Book Title: Jinsutra Lecture 17 Aatma Param Adhar Hai
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Osho Rajnish
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्रहवां प्रवचन आत्मा परम आधार है For Private & Personel Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आरुहवि अंतरप्पा, बहिरप्पो छंडिण तिविहेण। झाइज्जइ परमप्पा, उवइ8 जिणवरिंदेहिं।।४५।। णिद्दण्डो णिद्दण्डो, णिम्ममो णिक्कलो णिरालंबो। णीरागो णिद्दोसो, णिम्मूढो णिब्भयो अप्पा।।४६।। णिग्गंथो णीरागो, णिस्सल्लो सयलदोसणिम्मूक्को। णिक्कामो णिस्कोहो, णिम्माणो णिम्मदो अप्पा।।४७।। www.ainelibrary.org Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दम के तारीक रस्ते में पहुंचता कहीं भी नहीं। कोई मुसाफिर न राह भूले __ वर्तुलाकार जो घूमेगा, वह पहुंचेगा कैसे? मैं शमए-हस्ती बुझाके अपनी ___ इसलिए हमने जीवन को चक्र कहा है। गाड़ी के चाक की चिरागे-तुरबत जला रहा हूं। भांति, घूमता है, घूमता रहता है; कभी एक आरा ऊपर आता है, जीवन के रास्ते पर जिन्होंने अपने को परिपूर्ण मिटा दिया है, वे कभी दूसरा आरा नीचे चला जाता है लेकिन वस्तुतः कोई भेद ही केवल ऐसा प्रकाश बन सके हैं जिनसे भूले-भटकों को राह नहीं पड़ता। कभी क्रोध ऊपर आया, कभी मोह ऊपर आया; मिल जाये। जिसने अपने को बचाने की कोशिश की है, वह कभी प्रेम झलका, कभी घृणा उठी; कभी ईर्ष्या से भरे, कभी दूसरों को भटकाने का कारण बना है। और जिसने अपने को बड़ी करुणा छा गई; कभी बादल घिरे, कभी सूरज मिटा लिया, वह स्वयं तो पहुंचा ही है; लेकिन सहज ही, निकला-ऐसी धूप-छांव चलती रहती है। एक आरा ऊपर, साथ-साथ, उसके प्रकाश में बहुत और लोग भी पहुंच गये हैं। दूसरा आरा नीचे होता रहता है, और हम चाक की भांति घूमते महावीर किसी को पहुंचा नहीं सकते; लेकिन जो पहुंचने के रहते हैं। लेकिन हम हैं वहीं, जहां हम थे। हमारे जीवन में यात्रा लिए आतुर हो वह उनकी रोशनी में बड़ी दूर तक की यात्रा कर नहीं है। तीर्थयात्रा तो दूर, यात्रा ही नहीं है। बंद डबरे की भांति सकता है। हैं, जो सागर की तरफ जाता नहीं। यात्री को स्वयं निर्णय लेना पड़े। जाना है, तो प्रकाश के साथ डबरा डरता है। सागर में खो जाने का डर है। और डर सच है, संबंध बनाने पड़े। | क्योंकि डबरा खोयेगा सागर में। लेकिन उसे पता नहीं, उसके अभी हमने जीवन-जीवन, जन्मों-जन्मों अंधेरे के साथ संबंध | खोने में ही सागर का हो जाना भी उसे मिलनेवाला है। बनाये हैं। धीरे-धीरे अंधेरे के साथ हमारे संबंध, संस्कार हो गये अदम के तारीक रस्ते में कोई मुसाफिर न राह भूले हैं, स्वभाव हो गए हैं। अंधेरा हमें सहज ही आकर्षित कर लेता आदमी का रास्ता बड़ा अंधेरा है! है। एक तो रोशनी हमें दिखाई ही नहीं पड़ती, शायद अंधेरे में | अदम के तारीक रस्ते में कोई मुसाफिर न राह भूले रहने के कारण हमारी आंखें रोशनी में तिलमिला जाती हैं; या मैं शमए-हस्ती बुझाके अपनी चिरागे-तुरबत जला रहा हूं। अगर दिखाई भी पड़ जाये तो भीतर बड़ा भय पैदा होता है। तो मैंने अपने जीवन को, अपने होने को तो बुझा दिया है अपरिचित का भय। नये का भय। अनजान का भय। और अपनी मजार का दीया जला लिया है। चिरागे-तुरबत जला तो हम तो बंधी लकीर में जीते हैं-कोल्ह के बैल की तरह रहा हूं! जीते हैं। कोल्हू का बैल चलता बहुत है, दिनभर चलता है; | जिसे कवि ने चिरागे-तुरबत कहा है, उसी को महावीर निर्वाण Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग कहते हैं। है। इसे भी समझ लेना, फिर हम सत्रों में प्रवेश करें। जीवन को तो बुझा दिया है, मौत का दीया जला लिया है। व्याख्या तो परम सत्य की हो नहीं सकती; क्योंकि व्याख्या यह जरा कठिन लगेगा, क्योंकि हम तो जीवन और जीवन की उसी की हो सकती है जिसका विश्लेषण हो सके, जिसे तोड़ा जा आकांक्षा से भरे हैं। जीवेषणा! किसी भी कीमत पर, मरते हों, सके, जिसे खंडों में बांटा जा सके। जैसे कि मकान है, इसकी सड़ते हों, गलते हों; लेकिन फिर भी जीना चाहते हैं। चाहे सब व्याख्या हो सकती है कि यह ईंटों का संग्रह है। ईंटों को एक के छीन लिया जाये. अंधे हो जायें, सड़क पर भिखमंगे की तरह ऊपर एक जमाया गया है, एक खास तरतीब में बिठाया गया है, घिसटते रहें, कुछ भी जीवन में अर्थ न दिखाई पड़े, फिर भी तो मकान बन गया है। एक-एक ईंट को अलग कर लो, मकान जीवन को पकड़े रहते हैं। ऐसा लगता है, जैसे जीवन का कोई | खो जायेगा। तो ईंटों की एक तरतीब से जमाई गई व्यवस्था का अपने आप में ही अर्थ है। नाम मकान है। लेकिन आत्मा के टुकड़े नहीं होते, खंड नहीं दुख ही दुख मिलता हो, पीड़ा ही पीड़ा मिलती हो, तो भी होते। जैसे मकान ईंटों से जमा है, ऐसा आत्मा किन्हीं अंशों से आदमी जीवन को पकड़े रहता है। सारे स्वाभिमान को बेचना मिलकर नहीं बनी है। पड़े, आत्मा को बेचना पड़े, सब भांति अपने को काट-काटकर | सत्य का खंड नहीं होता, टुकड़े नहीं होते। सत्य तो बस है। बाजार में रख देना पड़े, तो भी आदमी जीवन को पकड़े रहता है। तो उसकी व्याख्या नहीं हो सकती। महावीर का सारा शिक्षण जीवेषणा को बुझाने का शिक्षण है। अगर वैज्ञानिक से पूछो, पानी की क्या व्याख्या है, वह कहता जब तक, जिसे तुमने जीवन कहा है, तुम उसे न बुझाओगे; जब है, हाइड्रोजन आक्सीजन के मिलने से जो बनता है वह पानी है। तक तुमने जिसे अब तक मृत्यु कहा है, उसे तुम अंगीकार न कर लेकिन दो चीजों से मिलकर बनता है, इसलिए व्याख्या हो गई। लोगे-तब तक महाजीवन का द्वार न खुलेगा। क्योंकि तुम उससे पूछो कि हाइड्रोजन की क्या व्याख्या है, तो वह कहता है, जिसे जीवन कहते हो, वह मृत्यु है। और जिसे महावीर मृत्यु इलेक्ट्रान, न्यूट्रान, पाजिट्रान से मिलकर जो बनता है वह कहते हैं, वह महाजीवन है। हाइड्रोजन है। लेकिन उससे पूछो, इलेक्ट्रान की क्या व्याख्या है, श्री अरविंद ने कहा है : 'जब खोजता था तो जिसे मैंने दिन तब वह अटक जाता है; क्योंकि अब खंड समाप्त हो गये। वह समझा था, प्रकाश समझा था-वह खोजने के बाद अंधेरा | कहता है, इलेक्ट्रान तो बस इलेक्ट्रान है। अब इसको समझाने साबित हुआ, रात साबित हुई। और जिसे मैंने जीवन जाना था. का उपाय नहीं, क्योंकि दो से मिलकर बनता नहीं। वह मृत्यु सिद्ध हुई। और जिसे मैंने अमृत समझकर पीया था, दो से जो मिलकर बनता है, उसकी व्याख्या हो सकती है। वह जहर था।' क्योंकि इन दो के सहारे पर हम इशारा कर सकते हैं। जागने के बाद जीवन में बड़ी गहरी उथल-पुथल हो जाती है, लेकिन जहां एक ही स्वभाव हो, अखंड, वहां निर्वचन के सारे मूल्य बदल जाते हैं जैसे कोई आदमी सिर के बल खड़ा | बाहर हो जाता है। होकर देख रहा हो संसार को, और सारा संसार उसे उलटा इसलिए इन सूत्रों में महावीर आत्मा के संबंध में जो मालूम पड़ता हो; और फिर वह पैर के बल खड़ा हो जाये, और कहेंगे-पहली बात-वह व्याख्या नहीं है। व्याख्या तो हो नहीं तब सारा संसार उसे सीधा मालूम पड़े। सकती। इशारा है, इंगित है। अभी जिसे हमने जीवन समझा है, वह हमारे चित्त की बड़ी __ दूसरी बात-परिभाषा नहीं है। परिभाषा उस चीज की हो विपरीत दशा है। टटोल-टटोलकर, अनुमान लगा-लगाकर, सकती है जिसकी सीमा हो। जिसकी सीमा न हो उसकी हमने कुछ सोच रखा है कि यह रहा जीवन। रोशनी आने पर, परिभाषा नहीं हो सकती। परिभाषा का अर्थ ही होता है : सीमा आंख खुलने पर, जीवन कुछ और ही सिद्ध होता है। को खींचना। आज के सूत्रों में महावीर उस परम जीवन की तरफ इशारे कर तुमसे कोई पूछे, तुम्हारा मकान कहां है, तो परिभाषा हो सकती रहे हैं। व्याख्या नहीं है यह, न ही परिभाषा है; यह सिर्फ वर्णन है; क्योंकि इस तरफ कोई पड़ोसी है, उस तरफ कोई पड़ोसी है; 368 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RE आत्मा परम आधार है इधर भी सीमा है, उधर भी सीमा है; इधर रास्ता है, उधर नदी आत्मा में ही 'है' पन छिपा है। वह उसका स्वभाव ही है। है। कुछ सीमा हो सकती है। जहां-जहां सीमा हो सकती है, उसे बाहर से रखने की जरूरत नहीं। कर्सी में है' पन नहीं छिपा वहां परिभाषा हो सकती है। हम कह सकते हैं, इन सीमाओं के है। वह उसका स्वभाव नहीं है। एक बार शून्य से आई है, एक भीतर जो है, वह मेरा मकान है। बार फिर शून्य में चली जायेगी। आत्मा न आई है न गई है, तो लेकिन आत्मा की या सत्य की तो कोई सीमा नहीं है। आत्मा परिभाषा नहीं हो सकती। कहां है-यह कहना तो कठिन है; क्योंकि 'कहां' का तो फिर आत्मा के संबंध में क्या हो सकता है? महावीर कहते हैं, मतलब होगाः स्थान-निर्देश। और आत्मा स्थान में नहीं है। वर्णन हो सकता है। वर्णन बड़ी अलग बात है। डिसक्रिप्शन; आत्मा कब है-यह भी कहना संभव नहीं है; क्योंकि 'कब' | डेफिनीशन नहीं। का तो अर्थ होगा : समय में निर्देश। आत्मा समय में भी नहीं है। वर्णन का अर्थ होता है: हम सिर्फ इशारे कर सकते हैं कि ऐसा आत्मा कालातीत है, क्षेत्रातीत है। न वह समय के भीतर है न है, ऐसा है, ऐसा है। जिन्होंने जाना है, वे ही वर्णन कर सकते स्थान के भीतर है-और दो ही उपाय हैं जिसके द्वारा परिभाषा हैं। जिन्होंने नहीं जाना है, वे जानने की यात्रा पर जा सकते हैं; होती है। लेकिन वर्णन को सुनकर ही उनकी समझ में कुछ भी न आयेगा। जैसे अगर कोई पूछे कि तुम कब पैदा हुए, कहां पैदा हुए, तो | वर्णन से प्यास पैदा हो सकती है। परिभाषा हो जाती है। तुम कहते हो, फलां गांव में स्थान बता तुम अंधेरे में हो, तो प्रकाश का मैं वर्णन कर सकता हूं: उससे दिया; फलां घर में, फलां परिवार में स्थान बता दिया; फलां तुम्हारी समझ में नहीं आयेगा कि प्रकाश क्या है। इतना ही समझ तारीख को, सुबह या सांझ या दुपहर, फलां घड़ी-मुहूर्त में आयेगा-वह भी अगर तुम साहसी हो, दांव पर लगाने की में-समय बता दिया। परिभाषा हो गई। समय और स्थान का | हिम्मत रखते हो, जोखिम का बल है और अभियान पर निकलने ठीक-ठीक निर्देश कर दिया। तो जहां समय और स्थान की अभीप्सा है तो इतना ही समझ में आयेगा कि कुछ है जो | एक-दूसरे को काटते हैं, दोनों की रेखायें जहां कटती हैं, वह बिंदु | मैंने अब तक नहीं जाना; और यह आदमी जो इसे जान चका है. तुम्हारी परिभाषा हो गई। | बड़ा आनंदित मालूम होता है, प्रसन्न मालूम होता है; मैं भी लेकिन आत्मा का न तो कभी जन्म हुआ, न कभी अंत होता, न जानूं। और निश्चित ही यह आदमी इस अंधेरे को भी जानता है, किसी स्थान में आत्मा को कभी पाया गया है, न वह स्थान में क्योंकि मेरे पास बैठा है; और इस आदमी ने कुछ और भी जाना होती। टाइम-स्पेस, समय और स्थान दोनों के पार है, तो है जो अंधेरे से ज्यादा है; भरोसा करूं। परिभाषा कैसे? आत्मा है-ऐसा कहा जा सकता है। लेकिन इसलिए श्रद्धा का बड़ा मल्य है। विज्ञान में श्रद्धा का कोई परिभाषा नहीं की जा सकती। वस्तुतः तो 'आत्मा है', ऐसा मूल्य नहीं है; क्योंकि विज्ञान वर्णन नहीं करता, परिभाषा करता कहने में भी भल हो जाती है। क्योंकि 'है' अलग से जोड़ना है, व्याख्या करता है। तो विज्ञान में कोई श्रद्धा की जरूरत नहीं ठीक नहीं है। आत्मा के होने में ही सम्मिलित है 'है'। है। संदेह करो खूब, तो भी विज्ञान तुम्हें समझा देगा कि यह रही जैसे हम कहें कुर्सी है, तो ठीक है; क्योंकि एक दिन कुर्सी नहीं व्याख्या, यह रही परिभाषा, यह प्रयोगशाला-कर डालो। थी और एक दिन फिर नहीं हो जायेगी। दो 'नहीं' के बीच में धर्म के साथ कठिनाई है; प्रयोगशाला तो है, लेकिन भीतर है, 'है' की सुविधा है। 