Book Title: Jinsutra Lecture 18 Dharm Aavishkar Hai Param ka
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Osho Rajnish
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवां प्रवचन धर्म आविष्कार है-स्वयं का Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न-सार कृष्ण कहते हैं कि मारो और महावीर कहते हैं कि हिंसा का विचारमात्र हिंसा है। दोनों में श्रेष्ठ कौन है? बहुत समय से मैं आपके पास हूं और मैं बहुत अज्ञानी और निर्बुद्धि हूं यह आप भलीभांति जानते हैं। आपकी कही अनेक बातें मेरे सिर पर से गुजर जाती हैं। परमात्मा की प्यास का मुझे कुछ पता नहीं। फिर मैं क्यों यहां हूं और यह ध्यान-साधना वगैरह क्या कर रही हूं? जीवन व अस्तित्व के परम सत्यों की क्या निरपेक्ष अभिव्यक्ति संभव नहीं है? किसी प्यासे को जब मैं आपके पास लाती हूं तो वह मुझसे दूर हो जाता है। मुझे एक तड़प-सी होती है। लेकिन 'तेरी जो मर्जी' कहकर गा पड़ती हूं : 'राम श्री राम जय जय राम।' wwjainelibrar.org Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हला प्रश्नः कृष्ण कहते हैं कि मारो और महावीर अगर ठीक से समझो तो कृष्ण ने यह नहीं कहा है कि तू मार; कहते हैं कि हिंसा का विचार-मात्र हिंसा है। कृष्ण ने तो इतना ही कहा है, वह तुझे निमित्त बनाये मारने में तो कृपया बतायें कि दोनों में श्रेष्ठ कौन है? मार। कृष्ण की गीता को इस दृष्टि से कभी देखा नहीं गया। सोचो कि अर्जुन की जगह कोई दूसरा व्यक्ति होता तो अंततः यह श्रेष्ठ और अश्रेष्ठ के प्रश्न अत्यंत अज्ञान से भरे हुए हैं। उस निष्कर्ष भी ले सकता था कि मैं संन्यास लेता हूं क्योंकि उसकी ऊंचाई पर तुलना काम नहीं आती। और तुलना करने वाला मन मर्जी संन्यास की है। अपने को सब भांति छोड़ देता और फिर न तो महावीर को समझ सकेगा और न कृष्ण को समझ सकेगा। कृष्ण से कहता कि क्षमा करें, अपने को सब भांति छोड़ रहा हूं, क्योंकि तुलना करने वाला मन दुकानदार का मन है, समझदार तो एक ही भाव उठता है कि संन्यास ले लूं। तो जब उसकी मर्जी का नहीं। संन्यास की है तो मैं कैसे लडूं? जब एक ही भाव सब श्वासों में ऐसा ही समझो कि जैसे एक गिलास में आधा जल भरा हुआ मेरे गूंज रहा है कि छोड़ दूं सब, चला जाऊं वन-प्रांत में, तो जाता रखा हो और कोई कहे कि आधा गिलास खाली है और कोई कहे | हूं। तो कृष्ण इनकार न करते कि तूने गलत किया। कृष्ण कहते, कि आधा गिलास भरा है, और तुम मुझसे पूछो कि दोनों में श्रेष्ठ जो वह करवाये वही कर। कौन है, तो तुम बात समझे ही नहीं। जो आधा खाली है वह अर्जुन युद्ध किया, क्योंकि अर्जुन का सारा व्यक्तित्व क्षत्रिय आधा भरा भी है। जो आधा भरा है वह आधा खाली भी है। का था। अर्जुन जो संन्यास की बात कर रहा था, वह ऊपर-ऊपर दोनों ने कहने के अलग-अलग ढंग चुने हैं। एक ने विधेय पर थी, बौद्धिक थी; वह वास्तविक न थी। अगर वास्तविक होती जोर दिया, एक ने निषेध पर जोर दिया। एक ने भरे हिस्से को तो कृष्ण की गीता से वह संन्यास का ही सार लेता। देखा, एक ने खाली हिस्से को देखा। लेकिन दोनों ने ही सत्य की कृष्ण की गीता में ठीक-ठीक निर्देश नहीं है कि क्या करो; तरफ इशारा किया। कृष्ण की गीता में तो इतना ही निर्देश है कि तुम मत करो, उसे कृष्ण कहते हैं, कर्तृत्व तेरा नहीं है, परमात्मा का है। इसलिए | करने दो। फिर अगर उसने यही चुना है कि तुमसे हजारों लोगों मैं करनेवाला हूं, यह भाव ही छोड़ दे। यह भाव ही हिंसा है। मैं को कटवा दे, तो उसकी मर्जी ! तुम यह मत सोचना कि तुम कर निमित्त-मात्र हूं; वह जो करवायेगा, मैं करूंगा; मैं बीच में न रहे हो। तुम अपने को सब भांति समर्पित करो। खड़ा होऊंगा। मैं कोई बाधा न डालूंगा। कृष्ण की भाषा समर्पण की भाषा है। तुम इस भांति शून्यवत मैं बांस की पोंगरी की तरह हो जाऊंगा; वह जो गायेगा, जो खड़े हो जाओ कि जहां उसकी हवाएं ले जायें वहीं चले जाओ। गुनगुनायेगा, उसकी मर्जी! तुम तैरो मत-बहो। 393 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 1 जब अर्जुन ने अपने को छोड़ा तो तत्क्षण उसका संन्यास का कि मेरे रहते इतना बड़ा मकान पड़ोस में खड़ा कर दिया। अब भाव विदा हो गया। वह युद्ध के लिए तत्पर हो गया। उसने चाहे सारा जीवन दांव पर लग जाये, बड़ा मकान बनाकर गांडीव फिर उठा लिया। क्योंकि वह बांसुरी बनी ही उसके लिए दिखाना है। तो तुमने बड़ा मकान बनाया, 'मैं' को बड़ा थी। वही गीत अर्जुन गा सकता था। अर्जुन योद्धा था, क्षत्रिय | किया–हिंसा हो गई। था। वह परमात्मा का सैनिक ही हो सकता था, परमात्मा का तुम किसी आदमी के पास से अकड़कर निकल गये-हिंसा संन्यासी नहीं हो सकता था। वह उसकी नियति थी। हो गई। हिंसा तुम्हारी जहां भी 'मैं' की धारा गहरी होती है, वहीं इसलिए तुम...यह प्रश्न किसी जैन ने पूछा है, इसलिए वह हो जाती है। कहता है, कृष्ण कहते हैं कि मारो।' कृष्ण कहते नहीं कि तो महावीर ने कहा, कर्मों को छोड़ो, जिनसे हिंसा होती है। मारो। कृष्ण न कहते कि मत मारो। कृष्ण इतना ही कहते हैं, जो जिनसे दूसरे को चोट लगती है, वह छोड़ो। जिनसे दूसरों को करवाये...! तुम निर्णय न लो, उसी को निर्णय दो। बागडोर | दुख होता है, वह छोड़ो। और तब तुम चकित होकर देखोगे कि उसके हाथ में दे दो। तुम शून्यवत खड़े हो जाओ। और जो जिससे दूसरे को चोट लगती है, उसी से तुम्हारा अहंकार मजबूत अंतर्तम से उठे, जो उसकी आवाज आये उसी दिशा में चल | होता है, और कोई उपाय नहीं है। भोजन ही अहंकार का यही है पड़ो। कृष्ण का मार्ग समर्पण का है। अर्जुन युद्ध में गया, | कि दूसरे को चोट लगे। सांस्कृतिक, सभ्य ढंग से लगे कि क्योंकि सब भांति अपने को शुन्य करके उसने यही पाया कि यही असभ्य ढंग से लगे; तुम किसी को गाली दो कि किसी का व्यंग्य आवाज आती है कि 'कर्तव्य को पूरा कर! अब फिर मैं क्या कर | करो; तुम किसी को जिंदगी के युद्ध में पछाड़ दो, गिरा दो; या सकता हूं?' तुम त्याग के युद्ध में किसी को हरा दो कि तुम किसी को अपने से महावीर कहते हैं, हिंसा का भाव-मात्र हिंसा है। कृष्ण भी यही छोटा त्यागी करके सिद्ध कर दो-कोई फर्क नहीं पड़ता। तुम कहते हैं अगर तुम समझने की कोशिश करो। कृष्ण तो यह भी कोई भी माध्यम चुनो, जिस माध्यम से भी दूसरे को दुख हो कहते हैं कि हिंसा का भाव तो हिंसा है ही, अहिंसा तक का भाव सकता है, वह माध्यम हिंसा है। और हिंसा से 'मैं' मजबूत कि मैं अहिंसा करता हूं, हिंसा है। मैं करता हूं, इसमें हिंसा है। होता है। जोर कृत्य पर नहीं है, कर्ता पर है। मैं हूं, यही हिंसा है। 'मैं' को | तो महावीर कहते हैं, हिंसा के सारे कृत्य छोड़ दो। हिंसा का हटा लो, अहिंसा हो जाएगी। भाव तक छोड़ दो, कृत्य की तो बात अलग। क्योंकि भाव भी अर्जुन युद्ध में लड़कर भी अहिंसक रहा, हिंसक नहीं है। काफी है; वह भी भोजन बन जायेगा, वह भी अहंकार को क्योंकि जिसने अपना कर्तव्य ही हटा लिया, जिसने अपना मजबूत करेगा। जब तुमने हिंसा के सब भाव, कृत्य छोड़ दिये, कर्ता-भाव ही हटा लिया, उसको अब तुम कर्म के लिए दोषी न तुम अचानक पाओगे तुम्हारा 'मैं' धूल-धूसरित हो गया, गिर ठहरा सकोगे। दोनों एक ही बात कह रहे हैं। कृष्ण का जोर है पड़ा, समाप्त हो गया। कि कर्ता-भाव गिरा दो, और महावीर का जोर है कि कर्म को यह महावीर की प्रक्रिया है: कर्म के विसर्जन से कर्ता का रूपांतरित कर दो। विसर्जन! निश्चित ही यह प्रक्रिया क्रमिक होगी। एक-एक कर्म अब थोड़ा समझना। अगर तुम हिंसक कर्मों को छोड़ते चले को ध्यान रखकर, साधना साधनी होगी, एक-एक कर्म का जाओ तो तुम्हारा 'मैं' गिरने लगेगा, क्योंकि 'मैं' बिना हिंसा हिसाब रखकर चलना होगा, क्योंकि बड़े सूक्ष्म हैं के खड़ा नहीं रह सकता। 'मैं' के लिए हिंसा चाहिए-बड़ी कर्म...जरा-सी आंख का इशारा और हिंसा हो जाती है। तो सूक्ष्म हो, स्थूल हो, लेकिन हिंसा चाहिए। बड़ी लंबी प्रक्रिया है, संकल्प का मार्ग है। इंच-इंच लड़ना पड़ोसी ने मकान बनाया, तुम बड़ा मकान बना लो-हिंसा हो | होगा, पहाड़ चढ़ना होगा। गई। क्योंकि तुमने बड़ा मकान सिर्फ बनाया इसलिए कि अब | कृष्ण कहते हैं, ऐसा एक-एक कर्म को छोड़ोगे पड़ोसी को नीचा दिखाना है। यह इसने इतनी हिम्मत कैसे की | फुटकर-फुटकर, लंबा समय लग जायेगा। और फिर कृष्ण और 394 ain Education International Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ENTERTA धर्म आविष्कार है-स्वयं का BAR अर्जुन के बीच समय था भी नहीं। कृष्ण की जो गीता है, वह एक लेकिन दोनों ही हालत में एक ही घटना घटती है। अंतिम विशेष परिस्थिति में कही गई है। महावीर अपने शिष्यों से बोल परिणाम एक है। इसलिए जो ऐसा पूछता है कि दोनों में कौन रहे थे चालीस साल तक। कृष्ण की गीता तो क्षणों में हो गई। ये श्रेष्ठ है, वह गलत पूछता है। वह दोनों में से किसी को भी नहीं कोई साधारण क्षण न थे, बड़े असाधारण क्षण थे। बड़ी संकट समझा। तुम अगर महावीर को समझ लो, कृष्ण समझ में आने की स्थिति थी। यहां अगर एक-एक कर्म को छोड़ने के लिए ही चाहिए। अगर तम कृष्ण को समझ लो और महावीर समझ में कृष्ण कहें, समय ही न था। युद्ध द्वार पर खड़ा था। युद्ध सामने | न आयें, तो कृष्ण समझ में नहीं आये। मेरे देखे जिसने एक खड़ा था। शंख बज गये थे। युद्ध की घोषणा हो गई थी। योद्धा | अनुभवी को समझ लिया, उसने सब अनुभवियों को समझ एक-दूसरे के सामने अड़े थे। अर्जुन ने भी कहा था, मेरे रथ को लिया। फिर उसे भाषा, ढंग, अभिव्यक्ति, अभिव्यंजना के ले चलो बीच युद्ध में। और कृष्ण युद्ध के बीच में रथ को ले प्रकार, उलझाव में न डाल सकेंगे। फिर कोई चीज उसकी आंखों आये थे। ठीक उस क्षण में जब युद्ध सामने था, क्षणभर की देर को धुंधला न कर सकेगी। लेकिन मैं देखता हूं कि जो महावीर के न थी, शंख फूंके जा रहे थे, युद्ध शुरू होने के करीब था, जल्दी पक्ष में हैं, वे कृष्ण के विपक्ष में हैं। जो कृष्ण के पक्ष में हैं, वे ही मार-धाड़ होगी-तभी अर्जुन को दिखाई पड़ा, रोमांचित हो | महावीर के विपक्ष में हैं। जो महावीर के पक्ष में है, वह मुहम्मद आया, एक पुलक हुई। उसे लगा, यह तो व्यर्थ है। इतना युद्ध, | के पक्ष में तो हो ही कैसे सकता है? जो मुहम्मद के पक्ष में है, इतनी हिंसा-क्या सार है? उसके हाथ ढीले पड़ गये, गात | वह कैसे महावीर की बात को बरदाश्त कर सकता है? शिथिल हुए, गांडीव हाथ से छूट गया। वह थका-मांदा, डरा साफ है, इनमें से कोई भी समझा नहीं। इन्होंने शब्द पकड़ हुआ रथ में बैठ गया। उसने कृष्ण से कहा, मैं तो सोचता हूं कि लिये हैं। ये लड़ रहे हैं एक-दूसरे से; क्योंकि एक कहता है सब छोड़कर चला जाऊं। | गिलास आधा खाली है, और दूसरा कहता है गिलास आधा भरा यह बड़े संकट का क्षण था। यहां कोई ऐसी प्रक्रिया जिसमें है। ये सिर काटने-कटवाने को तैयार हैं। स्वभावतः भाषा में जन्मों-जन्मों लगते, साधना करनी पड़ती हो, काम की नहीं हो | दोनों अलग-अलग मालूम पड़ते हैं। एक कहता है, आधा सकती थी। तो कृष्ण ने जो कहा, वह ऐसा था कि तत्क्षण हो खाली है, तो जोर मालूम होता है खाली पर; एक कहता है आधा सके, एक छलांग में हो सके। भरा है, तो जोर मालूम होता है भरे पर। अब खाली और भरा! संकल्प तो धीरे-धीरे होता है। संकल्प यात्रा है-सीढ़ी दर विरोधाभासी हो गये। लेकिन जरा आधे का खयाल रखना। उस सीढ़ी, इंच-इंच, रत्ती-रत्ती। वह फुटकर काम है। समर्पण आधे में ही सारा सार है। छलांग है-थोक, इकट्ठा। एक क्षण में भी हो सकता है। मेरे देखे दोनों की बातों में कोई गहरा अंतर नहीं है-हो नहीं महावीर जिन शिष्यों को बोल रहे थे, वे युद्ध के स्थल पर न सकता। तुम्हें न दिखाई पड़े तो अपनी आंखों पर थोड़े पानी के थे। इस विशेष परिस्थिति को खयाल में रखना। तो कृष्ण यह तो छींटे मारना। थोड़ा जागने की कोशिश करना। कह नहीं सकते कि तू अपने कर्म बदल! कृष्ण यही कह सकते हैं जल्दी निर्णय मत लेना।। सी घडी में त अपने कर्ता को ही रख दे। और कर्ता को जब भी तम्हें दो सत्परुषों में कोई विरोध दिखाई पडे. तो पहली रखने से भी वही हो जाता है। क्योंकि अंततः कर्मों को बदलने से बात तो तुम यही सोचना कि मेरे देखने में कहीं भूल हुई जा रही कर्ता ही गिरेगा; तो जब कर्ता को ही गिराना है तो सीधा ही गिरा है। इसे तुम गांठ में बांधकर रख लो। जब भी तुम्हें दो सत्पुरुषों दो। कर्ता को ही छोड़ दो। | में कोई विरोध दिखाई पड़े, तो पहली बात तो तुम यही सोचना समर्पण भक्त का मार्ग है। वह कहता है, परमात्मा के चरणों कि मुझसे कहीं भूल हुई जा रही है; कहीं मेरे देखने, समझने में, में रख दो; कह दो कि मैं कुछ हूं नहीं, अब जो हो तेरी मर्जी! बुरा कहीं मेरी चिंतना में, परिभाषा में, व्याख्या में, चूक हुई जा रही करवायेगा, बुरा करेंगे; अच्छा करवायेगा, अच्छा करेंगे। अब है। क्योंकि दो सत्पुरुष विपरीत बातें तो कह नहीं करना हमारा नहीं है। सकते–विपरीत कहें तो भी विपरीत कह नहीं सकते। उनकी 3951 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ATTA जिन सूत्र भागः1 विपरीतता में भी कहीं कोई तालमेल होगा। उनकी विपरीतता के घूघर होंगे, न गीत होगा। महावीर के वक्तव्य बिलकुल बीच भी कोई सेतु होगा—होना ही चाहिए। इससे अन्यथा की वैज्ञानिक होंगे, सूत्रबद्ध होंगे। जितना संक्षिप्त हो सकता है, कोई सुविधा नहीं है। उतना संक्षिप्त होगा। और इन दोनों के वक्तव्य की व्यवस्था लेकिन तुम्हारा मन तो जैसे और संसार में चीजों के बाबत अलग-अलग होगी, इससे तुम चिंता में पड़ जाओगे। विचार करता है, तुलना करता है-कौन अच्छा, कौन बुरा, लेकिन तुमसे मैं एक बात कह देता हूं: तुम तब तक निर्णय मत कौन सुंदर, कौन असुंदर, कौन ज्ञानी, कौन अज्ञानी—इन्हीं लेना जब तक तुम न जान लो।। मूल्य-मापदंडों को लेकर तुम उस परम लोक में भी खड़े हो जाते फिर तुम पूछोगे, 'हम करें क्या? जानें कहां से?' हो। तो वहां भी कौन बड़ा, कौन छोटा, कौन आगे, कौन पीछे, मैं कहता हूं, किसी को भी चुन लो। श्रेष्ठ-अश्रेष्ठ का सवाल किसने ज्यादा जाना, किसने कम जाना, किसका जानना ठीक, नहीं है। जो तुम्हें मौजू पड़ जाये, जो तुम्हें रास पड़ जाये, जिससे किसका गैर-ठीक-इस चिंतना में पड़ जाते हो। और इस सब तुम्हारा मेल बैठ जाये—वही तुम्हारे लिए श्रेष्ठ है। नहीं तो तुम चिंतना के भीतर एक बात तुम कभी सोचते ही नहीं कि मैंने अभी मुश्किल में पड़ जाओगे। अगर तुम यह सोचने लगे कि तय ही कुछ भी देखा नहीं है। तो जिन दो देखनेवालों ने कुछ कहा है, मैं नहीं करना है कि कौन श्रेष्ठ है, तो फिर हम चलें किसके साथ! न देखनेवाला, अंधा, कैसे तय करूं कि कौन ठीक कहता | जब तुम तय करना चाहते हो कौन श्रेष्ठ है, तो कौन श्रेष्ठ है, यह होगा? अगर तय ही करना हो तो देखकर ही तय तय करने के लिए मत करना। तुम तो इतना ही तय करना, मेरे करना-आंख खोलकर रोशनी से भरकर। तब तुम हंसोगे। लिए कौन! 'मेरे' का खयाल रखना। वह वक्तव्य तुम्हारी ऐसा ही समझो कि इस बगीचे में एक कवि आ जाये और सापेक्षता में है। नहीं अगर तुम तय न कर पाये तो तुम मुश्किल लौटकर तुम उससे पूछो, क्या देखा, और वह एक गीत में पड़ोगेगुनगुनाये। अब सभी तो गीत न गुनगुना सकेंगे। दूसरा भी कोई काबे से दैर, दैर से काबा इस बगीचे में आये; उसको भी यही फूल मिलेंगे, यही वृक्ष होंगे, मार डालेगी राह की गर्दिश। यही हवाएं होंगी, यही पक्षियों के गीत होंगे-लेकिन वह गीत फिर मंदिर से मस्जिद, मस्जिद से मंदिर-राह की धूल ही मार गुनगुनाना नहीं जानता। वह भी जाकर कहेगा बाहर, क्या डालेगी। कुछ तो तय करना ही पड़ेगा-मंदिर या मस्जिद। देखा। लेकिन स्वभावतः कवि के वक्तव्य में और उसके वक्तव्य कहीं तो बैठकर प्रार्थना करनी है! कहीं तो पूजा करनी है! में भेद हो जायेगा। कोई तीसरा आदमी, लकड़हारा आ जाये, तो तो अगर तुम ऐसे डावांडोल होने लगे तो मुश्किल हो जायेगा। वह यहां इस बगीचे में सिर्फ लकड़ियां देखेगा-कौन-कौन-सी अगर तुमने यह सवाल इसलिए पूछा है कि मेरे लिए कौन ठीक लकड़ियां काटी जा सकती हैं। कौन आयेगा, कैसी भाषा लेकर पड़ेगा, तब तो ठीक पूछा है। अगर महावीर और कृष्ण के बीच आयेगा-इस पर निर्भर करेगा। फिर जब वह जाकर अपना निर्णय करने को पूछा है, तो बिलकुल गलत पूछा है। हां, तुम्हारे वक्तव्य देगा तो तुम यह मत सोच लेना कि ये अलग-अलग लिए कोई एक ठीक पड़ेगा। वक्तव्य, अलग-अलग बगीचों के संबंध में हैं। ये वक्तव्य जिनको जीवन में संकल्प में रस है और जिनको समर्पण करना बिलकुल अलग-अलग होंगे, फिर भी ये एक ही बगीचे के असंभव है, उनके लिए महावीर ठीक हैं। जिनके लिए समर्पण संबंध में हैं। सुगम है और संकल्प कठिन है, उनके लिए कृष्ण ठीक हैं। सत्य एक है; जाननेवालों ने उसे बहुत ढंग से कहा है। क्योंकि कृष्ण कहते हैं, मामेकं शरणं व्रजः। सब छोड़! सर्व धर्मान् जाननेवाला अपने ही ढंग से कहेगा। अब महावीर और मीरा के परित्यज्य; छोड़-छाड़ सब धर्म! मेरी शरण आ जा! यही धर्म | वक्तव्य में मेल नहीं हो सकता। मीरा है मदमस्त। मीरा है स्त्री, है, यही परम धर्म है। महावीर हैं पुरुष। मीरा कहेगी नाचकर, गुनगुनाकर। उसके पग महावीर कहते हैं, शरण भूलकर किसी की मत जाना। शरण के घूघर बजेंगे। उस ढंग से कहेगी। महावीर न नाचेंगे, न पग में गये कि उलझे। शरण गये कि दास बने। शरण से कहीं मोक्ष 396 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म आविष्कार है--स्वयं का उपलब्ध होगा? यह शरण तो गुलामी है। सम्हलकर अपनी वृत्तियों का परीक्षण-निरीक्षण करना, अशरण-भावना—महावीर का सूत्र है। अशरण--भावना।। विश्लेषण करना। अपने रस की धार को पहचानना। ज्यादा देर कोई शरण नहीं! कहीं कोई शरण नहीं है-अपने ही पैर पर खड़े न लगेगी, थोड़े प्रयोग करने से साफ हो जायेगा कि कौन-सी होना है। बात जमती है। कौन-सा भोजन तुम्हें रास आता है, यह तुम्हें दोनों ठीक हैं। मगर दोनों एक साथ तुम्हारे लिए ठीक नहीं हो जल्दी ही पता चल जायेगा। जो भोजन रास आयेगा, उसे पाकर सकते। दोनों एक साथ मेरे लिए ठीक हैं। तुम्हें दो में से कोई एक प्रफुल्लता मालूम होगी। जो भोजन रास न आयेगा, उसे ले लेने चुनना पड़ेगा। अन्यथा के बाद बोझ मालूम होगा; जैसे पेट पर पत्थर डाल दिये; मतली काबे से दैर, दैर से काबा होगी। शरीर उसे बाहर फेंक देना चाहेगा। व्यवस्था उसे मार डालेगी राह की गर्दिश। स्वीकार न करेगी। धुआं, धूल, राह की आपाधापी में ही तुम नष्ट हो जाओगे | ठीक ऐसा ही आत्मिक भोजन है। जब तुम्हें कोई मार्ग रास आ समय ही न बचेगा मंदिर में प्रवेश करने का कि मस्जिद में प्रवेश जाता है, तत्क्षण सब तरफ फूल खिलने लगते हैं। तुम प्रसन्न हो करने का। प्रार्थना करनी है तो कहीं तो चुनना ही होगा। लेकिन जाते हो। तुम प्रफुल्लित हो जाते हो। वह लक्षण है। अगर तुम चुनाव का ध्यान रखना-'मेरे' कारण चुन रहा हूं; उनमें कौन सूख जाओ, उदास हो जाओ, दीन हो जाओ, तो बस बात खराब श्रेष्ठ है, इस कारण नहीं। सापेक्षता अपनी तरफ रखना। यह मैं | हो गई। दोनों को साथ नहीं चुन सकता। इतना बड़ा मेरे पास हृदय नहीं। मैंने सुना है, एक पादरी, एक ईसाई धर्मगुरु, एक रास्ते से गुजर इतनी विराट मेरी दृष्टि नहीं कि दोनों को साथ-साथ सम्हालूं! रहा था। अचानक बादल उठे, जोर की आंधी आई, बिजलियां इतना मेरे घर में स्थान नहीं कि दोनों को साथ-साथ मेहमान बना चमकी, वर्षा मूसलाधार होने लगी। तो वह भागकर पास के एक लू! यह मजबूरी मानकर चुनना कि घर छोटा है और एक को ही | झाड़ के नीचे खड़ा हो गया। घनी छाया थी। झाड़ के नीचे एक बुला सकता हूं। बूढ़ा भी बैठा हुआ था। वह बूढ़ा प्रार्थना कर रहा था। उस जिस दिन तुम जागोगे, उस दिन तो तुम पाओगेः दोनों एक ही | धर्मगुरु ने खुद भी जिंदगीभर हजारों लोगों को प्रार्थना करवाई सत्य के दो भिन्न चेहरे हैं। लेकिन तब तक तुम्हें निर्णय करना थी, खुद भी हजारों बार प्रार्थना की थी, लेकिन प्रार्थना में कभी जरूरी है। और यह निर्णय बहुत जागरूक रहकर करना। यह रस न पाया था। करता था एक औपचारिक क्रिया-कांड। ईसाई निर्णय जन्म पर मत छोड़ देना कि तुम जैन घर में पैदा हुए तो घर में पैदा हुआ था, फिर ईसाई पादरी की तरह शिक्षित हो गया, महावीर तुम्हें श्रेष्ठ होने ही चाहिए। काश! चीजें इतनी आसान तो दूसरों को भी करवाता था; लेकिन मन में कभी तरंग न उठी होती! कि तुम हिंदू घर में पैदा हुए, इसलिए कृष्ण तुम्हें श्रेष्ठ होने | थी। इस बूढ़े को डोलते देखा। इस बूढ़े के टूटे-फूटे शब्द! ही चाहिए। काश! जन्म ने इतना तय कर दिया होता तो मार्ग लेकिन उसकी आंखों की मस्ती! उसके चेहरे पर एक बड़ा सुगम हो जाता। लेकिन ऐसा कुछ भी तय नहीं होता। ऐसा आभामंडल! उसे पहली दफे लगा : अरे! तो प्रार्थना मैंने अब कुछ भी तय होने का उपाय नहीं है। तक जानी नहीं! ऐसी शांत! ऐसी उपस्थिति! ऐसी पवित्र जीसस यहूदी घर में पैदा हुए लेकिन यहूदियों का मार्ग न उपस्थिति उसने कभी अनुभव न की थी। जमा। मुहम्मद मूर्ति-पूजक घर में पैदा हुए थे, लेकिन मूर्ति-पूजा उस बूढ़े के चेहरे पर झुर्रियां पड़ गई थीं। बड़ा बूढ़ा था, काफी का मार्ग न जमा। महावीर पैदा हुए थे तो राज-घर में, क्षत्रिय थे, | उम्र हो गई थी, नब्बे के करीब उम्र होगी। लकड़हारा था, युद्ध का ही शिक्षण मिला था, लेकिन युद्ध की भाषा, राजमहल, लकड़ियों का ढेर बगल में रखा था। लौटता होगा शहर, वर्षा क्षत्रिय, राजनीति, न जमी। छोड़ सब, संन्यासी हो गये। आ गई तो रुक गया। समय प्रार्थना का हो गया, तो प्रार्थना कर क्या तुम्हें जमेगा? जन्म से मत पूछना कि कहां हम पैदा हुए। रहा था। जब प्रार्थना पूरी हो गई, तो पादरी ने बड़े अहोभाव से वहां पूछा तो भटकाव का डर है। क्या तुम्हें जमेगा? थोड़ा| पूछा कि तुम्हारा ईश्वर से बड़ा प्रेम है! उस बूढ़े ने कहा, 'हां, 397 www.jainelibrar.org Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग 1 उसका भी मेरे प्रति बड़ा प्रेम है! सच कहूं तो वह मुझे काफी दुनिया अधार्मिक हो गई, क्योंकि धर्म को हम जन्म से तय करते चाहता है।' हैं। धर्म कोई वसीयत थोड़े ही है। और धर्म का कोई खून, हड्डी, उस पादरी का जीवन मैं पढ़ रहा था। उसने लिखा है, प्रार्थना मांस-मज्जा से थोड़े ही संबंध है! धर्म कोई वांशिक के संबंध में इससे अदभुत वचन मैंने अपने जीवन में कभी नहीं 'हेरिडिटरी' थोड़े ही है कि तुम जैन घर में पैदा हुए तो तुम्हारा सुने थे। उस बूढ़े ने कहा कि अगर सच कहूं, तो वह मुझे काफी खून जैन का है। तो डाक्टर से जाकर जांच करवाकर देख लो कि चाहता है। जैन और हिंदू और मुसलमान के खून में...डाक्टर कुछ पता न प्रार्थना रास आ जाये, तुम्हारे रुझान में बैठ जाये, तो ऐसा ही बता सकेगा-कौन हिंदू का है, कौन जैन का है, कौन नहीं कि तुम परमात्मा को चाहते हो, तत्क्षण तुम पाओगेः वह भी मुसलमान का है। हड्डी कोई हिंदू, जैन, मुसलमान नहीं होती। तुम्हें चाहता है। चाहत कोई एक तरफ थोड़े ही होती है! तुम उस | हिंदू, जैन, मुसलमान, तो तुम्हें निर्णय करना होगा। तरफ से भी पाओगे : संवाद आने लगे, संदेश आने लगे। तुम | लेकिन लोग कमजोर हैं, सुस्त हैं, काहिल हैं, कायर हैं। कौन उस तरफ से भी पाओगेः हजार-हजार रूपों में उसका प्रेम तुम झंझट में पड़े! इसलिए कोई भी बहाने से तय कर लेते हैं कि पर बरसने लगा। चलो ठीक है, जन्म से ही हो गया तय तो झंझट मिटी। खुद तो हां, अगर प्रार्थना जमे न, तो तुम्हीं करते रहोगे; दूसरी तरफ से खोजने से बचे! खद तो विवेक करने से बचे! कौन विश्लेषण कछ भी न आयेगा। बोझ लगेगा। करना है, इसलिए कर करता, कौन खोजता, कहां जाते, किसको पूछते, मुफ्त तय हो लोगे। कर्तव्य है, इसलिए पूरा निपटा दोगे। सदा घर में होती गया-चलो ठीक है। रही इसलिए करना है, तो कर देते हैं। लेकिन पुलक न होगी। __ यह तो ऐसे ही है, जैसे रुपये को तुम फेंककर चित्त-पट्ट कर लो अहोभाव न होगा। आनंद न होगा। और सोचो कि इससे धर्म तय हो जायेगा। चित्त पड़े तो महावीर, और जिस प्रार्थना में अहोभाव न हो, उस प्रार्थना से कैसे पट्ट पड़ जाये तो कृष्ण। जैसा वो बेहूदा और अप्रासांगिक है, तुम्हारी भूख मिटेगी। | ऐसे ही जन्म भी बेहूदा और अप्रासांगिक है। कहां तुम पैदा हुए तो ध्यान रखना, अपनी भीतर की दशा को पहचानना ज्यादा हो, इससे तुम्हारी जीवन-चिंतना और धारा का कोई संबंध नहीं जरूरी है। महावीर ठीक हैं, श्रेष्ठ हैं, कि कृष्ण-यह बात तो है। तुम्हें अपना धर्म खोजना पड़े। फिजूल। तुम्हें महावीर जमते हैं? सिर्फ इसलिए नहीं कि तुम खोज से ही मिलता है धर्म। धर्म आविष्कार है। और जब कोई जैन घर में पैदा हुए हो। अगर सिर्फ इसलिए जमते हैं तो तुम खुद खोजता है अपने धर्म को, तो उस खोज के कारण ही धर्म में भटकोगे। अगर सच में जमते हैं, ऐसे जमते हैं कि अगर तुम एक रौनक होती है। जो व्यक्ति पहली दफा महावीर को खोजते मुसलमान घर में भी पैदा होते तो भी तुम जैन मंदिर में ही प्रार्थना हुए आये थे, उन्होंने जिस प्रकाश और महिमा का आनंद उठाया, करने गये होते; ऐसे जमते हैं कि तुम चाहे हिंदू घर में पैदा होते, वो जैन घर में पैदा हुए पच्चीस सौ साल बाद बच्चे थोड़े ही उठा चाहे बचपन से गीता सुनी होती, लेकिन जिस दिन महावीर का रहे हैं। शब्द तुम्हारे कान में पड़ता, सब गीता-वीता भूल जाते और तुम जो महावीर को खोजते आये थे, जो दूर-दूर से प्यासे होकर महावीर के पीछे दौड़ पड़ते-ऐसे जमते हैं तो फिर महावीर | आये थे, जिन्होंने तीर्थयात्रा की थी; जिन्होंने महावीर को चुना था तुम्हारे लिए मार्ग हैं। नहीं ऐसे जमते हैं, इतने जोर की पुकार नहीं सारे संकटों के बावजूद; जिन्हें महावीर की पुकार हृदय को छू तुम्हारे भीतर पैदा होती उनके नाम को सुनकर, उनके नाम को गई थी, आंदोलित कर गई थी; जिन्होंने क्राइस्ट को चुना या सुनकर तुम्हारे हृदय में कोई घंटियां नहीं बजती, सुन लेते हो कि मुहम्मद को चुना स्वेच्छा से, अंतरंग से...तो उतना खयाल ठीक है, अपना धर्म है तो फिर कुछ सार नहीं। फिर तुम कहीं रखना। और इतने ईमानदार रहना। क्योंकि अगर यहां बेईमानी और खोजो। फिर किसी और मंदिर के द्वार पर दस्तक दो। हो गई, इस बुनियादी बात में बेईमानी हो गई, तो तुम सदा के धर्म हमेशा ही अपना चुना हुआ होता है, तो ही होता है। लिए भटक जाओगे। 398 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म आविष्कार है-स्वयं का दूसरा प्रश्न भी इससे संबंधित है। 'गुणा' ने पूछा है : कारागृह पत्थर की ईंटों के ही नहीं होते, शब्दों की ईंटों के भी बहुत समय से मैं आपके पास हूं और मैं बहुत अज्ञानी और होते हैं और ज्यादा मजबूत होते हैं। बचपन से जो सुना है, निर्बद्धि हं, यह आप भलीभांति जानते हैं। आपकी कही अनेक बचपन से जो समझा है, जिसके संस्कार पड़े हैं, वह तुम्हारे चारों बातें मेरे सिर पर से गुजर जाती हैं। आप परमात्मा से बिछुड़न तरफ दीवाल बन जाती है। फिर बाद में उस दीवाल के बाहर की जिस पीड़ा की बात करते हैं, वह पीड़ा मुझे कभी हुई नहीं। निकलने में बड़ी घबड़ाहट होने लगती है। ऐसा लगता है, यह परमात्मा की प्यास का मुझे कुछ पता नहीं। फिर मैं क्यों यहां हूं तो अधर्म हो जायेगा। इससे बाहर गये तो अधर्म हो जायेगा। और यह ध्यान-साधना वगैरह क्या कर रही हूं? इसके भीतर रहने में ही धर्म है। और भीतर रहने में प्राण अकुलाते हैं। 'गुणा' की भी तकलीफ वही है जो मैंने अभी तुमसे कही। महावीर का ढंग बड़ा भिन्न है। वह जैन घर में पैदा हुई है। इसलिए परमात्मा शब्द सार्थक नहीं मुझे तलाश रही है है; प्यास शब्द भी सार्थक नहीं है। जैन घर की भाषा में परमात्मा नहीं, तलाश नहीं और प्रार्थना के लिए कोई स्थान नहीं है। संस्कार जैन के हैं, प्राण तलाश में तो तलब जैन के नहीं हैं। ऊपर से सारी धारा बौद्धिकता से तो जैन की है, | जुस्तजू-सी होती है और भीतर के प्राण तो एक अत्यंत भावुक स्त्री के हैं। दबा-दबी ही सही कृष्ण से रंग बैठ सकता था। कृष्ण के साथ नाच हो सकता आरजू-सी होती है था। महावीर के साथ नाच बैठता नहीं। नाचो तो उपद्रव मालूम न आरजू न तलब है होगा महावीर के साथ। वहां नाच की कोई संगति नहीं है। वहां न जुस्तजू न तलाश गीत. वाद्य की कोई संगति नहीं है। यही कठिनाई है। जरा-सी एक जराहत इसलिए जब मैं कहता हूं, परमात्मा की प्यास, तो जैन सुन जरा-सी एक खराश। लेता है; लेकिन उसके भीतर कुछ होता नहीं। उसके सारे मुझे तलाश रही है संस्कारों की पर्ते-कैसा परमात्मा! कैसी प्यास! मुझसे थोड़ा | नहीं, तलाश नहीं। लगाव है तो सुन लेता है, बर्दाश्त कर लेता है। लेकिन ऐसे | खोज की भाषा ही ठीक नहीं है; क्योंकि खोज का अर्थ ही होता उसकी पर्तों के भीतर बात नहीं उतरती। है, बाहर खोजना। खोज का अर्थ ही होता है कि कहीं परमात्मा ठीक वैसा ही जब मैं कहता हं-अशरण-भावना, संकल्प. छिपा है और खोजना है स्वयं अपने पैरों पर खड़े हो जाना—जब मैं महावीर की बात मुझे तलाश रही है करता हूं तो हिंदू सुन लेता है, मुझसे लगाव है। लेकिन वह नहीं, तलाश नहींसोचता है, कहीं न कहीं यह तो बड़ी अहंकार की ही बात हो रही तलाश में तो तलब... है। अपने पैर पर खड़े होना—इसमें कुछ समर्पण तो है नहीं। और फिर तलाश में तो इच्छा पैदा हो जाती है, वासना आ सब परमात्मा पर छोड़ना है, और इसमें कोई समर्पण की बात जाती है। परमात्मा को खोजने की भी तो वासना है, आकांक्षा है, नहीं है। मेल नहीं बैठता। अभीप्सा है। वही कठिनाई ‘गुणा' की है। गुणा के पास एक भावुक हृदय | | तलाश में तो तलब है, जो नाच सकता है, गा सकता है, गुनगुना सकता है। उसको | जुस्तजू-सी होती है। जरूरत थी किसी और भाषा की। जैन भाषा उसके काम की नहीं और फिर इच्छा जल्दी ही आकुल इच्छा बन जाती है, तीव्र हो है। जैन भाषा में फंसी है। उस भाषा के बाहर आने की हिम्मत जाती है, फिर जलाने लगती है। भी नहीं है। महावीर के मार्ग पर तो समस्त इच्छाओं के त्याग से रास्ता 399 www.jainelibray.org Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः1 खुलता है। समस्त इच्छाओं के त्याग में मोक्ष की इच्छा भी जरा-सी एक खराश सम्मिलित है। -और उस घाव में पीड़ा है। इसे थोड़ा समझना। वह जो मोक्षवादी है, वह कहता है, मोक्ष इस बात को समझने की कोशिश करो। की भी इच्छा छोड़ देनी है, तब मोक्ष मिलेगा। परमात्मा की भी भक्त की पीड़ा भी प्यास है। वह कहता है, प्रभ पीड़ा दो। इच्छा छोड़ देनी है, तभी। इच्छा मात्र बाधा है। प्यासा करो, जलाओ! भक्तों से पूछो! ज्ञानी के लिए परमात्मा नहीं है, न कोई प्यास है, न कोई और भक्त कहते हैं, अगर मोक्ष छोड़ना पड़े, हम तैयार हैं। लेकिन बात है। सिर्फ अज्ञान की एक पीड़ा है; यह पीड़ा प्यास नहीं है, तुम्हारी अभीप्सा बनी रहे! प्रभु को पाने की अकुलाहट बनी रहे! यह दुख है। यह कांटे की तरह चुभ रही है। इसे निकालकर बैकंठ पर लात मारने को तैयार हैं। लेकिन कहीं ऐसा न हो कि फेंकना है। तुम्हारे विरह में जो मजा आ रहा है, वह खो जाये! - ये दोनों भाषाएं अलग हैं। और जब तक तुम्हें ठीक सम्यक भक्त, परमात्मा के विरह को बचा लेना चाहता है। उसके | भाषा न मिल जाये, जिससे तुम्हारे हृदय का तालमेल बैठे, तब मिलन की तो बात दूर, उसका विरह भी बड़ा प्यारा है। ज्ञानी, तक ऐसी अड़चन होगी। मेरी बातें सिर पर से निकलती हुई परमात्मा की आकांक्षा भी छोड़ देना चाहता है। विरह की तो बात मालूम होंगी। कोई-कोई बात जो तुम्हारे संस्कार से मेल खा दूर, उसके मिलन की भी आकांक्षा नहीं करता। क्योंकि जायेगी, वो समझ में आयेगी। लेकिन समझ में आने से क्या आकांक्षा मात्र उसे मोक्ष में बाधा मालूम होती है। होगा? अगर तुम्हारे हृदय से मेल न खायेगी तो समझ में आ ये अलग-अलग भाषाएं हैं। जायेगी, किसी काम में न आयेगी। और जो बात तुम्हारे हृदय से तलाश में तो तलब मेल खाती थी, वह तुम्हारे सिर पर से निकल जायेगी; क्योंकि जुस्तजू-सी होती है संस्कार उसे भीतर प्रविष्ट न होने देगा। जो बात तुम समझ दबा-दबी ही सही लोगे, वह तुम्हारे काम की न होगी। और जो तुम्हारे काम की थी, आरजू-सी होती है। वह तुम्हारा मन तुम्हें समझने न देगा। कितना ही दबाओ, कितना ही सम्हालो, संस्कारित करो, 'गुणा' की तकलीफ, भावुक स्त्रैण हृदय की तकलीफ है। लेकिन आकांक्षा तो रहती है, आरजू तो रहती है। जैन मार्ग पुरुष का मार्ग है। और जब मैं कहता हूं, पुरुष का, इसलिए तो महावीर के मार्ग पर प्रार्थना शब्द गलत है। ध्यान! तो मेरा मतलब यह नहीं कि स्त्रियां उस मार्ग से नहीं जा सकती। प्रार्थना की कोई जगह नहीं है। प्रार्थना में तो आरज-सी रहती है। / स्त्रियां भी जा सकती हैं, लेकिन पुरुष-धर्मा; जिनकी वृत्ति पुरुष दबा-दबी ही सही की वृत्ति हो। आरजू-सी होती है कृष्ण का मार्ग स्त्रैण मार्ग है। इसका यह मतलब नहीं कि पुरुष न आरजू न तलब है नहीं जा सकते; जा सकते हैं लेकिन वे ही पुरुष, जिनकी -न पाने की इच्छा है, न पाने की कोई याचना है। भावदशा स्त्रैण हो। गोप भी जा सकते हैं। लेकिन गोप न जुस्तजू न तलाश ऊपर-ऊपर से होंगे, भीतर से गोपी का ही भाव होगा। -न खोज है, न खोज में कोई पागलपन है। फिर है क्या? इसलिए कृष्ण का भक्त तो अपने को मानने लगता है, वह स्त्री भक्त बोलता है, परमात्मा की प्यास के कारण खोजने निकले है; उसकी, कृष्ण की गोपी है। वह अपने पुरुष-भाव को छोड़ हैं। ज्ञानी बोलता है, भीतर एक घाव है, पीड़ा है-उसको | देता है। मिटाना है। जैन साध्वी अपने सारे स्त्रैण भाव को धीरे-धीरे काटकर गिरा जरा-सी एक जराहत देती है, पुरुषवत हो जाती है। सारा राग, सारा रस, सब समाप्त -एक घाव है भीतर। कर देना है। मरुस्थल की तरह हो जाना है। 4001 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म आविष्कार है-स्वयं का गलत और सही की बात नहीं है-तुम्हें जो रास पड़ जाये। का मार्ग खोज लेता है। मार्गों की फिक्र छोड़ो, अपनी फिक्र ऐसी तकलीफ बनी ही रहेगी, जब तक तुम संस्कारों और अपने करो। मार्गों के लिए तुम नहीं बने हो, तुम्हारे लिए मार्ग हैं। हृदय के बीच जो विरोध है उसको ठीक से पहचानकर शास्त्रों में मत उलझो। शास्त्रों के लिए तुम नहीं हो कि तुम्हारी कुर्बानी उनके लिए हो जाये, जैसा कि हो रहा है। शास्त्रों पर 'गुणा' को अपने संस्कार छोड़ने पड़ेंगे। उसे अपने हृदय की | कुर्बान हैं करोड़ों लोग। शास्त्र तुम्हारे लिए हैं। अगर शीत-सर्दी भाषा को पहचानना पड़ेगा। नहीं तो वह तकलीफ में ही रहेगी। लगती हो, जला लो, ताप लो। शास्त्र तुम्हारे लिए हैं; नींद जो न बन पायी तुम्हारे गीत की कोमल कड़ी आती हो, तकिया बना लो। शास्त्र तुम्हारे लिए हैं; ओढ़ लो, तो मधुर मधुमास का वरदान क्या है? सर्दी लगती हो तो। शास्त्र साधन हैं, मनुष्य साध्य है। इसे ध्यान तो अमर अस्तित्व का अभिमान क्या है? में रखो, तो जो अड़चन मालूम हो रही है, वह मिट जायेगी। 'बहुत समय से आपके पास हूं...' लेकिन वह संस्कार कहां तुम नहीं आए? न आओ, याद दे दो पास होने देते हैं ? बिलकुल पास है...'गुणा' काफी दिन से फैसला छोड़ा, फकत फरियाद दे दो मेरे पास है। लेकिन संस्कार बीच में एक बड़ी सख्त दीवाल है। मति नहीं कहती, चरण का स्वाद दे दो टटोलता हूं मैं। मेरे हाथ तुम तक नहीं पहुंच पाते। तुम्हारी बस प्रहारों का अनंत प्रसाद दे दो दीवाल है। लगता है पास-पास खड़े हैं, क्योंकि यह दीवाल पारदर्शी है, शब्दों की है। पत्थर की होती तो मैं तुम्हें दिखाई भी न देख ले जग, सिसककर आराधना सुली चढ़ी पड़ता। यही तो खूबी है शब्दों की दीवाल की : पारदर्शी है, कांच जो न बन पायी तुम्हारे गीत की कोमल कड़ी की है। आर-पार दिखाई पड़ता है, इसलिए लगता है बिलकुल तो मधुर मधुमास का वरदान क्या है? पास खड़े हैं। तो अमर अस्तित्व का अभिमान क्या है? कभी तुमने खयाल किया? कांच की खिड़की के उस तरफ अगर 'गुणा' जागती नहीं, समझती नहीं, तो व्यर्थ ही समाप्त इस तरफ खड़े हो जाओ; जरा-सा कांच का फासला है, मगर होगी। किसी दिन जीवन के अंतिम पहर में उसे ऐसा ही कहना | उतना फासला काफी है। हम पास हैं, एक-दूसरे से बहुत दूर पड़ेगा हैं। अनंत फासला है। जो न बन पायी तुम्हारे गीत की कोमल कड़ी यह कांच की दीवाल तोड़ो। और अकसर ऐसा हो जाता है जो तो मधुर मधुमास का वरदान क्या है? बहुत दिन से पास हैं, वह इस भ्रांति में पड़ जाते हैं कि पास हैं। -जीवन आया और गया। व्यर्थ ही गया! कांच दिखाई ही नहीं पड़ता, धीरे-धीरे आर-पार दिखाई पड़ता गाओ, नाचो! ध्यान नहीं, प्रार्थना तुम्हारे लिए मार्ग होगा। है, बात भूल जाती है। पर कांच अभी है। मतवालापन। होश नहीं, बेहोशी तुम्हारी दवा है। 'और मैं बहत अज्ञानी और निर्बुद्धि हूं, यह आप भलीभांति तुम नहीं आये? न आओ, याद दे दो जानते हैं।' फैसला छोड़ा, फकत फरियाद दे दो बिलकुल भलीभांति जानता हूं। इसीलिए तो कह रहा हूं: मति नहीं कहती... अज्ञानी और निर्बुद्धि के लिए भक्ति मार्ग है, प्रेम मार्ग है। -बुद्धि और ज्ञान की आकांक्षा नहीं है। मति नहीं, चरण का स्वाद दे दो मति नहीं कहती, चरण का स्वाद दे दो! फैसला नहीं, फरियाद दे दो। बस प्रहारों का अनंत प्रसाद दे दो! उतना काफी है। -तो तृप्ति होगी। 'आपकी कही अनेक बातें मेरे सिर पर से गजर जाती हैं।' अपने को जिसने ठीक से पहचाना वह जल्दी ही अपनी तृप्ति जो-जो तुम्हारे काम की हैं, वह सिर पर से गुजर रही हैं। मैं 401 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ per M जिन सूत्र भाग : 1 स देखता हूं उन्हें गुजरते, क्योंकि तुम्हारा सिर उन्हें टिकने नहीं | स्त्रियों को थोड़े भक्ति के रास्ते पर खोजबीन करनी चाहिए। देता। जो बातें तुम्हारे काम की हैं और हृदय तक पहुंचनी चाहिए पुरुषों को थोड़े संकल्प के रास्ते पर खोजबीन करनी चाहिए। तो थीं, वह सिर उन्हें भीतर प्रवेश नहीं होने देता। वह द्वार से ही पति हिंदू हो, तो जरूरी नहीं है कि पत्नी भी हिंदु हो। जिस दिन लौटा देता है, द्वारपाल ही उन्हें अलग कर देता है। और जिन्हें भली दुनिया होगी, उस दिन पत्नी अपना धर्म चुनेगी, पति अपना तुम्हारा सिर प्रवेश होने देता है वह तुम्हारे काम की नहीं। क्योंकि धर्म चुनेगा। और बेटे-बेटियों के लिए खुला अवसर छोड़ा तुम्हारे सिर के पास अपने संस्कार हैं। जायेगा कि जब वह बड़े हो जायें तो अपना धर्म चुनें। अच्छी अगर जैन मुझे सुनने आता है तो वह उतनी बातों को भीतर दुनिया होगी तो एक-एक घर में करीब-करीब आठ-आठ जाने देता है, जितनी उसके जैन धर्म से मेल खाती हैं; बाकी को दस-दस धर्म होंगे, एक-एक परिवार में। होने ही चाहिए; बाहर रोक देता है कि ठहरो, कहां जा रहे हो? जैन नहीं हो। हिंदू क्योंकि जिसको जो रास पड़ जायेगा। कपड़े मैं तुम जिद्द नहीं सुनने आता है, उतनी को भीतर जाने देता है जितनी हिंदू धर्म से करते; किसी को सफेद पहनना है, सफेद पहनता है; किसी को मेल खाती हैं; बाकी को कह देता है, भीतर मत आना। हरा पहनना है, हरा पहनता है। भोजन में तुम जिद्द नहीं करते; तो तुम सुनते वही हो, जो तुम्हारा सिर तुम्हें आज्ञा देता है। तुम किसी को चावल ठीक रास आते हैं, चावल खाता है; किसी को मुझे थोड़े ही सुनते हो। जो मुझे सुनता है, उसमें रूपांतरण गेहूं रास आते हैं, गेहूं खाता है। धर्म के संबंध में क्यों जिद्द करते निश्चित है। हो कि सभी पर एक ही धर्म थोपा जाये? यह पहरेदार को विदा करो, इसे छुट्टी दे दो। तो जो अभी सिर पत्नी को अगर भक्त होना हो, भक्त हो जाये; कृष्ण के मंदिर के ऊपर से जा रही हैं, वह सिर की गहराई में भी उतरेंगी। और में पूजा चढ़ाये। पति को अगर जैन रहना है, जैन रहे; महावीर सिर में ही न उतरें तो हृदय में कैसे उतरेंगी? सिर तो द्वार है। जब के प्रकाश को लेकर चले। बेटे को अगर ठीक लगे कि बुद्ध हो सिर में कोई बात उतर जाती है तो धीरे-धीरे हृदय में डूबती है, जाना है, तो किसी को रोकने का कोई कारण नहीं होना चाहिए। तलहटी में बैठती है और वहां से क्रांति घटित होती है। क्योंकि असली सवाल धार्मिक होने का है। अगर बुद्ध होने से, 'आप परमात्मा से बिछड़न की जिस पीड़ा की बात कहते हैं, बुद्ध के मार्ग पर चलने से कोई धार्मिक होता है तो शुभ है। वह पीड़ा मुझे कभी हुई नहीं।' इस दुनिया में निन्यानबे प्रतिशत लोग अधार्मिक हैं, क्योंकि परमात्मा का खयाल ही नहीं है! पीड़ा तो तब हो न जब हमें। | उनको ठीक धर्म चुनने का मौका नहीं मिला है। नास्तिकों के खयाल हो कि परमात्मा है! परमात्मा की धारणा का ही खंडन | कारण दुनिया अधार्मिक नहीं है, तथाकथित धार्मिकों के कारण है। जब धारणा का ही खंडन है तो प्यास तो कैसे उठेगी? उठेगी | अधार्मिक है। जो मुझे रुचिकर है वह खाने न दिया जाये, तो जो भी, तो तुम कोई और चीज ही समझोगे—किसी और चीज की मुझे खाने दिया जाता है उसे मैं जबर्दस्ती ढोता हूं, क्योंकि उसमें प्यास है। परमात्मा की तो हो ही नहीं सकती। कभी सोचोगे धन | मेरी कोई रुचि नहीं है। की प्यास है; कभी सोचोगे प्रेम की प्यास है; कभी सोचोगे पद धर्म स्वतंत्रता है; स्वेच्छा का चुनाव है। की प्यास है लेकिन 'परमात्मा' शब्द है ही नहीं तुम्हारे पास, 'परमात्मा की प्यास का मुझे कुछ पता नहीं है, फिर मैं क्यों तो प्यास को परमात्मा की तरफ उन्मुख होने का उपाय नहीं है। यहां हूं? और यह ध्यान-साधना वगैरह क्या कर रही हूं?' और आत्मा की तरफ जाने के लिए जैसा पुरुषार्थ चाहिए, जैसा अड़चन अपने हृदय को ढांक लेने की है, दबा लेने की है। पौरुषिक उद्दाम संकल्प चाहिए, वह तुम्हारे पास नहीं है। कुछ सिर को हटाओ, हृदय को प्रगट करो। तब यह प्रश्न साफ हो हर्जा नहीं है। कुछ दुर्गुण नहीं है। जायेगा। स्थिति बिलकुल साफ हो जायेगी। द्वार खुल जायेगा। दुनिया में आधे लोग संकल्प से ही पहुंचेंगे, आधे लोग गणित नहीं है जीवन। और जीवन किसी लक्ष्य की तरफ प्रेरित समर्पण से ही पहुंचेंगे। लेकिन हमारी तकलीफ है: हम सभी को नहीं है। कोई ऐसा नहीं है कि जीवन किसी लक्ष्य की तरफ चला एक ही घेरे में बंद कर देते हैं। जा रहा है। यहां प्रतिपल प्रफुल्लता से होना लक्ष्य है। यहां 402 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म आविष्कार है-स्वयं का प्रतिपल आनंद-भाव से जीना लक्ष्य है। यहां पल-पल धर्म मनुष्य के भीतर फूल उगाने की कला है। और फूल आनंद-निमग्न होना लक्ष्य है। | अंतिम है, चरम है; इसके पार कुछ भी नहीं। प्रत्येक क्षण चरम पूछो फूलों से, 'क्यों खिले हो?' क्या कहेंगे बेचारे! पूछो है। जगत कहीं जा नहीं रहा है-जगत है। तुम भी इस 'है' में आकाश के तारों से, 'क्यों ज्योतिर्मय हो?' क्या कहेंगे! डूब जाओ। लेकिन तुम्हारे पास अगर गणित की भाषा है, जो लेकिन सब तरफ एक अहोगीत चल रहा है। एक अहोभाव नाच | पूछती है कि हम यह तो करेंगे, लेकिन किसलिए, तो चूक हो रहा है! पल-पल, प्रतिपल! जायेगी। धर्म इस ढंग से जीने का मार्ग है कि तुम प्रतिक्षण से आनंद को मैं जो भाषा बोल रहा हूं, वह खेल की भाषा है, दुकान की निचोड़ लो। प्रतिक्षण में छिपा है स्वर्ग। तुम उसे चूस लो, नहीं। छोटे बच्चे खेल रहे हैं। तुम पहुंच जाते हो, डांटने-डपटने निचोड़ लो, पी लो। प्रतिक्षण में छिपी है रसधार। लगते हो : 'क्यों फिजूल समय खराब कर रहे हो, इससे क्या अब यहां लोग आते हैं। वे कहते हैं, हम ध्यान क्यों कर रहे मिलेगा?' छोटे बच्चे हैरान होते हैं कि...मिलने की बात ही हैं? वे यह पूछ रहे हैं कि इससे क्या मिलेगा? ध्यान से कभी उनकी समझ में नहीं आती। मिलने का सवाल कहां है? कोई कुछ मिला है! ध्यान ही मिलना है। ध्यान में आनंद है। ध्यान में बैंक में बैलेंस बढ़ जायेगा? खाते-बही में ज्यादा पैसे इकट्ठे हो प्रफुल्लता है, नृत्य है। ध्यान के क्षण में सब कुछ है, अंतर्निहित जायेंगे? यह उनकी समझ में ही नहीं आता। खेल रहे थे, मिल है। ध्यान के क्षण के बाहर कुछ भी नहीं है। लेकिन यह भक्त रहा था। नाच रहे थे, मिल रहा था। इसके पार थोड़े ही कुछ की भाषा है। मिलना है। ज्ञानी की भाषा तो लक्ष्य की भाषा होती है। यह प्रेमी की भाषा इसलिए भक्त कहता है, जीवन एक लीला है। है। प्रेमी कहता है, प्रेम में सब कुछ है, प्रेम के बाहर क्या है! प्रेम ज्ञानी कहता है, जीवन हिसाब-किताब है। कर्म का जाल है। किसी और चीज के लिए साधन थोड़े ही है, साध्य है। ज्ञानी | इसमें साधन जुटाने हैं, साध्य पाना है। मुझे तो भक्त की भाषा प्रीतिकर है। ज्ञानी की भाषा उतनी तो वह जो जैन बुद्धि मन में बैठी है, वह पूछती है, 'क्या महिमापूर्ण नहीं है। गणित हो भी नहीं सकता उतना महिमापूर्ण मिलेगा? उपवास करेंगे तो यह मिलेगा। इतने उपवास करेंगे तो | जैसा काव्य होता है। और जब काव्य बन सकता हो जीवन, तो यह मिलेगा। इतना त्याग करेंगे, इतना तप करेंगे, तो इतना पुण्य गणित क्यों बनाना? हां, जब काव्य न बन सकता हो, मजबूरी का अर्जन होगा। इससे स्वर्ग मिलेगा। यह ध्यान करके यहां है, तब गणित बना लेना। जब तर्क के बिना नृत्य हो सकता हो क्या कर रहे हो? इससे क्या मिलेगा?' मैंने कभी तुम्हें कहा भी तो तर्क को बीच में क्यों लाना? हां, अगर नाच आता ही न हो, नहीं कि इससे कुछ मिलेगा। मैं तो तुमसे कहता हूं, इसी में तर्क ही तर्क आता हो, तो फिर ठीक है, तर्क को ही जी लेना। मिलता है, इसी में मिल रहा है। तम इसके बाहर नजर ही मत ले जाओ। इसमें ही डूबो, डुबकी लगाओ। इसमें ही ऐसे पूर्ण भाव तीसरा प्रश्न : जाग्रत पुरुषों ने देश-काल-परिस्थिति और से डूब जाओ कि न कुछ खोज रह जाये, न कोई खोजनेवाला रह | लोगों की युगानुकूल मनोदशा का खयाल रखकर एक ही सत्य जाये। ऐसी तन्मयता, ऐसी तल्लीनता प्रगट हो, तो यही क्षण को बड़े भिन्न-भिन्न रूप से अभिव्यक्त किया है। यहां तक कि परमात्म-क्षण हो गया। वे परस्पर बिलकुल विवादास्पद तथा विरोधाभासी तक बन प्रतिक्षण परमात्मा तुम्हारे चारों तरफ बरस रहा है। परमात्मा | गये हैं। जीवन व अस्तित्व के परम सत्यों की क्या निरपेक्ष एक उपस्थिति है आनंद की। तुम जरा भीतर अपने साज को अभिव्यक्ति संभव नहीं है? क्या सदा ही युग व लोक-दशा ठीक से बिठा लो। धुन बजने लगेगी। तुम्हारे भीतर से वैसे ही की सीमा सत्य पर आरोपित होती रहेगी? झरने फूटने लगेंगे, जैसे पहाड़ों से फूटते हैं। और तुम्हारे भीतर वैसे ही फूल खिलने लगेंगे, जैसे वृक्षों पर खिलते हैं। अभिव्यक्ति तो सदा सीमित होगी। अभिव्यक्ति तो सदा 403 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. जिन सूत्र भाग: 1 सापेक्ष होगी। बोलनेवाला, सुननेवाला, दोनों ही अभिव्यक्ति क्योंकि सत्य सभी विरोधों को अपने में समाये हुए है। वहां रात की सीमा बनायेंगे। भी है और दिन भी है। वहां जन्म भी है, मृत्यु भी है। तो कोई मैं वही बोलूंगा जो बोला जा सकता है। तुम वही समझोगे जो | आदमी शायद सत्य की खबर लाये और जन्म के द्वारा समझाने समझा जा सकता है। सत्य तो विराट है। की कोशिश करे। कोई सत्य की खबर लाये और मृत्यु के द्वारा अगर मैं सागर के दर्शन करने जाऊं और तुम मुझसे कहो कि समझाने की कोशिश करे। कोई सत्य की खबर लाये, राग के लौटते में थोड़ा सागर लेते आना, तो पूरा सागर तो न ला द्वारा समझाये; जैसा कि नारद ने किया: परमात्मा का राग, पाऊंगा। हो सकता है, थोड़ा-सा जल सागर का ले आऊं। परमात्मा का प्रेम, परमात्मा की भक्ति ! कोई परमात्मा की खबर लेकिन उस जल में बहुत कुछ बातें नहीं होंगी। सागर का तूफान लाये, विराग के द्वारा समझाने की कोशिश करे: जैसा महावीर ने न होगा, सागर की लहरें न होंगी। वही तो असली सागर था। किया। दोनों उसमें हैं। बड़ा विराट आकाश है। उसमें सब वह तुमुल नाद और घोर गर्जन! शिलाखंडों पर टकराती हुई समाया है। लहरें! वह उठती दूर-दूर मीलों तक फैले हुए विस्तार से भरी | तो जब भी कोई व्यक्ति अभिव्यक्त करेगा तो कुछ तो चुनेगा, लहरें! वह उफान! वह सब तो न होगा। भरकर ले आऊंगा | कहां से अभिव्यक्त करे! तो अपनी-अपनी रुझान, एक बर्तन में थोड़ा-सा सागर का जल। फिर भी थोड़ा तो होगा | अपनी-अपनी पसंद, अपना-अपना ढंग। कुछ। स्वाद लोगे तो खारा होगा। सागर जैसा उस बर्तन में क्या इसलिए सत्य की अभिव्यक्तियां विरोधाभासी भी होगी। होगा? थोड़ा खारापन का स्वाद आ जायेगा, बस। लेकिन विरोधाभासी उन्हीं को दिखाई पड़ती हैं, जिन्होंने समझा सत्य तो सागर से भी विराट है। जब हम उसे शब्दों की | नहीं। विवादास्पद उन्हीं को मालूम पड़ती हैं, जिनकी अभी चुल्लुओं में भरकर लाते हैं किसी को देने, असली तो खो जाता | आंखें केवल शब्दों से भरी हैं, और अर्थों का आविर्भाव नहीं है। थोड़ा-सा स्वाद भी पहुंच जाये, थोड़ा नमक भी तुम्हारी जीभ हुआ। पर पड़ जाये, तो बहुत! इसलिए बोलनेवाला सीमा देगा, फिर | भक्त तो भगवान के समाने जाकर अवाक हो जाता है। वाणी सुननेवाला सीमा देगा। फिर युग-युग की भाषा होगी। युग-युग | ठहर जाती है। कुछ सूझता नहीं। जब लौट आता है भगवान के के भाषा की शैली होगी, प्रचलन होगा, मापदंड होंगे। वह सब उस जगत से, तब सब सूझने लगता है; लेकिन तब तक भगवान सीमाएं देंगे। सत्य को जब भी जाना जाता है तब तो वह निरपेक्ष जा चुका। वह परम महत्ता जिसने घेर लिया था, अब नहीं है। है, लेकिन जब कहा जाता है तब सापेक्ष हो जाता है। इसलिए तो स्मृति से पकड़ने की कोशिश करता है। कई बार भक्त सभी अभिव्यक्तियां सीमित होंगी। सोचकर जाता है, अब की बार पूछ लेंगे। उन्हीं से पूछ लेंगे, . इसलिए महावीर कहते हैं, सभी अभिव्यक्तियां-स्यात! | 'कैसे तुम्हारी खबर दें?' कोई अभिव्यक्ति पूर्ण नहीं। और कोई अभिव्यक्ति पूर्ण निश्चय __ बात भी आपके आगे न जुबां से निकली। से नहीं कही जा सकती, क्योंकि पूर्ण निश्चय से कहने का तो लीजिए आए थे हम सोच के क्या क्या दिल में। अर्थ यह होगा कि इसके पार अब कहने को कुछ भी न बचा। और वहां जाकर ठिठककर खड़ा रह जाता है। साधारण प्रेम में प्रत्येक अभिव्यक्ति एक सीमा तक सच होगी और एक सीमा के तक भाषा लंगड़ाकर गिर जाती है, तो प्रार्थना की तो बात ही आगे गलत हो जायेगी। इसलिए परम ज्ञानी बड़े झिझककर क्या! वहां कोरा अवाक, आश्चर्यचकित, सन्नाटा हो जाता है। बोलते हैं। जानते हुए बोलते हैं कि जो कह रहे हैं, वह बहुत हां, जब वह महिमा बीत जाती है, जब वह महाक्षण गुजर जाता सीमित है; जो कहना था, वह बहुत असीम था। जो जाना, वह है, धूल रह जाती है रथ की उड़ती हुई पीछे-तब होश आता है। बड़ा था; जो जता रहे हैं, वह बड़ा छोटा है। तब बुद्धि लौटती है। तब थोड़ा सम्हालने की कोशिश करता है। फिर स्वभावतः अलग-अलग ज्ञानी अलग-अलग ढंग से | लेकिन तब धूल पकड़ में आती है, रथ तो जा चुका। फिर उसी | जतलायेंगे। और उनकी बातें विरोधाभासी भी मालूम पड़ेंगी, | धूल की खबर देता है। तो फिर जानता भी है कि यह भी क्या 404 ain Education International Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म आविष्कार है-स्वयं का खबर दे रहा हूं; यह तो धूल है जो रथ के पहियों से उड़ी थी। यह था, असमर्थ था। जो मैं कहना चाहता था, तुमने कह दिया। कई कोई रथ तो नहीं है। और रथ में विराजमान जो आया था, उसकी बार सदगुरु के सान्निध्य में तुम्हारा हृदय ठीक उस जगह आ तो बात ही क्या करनी! उस क्षण तो मैं बिलकुल मिट गया था। जायेगा, जहां कुछ अनुभव होता है। लेकिन वह अनुभव होता है बुद्धि न थी, मैं न था। तो एक चित्र भी तो न पकड़ पाया, एक उपस्थिति से। वह है सत्संग। शास्त्र में तो राख रह जाती है। छवि भी तो न खींच पाया कि लोगों को दिखा देता! फिर | राख की भी राख। छाया की भी छाया। भी...उसके चरण की धूल भी सही! उसके चरणों ने छुआ है, तो अगर कोई जीवित व्यक्ति मिल सके, ऐसा सौभाग्य हो, तो या उसके रथ के पहियों ने छुआ है, तो इस धूल में भी कुछ स्वाद हजार काम छोड़कर उसके चरणों में बैठने का अवसर मत आ गया होगा। बस! उस धल की बात है। | छोड़ना। क्योंकि जो शास्त्र नहीं कह पाते हैं, यद्यपि कहने की ज्ञानी है, वह जब ध्यान की परम दशा में पहुंचता है, सब चेष्टा की गई है, वह उसकी मौजूदगी कहेगी। इसलिए जो लोग विचार शांत हो जाते हैं। जब अनुभव होता है, तब विचार नहीं | महावीर के पास थे, उन्होंने जो जाना; जिन्होंने कृष्ण के पास होने होते। जब विचार लौटते हैं, तब अनुभव जा चुका होता है। तो का सौभाग्य पाया, उन्होंने जो जाना—वह तुम गीता पढ़कर थोड़े विचार हमेशा पीछे-पीछे आते हैं। और कुछ टूटा-फूटा, कुछ ही जान सकोगे; वह तुम जिन-सूत्र पढ़कर थोड़े ही जान जूठा, कुछ रेखाएं पड़ी रह गईं समय पर, उनको इकट्ठा कर लेते सकोगे! उसका कोई उपाय नहीं। सांप तो जा चुका, केंचुली हैं। उन्हीं को हम अभिव्यक्ति बनाते हैं। पड़ी रह गई—वही शास्त्र है। केंचुली जब सांप पर चढ़ी थी, जो जाना गया है, वह कभी कहा नहीं गया। जो कहा गया है, तब भी केंचुली ही थी, लेकिन तब जीवंत थी। तब सांप चलता वह वस्तुतः वैसा कभी जाना नहीं गया था। इसलिए शब्दों को था तो केंचुली भी चलती थी। तब सांप फुफकारता था तो मत पकड़ना। | केंचुली भी फुफकारती थी। फिर सांप तो जा चुका, केंचुली पड़ी इसीलिए मैं निरंतर कहता हूं कि शास्त्र सहयोगी नहीं हो पाते। रह गई। अब हवा के झोंके में हिलती-डुलती है, लेकिन अब क्योंकि जब तुम किसी सदगुरु के पास होते हो, तब उसके शब्दों चलती नहीं; अब उसके पास अपने कोई प्राण नहीं हैं, जीवंत में भी उसके निशब्द की ध्वनि आती है। तब उसकी अभिव्यक्ति आत्मा नहीं है। में भी तुम्हारे भीतर उसके फूल खिलने लगते हैं, जो अनभिव्यक्त / सभी धर्म जब पैदा होते हैं तो किसी सदगुरु की मौजूदगी में रह गया है। तब उसके बोलने में भी तुम उसके अबोल को सुन पैदा होते हैं। सदगुरु के विदा हो जाने पर सांप की केंचुलियां पड़ी पाते हो। उसकी मौजूदगी, उसकी उपस्थिति; तुम्हें छूती है, तुम्हें रह जाती हैं अनंत सदियों तक, और लोग उनकी पूजा करते रहते स्पर्श करती है, तुम्हें नहला जाती है। वह जो शब्दों से कहता है, हैं। हां, सदगुरु न मिले तो मजबूरी है। तो फिर तुम शास्त्र को ही वह तो ठीक ही है, वह तो शास्त्र भी कह देंगे; लेकिन जो उसकी | पूज लेना। लेकिन ऐसा कभी नहीं होता कि पृथ्वी पर सदगुरु न मौजूदगी के स्पर्श में तुम्हें अनुभव होता है, वह शास्त्र न कह हों! सदा होते हैं। यद्यपि दुर्भाग्य यह है कि जब वह होते हैं, पायेंगे। इसलिए सदगुरु के सान्निध्य में तो क्षणभर को तुम्हें ऐसा बहुत कम लोग पहचानते हैं। जब वह जा चुके होते हैं, तब मुर्दा लगता है कि उसकी अभिव्यक्ति ने छ लिया। बात जतला दी, केंचुली को बहुत लोग पूजते हैं। लोगों का मरे से कुछ लगाव है, बता दी, इशारा हो गया। खिड़की खुली थी, देख लिया। ऐसा | जिंदा से कुछ घबड़ाहट है! जीवन से कुछ डर है, मृत्यु की बड़ी तुम्हें लगता है कि जो मैं खुद भी कहना चाहता था और न कह पूजा है! पाता था, वह तुमने कह दिया। देखना तकरीर की लज्ज्त कि जो उसने कहा आखिरी प्रश्न : जब कोई प्यासा या प्यारा मिल जाता है, तब मैंने यह जाना कि गोया यह भी मेरे दिल में है। मेरी दशा पूर पर आई नदी जैसी हो जाती है। मैं आपको लेकर बहुत बार तुम्हें लगेगा सदगुरु के पास कि ठीक, बिलकुल | उस पर बरस पड़ती हूं। जाने किस नगरी की आवाज निकल ठीक, यही तो मैं कहना चाहता था, लेकिन शब्द न जुटा पाता पड़ती है। मैं दोनों सिरों पर जलती हुई मशाल जैसी हो जाती 405 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः1 हूं। लेकिन आपके पास ला देने पर वह आदमी मुझसे दूर हो होती है-'पायस इगो'। जब तुम कोई अच्छा काम करते हो जाता है। जैसे बच्चा बड़ा होने पर मां से दूर निकल जाता है। तो एक बड़ा सदभाव उठता है कि कुछ किया, कुछ अच्छा और तब अपने घर वापिस होते समय मुझे एक तड़प-सी होती | किया! उसे भी छोड़ना है। अंततः उसे भी छोड़ना है। तो अभी है। लेकिन 'तेरी जो मर्जी कहके गा पड़ती हूं: राम श्री राम, | जब किसी को ले आयी होगी 'प्रतिभा' और उसे लगा होगा कि जय जय राम। वह तो सरोवर से जुड़ गया, अब उसकी कोई फिक्र नहीं करता, तो अभी जो 'राम श्री राम, जय जय राम' कहा है, वह थोड़ी 'प्रतिभा' ने पूछा है। मजबूरी में कहा है, कि ठीक है, अब जो तेरी मर्जी! नहीं, इसको ऐसा होगा, स्वाभाविक है। जिन्होंने मुझे थोड़ा पीया है, उनके आनंद-भाव से कहना। बड़ा फर्क पड़ जायेगा। अभी तो कहा है मन में यह भाव जगना स्वाभाविक है कि कोई और भी मुझे पीए। कि जो तेरी मर्जी! लेकिन जब हम कहते हैं 'जो तेरी मर्जी', तभी जिसे कोई सरोवर मिल गया है, राह पर किसी प्यासे को देखकर हम बता रहे हैं कि यह हमारी मर्जी न थी। जो तेरी मर्जी का उसका हाथ पकड़ेगा, सरोवर तक ले आना चाहेगा। कभी-कभी | मतलब ही यही होता है कि ठीक है! हमारी मर्जी तो न थी यह, तो जबर्दस्ती भी करता हुआ मालूम पड़ेगा। क्योंकि वह जानता | लेकिन अब तुम्हारी है तो ठीक है। राम श्री राम, जय जय राम! है, अभी तुम भला नाराज हो जाओ, सरोवर पर पहुंचकर तुम भी | मगर इसमें मजबूरी है। कहोगे, अच्छा किया जबर्दस्ती की। नहीं, अब दुबारा जब किसी को लाओ, तो पहले से ही इस प्रेम बांटना चाहता है। जो भी मिलता है प्रेम को, बांटना | भाव से ही लाना है, जानकर ही लाना है, कि वह सरोवर में डूब चाहता है। कहीं अगर परमात्मा की खुशबू मिली है तो तुम | जाये और तुम्हें भूल जाये। क्योंकि तुम्हें याद रखे तो सरोवर में बांटना चाहोगे। दोनों छोर से मशाल की तरह जलकर बांटना डूबने में बाधा पड़ेगी। और जब वह सरोवर में डूब जाये, तुम्हें चाहोगे। इसलिए जहां भी कहीं कोई प्यासा मिल जायेगा, तुम्हारे भूल जाये, तो धन्यवाद देना। ऐसा मत कहना कि जो तेरी मर्जी! जीवन में एक पूर आ जायेगा। तुम सब कुछ उसमें उंडेल देना | कहना, 'धन्यवाद! मेरी प्रार्थना पूरी हुई। इसीलिए तो लाई चाहोगे। और स्वभावतः तुम जब उसे मेरे पास ले आओगे, तो थी। और तब फिर गुनगुनाना : 'राम श्री राम, जय जय राम!' एक थोड़ी-सी कमी भी मालूम होगी। वह थोड़ी-सी जो और तब उसका भाव बिलकुल अलग होगा। शब्द तो सभी वही अस्मिता बची है, उसके कारण मालूम होती है। क्योंकि जब तुम होते हैं भाव बड़े बदल जाते हैं। तब यह अहोभाव होगा। तब उसे समझाकर मेरे पास ले आये, तब एक अर्थ में वह तुम्हारे यह परमात्मा को धन्यवाद है कि ठीक! तूने बड़ी कृपा की कि पीछे चल रहा था, तुम्हारी मानकर चला था। जब तुम उसे मेरे | मुझे इतनी भी अस्मिता न दी कि मैं रुकावट बनूं। पास ला रहे थे तब वह तुमसे आंदोलित और प्रभावित था। फिर मेरे पास तुम जब मित्रों को लाओगे तो सभी को ऐसा होगा। जब तुम उसे मेरे पास ले आओगे, स्वभावतः इसलिए तुम उसे मगर पहले से ही यह होशपूर्वक लाना है कि ला ही इसलिए रहे लाये भी हो मेरे पास कि वह मुझसे जुड़ जाये, अब वह तुम्हारे | हो कि वे तुम्हें भूलें। पीछे न चलेगा। उसका मुझसे सीधा संबंध हो जायेगा। यही | और यह शिक्षण जरूरी है, क्योंकि यही मुझे भी करना पड़ता तुमने चाहा भी था, यही तुम्हारी प्रार्थना भी थी। लेकिन फिर भी है। एक दिन मुझे भी कहना पड़ता है : राम श्री राम, जय जय अस्मिता को थोड़ा-सा धक्का लगेगा कि अरे! इसको सरोवर राम! क्योंकि मैं जिसकी तरफ ले जा रहा है, एक दिन वह मिल गया तो हमें भूल ही गया! इस अस्मिता को भी जाने देना | गये...तो यह प्रशिक्षण जरूरी है। यह जो 'प्रतिभा' ने कहा है, और गीत बिलकुल ठीक है : 'राम श्री राम, जय जय राम'। मेरा भी अनुभव है। मगर यही सारी चेष्टा है। यह सफल हो, इसको गुनगुनाना! अस्मिता को इतना भी मत बचाना। यही सौभाग्य है। अच्छा अहंकार भी होता है। ध्यान रखना! बुरा अहंकार तो इस कारण संकोच मत करना कि अब क्या लाना किसी को, होता ही है, अच्छा अहंकार भी होता है। पवित्र अस्मिता भी | जिसको ले जाओ वही दगा दे जाता है। इस कारण रोकना मत, 406 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म आविष्कार है-स्वयं का इस कारण अपने पर नियंत्रण मत रखना। नहीं, जब पूर आये तो में पड़ने का, उसे लड़ने देना। वह लड़-लड़कर ही पड़ेगा। आने देना। अपने-अपने ढंग होते हैं, अपनी-अपनी शैली होती है। जब्त की काशिशें बजा लेकिन चमक उसकी बिजली में, तारे में है क्या छुपे शौके-बेपनाह का राज यह चांदी में, सोने में, पारे में है हर किसी को सुनाई देती है उसी की बयाबां, उसी के बबूल मेरी आवाज में तेरी आवाज। उसी के हैं कांटे, उसी के हैं फूल। जिन्होंने मुझे चाहा है, प्रेम किया है, जो सच में मेरे पास आये तो अगर कोई कांटा जैसा भी मालूम पड़े तो भी समझना, उसी हैं, सारे आवरण छोड़कर, वे अगर 'जब्त' भी करना चाहेंगे, का है; नाराज मत हो जाना। फूल पर बहुत प्रसन्न मत हो जाना, रोकना भी चाहेंगे कांटे पर बहुत नाराज मत हो जाना। एक बात स्मरण रखना कि जब्त की कोशिशें बजा लेकिन तुमने निवेदन कर दिया था, बात समाप्त हो गई। तुमने छिपाया -वे अगर चाहेंगे भी कि किसी को कैसे बतायें, क्या बतायें, नहीं, तुम्हें कुछ पता था, कह दिया। जो तुम कहो, उसमें आग्रह संकोच भी करेंगे तो भी कुछ फर्क न पड़ेगा। भी मत रखना कि उसे मानना ही चाहिए। क्योंकि आग्रह सत्य क्या छुपे शौके-बेपनाह का राज! को नष्ट कर देता है; प्रेम को दूषित कर देता है, धूमिल कर देता - अथाह प्रेम प्रगट होने ही लगता है। है। तुम तो बिना किसी आग्रह के अनाग्रह भाव से कह देना कि हर किसी को सुनाई देती है कुछ हमें भी सुनाई पड़ी है आवाज, शायद तुम्हारे काम आ जाये, मेरी आवाज में तेरी आवाज। कहीं हम गये हैं, हमारी कुछ प्यास बुझी है-हो सकता है, यह जिन्होंने मुझे चाहा है, उनकी आवाज में मेरी आवाज सुनाई। जल तुम्हारी भी प्यास को तृप्त करने में काम आ जाये। मगर पड़ने ही लगेगी। कहना, 'हो सकता है, जरूरी नहीं। तुम्हारी प्यास अलग हो, और हर स्थिति में...क्योंकि यह तो एक स्थिति है जो | तुम्हें किसी और जल की जरूरत हो। और शायद अभी तुम्हें 'प्रतिभा' ने पूछी है कि किसी को ले आती है, फिर वह डूब प्यास ही न हो और जल की जरूरत ही न हो।' तो निवेदन कर जाता है। मगर बहुत बार तो ऐसा होगा, तुम किसी को लाना | देना और भूल जाना। चाहोगे और न ला पाओगे। तुम लाख कोशिश करोगे, तुम | अगर तुमने अनाग्रहपूर्वक निवेदन किया है, तो बहुत लोगों को जितनी कोशिश करोगे उतना ही वह प्रतिरोध करेगा और न तुम खबर पहुंचाने में सफल हो जाओगे। यह खबर कुछ ऐसी है आयेगा। तब भी बेचैन मत होना। तब भी यह मत सोचना कि कि अत्यंत विनम्रता में, अत्यंत प्रेम में, अत्यंत सरलता में ही यह कुछ गलत हो रहा है। तब भी ठीक ही हो रहा है। अभी पहुंचाई जा सकती है। उसकी यही जरूरत होगी। उस पर नाराज मत होना और यह मत मेरे पास किसी को ले आना कोई मिशनरी काम नहीं है कि टूट सोचना कि जिद्दी है, कि अहंकारी है, कि अज्ञानी है, कि पापी पड़े उस पर और उसको तर्क देने लगे, और समझाने लगे, और है। क्योंकि ऐसे जल्दी ही मन में भाव उठते हैं। तुम्हारी कोई न सिद्ध करने लगे, और उसको गलत सिद्ध करने लगे। नहीं, यह माने तो नाराज होने की इच्छा हो जाती है। नर्क भेजने के भाव कुछ काम इतना क्षुद्र नहीं है। धर्म मिशन तो बन ही नहीं सकता। उठने में देर नहीं लगती, कि तुम तो इतनी कोशिश कर रहे हो, | मिशन तो सब राजनीति के होते हैं। तुम तो सिर्फ मेरी सुगंध इसके ही शुभ के लिए, और इस मूढ़ को देखो, मतांध! सुनता थोड़ी-सी फैला सको, फैला देना। वही सुगंध अगर खींच ही नहीं, बहरा है! नहीं, तब समझना कि परमात्मा अभी यही सकेगी तो खींच लायेगी। और अगर उस आदमी के जीवन में चाहता है कि वह न आये। उसके राज सभी जाहिर नहीं होते। जरूरत आ गई होगी तो खिंच आयेगा; या वह सुगंध उसकी होने भी नहीं चाहिए। कभी किसी को प्रतिरोध की ही जरूरत स्मृति में पड़ी रह जायेगी, कभी जरूरत आयेगी तो उसे याद आ होती है। कभी कोई तुमसे लड़ता है, वही उसका ढंग है मेरे प्रेम जायेगी। तुम्हारा काम पूरा हो गया। 07 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -जिन सत्र भागः तुम कंजूस मत रहना, बस इतना काफी है। मिशनरी भूलकर मत बनना और कंजूस मत होना। इन दोनों के बीच संतुलन! किसी को जबर्दस्ती समझाने-बुझाने की कोई भी जरूरत नहीं है। कोई जबर्दस्ती समझाये-बुझाये, समझा है, बूझा है ? यह बड़ा नाजुक काम है। ये धागे बड़े रेशम के धागे हैं। ये जंजीरें नहीं हैं लोहे की कि बांध दी और घसीट लाये। ये रेशम के धागे हैं, बड़े कच्चे धागे! और कच्चे धागे से कोई खिंचा आये तो ही ठीक है। लोहे की जंजीरों से कोई खिंचा भी आ गया तो उसका आना न आना बराबर है। बिना धागे के ही ला सको तो ही कुशलता है। आज इतना ही। 408