरी थी सीना ही पड़ा दोपहरी में-लेकिन धीरे-धीरे धूप वहां भी पहुंच जाती है। मरने का वक्त मुकर्रर था, मरने के लिए जीना ही पड़ा। धीरे-धीरे धूप उसे भी छीन लेती है। महावीर कहते हैं, जीना ऐसे जैसे कि मरने का वक्त तो तय है। सितम है ऐ रोशनी! सितम है कि वह भी है अब धूप की जद तो क्या करें, जीना पड़ेगा! और जीवन के लिए व्यवस्था ऐसे ही में-वह भी आ गया अब धूप के घेरे में-जरा-सा साया जो जुटा लेना जैसे कि अब जीना है, फटे वस्त्र हैं तो सी लेता है रह गया था घने दरख्तों की तीरगी में। आदमी। सद चाक हुआ गो जाम-ए-तन मजबूरी थी सीना ही तो पहले आदमी पाप से बचता है और पुण्य की छाया में बैठना पड़ा-हजार-हजार बार कपड़े फट गये; लेकिन मजबूरी थी, चाहता है। लेकिन ज्यादा देर नहीं लगती कि पता चलता है पुण्य विवशता थी-सीना ही पड़ा। मरने का वक्त मुकर्रर था, मरने भी पाप का ही विस्तार है। ज्यादा देर नहीं लगती कि पता चलता के लिए जीना ही पड़ा। है कि पुण्य भी सजायी हुई बेड़ी है, जंजीर है। जल्दी ही पता चुपचाप, हर हाल उस समय तक प्रतीक्षा करनी होगी जब पाप चलता है कि यह भी डूब गया पाप में। के फल पक जाएं और गिर जाएं-यथासमय। महावीर कहते जिस दिन पुण्य भी पाप जैसा दिखायी पड़ने लगता है, उस दिन हैं, वह अपने-आप! जैसे फलों के पकने का समय है, मौसम व्यक्ति धर्म को उपलब्ध होता है। | है, ऐसे सारे जीवन के कर्मों के पकने का समय है। वह महावीर की धर्म की परिभाषा बड़ी पराकाष्ठा की है, अपने-आप पक जाते हैं, तुम्हें उनकी चिंता नहीं करनी। तुम आत्यंतिक है; उससे ज्यादा शुद्ध परिभाषा खोजनी मुश्किल है। भविष्य की चिंता छोड़ो! तुम वर्तमान में, स्वयं में, स्व-परिणाम 'धर्म है अनन्यगत अर्थात स्व-द्रव्य में प्रवृत्त परिणाम और तब में लीन होना सीखो। धीरे-धीरे बाकी सब अपने से आप यथासमय दुखों के क्षय का कारण होता है।' यथासमय हो जायेगा। उसका तुम्हें हिसाब भी नहीं रखना। जब वह तुम्हें सोचना नहीं है कि दुख क्षय हों या दख के कारणों का | पाप का फल आये और दुख हो, पीड़ा हो, तो उसे स्वीकार कर क्षय हो। वह तो यथासमय हो जाता है। यह यथासमय की बात | लेना। वही तप है। भी समझ लेनी चाहिए। 'जो पुण्य की इच्छा करता है, वह भी संसार की ही इच्छा महावीर कहते हैं, हमने पाप किये जन्मों-जन्मों, बीज बोए, करता है। पुण्य सुगति का हेतु अवश्य है। किंतु निर्वाण तो पुण्य वृक्ष लगाए। यथासमय फल पकेंगे और गिर जायेंगे। उसमें के क्षय से ही होता है।' जल्दी नहीं की जा सकती। इतना ही किया जा सकता है कि महावीर कहते हैं, शुभ है पुण्य की इच्छा करना; लेकिन है 1501 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340123
Book TitleJinsutra Lecture 23 Jivan ki Bhavyata Abhi aur Yahi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Jinsutra_MP3_and_PDF_Files
File Size36 MB
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