'है' के होने के लिए दो 'नहीं' दोनों तरफ बाहर नहीं है। मेरी प्रयोगशाला में मैं तुम्हें ले जा नहीं सकता! चाहिए। एक दिन कुर्सी नहीं थी, अब कुर्सी है; फिर एक दिन लाख चाहूं, लाख पुकारूं, लेकिन मेरी प्रयोगशाला में तुम न आ की 'नहीं' हो जायेगी-तो 'है' कहने में कुछ अर्थ है। सकोगे। तुम्हारी प्रयोगशाला में मैं नहीं आ सकता। यह आत्मा को 'है' कहने में क्या अर्थ है? सदा थी, सदा है, प्रयोगशाला अत्यंत निजी है। सदा रहेगी। जो कभी 'नहीं हुई ही नहीं, उसे 'है' भी क्या | विज्ञान की प्रयोगशालाएं सामूहिक हैं। विज्ञान की टेबल पर कहना? तो आत्मा है, इसमें भी पुनरुक्ति है। रखकर कोई चीज जांची-परखी जाये तो सभी देख सकते हैं। 369 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INE जिन सत्र भागः 1 MIRRIERRELI धर्म के जगत में तो जो प्रयोग करता है, केवल वही देख पाता है। लेकिन वेद का अभी जन्म नहीं हआ। क्योंकि वेद का जन्म तो कह सकता है, गीत गुनगुना सकता है, उस आनंद की खबर ला तुम्हारे ही ध्यान की प्रक्रिया में होगा। सकता है, नाच सकता है, या मौन खड़ा हो जाता है। या उसके तो शब्द ये सब बहुमूल्य हैं, महा गहन अर्थ से भरे हैं; लेकिन जीवन की प्रभा को तुम पहचानो, उसके पास आओ, उसकी | तुम्हारे पास पहुंचते-पहुंचते ये खाली कारतूसें रह जायेंगे। तुम पलक को छओ, उसके पास शांति को अनुभव करो, उसके इन्हें अगर फिर से जीवंत करना चाहो तो बड़े साहस, अदम्य आनंद की थोड़ी किरणें तुम पर भी पड़ने दो-तो शायद तुम्हें साहस से और जोखिम उठाने की हिम्मत से ही यह हो सकेगा। एक बात भर खयाल में आ जाये कि जो मेरे जीवन में अब तक समझने की हम कोशिश करें। हुआ है उससे शांति नहीं मिली, यह आदमी शांत है; जो मेरे __ आरुहवि अंतरप्पा, बहिरप्पो छंडिऊण तिविहेण। जीवन में हुआ है उससे भय नहीं मिटा, इस आदमी का भय मिट झाइज्जइ परमप्पा, उवइटुं जिणवरिंदेहि।।। गया है; जो मेरे जीवन में हुआ है उससे अभी तक मृत्यु पर मेरी 'जिनेश्वर देव का यह कथन है कि तुम मन, वचन और काया कोई विजय नहीं हुई, इस आदमी की मृत्यु पर विजय हो गई है; से बहिरात्मा को छोड़कर, अंतरात्मा में आरोहण कर, परमात्मा जो मैंने जीवन में जाना है उससे चिंताएं बढ़ी हैं, इस आदमी की | का ध्यान करो।' तिरोहित हो गई हैं; शायद इसे कुछ मिला है जो मैं चूक रहा हूं। 'मन, वचन, काया से...' थोड़ा चलूं, हिम्मत करूं। थोड़ा मैं भी खोजूं; अपनी सीमा, | महावीर की साधना-प्रक्रिया में ये तीन बाधाएं हैं—मन, अपने घेरे के बाहर उठू।। वचन, काया। अपनी सीमा और घेरे के बाहर उठना ही संन्यास है। काया तो हमें दिखाई पड़ती है। काया के पीछे छिपी हुई विचारों संसार तुम्हारी सीमा है। वहां सब तुम्हारा जाना-माना, की पर्ते हैं, सघन पर्ते हैं-उनका नाम वचन। तुम चाहे बोलो या परिचित है। संन्यास इस सीमा के जरा बाहर सिर उठाना है। न बोलो, तो भीतर तो बोलते ही रहते हो। चुप भी जो आदमी ये सूत्र वर्णन के सूत्र हैं। एक-एक शब्द बहुमूल्य है-और बैठा है, वह भी भीतर बोल रहा है। वचन जारी है। साथ ही साथ अर्थहीन भी। __तो शरीर की एक पर्त है-स्थूल; उसके भीतर छिपी हुई सूक्ष्म जब मैं कहता हूं अर्थहीन, तो मेरा अर्थ है कि अर्थ तो तभी पैदा पर्त है विचार की, संस्कार की, धारणाओं की-वह घूम रही है। होगा जब तुम अनुभव करोगे। शब्द बड़े प्यारे हैं, बड़े अनूठे हैं! वह चौबीस घंटे तुम्हें घेरे हुए है। रात सपने में भी चल रही है। महावीर ने जब इनको कहा है तो सार्थक हैं, इसीलिए कहा है। मैं उठो, बैठो, चलो, कुछ भी करो, भीतर विचार की एक परिधि जब तुमसे कह रहा हूं तो सार्थक हैं, इसीलिए कह रहा हूं। अपना घेरा बांधे रखती है। लेकिन मेरे कहने से ही अर्थ तुम्हारी पकड़ में न आयेगा। अर्थ तो उस विचार से भी गहरा मन है। अगर आधुनिक मनोविज्ञान तुम्हें अपने अनुभव से डालना होगा। शब्द तुम्हें दे दूंगा, जैसे की भाषा में कहें तो जिसको आधुनिक मनोविज्ञान 'कांशस शब्द की प्यालियां तुम्हें दे दीं; लेकिन जो मदिरा तुम्हें ढालनी है मांइड' कहता है, उसी को महावीर वचन कहते हैं। और वह तो तुम्हें भीतर ढालनी पड़े और इन प्यालियों में भरनी पड़े। जिसको आधुनिक मनोविज्ञान 'अनकांशस मांइड' कहता है, ये शब्द कोरे हैं; इनमें तुम प्राण डालोगे तो ये जीवंत हो उठेगे। | उसको महावीर मन कहते हैं। इन शब्दों को ही तुम अर्थ मत समझ लेना, जैसा कि पंडितों ने | मन का जो हिस्सा तुम्हारी चेतना में प्रविष्ट हो गया है वह है समझ रखा है। तो फिर शब्द को ही लोग दोहराये चले जाते हैं। वचन। मन का जो हिस्सा विचार बन गया है और मन का जो फिर वे आत्मा का वर्णन सीख लेते हैं, कंठस्थ कर लेते हिस्सा अभी विचार नहीं बना है, विचार बनने की प्रक्रिया में हैं तोतों की तरह। फिर उसी को दोहराते-दोहराते भूल ही जाते है-वह है मन। हैं कि हमने अभी जाना नहीं; यह तो हमने सुना था; यह तो मन है बीज की भांति; विचार अंकुरित हो गये बीज हैं। और श्रवण था; यह तो श्रुति थी। ज्यादा से ज्यादा स्मृति बन गई, ये तीनों संयुक्त हैं। जो तुम्हारे मन में है, वह आज नहीं कल 370 Jan Education International Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ WITHUN आत्मा परम आधार है। तुम्हारे विचार में होगा। और जो तुम्हारे विचार में है, वह आज कहते हो, मुझे भूख लगी। और जब भी तुम दोहराते हो कि मुझे नहीं कल तुम्हारे शरीर में होगा। जो तुम्हारे शरीर में है, वह आज भूख लगी, तब तुम फिर शरीर-भाव को मजबूत करते हो, नहीं कल तुम्हारे विचार में था। और जो तुम्हारे विचार में है, वह क्योंकि यह विचार शरीर-भाव को मजबूत करनेवाला है। शरीर कल नहीं परसों तुम्हारे मन में था। में एक कामवासना की तरंग उठती है, तुम कहते हो, मेरे मन में शरीर से ही जो छूटना चाहता है, वह छूट न पायेगा; क्योंकि कामोत्तेजना उठी। तुम शरीर से अपना तादात्म्य कर रहे हो। शरीर के आधार तो विचार में पड़े हैं। विचार से ही जो छूटना और जब तुम तादात्म्य करते हो, इसी तादात्म्य के कारण तो यह चाहता है, वह भी न छुट पायेगा; क्योंकि विचार से भी गहरी शरीर निर्मित हुआ है और इसी तादात्म्य के कारण तुम इसे एक पर्त है मन की। सम्हाले हुए हो और इसी तादात्म्य के कारण तुम भविष्य में भी बहुत-सी साधना-प्रक्रियाएं हैं जो सोचती हैं शरीर से ही छूटने शरीर निर्मित करते रहोगे। जैसे ही तुमने शरीर को कहा, 'मैं', से सब हो जायेगा। हठयोग है। हठयोग का सारा आग्रह शरीर तुमने एक गहरा संबंध जोड़ लिया। पर है। शरीर को ही इस भांति जीत लेना है कि शरीर का हमारे साधारणतः हम शरीर के तल पर ही जीते हैं। हम में से जो थोड़े ऊपर कोई बल न रह जाये। लेकिन महावीर कहते हैं: जो जीतने जागरूक होते हैं, वे सोचना शुरू करते हैं कि शरीर मैं नहीं हो चला है, वह जो विचार का भीतर भाव उठा है, वह भी तो सूक्ष्म सकता। क्योंकि उनको साफ दिखाई पड़ने लगता है कि मैं जीता शरीर है। वह कोई शरीर से भिन्न नहीं है। उससे एक नये तरह तो अंतर्विचारों में हूं। कभी ऐसा भी हो जाता है कि तुम भूखे बैठे का शरीर निर्मित हो जायेगा, लेकिन शरीर जारी रहेगा। हो और विचारों में तल्लीन हो तो भूख का पता नहीं चलता। फिर मंत्रयोग है वह मानता है कि मन को ही बदल लेना, वाणी कभी ऐसा हो जाता है कि शरीर थका हुआ है और तुम्हारा बेटा को, विचार को बदल लेना काफी है। मन के व्यक्त रूप को | अचानक छत पर से गिर पड़ा; तुम विश्राम करने जा रहे थे, बदल लेना काफी है। तो मंत्रों का उच्चार करो। मंत्रों के गहन लेकिन अब शरीर में अचानक ऊर्जा आ जाती है। तुम भागे उच्चार से, मंत्र के छंद में बद्ध होकर विचार सो जाते हैं। जो अस्पताल की तरफ, भूल ही गये विश्राम; भूल ही गये कि तुम अंकुरित हो गये थे वे भी गिरकर फिर बीज हो जाते हैं। लेकिन थके थे, कि चार दिन से सोए नहीं थे, कि लंबी यात्रा से लौटे थे। मन तो रहेगा। अभिव्यक्त मन समाप्त हो जायेगा लेकिन छिपा | विचार जब पकड़ लेता है तो शरीर दूर रह जाता है। हुआ गूढ़ मन, अनकांशस, अचेतन मन, वह तो बना रहेगा। खिलाड़ी है, मैदान पर खेलता है, फुटबाल या हाकी खेलता वह फिर नये मन खड़े करेगा, फिर नये विचार उठायेगा। जब है, पैर में चोट लग जाती है खेलते वक्त, खून बहने लगता है; बीज बचा है तो कब तक उससे बचोगे? अंकुरित होगा। फिर दर्शकों को दिखाई पड़ता है, उसे पता नहीं चलता। वह विचारों वर्षा आयेगी, फिर जरा भूल-चूक हो जायेगी, फिर मंत्र याद न में तल्लीन है। वह खेलने की धुन