SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 13
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जीवन की भव्यता : अभी और यहीं - मेरी रंगतें न निखर सकीं, मेरी निहकतें न बिखर सकीं | खोज, विराट में ही सुख है। मैं वह फूल हूं कि जो इस चमन में गिला-गुजारे सबा रहा। 'बेड़ी सोने की हो चाहे लोहे की, पुरुष को दोनों ही बेड़ियां तुम कितनी ही लाख चेष्टाएं करो, तुम्हारे कृत्यों के कारण बांधती हैं। इस प्रकार जीव को उसके शुभ-अशुभ कर्म बांधते तुम्हारा रंग न निखरेगा। पाप से तो निखरेगा ही कैसे। और कालिख लग जायेगी। पुण्य से भी न निखरेगा। कितना ही सोना महावीर कहते हैं, बेड़ी सोने की या लोहे की, दोनों बांध लेती चढ़ा लो अपने ऊपर, तो भी न निखरेगा। | हैं। तुम इससे प्रसन्न मत हो जाना कि तुम कारागृह में बड़े खास मेरी रंगतें न निखर सकी, मेरी निहकतें न बिखर सकी कैदी हो। तुम्हारे हाथ में सोने की जंजीरें पड़ी हैं; दूसरे साधारण और न तुम्हारी सुगंध बिखर सकेगी तुम्हारे कृत्यों से। क्योंकि कैदी हैं, लोहे से बंधे हैं—इससे तुम बहुत ज्यादा प्रसन्न मत हो | तुम अपने कृत्यों से बहुत बड़े हो। | जाना। भिखारी बंधा होगा लोहे की जंजीरों में, सम्राट बंधा है मैं वह फूल हूं कि जो इस चमन में गिला-गुजारे सबा रहा। सोने की जंजीरों में। लेकिन असली सवाल तो बंधे होने का है। तुम्हारी शिकायत बनी ही रहेगी-तुम कितने ही बुरे कर्म तो जो बुरा कर्म करता है, वह भी बंधा हुआ है। पापी तो बंधा ही | करो; तुम नादिर हो जाओ, चंगेज हो जाओ, तैमूर, हिटलर हो | होता है, पुण्यात्मा भी बंधा होता है। और कभी-कभी तो ऐसा जाओ; या तुम कितने ही पुण्य-कर्म करो। तुम सम्राट अशोक होता है कि पुण्यात्मा पापी से भी ज्यादा बंधा होता है। क्योंकि हो जाओ कि सम्राट वू हो जाओ; तुम कितने ही पुण्य-कर्म करो पापी तो लोहे की बेड़ियां छोड़ना चाहता है; पुण्यात्मा सोने की | तो भी तम्हारा अंतिम निखार कृत्य से आनेवाला नहीं है। बेड़ियां बचाना चाहता है। तुम कृत्य से बड़े हो। ऐसे लहरों को निखार-निखारकर कहीं तो कभी-कभी तो ऐसा हो जाता है कि अपराधी भी छूटने को सागर निखरेगा? | उत्सुक होता है, लेकिन साधु छूटने को उत्सुक नहीं होता। सागर तो निखरेगा साक्षी-भाव में। सागर तो निखरेगा अनन्य क्योंकि उससे तुम कैसे छूटने को उत्सुक होओगे जिससे बड़ा भाव से स्व-द्रव्य में लीन हो जाने से। सुख मिल रहा है और जिसके कारण बड़ा सम्मान मिल रहा है। उपनिषदों में बड़े बहुमूल्य वक्तव्य हैं: 'यो वै भूमा जिसके कारण अहंकार भरता है, फलता-फूलता है! तत्सुख'- विशाल में है सुख। विराट में है सुख। 'नाल्पे तो कभी-कभी तो ऐसा हुआ है कि वे लोग अभागे हैं जिनके सुखमस्ति'-लघु में सुख कहाँ! छोटे में सुख कहां! 'भूमैव हाथ में सोने की जंजीरें पड़ी हैं; वे उनको बचाने लगते हैं: वे सुख'-निश्चय ही विराट में ही सुख है। 'भूमा त्वेव उनको आभूषण समझने लगते हैं। विजिज्ञासितव्यः।' इसलिए उस एक विराट को ही जानने को 'अतः परमार्थतः दोनों ही प्रकार के कर्मों को कुशील जानकर आकांक्षा कर। विराट! जहां कोई सीमा नहीं, जिसकी कोई उनके साथ न राग करना चाहिए और न उनका संसर्ग। क्योंकि परिभाषा नहीं! कशील कर्मों के प्रति राग और संसर्ग करने से स्वाधीनता नष्ट महावीर कहते हैं, वह विराट तुम्हारे भीतर छपा है। तम्हारे होती है।' कृत्य तो छोटी-छोटी ऊर्मियां हैं-शुभ और अशुभ-लेकिन और स्वाधीनता महावीर के लिए परम मूल्य है-अल्टीमेट सभी ऊर्मियां हैं। दूसरे के किनारे की तरफ चल पड़ती हैं। जब वैल्यू! उसके पार कुछ भी नहीं। जब तुम परिपूर्ण स्वाधीन हो, क्योंकि किनारे की तरफ कुछ भी नहीं जा रहा है। जब सागर में स्वाधीनता पर कोई बाधा नहीं, अनवरुद्ध तुम्हारी स्वतंत्रता कोई ऊर्मियां नहीं होती तो सागर किनारे से टूटा होता है-तभी तुम विराट हो, तभी तुम भूमा हो। तब तुम छोटे न है-तटहीन। तब सागर विराट होता है। रहे। और स्वतंत्रता तो दोनों से ही नष्ट हो जाती है। इसलिए न _ 'यो वै भूमा तत्सुख'-विराट में सुख है। 'नाल्पे पाप को पकड़ना न पुण्य को; न संसार को पकड़ना, न त्याग सुखमस्ति'-छोटे में कहां सुख! 'भूमैव सुख'-विराट को को। संसार को मत पकड़ना, संन्यास को मत पकड़ना। संसार 505 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340123
Book TitleJinsutra Lecture 23 Jivan ki Bhavyata Abhi aur Yahi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Jinsutra_MP3_and_PDF_Files
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy