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________________ जिन सूत्र भाग : 1 जब अर्जुन ने अपने को छोड़ा तो तत्क्षण उसका संन्यास का कि मेरे रहते इतना बड़ा मकान पड़ोस में खड़ा कर दिया। अब भाव विदा हो गया। वह युद्ध के लिए तत्पर हो गया। उसने चाहे सारा जीवन दांव पर लग जाये, बड़ा मकान बनाकर गांडीव फिर उठा लिया। क्योंकि वह बांसुरी बनी ही उसके लिए दिखाना है। तो तुमने बड़ा मकान बनाया, 'मैं' को बड़ा थी। वही गीत अर्जुन गा सकता था। अर्जुन योद्धा था, क्षत्रिय | किया–हिंसा हो गई। था। वह परमात्मा का सैनिक ही हो सकता था, परमात्मा का तुम किसी आदमी के पास से अकड़कर निकल गये-हिंसा संन्यासी नहीं हो सकता था। वह उसकी नियति थी। हो गई। हिंसा तुम्हारी जहां भी 'मैं' की धारा गहरी होती है, वहीं इसलिए तुम...यह प्रश्न किसी जैन ने पूछा है, इसलिए वह हो जाती है। कहता है, कृष्ण कहते हैं कि मारो।' कृष्ण कहते नहीं कि तो महावीर ने कहा, कर्मों को छोड़ो, जिनसे हिंसा होती है। मारो। कृष्ण न कहते कि मत मारो। कृष्ण इतना ही कहते हैं, जो जिनसे दूसरे को चोट लगती है, वह छोड़ो। जिनसे दूसरों को करवाये...! तुम निर्णय न लो, उसी को निर्णय दो। बागडोर | दुख होता है, वह छोड़ो। और तब तुम चकित होकर देखोगे कि उसके हाथ में दे दो। तुम शून्यवत खड़े हो जाओ। और जो जिससे दूसरे को चोट लगती है, उसी से तुम्हारा अहंकार मजबूत अंतर्तम से उठे, जो उसकी आवाज आये उसी दिशा में चल | होता है, और कोई उपाय नहीं है। भोजन ही अहंकार का यही है पड़ो। कृष्ण का मार्ग समर्पण का है। अर्जुन युद्ध में गया, | कि दूसरे को चोट लगे। सांस्कृतिक, सभ्य ढंग से लगे कि क्योंकि सब भांति अपने को शुन्य करके उसने यही पाया कि यही असभ्य ढंग से लगे; तुम किसी को गाली दो कि किसी का व्यंग्य आवाज आती है कि 'कर्तव्य को पूरा कर! अब फिर मैं क्या कर | करो; तुम किसी को जिंदगी के युद्ध में पछाड़ दो, गिरा दो; या सकता हूं?' तुम त्याग के युद्ध में किसी को हरा दो कि तुम किसी को अपने से महावीर कहते हैं, हिंसा का भाव-मात्र हिंसा है। कृष्ण भी यही छोटा त्यागी करके सिद्ध कर दो-कोई फर्क नहीं पड़ता। तुम कहते हैं अगर तुम समझने की कोशिश करो। कृष्ण तो यह भी कोई भी माध्यम चुनो, जिस माध्यम से भी दूसरे को दुख हो कहते हैं कि हिंसा का भाव तो हिंसा है ही, अहिंसा तक का भाव सकता है, वह माध्यम हिंसा है। और हिंसा से 'मैं' मजबूत कि मैं अहिंसा करता हूं, हिंसा है। मैं करता हूं, इसमें हिंसा है। होता है। जोर कृत्य पर नहीं है, कर्ता पर है। मैं हूं, यही हिंसा है। 'मैं' को | तो महावीर कहते हैं, हिंसा के सारे कृत्य छोड़ दो। हिंसा का हटा लो, अहिंसा हो जाएगी। भाव तक छोड़ दो, कृत्य की तो बात अलग। क्योंकि भाव भी अर्जुन युद्ध में लड़कर भी अहिंसक रहा, हिंसक नहीं है। काफी है; वह भी भोजन बन जायेगा, वह भी अहंकार को क्योंकि जिसने अपना कर्तव्य ही हटा लिया, जिसने अपना मजबूत करेगा। जब तुमने हिंसा के सब भाव, कृत्य छोड़ दिये, कर्ता-भाव ही हटा लिया, उसको अब तुम कर्म के लिए दोषी न तुम अचानक पाओगे तुम्हारा 'मैं' धूल-धूसरित हो गया, गिर ठहरा सकोगे। दोनों एक ही बात कह रहे हैं। कृष्ण का जोर है पड़ा, समाप्त हो गया। कि कर्ता-भाव गिरा दो, और महावीर का जोर है कि कर्म को यह महावीर की प्रक्रिया है: कर्म के विसर्जन से कर्ता का रूपांतरित कर दो। विसर्जन! निश्चित ही यह प्रक्रिया क्रमिक होगी। एक-एक कर्म अब थोड़ा समझना। अगर तुम हिंसक कर्मों को छोड़ते चले को ध्यान रखकर, साधना साधनी होगी, एक-एक कर्म का जाओ तो तुम्हारा 'मैं' गिरने लगेगा, क्योंकि 'मैं' बिना हिंसा हिसाब रखकर चलना होगा, क्योंकि बड़े सूक्ष्म हैं के खड़ा नहीं रह सकता। 'मैं' के लिए हिंसा चाहिए-बड़ी कर्म...जरा-सी आंख का इशारा और हिंसा हो जाती है। तो सूक्ष्म हो, स्थूल हो, लेकिन हिंसा चाहिए। बड़ी लंबी प्रक्रिया है, संकल्प का मार्ग है। इंच-इंच लड़ना पड़ोसी ने मकान बनाया, तुम बड़ा मकान बना लो-हिंसा हो | होगा, पहाड़ चढ़ना होगा। गई। क्योंकि तुमने बड़ा मकान सिर्फ बनाया इसलिए कि अब | कृष्ण कहते हैं, ऐसा एक-एक कर्म को छोड़ोगे पड़ोसी को नीचा दिखाना है। यह इसने इतनी हिम्मत कैसे की | फुटकर-फुटकर, लंबा समय लग जायेगा। और फिर कृष्ण और 394 ain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340118
Book TitleJinsutra Lecture 18 Dharm Aavishkar Hai Param ka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Jinsutra_MP3_and_PDF_Files
File Size48 MB
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