में है। अभी फुरसत कहां! रहेगा-फिर अंकुरण हो जायेगा। | अभी ध्यान देने की सुविधा नहीं है उसे। अभी सारा ध्यान तो महावीर कहते हैं, जिसे आत्मा तक जाना हो, उसे विचारों में जुड़ा है। अभी शरीर दूर पड़ गया, बड़ा दूर पड़ गया। तीनों-मन, वचन, काया-तीनों के पार उठना होता है। खेल बंद हो जायेगा, अचानक वह शरीर में लौटेगा-खून इसे तुम थोड़ा समझो, क्योंकि यही हम सब हैं-इन तीन में बहता हुआ मालूम पड़ेगा। वह चकित होगा H इतनी देर तक मुझे हम खड़े हैं। आत्मा का तो हमें कोई पता नहीं है। आत्मा तो इन पता कैसे न चला! तीन के पार है। ऐसा श्रद्धा से हम स्वीकार करते हैं कि होगी। तुम्हें भी बहुत बार अनुभव हुआ होगा : जब तुम विचार में महावीर कहते, बुद्ध कहते, कृष्ण कहते, पतंजलि कहते-ठीक तल्लीन होते हो, शरीर से दूरी बढ़ जाती है। कभी-कभी विचार है, कहते हैं तो होगी। लेकिन हमने अब तक जो जाना है, वह की तल्लीनता इतनी हो सकती है कि आपरेशन भी शरीर पर ज्यादा से ज्यादा हमारी जानकारी शरीर तक है। तुम शरीर को ही किया जाये और तुम्हें पता न चले। मानते हो कि तुम हो। इसलिए शरीर को भूख लगती है तो तुम काशी नरेश का ऐसा ही आपरेशन हुआ था। वे भक्त थे, Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 जिन सूत्र भागः / - गीता के प्रेमी थे और गीता को बड़ी तल्लीनता से गनगनाते थे। बंद कर रहा है। उसने एक नया शब्द गढ़ा है: साइकोसोमेटिक, उन्होंने कहा कि मुझे कोई बेहोशी की दवा देने की जरूरत नहीं मनोशरीर। शरीर और मन, दो शब्द ठीक नहीं हैं; क्योंकि उससे है। मुझे मेरी गीता गुनगुनाने दो, तुम आपरेशन कर लो। डाक्टर | भ्रांति होती है कि जैसे दो चीजें हैं-मन और शरीर। राजी न थे; क्योंकि क्या भरोसा? लेकिन यह आदमी कोई मन और शरीर एक ही चीज है। शरीर स्थूलतम मन है; मन बेहोशी की दवा लेने को राजी न था और आपेरशन एकदम सूक्ष्मतम शरीर है। और दोनों के बीच में विचारों की तरंगों का जरूरी था, अन्यथा यह मरेगा। ऐसी हालत देखकर कि यह लेने | जगत है। लेकिन यह इकट्ठा है। समाधि की दशा में आदमी मन को राजी नहीं है, मौत तो होने ही वाली है, प्रयोग कर लेना उचित के बाहर होता है। ध्यान की दशा में मन शांत हो जाता है; है। डाक्टरों ने आज्ञा दी कि तुम अपनी गीता गुनगुनाओ। समाधि की दशा में मन के बाहर होता है। तब पहली दफे आत्मा घंटाभर आपरेशन में लगा। वे अपनी गीता गुनगुनाते रहे, का पता चलता है। आपरेशन हो गया और उन्हें पता भी न चला। आरुहवि अंतरप्पा...। विचार में अगर तुम बहुत जोर से संयुक्त हो जाओ तो शरीर | 'तुम मन, वचन और काया से बहिरात्मा को छोड़कर, और तुम्हारे बीच संबंध दूर का हो जाता है। अंतरात्मा में आरोहण कर, परमात्मा का ध्यान करो।' तो जिन्होंने विचार के थोड़े-से प्रयोग किये हैं, वे इस निष्कर्ष बड़ा अनूठा सूत्र है। सारा योग इसमें आ गया। पर पहुंच जाते हैं कि हम शरीर नहीं हैं. विचार हैं। लेकिन विचार गरजिएफ के जीवन में एक उल्लेख है। वह अमरीका गया भी एक पर्त है। शरीर से गहरी है, लेकिन शरीर की ही है। था। उसे अपनी ध्यान-विद्यापीठ को चलाने के लिए पैसों की विचार भी पदार्थ हैं। | जरूरत थी, तो उसने न्यूयार्क के सारे बड़े धनपतियों को निमंत्रित महावीर का सिद्धांत इस संबंध में बड़ा अजीब है। महावीर किया था। न्यूयार्क की जो सबसे ऊंची सोसाइटी, अभिजात कहते हैं, विचार भी पदार्थ है, मैटिरियल है, पुदगल है। विचार वर्ग, उसके चुनदे प्रतिनिधि मौजूद थे। गुरजिएफ की खबर तो के भी अणु होते हैं। शायद विज्ञान महावीर से जल्दी राजी हो | अमरीका में पहुंच गई थी। उस आदमी को देखने को लोग जायेगा; क्योंकि महावीर का बोध बड़ा साफ है। वे कहते हैं, उत्सुक थे। कोई पचास-साठ मित्रों का समूह था; स्त्रियां थीं, विचार के भी अणु हैं। वह भी कोई अपार्थिव चीज नहीं है, वह पुरुष थे। जिस व्यक्ति ने गुरजिएफ के संस्मरण लिखे हैं, उसने भी पार्थिव है। बड़ी सूक्ष्म है, लेकिन पार्थिव है। लिखा है कि गुरजिएफ ने मुझे बुलाया इन लोगों से मिलने के विचार से भी कुछ लोग नीचे उतरते हैं। ध्यान में वैसी घड़ी पहले और मुझसे कहा कि तुम्हें जितने भी गंदे और अश्लील आती है, जब तुम विचारों को शांत कर लेते हो; जब विचारों की | शब्द आते हों अंग्रेजी के, मुझे बता दो। वह आदमी थोड़ा तरंगें कम होते-होते होते-होते खो जाती हैं, झील बिलकुल शांत चौंका। उसने कहा कि अश्लील शब्दों से क्या करना? क्योंकि हो जाती है, कोई विचार की तरंग नहीं होती, वचन नहीं होता, गुरजिएफ अंग्रेजी ठीक से जानता नहीं था। उसने कहा, तुम भीतर शब्द नहीं उठते, शब्दों में फल-फूल नहीं लगते, शब्द | फिक्र छोड़ो। तो जितने भी गंदे अश्लील शब्द उसे आते थे, बिलकुल शांत हो गये होते हैं। उसने बता दिये। गुरजिएफ ने वे लिख लिये और याद कर उस निशब्द दशा में मन के साथ तादात्म्य हो जाता है। तब लिये। फिर गुरजिएफ जब बोलने गया उन मित्रों के बीच, तो आदमी सोचता है, यही मैं हूं। यह बड़ा प्यारा क्षण है-बड़ा थोड़ी देर उसने बातें कीं, फिर इसके बाद उसने कामवासना की शांत, बड़ा मौन! और आदमी सोचता है, यही मैं हूं। लेकिन बात शुरू की। फिर धीरे-धीरे तो कामवासना की बात को ऐसा यह भी सूक्ष्मतम शरीर की दशा है। गहरा ले गया कि सिर्फ अश्लील और अभद्र शब्दों का ही आधुनिक मनोविज्ञान महावीर से राजी है। आधुनिक उपयोग करने लगा। और घड़ीभर में-जिसने संस्मरण लिखे हैं मनोविज्ञान कहता है, शरीर और मन दो चीजें नहीं हैं। शरीर और उसने लिखा है-ऐसी हालत आ गई कि सारे लोग कामोत्तेजित मन ऐसे दो शब्दों का प्रयोग भी आधुनिक मनोविज्ञान धीरे-धीरे हो गये। भूल ही गये। स्त्रियां पुरुषों के साथ खेल में लग गईं, 372 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ EARRAHA RESUHAATH आत्मा परम आधार है / पुरुष स्त्रियों के साथ खेल में लग गये; यह भूल ही गये कि शब्द बैठता जाता है, यह बैठता जाता है। यह तुम्हारा वचन बन गुरजिएफ को मिलने आये हैं। गुरजिएफ चुप होकर बैठ गया जाता है। फिर कल तुम जब बाजार में खरीदने जाते हो और और वह सारी रासलीला चलने लगी। तब ठीक जब वे दुकानदार पूछता है, कौन-सा टुथपेस्ट, तो तुम्हें याद भी नहीं रासलीला में बड़े डूबने के ही करीब थे, वह खड़ा हुआ। उसने रहता कि तुम होश में कह रहे हो कि बेहोशी में। तुम कहते हो, कहा, 'सावधान! मेरी तरफ देखो! सिर्फ शब्दों के आधार पर बिनाका टुथपेस्ट। और तुम यही सोचते हो कि तुमने स्वयं ही मैंने तुम्हारी बेहोशी को प्रगट कर दिया है। सिर्फ कुछ शब्द | सोचकर तय किया है। तुमने सोचकर तय नहीं किया है। यह बोलकर मैंने तुम्हारे मनों को तरंगित कर दिया है। यह स्थिति | विज्ञापित है। अखबारों में पढ़ा, दीवालों पर लिखा देखा, रेडियो देखो अपनी। तुम शब्दों के इतने गुलाम हो! और मैंने सिर्फ पर सुना, टेलीविजन पर देखा, सुंदर स्त्रियों की तस्वीरें देखीं, तुम्हारी बेहोशी दिखाने के लिए ही यह प्रयोग किया है। और मैं हंसते हुए मोतियों की तरह उनके चमकते हुए दांत देखे-और एक संस्था बना रहा हूं, जहां मैं होश सिखाना चाहता हूं; उसके | बिनाका टुथपेस्ट, और बिनाका टुथपेस्ट, और हर जगह सुंदर लिए रुपये चाहिए।' स्त्रियों की तस्वीरें देखें विज्ञापनों में। उन्होंने कहा कि मेरे पति को उसने हजारों डालर इकट्ठे कर लिये उसी क्षण। यह बात तो कौन-सी दो चीजें पसंद हैं? –'मैं और बिनाका टुथपेस्ट!' इतनी साफ थी। लोग चौंककर बैठ गये एकदम घबड़ाकर कि वे सब तरफ से शब्द की एक पर्त तुम्हारे भीतर बनायी जाती है। यह क्या कर रहे थे! भूल ही गये थे-शिष्टाचार, समाज, राजनीतिज्ञ वही करते हैं, दुकानदार वही करते हैं। एक शब्द नीति, धर्म। इस आदमी ने सिर्फ शब्दों के जाल पर...। | | बिठाया जाता है। बहुत बार दोहराने से तुम्हारे भीतर लकीरें तुमने कभी खयाल किया? पर्दे पर फिल्म में कामोत्तेजना के | खिंच जाती हैं। समाजवाद, समाजवाद, समाजवाद! धीरे-धीरे चित्र आने शुरू होते हैं, तुम कामोत्तेजित हो जाते हो! तुमने कभी धीरे-धीरे यह लकीर बैठ जाती है। जब लकीर मजबूत होकर सोचा कि धूप-छाया का खेल है? लेकिन तुम इतने उद्विग्न हो बैठ जाती है तो वही लकीर तुम्हें आंदोलित करने लगती है, तुम्हें जाते हो...! गतिमान करने लगती है। शब्दों के आधार पर, वचनों के आधार पर हम जीते हैं। कोई तुम समाज से बंधे हो शब्दों के कारण। जरा शब्दों को तुमसे कह देता है, 'बड़े प्यारे हैं आप', फूल खिल जाते हैं! हिला-डुलाकर देखो और तुम पाओगे, तुम समाज से मुक्त होने कोई जरा घृणा से देख देता है, नर्क प्रगट हो जाता है। कोई जरा लगे। हिंदू हूं, मुसलमान हूं, ईसाई हूं-क्या हैं ये? ये सिर्फ सम्मान से नहीं पूछता, मन उदास हो जाता है। कोई नमस्कार | शब्द हैं! जैन हूं, बौद्ध हूं-ये क्या हैं? सिर्फ शब्द हैं! लेकिन कर लेता है, उदास थे, उदासी खो जाती है। बचपन से दोहराया गया कि तुम जैन हो; इतनी बार दोहराया तुमने कभी देखा कि तुम कितने शब्दों के हाथ में हो? | गया है कि अब तुम्हें याद भी नहीं आता कि कब शुरू किया गया शब्द तुम्हारी बेहोशी हैं। इसको महावीर कहते हैं वचन। था दोहराना। यह विज्ञापन, यह कंडीशनिंग, यह संस्कार ऐसा इससे जागना जरूरी है। ऐसी घड़ी लानी जरूरी है कि कोई डाला गया है कि अब तुमसे कोई नींद में भी पूछे, तो भी तुम प्रशंसा करे कि निंदा, बराबर हो जाये। ऐसी घड़ी लानी जरूरी है कहोगे, जैन हूं। शराब भी पीकर सड़क पर गिर पड़े होओ और कि शब्द इतने बलशाली न रह जायें कि तुम्हारे प्राणों को | कोई हिलाकर पूछे कि कौन हो, तुम कहोगे, जैन। इतना गहरा आंदोलित कर दें, अन्यथा तुम्हारी आत्मा का क्या होगा? चला गया है! विज्ञापन की कला में कुशल जो विशेषज्ञ हैं वे इस बात को मगर यही शब्द तुम्हें आंदोलित करता है। फिर अगर कोई कह समझ गये हैं कि आदमी शब्दों से जीता है, तो शब्दों को दोहराये देता है, 'इस्लाम खतरे में है', तो तुम मरने-मारने को उतारू हो चले जाते हैं। तुम्हारे मन पर पर्ते बना देते हैं। बिनाका टुथपेस्ट, जाते हो। 'इस्लाम' एक शब्द है। शब्द सत्य नहीं है। कोई बिनाका टुथपेस्ट दोहराये चले जाते हैं। तुम शायद सोचते भी शब्द सत्य नहीं है। नहीं कि तुम्हारा कुछ बिगड़ रहा है; लेकिन तुम्हें पता नहीं है, यह शब्द के साथ संबंध को शिथिल करो। 373 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः1TMETRA तो महावीर कहते हैं, शरीर के साथ संबंध को शिथिल करो, भी अर्थ नहीं है कि महावीर कहते हैं, मन को मार डालो। न, शब्द के साथ, वचन के साथ संबंध को शिथिल करो। और फिर महावीर कहते हैं, तुम अपने को शिथिल कर लो इनसे। जब धीरे-धीरे मन के साथ। | इनकी जरूरत हो, उपयोग कर लो। लेकिन जब इनकी जरूरत न शरीर से शुरू करो, क्योंकि वह स्थूलतम है; उस पर प्रयोग हो तो इनकी जकड़ न रहे। चलना है, कहीं जाना है, तो शरीर का करना आसान होगा। इसलिए महावीर की पूरी प्रक्रिया शरीर से उपयोग करना पड़ेगा। किसी से कुछ बोलना है, कहना है, तो शुरू होती है, मन पर पूरी होती है। वचन का उपयोग करना पड़ेगा। कुछ सोचना है, चिंतन करना जब तुम शरीर से मुक्त होने लगोगे तब तुम्हें दिखाई पड़ेगा है, तो मन का, मनन का उपयोग करना पड़ेगा। लेकिन यह भीतर का बंधन-वचन का। जब तुम वचन से मुक्त होने उपयोग हो। ऐसा न हो कि तुम यह भूल ही जाओ कि तुम इनसे लगोगे तब तुम्हारी आंखें इतनी साफ होंगी, पारदर्शी होंगी कि | अलग हो। और जब इनका उपयोग नहीं करना है तो तुम इनको तुम्हें मन का बंधन दिखाई पड़ेगा। और इन तीनों के पार आत्मा बांधकर एक कोने में रख सको। इतनी क्षमता बनी रहे। है। और उस आत्मा में परमात्मा छिपा है। / तुमने देखा? लोग सिनेमा-घरों में बैठे हैं, होटलों में बैठे हैं _ 'जिनेश्वर देव का यह कथन है कि तुम मन, वचन और काया और टांगें हिला रहे हैं! उनसे पूछो कि टांग किसलिए हिला रहे से बहिरात्मा को छोड़कर, अंतरात्मा में आरोहण कर, परमात्मा हो? चलते, तब सब ठीक था; चलने में टांग हिलनी चाहिए। का ध्यान करो।' मगर यहां कुर्सी पर बैठे-बैठे टांग क्यों हिला रहे हो? कहोगे तो बाहर से भीतर और भीतर से और भीतर...शरीर हमारा सेतु है वे चौंककर रोक लेंगे। वे कहेंगे, हमें कुछ याद न था। लेकिन बाहर से। वचन भी हमारा सेतु है बाहर से। मन भी हमारा सेत् | इसका यह मतलब हुआ कि शरीर के साथ संबंध ऐसा हो गया है है बाहर से। जुड़े हैं हम इस तरह। कि जब जरूरत नहीं होती तब भी टांगें हिलती जाती हैं। इसलिए तुमने देखा, गूंगा आदमी जो बोल नहीं सकता, वह नींद में लोग बड़बड़ाते हैं। पूछो, 'किससे बात कर रहे हो? समाज का हिस्सा नहीं हो पाता! जड़बुद्धि; जिसके पास मन की अब तो यहां कोई भी नहीं, अब तो चुप हो जाओ!' तो वे नींद में बहुत क्षमता नहीं है, वह अकेला रह जाता है। तुमने यह खयाल | बड़बड़ाते हैं। कोई न हो तो भी क्या हुआ; बोलने की आदत किया, इस समाज में वे ही लोग सर्वाधिक मूल्यवान हो जाते हैं | ऐसी पड़ गई है! जो शब्दों का प्रयोग करने में सर्वाधिक कुशल होते हैं! नेता हों, | मनोवैज्ञानिक कहते हैं, अगर किसी आदमी को तीन महीने के धर्मगुरु हों, कवि हों, लेखक हों—जिन लोगों की भी क्षमता | लिए एकांत-गृह में छोड़ दिया जाये जहां सब सुविधा हो, उसे वचन पर गहरी है, वे इस जगत में सर्वाधिक महत्वपूर्ण हो जाते वक्त पर भोजन सरककर मिल जाये मशीन के द्वारा, कोई हैं। जिनकी वचन पर पकड़ गहरी नहीं है, वे पिछड़ जाते हैं। अड़चन न हो, लेकिन बोलने को कोई न हो तो तीन सप्ताह के मनुष्य का असली समाज भाषा में है। इसलिए जो बच्चा देर | बाद उसके ओंठ हिलने लगेंगे। तीन सप्ताह तक वह तक नहीं बोलता, मां-बाप चिंतित हो जाते हैं, घबड़ा जाते हैं कि | भीतर-भीतर बात करेगा। तीन सप्ताह के बाद वह ओंठ अब बड़ा मुश्किल हुआ। क्योंकि यह बच्चा कभी सभ्य न बन | हिलाकर बात करने लगेगा। छह सप्ताह के बाद वाणी बाहर सकेगा। यह समाज का हिस्सा न बन सकेगा। यह अधूरा | आने लगेगी। नौ सप्ताह के बाद वह बड़े खुलकर बोलेगा। पड़ेगा, अकेला पड़ा रह जायेगा। इसकी कोई जीवन की यात्रा, | अकेले। और अब इस तरह बोलेगा कि जैसे किसी से बात कर गति न होगी। रहा है और कोई मौजूद है। बारहवें सप्ताह होते-होते वह ये सेतु हैं जो हमें बाहर से जोड़े हुए हैं। इन सेतुओं से मुक्त हम | बिलकुल पागल हो जायेगा। होना सीखें तो हम भीतर से जुड़ेंगे। इसका यह अर्थ नहीं है कि तुमने पागलखाने में लोग बैठे देखे हैं जो अपने से बातें कर रहे महावीर कहते हैं, तुम बोलो मत। इसका यह भी अर्थ नहीं है कि | हैं? उनको हो क्या गया है? वाणी के साथ, वचन के साथ महावीर कहते हैं, शरीर की आत्महत्या कर डालो। इसका यह | इतना ज्यादा तादात्म्य हो गया है कि अब दूसरे की मौजूदगी भी 1374 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MERELEBRATE m आत्मा परम आधार है। ANTA 40 जरूरी नहीं है। तुम्हें तो दूसरे को खोजना पड़ता है, क्योंकि तुम्हें कहा, 'क्या तुमने समझा है हम पागल हैं? हमको कैसे अभी थोड़ा-सा होश बाकी है कि बिना दूसरे के कैसे बात करो! | वार्तालाप करना, आता है। क्या तुमने समझा हम पागल हैं? उठे, चलो मित्र के घर जायें, होटल जायें, क्लब-घर जायें। | जब एक बोलता है, दूसरे को चुप हो ही जाना चाहिए। लेकिन क्योंकि अभी तुम्हारी इतनी हिम्मत नहीं है कि अकेले ही बात | दूसरा जब चुप है, अपने भीतर गुनतारा बिठा रहा है; जब यह करने लगो। हालांकि जब तुम दूसरे से भी बात करते हो, तो भी चुप हो जायेगा, तब वह अपना शुरू कर देगा। ये दोनों धाराएं तुम अकेले ही बात कर रहे हो। वह दूसरा चाहे सुनने को राजी | अलग-अलग चल रही हैं, अपने-अपने भीतर चल रही हैं। भी नहीं है। वह ऊबा हुआ है, जम्हाई लेता है, घड़ी देखता है। तुम थोड़ा वचन से जागो! वचन से जागे कि तुम समाज से वह छिटकना चाहता है, लेकिन तुम उसको पकड़े हुए हो! छूटे—जंगल भागने से कोई समाज से मुक्त नहीं होता। भाषा लोग हाथ तक पकड़कर बातें करते हैं कि कहीं निकल न से हट जाने से समाज से मुक्त होता है। इसलिए वास्तविक जाओ! बिलकुल पास आ जाते हैं, बिलकुल चेहरे के पास एकांत भाषा से मुक्ति है। हिमालय पर भी जाओगे तो भाषा से चेहरा ले आते हैं कि कहीं छुटकर खिसक न जाओ। बामुश्किल अगर मुक्त न हुए तो तुम पौधों से, वक्षों से बात करने लगोगे, तो मिले हो! वह तुम्हारी सुनना नहीं चाहता। वह हा-हूं करता पक्षियों से बोलने लगोगे। बोलने के लिए कोई भी सहारा खोज है। वह कहता है, ठीक है, सब ठीक है; मगर तुम अपना कहे लोगे। कुछ न होगा तो आकाश में बैठे भगवान से चर्चा शुरू चले जा रहे हो! कर दोगे। देवी-देवता और अप्सरायें प्रगट होने लगेंगी। वे सब और तुमने कभी यह खयाल किया है कि दो लोग जब बातें तुम्हारे कल्पना के जाल हैं। लेकिन तुम कुछ पैदा कर लोगे करते हैं, तुम जरा चुप होकर शांति से बैठकर उन दोनों की बातें जिसके सहारे तुम बात कर सको। सुनो तो तुम हैरान होओगेः वे दोनों एक-दूसरे से बात नहीं। | भाषा से जो मुक्त हुआ, वही संन्यासी है। इसीलिए महावीर ने करते! एक को अपनी कहनी है, दूसरे को अपनी कहनी है। अपने संन्यासी को 'मुनि' कहा। मुनि का अर्थ है : भाषा से जो दोनों अपनी-अपनी कहते हैं। पति-पत्नी की बात सुनो तो बहुत मुक्त; मौन को जो उपलब्ध। सोचकर कहा। अपनी-अपनी कहते हैं। हां, इतना अभी मुनि का अर्थ नहीं है, संसार से भाग गया। मनि का अर्थ नहीं होश है कि थोड़ा-थोड़ा एक-दूसरे की बातचीत में तार जोड़ते है, घर से भाग गया। बड़ी गहरी बात कही: भाषा से जाग गया; जाते हैं, ताकि ऐसा न लगे कि ये बिलकुल पागल हैं। वचन का पुराना पागलपन न रहा। जरूरत होती है तो उपयोग दो प्रोफेसर पागल हो गये थे। वे एक पागलखाने में थे। कर लेता है, अन्यथा सरकाकर बगल में रख देता है। जैसे तुम मनोवैज्ञानिक जो उनका अध्ययन कर रहा था, बड़ा हैरान हुआ; कार का उपयोग कर लेते हो; जब जाना है बैठ गये, कार चलाई, क्योंकि वे दोनों बात करते, तो जब एक बात करता तो दूसरा चुप वापस गैरेज में बंद कर दी। ऐसे ही वह वाणी के यंत्र का उपयोग हो जाता। दोनों प्रोफेसर थे, सुशिक्षित थे। फिर जब दूसरा करता | कर लेता है, जब जरूरत हुई; फिर वापस गैरेज में बंद कर दी। तो पहला चुप हो जाता। लेकिन दोनों की बातों में कोई तार-तुक | ऐसे ज्यादातर वह मौन रहता है, मौन में डूबता है; जरूरत के नहीं, कोई संगति नहीं। एक आकाश की हांक रहा है, दूसरा | वक्त भाषा में उतरता है। लेकिन भाषा उपकरण हो जाती है। जमीन की हाक रहा है। उससे कोई लेना ही देना नहीं। कहीं तार | अब यह भाषा का मालिक है। जुड़ते ही नहीं; आसपास भी नहीं आते, जुड़ने की बात दूर। जिस दिन भाषा उपकरण हो गई, उस दिन तुम मुनि हुए। तुमने समानांतर चल रही हैं रेखाएं, कहीं मिलती नहीं। आखिर वह | घर छोड़ा या न छोड़ा, मझे फिक्र नहीं है। लेकिन जिस दिन भाष बड़ा हैरान हुआ कि इतने पागल हैं कि कुछ भी बकते हैं। लेकिन | से तुम छूटे, भाषा का कारागृह तुम्हारे ऊपर वजनी न रहा, भारी इतना खयाल रखते हैं, जब दूसरा बोलता है तो एक चुप हो जाता | न रहा, तुम समर्थ हुए जब चाहो तो बोलो, लेकिन बोलने की है। तो वह अंदर गया। उसने पूछा कि यह बड़े रहस्य की बात | चाह तुम्हें पागल की तरह आंदोलित नहीं करती तो तुम मुनि है! जब एक बोलता है, दूसरा चुप क्यों हो जाता है? उसने | हो गये। 