________________ धर्म आविष्कार है-स्वयं का खबर दे रहा हूं; यह तो धूल है जो रथ के पहियों से उड़ी थी। यह था, असमर्थ था। जो मैं कहना चाहता था, तुमने कह दिया। कई कोई रथ तो नहीं है। और रथ में विराजमान जो आया था, उसकी बार सदगुरु के सान्निध्य में तुम्हारा हृदय ठीक उस जगह आ तो बात ही क्या करनी! उस क्षण तो मैं बिलकुल मिट गया था। जायेगा, जहां कुछ अनुभव होता है। लेकिन वह अनुभव होता है बुद्धि न थी, मैं न था। तो एक चित्र भी तो न पकड़ पाया, एक उपस्थिति से। वह है सत्संग। शास्त्र में तो राख रह जाती है। छवि भी तो न खींच पाया कि लोगों को दिखा देता! फिर | राख की भी राख। छाया की भी छाया। भी...उसके चरण की धूल भी सही! उसके चरणों ने छुआ है, तो अगर कोई जीवित व्यक्ति मिल सके, ऐसा सौभाग्य हो, तो या उसके रथ के पहियों ने छुआ है, तो इस धूल में भी कुछ स्वाद हजार काम छोड़कर उसके चरणों में बैठने का अवसर मत आ गया होगा। बस! उस धल की बात है। | छोड़ना। क्योंकि जो शास्त्र नहीं कह पाते हैं, यद्यपि कहने की ज्ञानी है, वह जब ध्यान की परम दशा में पहुंचता है, सब चेष्टा की गई है, वह उसकी मौजूदगी कहेगी। इसलिए जो लोग विचार शांत हो जाते हैं। जब अनुभव होता है, तब विचार नहीं | महावीर के पास थे, उन्होंने जो जाना; जिन्होंने कृष्ण के पास होने होते। जब विचार लौटते हैं, तब अनुभव जा चुका होता है। तो का सौभाग्य पाया, उन्होंने जो जाना—वह तुम गीता पढ़कर थोड़े विचार हमेशा पीछे-पीछे आते हैं। और कुछ टूटा-फूटा, कुछ ही जान सकोगे; वह तुम जिन-सूत्र पढ़कर थोड़े ही जान जूठा, कुछ रेखाएं पड़ी रह गईं समय पर, उनको इकट्ठा कर लेते सकोगे! उसका कोई उपाय नहीं। सांप तो जा चुका, केंचुली हैं। उन्हीं को हम अभिव्यक्ति बनाते हैं। पड़ी रह गई—वही शास्त्र है। केंचुली जब सांप पर चढ़ी थी, जो जाना गया है, वह कभी कहा नहीं गया। जो कहा गया है, तब भी केंचुली ही थी, लेकिन तब जीवंत थी। तब सांप चलता वह वस्तुतः वैसा कभी जाना नहीं गया था। इसलिए शब्दों को था तो केंचुली भी चलती थी। तब सांप फुफकारता था तो मत पकड़ना। | केंचुली भी फुफकारती थी। फिर सांप तो जा चुका, केंचुली पड़ी इसीलिए मैं निरंतर कहता हूं कि शास्त्र सहयोगी नहीं हो पाते। रह गई। अब हवा के झोंके में हिलती-डुलती है, लेकिन अब क्योंकि जब तुम किसी सदगुरु के पास होते हो, तब उसके शब्दों चलती नहीं; अब उसके पास अपने कोई प्राण नहीं हैं, जीवंत में भी उसके निशब्द की ध्वनि आती है। तब उसकी अभिव्यक्ति आत्मा नहीं है। में भी तुम्हारे भीतर उसके फूल खिलने लगते हैं, जो अनभिव्यक्त / सभी धर्म जब पैदा होते हैं तो किसी सदगुरु की मौजूदगी में रह गया है। तब उसके बोलने में भी तुम उसके अबोल को सुन पैदा होते हैं। सदगुरु के विदा हो जाने पर सांप की केंचुलियां पड़ी पाते हो। उसकी मौजूदगी, उसकी उपस्थिति; तुम्हें छूती है, तुम्हें रह जाती हैं अनंत सदियों तक, और लोग उनकी पूजा करते रहते स्पर्श करती है, तुम्हें नहला जाती है। वह जो शब्दों से कहता है, हैं। हां, सदगुरु न मिले तो मजबूरी है। तो फिर तुम शास्त्र को ही वह तो ठीक ही है, वह तो शास्त्र भी कह देंगे; लेकिन जो उसकी | पूज लेना। लेकिन ऐसा कभी नहीं होता कि पृथ्वी पर सदगुरु न मौजूदगी के स्पर्श में तुम्हें अनुभव होता है, वह शास्त्र न कह हों! सदा होते हैं। यद्यपि दुर्भाग्य यह है कि जब वह होते हैं, पायेंगे। इसलिए सदगुरु के सान्निध्य में तो क्षणभर को तुम्हें ऐसा बहुत कम लोग पहचानते हैं। जब वह जा चुके होते हैं, तब मुर्दा लगता है कि उसकी अभिव्यक्ति ने छ लिया। बात जतला दी, केंचुली को बहुत लोग पूजते हैं। लोगों का मरे से कुछ लगाव है, बता दी, इशारा हो गया। खिड़की खुली थी, देख लिया। ऐसा | जिंदा से कुछ घबड़ाहट है! जीवन से कुछ डर है, मृत्यु की बड़ी तुम्हें लगता है कि जो मैं खुद भी कहना चाहता था और न कह पूजा है! पाता था, वह तुमने कह दिया। देखना तकरीर की लज्ज्त कि जो उसने कहा आखिरी प्रश्न : जब कोई प्यासा या प्यारा मिल जाता है, तब मैंने यह जाना कि गोया यह भी मेरे दिल में है। मेरी दशा पूर पर आई नदी जैसी हो जाती है। मैं आपको लेकर बहुत बार तुम्हें लगेगा सदगुरु के पास कि ठीक, बिलकुल | उस पर बरस पड़ती हूं। जाने किस नगरी की आवाज निकल ठीक, यही तो मैं कहना चाहता था, लेकिन शब्द न जुटा पाता पड़ती है। मैं दोनों सिरों पर जलती हुई मशाल जैसी हो जाती 405 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org