________________ जिन सूत्र भागः1 खुलता है। समस्त इच्छाओं के त्याग में मोक्ष की इच्छा भी जरा-सी एक खराश सम्मिलित है। -और उस घाव में पीड़ा है। इसे थोड़ा समझना। वह जो मोक्षवादी है, वह कहता है, मोक्ष इस बात को समझने की कोशिश करो। की भी इच्छा छोड़ देनी है, तब मोक्ष मिलेगा। परमात्मा की भी भक्त की पीड़ा भी प्यास है। वह कहता है, प्रभ पीड़ा दो। इच्छा छोड़ देनी है, तभी। इच्छा मात्र बाधा है। प्यासा करो, जलाओ! भक्तों से पूछो! ज्ञानी के लिए परमात्मा नहीं है, न कोई प्यास है, न कोई और भक्त कहते हैं, अगर मोक्ष छोड़ना पड़े, हम तैयार हैं। लेकिन बात है। सिर्फ अज्ञान की एक पीड़ा है; यह पीड़ा प्यास नहीं है, तुम्हारी अभीप्सा बनी रहे! प्रभु को पाने की अकुलाहट बनी रहे! यह दुख है। यह कांटे की तरह चुभ रही है। इसे निकालकर बैकंठ पर लात मारने को तैयार हैं। लेकिन कहीं ऐसा न हो कि फेंकना है। तुम्हारे विरह में जो मजा आ रहा है, वह खो जाये! - ये दोनों भाषाएं अलग हैं। और जब तक तुम्हें ठीक सम्यक भक्त, परमात्मा के विरह को बचा लेना चाहता है। उसके | भाषा न मिल जाये, जिससे तुम्हारे हृदय का तालमेल बैठे, तब मिलन की तो बात दूर, उसका विरह भी बड़ा प्यारा है। ज्ञानी, तक ऐसी अड़चन होगी। मेरी बातें सिर पर से निकलती हुई परमात्मा की आकांक्षा भी छोड़ देना चाहता है। विरह की तो बात मालूम होंगी। कोई-कोई बात जो तुम्हारे संस्कार से मेल खा दूर, उसके मिलन की भी आकांक्षा नहीं करता। क्योंकि जायेगी, वो समझ में आयेगी। लेकिन समझ में आने से क्या आकांक्षा मात्र उसे मोक्ष में बाधा मालूम होती है। होगा? अगर तुम्हारे हृदय से मेल न खायेगी तो समझ में आ ये अलग-अलग भाषाएं हैं। जायेगी, किसी काम में न आयेगी। और जो बात तुम्हारे हृदय से तलाश में तो तलब मेल खाती थी, वह तुम्हारे सिर पर से निकल जायेगी; क्योंकि जुस्तजू-सी होती है संस्कार उसे भीतर प्रविष्ट न होने देगा। जो बात तुम समझ दबा-दबी ही सही लोगे, वह तुम्हारे काम की न होगी। और जो तुम्हारे काम की थी, आरजू-सी होती है। वह तुम्हारा मन तुम्हें समझने न देगा। कितना ही दबाओ, कितना ही सम्हालो, संस्कारित करो, 'गुणा' की तकलीफ, भावुक स्त्रैण हृदय की तकलीफ है। लेकिन आकांक्षा तो रहती है, आरजू तो रहती है। जैन मार्ग पुरुष का मार्ग है। और जब मैं कहता हूं, पुरुष का, इसलिए तो महावीर के मार्ग पर प्रार्थना शब्द गलत है। ध्यान! तो मेरा मतलब यह नहीं कि स्त्रियां उस मार्ग से नहीं जा सकती। प्रार्थना की कोई जगह नहीं है। प्रार्थना में तो आरज-सी रहती है। / स्त्रियां भी जा सकती हैं, लेकिन पुरुष-धर्मा; जिनकी वृत्ति पुरुष दबा-दबी ही सही की वृत्ति हो। आरजू-सी होती है कृष्ण का मार्ग स्त्रैण मार्ग है। इसका यह मतलब नहीं कि पुरुष न आरजू न तलब है नहीं जा सकते; जा सकते हैं लेकिन वे ही पुरुष, जिनकी -न पाने की इच्छा है, न पाने की कोई याचना है। भावदशा स्त्रैण हो। गोप भी जा सकते हैं। लेकिन गोप न जुस्तजू न तलाश ऊपर-ऊपर से होंगे, भीतर से गोपी का ही भाव होगा। -न खोज है, न खोज में कोई पागलपन है। फिर है क्या? इसलिए कृष्ण का भक्त तो अपने को मानने लगता है, वह स्त्री भक्त बोलता है, परमात्मा की प्यास के कारण खोजने निकले है; उसकी, कृष्ण की गोपी है। वह अपने पुरुष-भाव को छोड़ हैं। ज्ञानी बोलता है, भीतर एक घाव है, पीड़ा है-उसको | देता है। मिटाना है। जैन साध्वी अपने सारे स्त्रैण भाव को धीरे-धीरे काटकर गिरा जरा-सी एक जराहत देती है, पुरुषवत हो जाती है। सारा राग, सारा रस, सब समाप्त -एक घाव है भीतर। कर देना है। मरुस्थल की तरह हो जाना है। 4001 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org