375 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 1 'मन, वचन और काया से बहिरात्मा को छोड़कर, अंतरात्मा पहला अवतार मछली का। वैज्ञानिक भी कहते हैं कि मनुष्य का में आरोहण कर, परमात्मा का ध्यान करो।' पहला अवतरण मछली में। और मछली के भीतर जो जल का ये बाहर जाने के मार्ग हैं। शरीर बाहर से जोड़ता है। स्वभावतः | ढंग है, वही आदमी के शरीर के भीतर भी है। अभी भी है। शरीर बाहर से आया है, मां से मिला, पिता से मिला। तुम इसे इसलिए जब सागर उत्तंगित हो जाता है, तरंगित हो जाता है, तो लेकर नहीं आये। यह बाहर के द्वारा दिया गया है, बाहर की भेट तुम भी तरंगित हो जाते हो। चांद को देखकर कौन मोहित नहीं हो है। यह तुम्हारी मां का है, तुम्हारे पिता का है। जाता! लेकिन यह तुम नहीं हो जो मोहित हो रहे हो; यह तुम्हारे उनका भी है, कहना ठीक नहीं है; क्योंकि उनके पास भी जो भीतर का जल है, अस्सी प्रतिशत, जिसमें तरंग उठी है बड़ी शरीर था वह उनके माता-पिता का था। उनका भी था, यह भी | सूक्ष्म। अगर इसे तुम समझोगे तो चांद हो कि अमावस हो, सब कहना ठीक नहीं। बराबर हो गये। फिर कोई फर्क न रहा। इसलिए अगर इसकी पूरी गहराई में जाओगे तो शरीर प्रकृति तुम जब एक स्त्री को देखकर आंदोलित हो जाते हो, किंकर्तव्य का है; बाहर से आया है; मिट्टी का है; जल का है; वायु का है; | विमूढ़ हो जाते हो, कोई वासना का ज्वार तुम्हें घेर लेता है, तो तुम आकाश का है; पंच महाभूतों का है; तुम्हारा नहीं है। जो बाहर | यह मत सोचना कि तुम प्रभावित हो गये हो; ये तुम्हारे शरीर के से आया है वह बाहर की गुलामी में है। स्वभावतः तुम्हारे भीतर भीतर पड़े हुए स्त्री-हारमोन, ये तुम्हारे शरीर के भीतर पड़े हुए भी जो जल है वह बाहर के जल के ही नियमों का पालन करता पुरुष-हारमोन, यह तुम्हारे शरीर की केमिस्ट्री है, रसायन है जो है, तुम्हारे नियमों का पालन नहीं करता। कैसे करेगा? तुमसे प्रभावित हो रही है। क्योंकि तुम्हारा आधा शरीर स्त्री का है, उसका कुछ लेना-देना नहीं है। तुम्हारे भीतर जो मिट्टी है, वह आधा पुरुष का है। सभी अर्धनारीश्वर हैं। आधा मां से मिला मिट्टी के नियमों का पालन करती है, तुम्हारे नियमों का पालन है, आधा पिता से मिला है। नहीं करती। उस पर गुरुत्वाकर्षण का काम होता है। तुम्हारे | तो जब भी तुम किसी स्त्री को देखकर प्रभावित होते हो, तो तुम भीतर जहां से जो आया है, उसी नियम का पालन करता है। वायु | यह मत सोचना कि मैं प्रभावित हुआ। वहां तुम भ्रांति कर रहे वायु का पालन करती है। अग्नि अग्नि का पालन करती है। इसे हो। वहां शरीर के साथ तुमने तादात्म्य कर लिया। ये तो तुम्हारे तुम खयाल रखना। | शरीर के भीतर के द्रव्य हैं जो आंदोलित हुए; क्योंकि ये उसी इसलिए अगर तुमको चांद, पूर्णिमा के चांद को देखकर बड़ी | नियम को मानकर चलते हैं जो पदार्थों का नियम है। उमंग उठती है, तो तुमने कभी सोचा न होगा, क्यों उठती है! यह यह कर्षण, यह आकर्षण, यह चुंबक पौदगलिक है, शारीरिक वैसे ही उठती है उमंग, जैसे सागर में उमंग उठती है। क्योंकि है। यह पदार्थगत है। यह होना भी चाहिए पदार्थगत। सागर चांद से प्रभावित होता है, आंदोलित होता है, ज्वार उठता | इसलिए जैसे-जैसे व्यक्ति अनुभव करता है कि मैं शरीर नहीं है, नाचने लगता है। बड़ी लहरें, उत्तंग लहरें उठती हैं, सागर हूं, वैसे-वैसे दूसरों के शरीर उसको कम प्रभावित करते हैं। पगला जाता है इसलिए चांद की रात में ऐसा आदमी खोजना | जिस दिन व्यक्ति को यह पूरा अनुभव होने लगता है कि मैं शरीर मुश्किल है जो थोड़ा पगला न जाता हो। जो बहुत संवेदनशील हूं ही नहीं, उसी दिन स्त्री-पुरुष के शरीर के प्रभाव समाप्त हो हैं, बहुत ज्यादा पगला जाते हैं। इसलिए पागलों के लिए अंग्रेजी जाते हैं। फिर कौन पास से निकल जाता है, इससे कोई फर्क नहीं में शब्द है : लूनाटिक। लूनाटिक का मतलब होता है चांदमारा; | पड़ता। तुम्हारे भीतर कोई तरंग नहीं उठती। फिर पूर्णिमा की रात चांद ने मारा इसे। हिंदी में भी चांदमारा पागल के लिए उपयोग हो कि अमावस की रात, सब बराबर हो जाता है। शरीर में तंरगे करते हैं। उठती रहेंगी, इससे तुम्हारा कुछ लेना-देना नहीं है। तुम दूर खड़े आदमी के शरीर के भीतर कोई अस्सी प्रतिशत जल है, थोड़ा द्रष्टा हो जाते हो। नहीं है। और यह जल ठीक वैसा ही जल है जैसा सागर का। मन भी मन के ही नियमों को मानकर चलता है, तुम्हारे नियम उतने ही लवण इस शरीर के जल में भी हैं। हिंदू कहते हैं कि मानकर नहीं चलता। इसलिए तुमने कई दफे देखा होगा कि 376 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा परम आधार है अगर तुम दस आदमियों के पास गये मिलने और वे दसों प्रसन्न मस्जिद जलाने, या मुसलमानों की भीड़ चली आ रही है हिंदुओं थे, आनंदित थे, तुम उदास थे; लेकिन क्षणभर में तुम भूल जाते का मंदिर तोड़ने-तब एक भला-अच्छा आदमी भी जो नमाज हो कि तुम उदास हो। उन दस आदमियों की प्रसन्न-चित्तता में पढ़ता है, सादा-सीधा है, कभी किसी की हिंसा करने की नहीं तुम भी प्रसन्न हो जाते हो। तुम भी हंसने लगते हो। घड़ीभर | सोची, किसी का मकान जलाने की नहीं सोची-वह भी उस पहले आंखें आंसुओं से भरी थीं, क्या हो गया इतनी जल्दी? भीड़ में चल पड़ता है! वह जो मन के सूक्ष्म परमाणु हैं...दस आदमियों के परमाणु तुमने कभी भीड़ में देखा कि अचानक तुममें गति आ जाती है! निश्चित ही तुमसे ज्यादा मजबूत हैं। तुम्हारा मन अल्पमत में हो | भीड़ अगर उत्साह से है, तो तुम उत्साह से भर जाते हो! भीड़ गया, बहुमत ने हावी कर दिया तुम्हें, इसलिए उदास आदमियों अगर तेजी से चल रही है तो तुम तेजी से दौड़ने लगते हो। भीड़ के पास जाओगे, उदास होने लगोगे। अगर मकान में आग लगा रही है तो तुम उसमें भी रस लेने लगते तुम कभी गये हो अस्पताल किसी मरीज को देखने? जल्दी हो। बाद में अगर कोई तुमसे पूछेगा, तो तुम कहोगे, 'पता नहीं भागने का मन होता है। बीमार लोग हैं, अस्वस्थ लोग हैं, उदास कैसे यह हो गया! मैंने क्यों साथ दिया!' अगर तुमसे कोई यह लोग हैं, जराजीर्ण लोग हैं उनके पास तुम भी जराजीर्ण होने पूछे कि क्या अकेले तुम यह कर सकते थे, तो तुम निश्चित लगते हो। घबड़ाहट होती है, अकुलाहट होती है, भाग जाने का | कहोगे कि नहीं कर सकता था। अकेले तो मैंने कभी ऐसा नहीं मन होता है। किया। यह भीड़ में हो गया। भीड़ में तुम्हारा उत्तरदायित्व क्षीण तुमने कभी खयाल किया कि डाक्टर कठोर हो जाता है! होना हो जाता है। बहुमत हावी हो जाता है। मन की तरंगें चारों तरफ ही पड़े, नहीं तो वह मर जाये। अगर डाक्टर कठोर न हो तो जीए से तुम्हें घेर लेती हैं, आंदोलित कर देती हैं। कैसे? चौबीस घंटे उदास, बीमार, रुग्ण...। उसे धीरे-धीरे जो आदमी भीड़ से प्रभावित नहीं होता, वह मन के बाहर हो इतनी कठोरता भीतर बना लेनी पड़ती है कि उसे पता ही नहीं गया। जो आदमी भीड़ से प्रभावित होत चलता, कि कौन उदास है, कौन मर रहा है। ये सब घटनाएं है। इसलिए तो राजनेता रैली निकालते हैं-अपना-अपना साधारण हो जाती हैं। कोई मरीज मर गया तो वह यह नहीं कहता प्रभाव दिखाने के लिए, कि कितने लाख आदमी उनकी रैली में कि कोई आदमी मर गया—कौन-सा बिस्तर खाली हो गया! सम्मिलित थे। उससे लोग प्रभावित होते हैं, निश्चित ही कौन-सा नंबर मर गया! आदमी की बात उठानी ठीक नहीं है, . प्रभावित होते हैं। जिसकी रैली में लाख थे और जिसकी रैली में नंबर ही मरते हैं अस्पताल में। और डाक्टर को नंबर पर ही ध्यान पांच लाख थे, वह जो जनता खड़ी देख रही है चारों तरफ वह रखना जरूरी होता है। उतनी कठोरता जरूरी है, नहीं तो वह मर | पांच लाखवाले से प्रभावित होती है। इसमें कोई गणित नहीं जायेगा। वह जी न सकेगा। उसकी हंसी बिलकुल सूख बिठाना पड़ता। यह अनजान है। वह पांच लाख की भीड़ जायेगी। उसके लिए जीने का कोई उपाय न रह जायेगा। प्रभावित कर देती है। इसलिए अकसर जब कभी कोई युवक मेरे पास आ जाते हैं, वे अगर किसी राजनेता के चुनाव में हारने की अफवाह भी फैल कहते हैं कि मैं अपनी एक डाक्टर साथिन के साथ विवाह कर | जाये तो वह हार जाता है; जीतने की अफवाह फैल जाये तो वह रहा हूं और युवक भी डाक्टर तो मैं कहता हूं, थोड़े सावधान! जीत जाता है। एक ही डाक्टर ठीक है। दोनों डाक्टर इतने कठोर होंगे कि तुम अंग्रेजी में कहावत है: नथिंग सक्सीड्स लाइक सक्सेस। पिघल न पाओगे; तुम एक-दूसरे से मिल न पाओगे। तो यह सफलता से ज्यादा कोई चीज सफल नहीं होती। बड़ी ठीक है। विवाह व्यवसायिक तो उपयोगी होगा, आर्थिक रूप से उपयोगी क्योंकि जब तुम सफल हो रहे होते हो तो तुम चारों तरफ परमाणु होगा; लेकिन जीवन से इसका कोई संबंध न होगा। फेंकते हो अपनी सफलता के। जब तुम असफल हो रहे होते हो ध्यान रखना, तुम्हारा मन प्रतिक्षण दूसरे के मनों से आंदोलित तो तुम चारों तरफ परमाणु फेंकते हो अपनी असफलता के। हो रहा है। हिंदुओं की भीड़ चली जा रही है मुसलमानों की असफलता में कौन साथ देता है! जीते के साथ सभी हो लेते हैं, 377 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जिन सूत्र भागः1 शाहा हारे के साथ कौन होता है! ऊगते सूरज के सभी साथी हैं, डूबते अर्श से आगे निकल जाएं हवाए-शौक में सूरज का कौन साथी है! लेकिन भीड़ का राज क्या है? तुम भीड़ से इतने आंदोलित -उड़ान की ऐसी चाह, उड़ान की कम से कम ऐसी क्यों होते हो? सारे दुनिया के धर्म अपनी भीड़ को बढ़ाने के | अभीप्सा, कि आकाश से भी पार हो जायें! लिए इतने पागल क्यों रहते हैं? क्योंकि भीड़ है तो और भीड़ को __ यह शरीर तो मिट्टी से बना है। इससे तो पार होना ही है। ये आकर्षित करने का उपाय है। जितनी बड़ी भीड़ है उतनी भीड़ को वचन, ये शब्द ये भी मिट्टी के ही सूक्ष्म अणु-परमाणु हैं, इनसे आकर्षित करने का उपाय है। हिंदू अगर बीस करोड़ हैं, भी मुक्त होना है। यह मन, यह तो मन इस शरीर और वाणी का मुसलमान अगर साठ करोड़ हैं या ईसाई अगर एक अरब हैं, तो ही कोषागार है, संचित परमाणु हैं-इससे भी मुक्त होना है। स्वभावतः यह भीड़ सारे जगत के मन को आंदोलित करती है। वहीं अंतआकाश शुरू होता है। और आकाश से भी आगे यह भीड़ परमाणु फेंकती है। निकल जायें, वहीं परमात्मा है-जहां यह भी पता नहीं रहता कि ध्यान रखना, भीड़ से सावधान रहना। क्योंकि जब तुम भीड़ | मैं आत्मा हूं, जहां सिर्फ आत्मा ही रह जाती है, मैं बिलकल गिर से प्रभावित होते हो, तब तुम अपने ही मन से प्रभावित हो रहे | जाता है...। हो-और तुम्हारा मन तुम्हें तरंगित कर रहा है। __ अब इसे थोड़ा समझना। हम कहते हैं, मेरा शरीर, मेरा मन, शरीर, वचन, मन–तीनों से पार साक्षी-भाव में ठहरना है। मेरे विचार-'मेरा'। पहले 'मेरा' को गिराना है। फिर हम और जो साक्षी-भाव में ठहरता है, वही परमात्मा का अनुभव कर कहेंगे, 'मैं', आत्मा। फिर 'मैं' को गिराना है। जब 'मेरा' पाता है। गिरता है तो आत्मा प्रगट होती है। जब 'मैं' भी गिरता है तो इलाही! वह नज़र दे आशियां तक हो, कफस जिसको परमात्मा प्रगट होता है। न ऐसी कम निगाही, जो कफस को आशियां समझे।। __'आत्मा; मन, वचन और कायारूप, त्रिदंड से रहित, हे प्रभु! ऐसी आंख दे कि घर भी जेलखाना मालूम पड़े। ऐसी निर्द्वद्व-अकेला, निर्मम ममत्वरहित, निष्कल-शरीर ओछी आंख मत दे देना कि जेलखाना भी घर मालूम पड़ने लगे। रहित, निरालंब–परद्रव्यआलंबन से रहित, वीतराग, निर्दोष, अभी तो जेलखाना घर मालूम पड़ता है। अभी तो तुम अपने मोह-रहित तथा निर्भय है।' शरीर को अपना जीवन समझे हो। यह तुम्हारा कारागृह है। वर्णन, यह कोई परिभाषा नहीं है। यह कोई व्याख्या नहीं है। अभी तो तुम अपनी भाषा की कुशलता को अपनी सामर्थ्य समझे ऐसा महावीर का अनुभव है। वे इसे कह देते हैं बड़े सूक्ष्म में। हो। यह तुम्हारी गुलामी है। अभी तो तुमने मन को अपना बल | 'मन, वचन और कायारूप, त्रिदंड से रहित...।' समझा है। जहां न मन रह गया, न वचन रह गया, न काया रह गई। जहां मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, मन की शक्ति कैसे बढ़े, शरीर बहुत दूर छुट गया, विचार की तरंगें बहुत दूर छुट गईं। यह बताएं! मन की शक्ति बढ़ानी है कि मन से मुक्त होना है ? | जहां मन भी बहुत पीछे छूट गया। जहां इन सबसे तुम पार चले वे कहते हैं, संकल्प थोड़ा कम है। विल पावर चाहिए! | आये। जहां इन सबसे भीतर चले गये। जहां तुमने अंतरगृह में विल पावर, संकल्प की शक्ति तो मन को ही बढ़ायेगी। प्रवेश किया। मंदिर की दीवालें दूर छूट गईं। जिसमें तुम मन से दूर होकर जो मिलता है वह आत्मबल है। मन से जो आवास बनाये हुए हो, वह सब दूर छूट गया। अब तुम वहां आ मिलता है वह कोई बल नहीं है; वह तो तुम्हारी निर्बलता है। वह | गये, जहां अंतर्तम है, जहां अंतर्तम का शून्य-गह है, शून्याकाश तो धोखा है। है। तो निर्दूद्व। उस घड़ी में दो नहीं बचते, एक बचता है। अर्श से आगे निकल जाएं हवाए-शौक में उपनिषदों में कथा है: एक जिज्ञासु ने याज्ञवल्क्य से पूछा, कम-से-कम यह रफअते-परवाज होनी चाहिए। 'कितने देवता हैं?' याज्ञवल्क्य ने कहा, 'शास्त्र कहते हैं आकाश से भी आगे जाना है! तैंतीस हजार।' उस जिज्ञासु ने कहा, 'यह थोड़ा बहुत ज्यादा हो 3781 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा परम आधार है गया। किस-किसकी पूजा करेंगे? थोड़ी हमारी सामर्थ्य पर तुम्हारा अकेलापन दूसरे की गैर-मौजूदगी है। इसलिए तुम्हारा ध्यान दो। तो मैं फिर से पूछता हूं, कितने देवता हैं?' तो अकेलापन वस्तुतः अकेलापन नहीं है। वहां तुम नहीं हो याज्ञवल्क्य ने कहा कि ऐसा है कि मुख्य तो तीन सौ तीस ही। अकेलेपन में; दूसरा गैर-मौजूद है, इसकी प्रतीति है। पत्नी उस आदमी ने कहा, 'मैं बहुत समर्थ नहीं हूं, तीन सौ तीस भी मायके चली गई, इसलिए अकेलापन लगता है। यह अकेलापन मुझे मुश्किल पड़ जायेंगे। तुम जरा और संक्षिप्त करो। नकारात्मक है। यह पत्नी से जुड़ा है। इसमें पत्नी के वापिस याज्ञवल्क्य ने कहा, 'तो फिर तीन।' उस आदमी ने कहा, लौट आने की आकांक्षा छिपी है। यह पीड़ा है। इसलिए 'तीन से भी बड़ी झंझट होगी। तीन तरफ खीचेंगे। किसकी अकेलेपन शब्द में ही उदासी हो गई है। क्योंकि महावीर जैसा सुनूंगा?' तो याज्ञवल्क्य ने कहा, 'अब तू बहुत गड़बड़ कर अकेलापन तो कभी-कभार किसी को मिलता है। तुम्हारा रहा है। डेढ़!' उस आदमी ने कहा कि अब चलो, अब तो आ | अकेलापन बहुत है, बहुमत को है। ही गये करीब-करीब। अब सच्ची बात ही कह दो। अब सत्य कोई आदमी कहता है, बड़ा अकेलापन लगता है, तो तुम ऐसा ही कह दो। तो याज्ञवल्क्य ने कहा, 'सत्य तो एक है।' नहीं मानते कि बड़ा प्रसन्न होकर कह रहा है; तो तुम समझते हो सत्य तो एक, एक ही है सत्य। उसे एक कहना भी उचित नहीं कि दुखी है, परेशान है, उदास है। है, क्योंकि एक कहते से दो का खयाल पैदा होता है। एक महावीर का अकेलापन दूसरे की अनुपस्थिति से नहीं अकेला तो हो ही नहीं सकता दो के बिना। इसलिए भारत में बनता-अपनी उपस्थिति से बनता है। सभी परम ज्ञानियों ने उसे एक भी नहीं कहा, क्योंकि एक कहने इस फर्क को खयाल में रखना। से दो का तत्क्षण खयाल होता है। एक होगा कैसे अगर दो नहीं अंग्रेजी में दो शब्द हैं। अलोननेस, लोनलीनेस। वे शब्द बड़े हैं? एक गणित की संख्या निर्मित ही तब होती है जब दो और अच्छे हैं। महावीर का जो अकेलापन है, वह अलोननेस। तीन, और सारी संख्याएं हों। तुम्हारा जो अकेलापन है वह लोनलीनेस है। महावीर का जो इसलिए वेदांत कहता है : अद्वैत; दो नहीं। एक नहीं कहता। अकेलापन है, वह एकांत; अकेलापन नहीं। तुम्हारा जो महावीर कहते हैं : निर्द्वद्व; दो नहीं, द्वंद्व नहीं। और महावीर का अकेलापन है, वह एकाकीपन है; अकेलापन; उदासी; कुछ निद्वंद्व अद्वैत से भी मधुर है। खोया-खोया; कुछ कम-कम; कुछ अभाव; कुछ होना चाहिए क्योंकि अद्वैत का मतलब है : दो नहीं हैं। महावीर का मतलब | था, नहीं है। कमरे में जाते हैं, पत्नी दिखाई नहीं पड़ती, बच्चे है : द्वंद्व नहीं है। दो में तो ऐसा लगता है, चीजें ठहरी हैं; प्रक्रिया दिखाई नहीं पड़ते। तुम्हारी नजरें किसी दूसरे को खोज रही हैं का बोध नहीं होता, थिरता का बोध होता है। निर्द्वद्व में द्वंद्व नहीं और दूसरा मिलता नहीं। तुम्हारा अकेलापन यानी तन्हाई। है, संघर्षण नहीं है; गति का बोध है। महावीर का अकेलापन : जहां तक नजर जाती है, खुद ही को और महावीर का गति पर बड़ा जोर है। महावीर तो कहते हैं : | पाते हैं। सारा कमरा अपने से भरा है; सारा आकाश अपने से जो गत्यात्मक है, वही सत्य है; जो निरंतर गतिमान है। महावीर भरा है। अपने को ही छते हैं. अपने को ही गनगनाते हैं। अपना कहते हैं : जहां गति नहीं है वहीं मृत्यु है। और जहां सतत गति | होना इतना गहन हुआ है कि अब दूसरे की कोई जरूरत नहीं है! है. ऊर्जा का सतत आरोहण है. वहीं जीवन है। इसलिए वे शब्द दूसरे की याद भी नहीं आती। दुसरा है भी, इसका पता नहीं उपयोग करते हैं : निर्द्वद्व, अकेला। अकेले से तुम खयाल चलता! निर्द्वद्व! रखना : तुमने जो अकेलापन जाना है, वह महावीर का अर्थ नहीं | महावीर का अकेलापन बड़ा विधायक है, पाजिटिव है। हो सकता। क्योंकि महावीर ने जो अकेलापन जाना है उसका तो 'निर्मम-ममत्व-रहित...।' तुम्हें कोई पता ही नहीं है। तुमने भी बहुत बार अकेलापन जाना | तुम्हारा 'निर्मम' अलग है। तुम्हारे निर्मम का अर्थ होता है : है। पत्नी मायके चली गई और तम अकेले हो गये, कि बच्चे कठोर। तुम उस आदमी को निर्मम कहते हो जो बड़ा कठोर है, सब हास्टल चले गये और तुम अकेले हो गये। दुष्ट है। महावीर-और दुष्ट! नहीं, हम अलग-अलग 379 www.jainelibrary org Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म जिन सूत्र भागः1 TARA R भाषाओं के लोक में जी रहे हैं। महावीर के लिए निम वह है तरह सब तरफ बहने लगती है; अब कोई कूल-किनारा नहीं रह जिसे ममत्व नहीं; जिसके पास से 'मेरा' समाप्त हो गया; जाता। तो महावीर की निर्ममता में करुणा है और हमारे ममत्व में जिसके लिए अब कोई चीज 'मेरी' नहीं, बस। तुम्हें तो दोनों भी कठोरता है। बातें एक लगती हैं; जैसे 'शरीर-रहित, निरालंब...।' एक घर में आग लगी। मालिक छाती पीटकर रोने लगा। कोई आलंबन नहीं है आत्मा का। कोई आधार नहीं है आत्मा किसी ने कहा, 'घबड़ाओ मत, चिल्लाओ मत, परेशान मत | का। आत्मा परम आधार है। उसके आगे फिर कोई आधार नहीं होओ। मैंने तुम्हारे बेटे को कल ही तो किसी से बात करते देखा | है। होना अपने कारण है, स्वयंभू है। था। मकान बेचने का सब तय हो गया है। पैसे भी दे दिये गये | तो जैसा उपनिषद ब्रह्म के लिए कहते हैं-परम आधार, हैं। यह तो मकान बिक चका, तुम्हारा नहीं है।' निरालंब-वैसा ही महावीर आत्मा के लिए कहते हैं। जिसको उस आदमी के आंसू सूख गये। वह स्वस्थ हो गया। उसने | उपनिषदों ने ब्रह्म कहा है, उसी को महावीर ने आत्मा कहा है। कहा, 'अरे! मुझे इसका पता ही नहीं था।' ब्रह्म या आत्मा कहने से फर्क नहीं होता। मकान जल रहा है। मकान वही का वही है, लेकिन 'मेरा' | एक हमें मानना पड़ेगा जो निरालंब है, जिसका कोई आधार नहीं है तो अब क्या फिक्र! तभी बेटा आया घबड़ाया हुआ। नहीं; जो सबका आधार है, लेकिन जिसका कोई आधार नहीं। उसने कहा कि ऐसे खड़े हो, क्या कर रहे हो? यह मकान जला अन्यथा अस्तित्व बेबूझ हो जायेगा। जा रहा है! बात हुई थी, लेकिन पैसे लिये-दिये नहीं गये थे। वैज्ञानिक कहता है: पानी बना है हाइड्रोजन-आक्सीजन से; मकान अपना ही जल रहा है। आक्सीजन बनी है इलेक्ट्रान, न्यूट्रान, पोजिट्रान से; इलेक्ट्रान, फिर बाप रोने लगा, फिर छाती पीटने लगा। मकान वही का | न्यूट्रान, पोजिट्रान बने हैं विद्युत से, विद्युत-ऊर्जा से। वही है; 'मेरे' से जुड़ जाता है तो दुख ले आता है; 'मेरे' से विद्युत-ऊर्जा किससे बनी है? वे कहते हैं, बस विद्युत-ऊर्जा छूट जाता है तो बात खत्म हो गई। किसी से नहीं बनी है तो विद्युत-ऊर्जा उनके लिए निरालंब हो जिस-जिसको तुमने 'मेरा' माना है, वहीं-वहीं से दुख आता गई। कहीं तो जाकर आधार खोज लेना होगा, जिसके पार कुछ है। जिस-जिस से तुम्हारा कोई संबंध नहीं है, वहां से कोई दुख भी नहीं है। नहीं आता। इसलिए जितना तुम्हारा 'मेरे' का जाल होगा, महावीर उस आधार को आत्मा में खोजते हैं। निश्चित ही उतना ही तुम्हारा दुख होगा। जितना तुम्हारा मेरे का जाल टूट विद्युत की बजाय आत्मा में खोजना ज्यादा गहरा है। क्योंकि जायेगा, उतना ही तुम्हारा दुख समाप्त हो जायेगा। विद्युत की खोज भी आत्मा ने की है। जब वैज्ञानिक कहता है, . जब महावीर कहते हैं 'निर्मम' तो वे कहते हैं, जिसका मेरा' इलेक्ट्रान, न्यूट्रान और पोजिट्रान, और ये सब विद्युत से बने हैं, भाव गिर गया। इसका यह अर्थ नहीं कि वह कठोर हो गया। तो उसकी चेतना इस गहराई तक पहुंच जाती है। तो जिस गहराई सच तो यह है कि ऐसा आदमी ही करुणावान होता है। मेरे' के तक हम पहुंचते हैं, उस गहराई से ज्यादा गहराई हमारी होनी ही कारण तुम कठोर हो। क्योंकि 'मेरे' के कारण तुम्हारी करुणा चाहिए, अन्यथा हम उस गहराई तक नहीं पहुंच सकते। मुक्त नहीं हो पाती। अगर तुम्हारा बेटा गिरता है तो उठा लेते वैज्ञानिक अपने को छोड़ देता है, बाहर रख लेता है। लेकिन हो; दूसरे का बेटा गिरता है तो आंख बचाकर निकल जाते हो। कुछ भी हम खोज लेंगे, खोजनेवाले से बड़ा वह नहीं होगा जो 'मेरे' के कारण तुम कठोर हो। तुम्हारा बेटा भूखा मरता है तो हम खोजेंगे। इसे थोड़ा खयाल में रखना। इसलिए महावीर तुम परेशान होते हो; दूसरे का बेटा भूखा मरता है, तुम्हें क्या परमात्मा से भी ज्यादा मूल्य आत्मा शब्द को देते हैं। वे कहते हैं, लेना-देना! तुम मेरे' के कारण कठोर हो। आत्मा ही तो खोजेगी न परमात्मा को! तो जो खोजनेवाला है वह महावीर का 'मेरा' विसर्जित हो जाता है : करुणा मुक्त हो जिसे खोज लेगा उससे बड़ा है। मैं जिसे पा लं, उससे मैं बड़ा हो जाती है; अब मेरे की ही धाराओं में नहीं बहती; अब तो बाढ़ की गया। तुम जिसे पा लो, तुम उससे बड़े हो गये। अगर तुम 380 Main Eucation International Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MALA Simi RL आत्मा परम आधार है / RATEELINES गौरीशंकर पर खड़े हो गये तो तुम गौरीशंकर से बड़े हो गये। खड़ा रहता है लेकिन भय दोनों के भीतर है। बहादुर भय के तो महावीर का विश्लेषण बड़ा महत्वपूर्ण है। महावीर कहते बावजूद भी चला जाता है युद्ध में; कायर भय अनुभव होते ही हैं, आत्मा से बड़ा कुछ भी नहीं है; क्योंकि सभी कुछ अंततः भाग खड़ा होता है। एक आगे जाता है, एक पीछे जाता है; आत्मा ही पायेगी-मोक्ष, निर्वाण, ब्रह्म। तो जो पानेवाला है लेकिन भय दोनों में है। भय से कोई बाहर नहीं है। भय से वही मालिक है, वही निरालंब, वही परम आधार है। तो-महावीर कहते हैं-वही बाहर होता है, जो आत्मा को __'परद्रव्य-आलंबन से रहित, वीतराग, निर्दोष, मोह-रहित उपलब्ध हुआ; क्योंकि आत्मा अमरत्व है। वहां फिर कोई मृत्यु तथा निर्भय है।' नहीं। वहां पहुंचते ही पता चलता है कि न तो यह मर सकती है और निर्भय समझनेवाला तत्व है। हम भयभीत हैं। हम कंप | चेतना, न कभी मरी है, न जन्मी है-अजन्मी, अनादि, अमृत। रहे हैं, चौबीस घंटे भयभीत हैं। यह भय क्या है? बहाने कुछ तब सारा भय शून्य हो जाता है। तब सारे भय गिर जाते हैं। भी हों। और हम अपने को किसी भी तरह समझा लेते हों, कुछ आत्मा को जाने बिना भय के बाहर जाने का कोई उपाय नहीं तरकीबें खोज लेते हों-कभी भय है कि प्रियजन न खो जाये; है। और भय के बाहर गये बिना कैसे दुख के बाहर जाओगे? कभी भय है बीमार न हो जायें; कभी भय है वृद्ध न हो जायें, बूढ़े कैसे भय के बाहर गये बिना चिंता के बाहर जाओगे, संताप के न हो जायें; कभी भय है, धन न खो जाये; कभी भय है, पद न बाहर जाओगे? कंपते ही रहोगे। खो जाये, प्रतिष्ठा न खो जाये, नाम-यश न खो जाये, आदमी का होना एक गहन कंपन है। आत्मा को जानते ही कुल-परंपरा न खो जाये-हजार भय हैं, लेकिन सबके गहरे में कंपन ठहर जाता है। स्थिति-प्रज्ञता पैदा होती है। ज्योति अकंप अगर खोजेंगे तो मृत्यु का भय है : कहीं मैं न खो जाऊं! हो जाती है, निर्धूम जलती है; जैसे ऐसे किसी घर में हो जहां हवा धन को भी हम इसीलिए पकड़ते हैं कि धन के सहारे स्वयं के के झोंके न आते हों-अकंप जलती है। तब पहली दफा जीवन होने में सहायता मिलती है; अन्यथा धन के लिए कौन धन को | में वसंत आता है। उसके पहले जो वसंत जाने वे तो पतझड़ के पकड़ता है? कौन इतना पागल है? लेकिन धन हो तो थोड़ा ही आगमन के आने के उपाय थे। उसके पहले तो जवानी जो बल होता है-बीमारी होगी, बुढ़ापा होगा तो धन रक्षा करेगा। | जानी वह बुढ़ापे का ही चरण था। उसके पहले तो जो जन्म कोई शत्रु होगा तो धन रक्षा करेगा। हम पद-प्रतिष्ठा को पकड़ते मिला, वह मौत की ही शुरुआत थी। आत्मा में आकर, स्वयं में हैं, क्योंकि उससे भी आत्म-रक्षा होती है। यश को पकड़ते हैं, आकर, पहली दफे वसंत आता है-ऐसा वसंत, जिसके पीछे कुल को पकड़ते हैं, समाज के अंग बनते हैं, धर्म के अंग बनते हैं, राजनीति के अंग बनते हैं-उस सबमें बहुत गहरे में | नहीं यह नग्मए-शोरे-सलासिल आत्मरक्षा की भावना है। सब तरफ से मौत हमें पीड़ित किये है: बहारे-नौ के कदमों की सदा है। मरना होगा! नहीं यह नग्मए-शोरे-सलासिल रोज कोई मरता है। हमारे पैर और हिल जाते हैं। रोज कोई बहारे-नौ के कदमों की सदा है। मरता है : जड़ें और उखड़ जाती हैं। रोज कोई धक्के दे जाता है। अब बेड़ियों की झंकार नहीं मालूम होती है वसंत में। यह तो ये तूफान रोज आते ही हैं मौत के। आज कोई गया, कल कोई वसंत-आगमन की पगध्वनि है, बेड़ियों की झंकार नहीं। इसके गया-परसों हमें भी जाना होगा, यह घबड़ाहट है! पहले तो वसंत भी आया तो बांध गया था। इसके पहले तो प्रेम तो आदमी इस अवस्था में कभी अभय को उपलब्ध हो ही नहीं भी आया तो बंधन बन गया था। इसके पहले तो जो भी आया सकता। जिनको तुम बहादुर कहते हो, वे भी अभय को उपलब्ध था, कारागृह ही सिद्ध हुआ था। अब पहली दफा वसंत आता नहीं होते। कायर नहीं हैं वे। इससे तुम यह मत समझना कि है। ऐसे फूल खिलते हैं जो फिर कभी मुहते नहीं। ऐसे फूल भयभीत नहीं हैं। कायर और बहादुर दोनों के भीतर भय है। खिलते हैं जो मुझाने को नहीं खिलते।। कायर भय की मानकर भाग खड़ा होता है; बहादुर नहीं मानता, 'वह आत्मा निग्रंथ है, निराग है, निशल्य है. सर्वदोषों से 1381 www.jainelibrary org Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 1 विमुक्त है, निष्काम है और निक्रोध, निर्मान और निर्मद है।' है...। 'निराग, निग्रंथ, निशल्य...।' अगर एक ईसाई हिंदू हो जाये तो ईसाई कहते हैं, गद्दार। अगर महावीर के अपने पारिभाषिक शब्द हैं। निग्रंथ का अर्थ होता एक हिंदू ईसाई हो जाये, तो वे कहते हैं, सुमार्ग पर आ गया। वह है : जहां अब कोई ग्रंथि न रही; कोई एढ़ा-टेढ़ापन न रहा; कोई हिंदू की बात है। हिंदू अगर ईसाई हो जाये तो वो कहते हैं, गांठ न रही; जिसको मनोवैज्ञानिक काम्प्लेक्स कहते | गद्दार। अगर ईसाई हिंदू हो जाये तो वे कहते हैं, सदबुद्धि का हैं-ग्रंथि। वैसी कोई ग्रंथि न रही; आदमी सरल हुआ; चेतना जन्म हुआ। पर कोई बाधाएं, अवरोध न रहे; झरना बहने लगा, सब चट्टानें ग्रंथियों को हम छिपाते हैं। तो फिर जिसको हम छिपाते हैं, वह राह से हट गईं। अगर चट्टानें पूरी हट जायें तो झरने का शोर भी बढ़ेगा। ग्रंथियों को उघाड़ना पड़ेगा। बंद हो जाता है। झरने के करण थोड़े ही शोर होता है; शोर तो इसलिए तो महावीर नग्न हुए। वह 'नग्न' बड़ा प्रतीकात्मक चट्टानों के कारण होता है, बीच में पड़े पत्थरों के कारण होता है। है। उन्होंने कहा, जैसा हूं, जो हूं, अब कोई वस्त्र न रखूगा, सब चट्टानें हट जायें तो झरना एकदम शांत हो जाता है। आवरण न रखेंगा, अब सब उघाड़े देता हूं। अब कोई ग्रंथि जैसी जीवन-ऊर्जा जब शांत बहने लगती है, कोई ग्रंथि नहीं भी है, बुरी है, भली है, लोग स्वीकार करें, न स्वीकार करें...। होती...। अभी तो हमारे पास हजार-हजार ग्रंथियां हैं। अभी लोगों ने किस-किस तरह का व्यवहार महावीर से किया, तो हम सीधे बह ही नहीं पाते। अभी तो हमारे सारे कदम ऐसे हैरानी होती है! पड़ते हैं जैसे शराबी चलता है-लड़खड़ाते; हर घड़ी कल रात मैं देख रहा था एक जैन-ग्रंथ। लोगों ने पत्थर मारे, गिरने-गिरने को। एक पांव इधर पड़ता है, दूसरा कहीं और लकड़ियों से पीटा, जंगली जानवर छोड़े, कुत्ते, खूखार कुत्ते पड़ता है। कहीं रखना चाहते हैं, कहीं पड़ जाता है। अभी तो हम छोड़े, इतने से भी लोगों को न लगा तो लोग उठा उठाकर उनके कहते कुछ हैं, मतलब कुछ होता है; करना कुछ चाहते थे, कर शरीर के ऊपर फेंकते थे, वे नीचे गिरते थे-चट्टानों पर। लोग कुछ जाते हैं। अभी जीवन एक सरल घटना नहीं है। और अभी | बहुत नाराज थे। इस नाराजगी में कारण था। कारण यह था कि हम इस सरलता को पा भी न सकेंगे; क्योंकि हम तो अपनी हम हैं जटिल लोग। जब भी कोई सरल आदमी पैदा होता है, जटिलता को ही सरलता समझे बैठे हैं। हम तो अपनी जटिलता उसे हम बर्दाश्त नहीं कर पाते। वह बड़े गहरे में हमें के लिए बड़े तर्क खोजते हैं। अपमानजनक मालूम पड़ता है। उसकी मौजूदगी हमें चुभती है, अगर तुम्हें क्रोध आ जाता है तो तुम सीधा-सीधा थोड़े ही शूल की तरह चुभती है। बेईमान चाहते हैं, बाकी भी लोग कहते हो कि मैं क्रोधी आदमी हूं। तुम कहते हो, क्रोध की जरूरत बेईमान हों। अगर ईमानदार आदमी बेईमानों के बीच में हो तो थी; अगर क्रोध न करेंगे तो यह बेटा सुधरेगा कैसे? अब तुम | बेईमान उसे बर्दाश्त न करेंगे। उनके लिए खतरा है वह ईमानदार ग्रंथि को तो स्वीकार कर ही नहीं रहे हो कि तुम क्रोधी हो। तुम आदमी; क्योंकि उसकी ईमानदारी के कारण उनकी बेईमानी यह कह रहे हो कि यह तो बेटे को सुधारने के लिए करना पड़ रहा | | साफ हुई जाती है, उघड़ी जाती है। चोर चोर को पसंद करते हैं। है। तुम बहाने में टाले दे रहे हो, तो यह ग्रंथि तो मजबूत होती | झूठ बोलनेवाले झूठ बोलनेवाले को पसंद करते हैं। जैसे लोग चली जायेगी। यह ग्रंथि तो घनी होती चली जायेगी। होते हैं, वैसों को पसंद करते हैं। महावीर जैसा निग्रंथ आदमी, दूसरा करता है, तो तुम कहते हो, अहंकारी; तुम करते हो तो जिसकी कोई ग्रंथि नहीं, कोई उलझाव नहीं, जैसा है सीधा-सरल कहते हो, स्वाभिमान है। अगर तुम्हें कोई नई सझ आती है तो | नग्न खड़ा हो गया-लोगों को बड़ी कठिनाई हो गई। लोग इसे तुम कहते हो, मौलिक चिंतन; अगर दूसरे को आती है, तुम बर्दाश्त न कर सके। लोग उनको एक गांव से दूसरे गांव में कहते हो, झक्की है, दिमाग थोड़ा ढीला है, इस तरह की बातें खदेड़ने लगे। लेकिन यह आदमी भी खूब था। इसने सब इसके दिमाग में उठती हैं। स्वीकार कर लिया। इसने कहा कि यह भी हो रहा है तो होने दो। तुम करते हो तो तुम कुछ और शब्द देते हो; दूसरा करता | इसने कुछ बदलने की कोशिश न की। जिस गांव से इसे भगाया 3821 Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Tum आत्मा परम आधार है गया, अगर लोग खदेड़कर बाहर कर गये तो ये बाहर हो गये। महावीर ने बड़ा अनूठा प्रयोग किया! न दतौन, न स्नान। वर्षों लेकिन ऐसा भी नहीं कि दुबारा उस गांव में न आए हों। फिर राह तक पानी का उपयोग ही नहीं किया। वह तो भक्तों को दया आने में पड़ गया गांव तो फिर आ गये। जो सहज होने लगा वह होने लगी होगी। उनके प्रेमियों को दया आने लगी। इसलिए जैनियों दिया। सहज-स्फूर्त जीवन महावीर का मूलभूत स्वर है। उसमें में अभिषेक शुरू हुआ। साल में एक दिन वे बिठाकर महावीर जरा भी सजावट नहीं है, शृंगार नहीं है। उसमें जरा भी अन्यथा | को, उनके ऊपर पानी डाल देते हैं। अभी भी डालते हैं, मूर्ति पर दिखाई पड़ने का कोई आग्रह नहीं है—जैसे हैं, जो हैं। डालते हैं अब वे। अभिषेक। भक्तों को भी घबड़ाहट होने लगी कहते हैं, महावीर ने वर्षों तक स्नान नहीं किया; क्योंकि उन्होंने होगी कि इतना आदमी, इतना सरल हो जाना भी ठीक नहीं। कहा कि अब शरीर है और यह तो दुर्गंध-भरा है ही, अब इसको इतना प्राकृतिक, जैसे पशु जीते हैं—निर्मल! धो-धोकर, पोंछ-पोंछकर भी क्या सार? किसको धोखा देना लेकिन तुमने खयाल किया? पशु गंदे मालूम होते हैं? एक है? वर्षों तक उन्होंने दतौन नहीं की। क्योंकि उन्होंने कहा कि आदमी ही कुछ अजीब है, इतनी व्यवस्था के बाद भी गंदा मुंह से तो बास आती ही है। अब किसको समझाना है कि बास | मालूम होता है! पशु सदा ताजे और स्वच्छ मालूम होते हैं। कहीं नहीं आती? ऐसा तो नहीं है, ताजे स्वच्छ होने की चेष्टा में ही हमने अपने को तुमने कभी खयाल किया? तुम जो भी करते हो, दूसरों को गंदा कर लिया है? कहीं यह अति आग्रह, आरोपण, यह झूठ, दिखाने के लिए करते हो। अगर घर में बैठे हो तो कैसे ही अप्राकृतिक होने की चेष्टा, यह कृत्रिम जीवन-कहीं यही तो उलटे-सीधे कपड़े पहने बैठे रहते हो। बाहर जाना है कि हुए हमारी गंदगी का कारण नहीं? क्योंकि इस पूरी प्रकृति में चारों तैयार! वैसे ही क्यों नहीं निकल आते? बाहर जा रहे हैं। बाहर | तरफ जरा गौर से देखो, पक्षी हैं, पशु हैं-कौन गंदा मालूम जाने का मतलब है : अब लोगों की तरफ ध्यान रखना है; उनकी पड़ता है? कौन स्नान कर रहा है? कौन दतौन कर रहा है? आंख को क्या ठीक लगेगा, क्या ठीक नहीं लगेगा-अपनी लेकिन सब साफ-सुथरे मालूम होते हैं; सारी प्रकृति नहाई हुई प्रतिष्ठा का सवाल है। कुछ दिखलाना है। जैसे तुम नहीं हो, मालूम होती है-एक आदमी को छोड़कर। वैसे दिखलाना है। व्यवसाय शुरू हो गया। - महावीर ने बड़ा अनूठा प्रयोग किया—प्राकृतिक होने का। स्त्रियों को देखा, घर में कैसी बैठी रहती हैं ! भैरवी के रूप में! | रूसो ने जो बहुत बाद में कहा : बैक टू नेचर, चलो प्रकृति की इसलिए अगर उनके पति उनसे घबड़ा जाते हैं तो कुछ आश्चर्य ओर वापिस। वह तो रूसो ने सिर्फ कहा है-महावीर ने नहीं। बाहर निकली तो सब अप्सरायें हो जाती हैं। इसलिए किया। बड़ी दुर्धर्ष साधना थी। क्योंकि सब भांति यह आकांक्षा अगर दूसरे उन पर आकर्षित हो जाते हैं तो भी कुछ आश्चर्य छोड़ देनी कि दूसरे मेरे संबंध में क्या सोचते हैं, बड़ी कठिन है। नहीं। पतियों को तो भरोसा ही नहीं आता कि उनकी पत्नी को भी अभी जैन मुनि हैं, वे भी वैसा ही कुछ करने की कोशिश करते कोई रास्ते में धक्का दे गया। हैं, लेकिन वह सच नहीं है। क्योंकि इस कोशिश में बुनियादी मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन पहुंचा पागलखाने। जाकर दस्तक बात खो गई है। वह भी इस फिक्र में लगे हैं कि दूसरे क्या सोचते दी। अधिकारी ने पूछा, कैसे आये आधी रात? उसने कहा, मेरी हैं। जैन मुनि है, वह देख रहा है कि जैन श्रमण की जो पत्नी भाग गई है। उसने कहा, यहां आने का क्या कारण? | जीवन-धारा है, वह ऐसी होनी चाहिए, अनुशासन, यह उसने कहा, मैं यह पूछने आया हूं, कोई पागल तो नहीं निकल व्यवस्था...। महावीर ने सारी व्यवस्था तोड़कर प्रकृति के हाथों भागा यहां से? क्योंकि मेरी पत्नी को कोई और ले भागे इस गांव में छोड़ दी; जैन मुनि ने महावीर ने जो किया उसको अपनी में, यह तो संभव नहीं है। कोई पागल तो नहीं छूटा है आज, यह | व्यवस्था बना लिया है। इन दोनों में बड़ा बुनियादी फर्क है। मैं पूछने आया हूं। महावीर ने सारा अनुशासन छोड़ दिया; सारी संस्कृति, संस्कार, एक हमारे होने के ढंग हैं, एक हमारे दिखाने के ढंग हैं। एक हैं | समाज, सभ्यता छोड़ दी; हो रहे प्रकृति के हाथ-जैसे पशु दांत हमारे खाने के, एक हैं दिखाने के। रहते हैं, ऐसे! जैन मुनि उसी में से अपनी व्यवस्था निकाल 383 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सत्र भागः1 लिया। प्रभावित करने का खयाल ही न रहा, पसीना आता रहा होगा, महावीर दतौन नहीं करते तो जैन मुनि भी दतौन नहीं करता। लेकिन पसीने का गुण-धर्म बदल गया। . कम से कम ऐसा पता तो नहीं चलने देता कि करता है। क्योंकि इसे तुम ऐसा समझो—चित्त की दशायें बदलती हैं तो शरीर मैं जानता हूं, वे करते हैं। मैंने जैन साध्वियों के पास टुथपेस्ट भी की दशायें भी बदलती हैं। जब कोई स्त्री कामातुर होती है तो छिपा हुआ देखा है। | उसके पसीने में एक अलग तरह की बास आने लगती है। एक जैन साध्वी मुझे मिलने आती थी। उसके मुंह से मुझे बड़ी | इसलिए तो जानवर मादा को संघते हैं। इसके पहले कि वे संभोग बास आती थी। वह दतौन नहीं करती रही होगी। तो मैंने पूछा करें, मादा को सूंघते हैं। क्योंकि पसीना मादा की खबर देता है, कि और साध्वियां भी आती हैं, उनके मुंह से बास नहीं आती। वह राजी है या नहीं। तो वह हंसने लगी। उसने कहा, आपसे क्या छिपाना! वे सब | आदमी के जीवन में भी ठीक वही नियम काम करते हैं; टुथपेस्ट छिपाये रहती हैं। वे सब टुथपेस्ट करती हैं। दुबारा जब क्योंकि देह के नियम तो वही के वही हैं। जब कोई स्त्री कामातुर वह खुद भी आई तो उसके मुंह से भी मुझे बास नहीं आ रही थी होती है, उसके पसीने में खास बदबू आनी शुरू होती है। और तो मैंने पूछा, मामला क्या है? तो उसने कहा कि जब आपने | जब कोई व्यक्ति काम से परिपूर्ण मुक्त हो जाता है तब उसके कहा तो मुझे भी लगा कि यह तो बात ठीक नहीं है, तो मैंने भी पसीने की वह सारी बदबू जो कामातुरता से आती थी, विलीन हो करना शुरू कर दिया; मगर किसी से आप कहना मत! | जाती है। तब उसके पसीने में एक और ही तरह की बास आती बाहर से तो यही दिखाना पड़ता है कि नहीं। बाहर से न भी है, एक और ही तरह की गंध होती है। दिखाओ, अगर तुम भीतर से भी पालन करो तो फर्क समझ में मुंह से हम बोलते हैं। बोलने की जो प्रक्रिया है, उससे मुंह में आया तुम्हें। महावीर ने सब चीजों का पालन छोड़ दिया। यह | एक खास तरह की बास आनी शुरू होती है, क्योंकि घर्षण पैदा उनकी क्रांति थी। अब तुम महावीर को देख-देखकर पालन | होता है। थूक में और मुंह के यंत्र में सतत घर्षण से एक तरह की करने के लिए नियम बना रहे हो। यह कोई क्रांति न हुई, यह | बास आनी शुरू होती है। परंपरा हुई। और महावीर के संबंध में कहा जाता है कि धीरे-धीरे अगर कोई मौन रह जाये, चुप रह जाये, बोले ही न, तो तुम उनकी देह से पसीने की बदबू आनी बंद हो गई। जैन तो इसको पाओगे उसके मुंह से वह बास आनी बंद हो गई। क्योंकि वह तो और ढंग से समझाते हैं। वह ढंग मुझे ठीक नहीं मालूम पड़ता। केवल घर्षण की वजह से पैदा हो रही थी। वे तो कहते हैं, तीर्थंकर के पसीने में बास नहीं आती। यह बात महावीर महीनों तक भोजन नहीं करते। जब तक उन्हें ऐसा तो बेतुकी मालूम होती है। पसीना तो पसीना है। इसमें तीर्थंकर नहीं हो जाता कि अब शरीर की बिलकुल अपरिहार्य जरूरत आ को बीच में लाने की कोई जरूरत नहीं है। वे कहते हैं, तीर्थंकर गई, तभी भोजन करते हैं। और बड़ा अल्प भोजन करते हैं। को पसीना ही नहीं आता। यह बात भी मेरी समझ में नहीं उतने भोजन से शरीर चलता है। बस वह पूरा का पूरा भोजन आती। लेकिन पशु हैं, पक्षी हैं, प्रकृति की सहज धारा में जीते पचा जाते हैं। हैं-कौन-सी बास आ रही है? जंगली पशु-पक्षियों में अभी पश्चिम में चूंकि कारों के चलने से, कारों में जलनेवाले कौन-सी बास आ रही है? नहीं, मेरी तो दृष्टि यही है कि पेट्रोल के धुएं के कारण वैज्ञानिक बड़े चिंतित हो गये हैं। महावीर इतने सरल हो गये कि फिर पशुवत हो गये। 'पशुवत' | तो इस तरह की कारें निर्मित की जा रही हैं कि पेट्रोल पूरा का को मैं उपयोग कर रहा हूं-बड़े बहुमूल्य अर्थों में। इतने पूरा जल जाये, जरा भी बचे न; क्योंकि जो बच जाता है, नैसर्गिक हो गये! जब दिखावे की आकांक्षा छूट गई तो शरीर में गैर-जला, उसकी वजह से ही गंध और वायु-दूषण पैदा होता एक क्रांति घटित हुई। क्योंकि वह दिखावे की जो आकांक्षा है, | है। अगर पूरा जल जाये तो फिर कोई गंध पैदा नहीं होती, वह शरीर को एक स्थिति में रखती है; जब दिखावे की आकांक्षा वायु-दूषण पैदा नहीं होता। छुट जाती है तो शरीर में एक क्रांति घटित होती है। किसी को तो महावीर कभी महीने में एक दफा भोजन करते, कभी दो 884 Jan Education International Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NEW आत्मा परम आधार है दफा भोजन करते। शरीर की जरूरत इतनी होती और भोजन उपाय करते हैं जिससे ज्यादा हो जाये। महावीर ने ऐसे उपाय इतना कम होता कि वह पूरा का पूरा पचा जाते। किये कि उतना ही हो जितना प्रकृति की जरूरत है। मन से कुछ जैन कहते हैं, महावीर मल-मूत्र का त्याग नहीं करते; क्योंकि भी न जोड़ा जाये। तो स्वभावतः धीरे-धीरे उनकी सारी ग्रंथियां तीर्थंकरों को मल-मूत्र नहीं होता। मैं यह नहीं कहता। मैं यह | खुलती गईं। वह छोटे बच्चे की भांति या पशु की भांति हो गये। कहता हूं कि अगर तुम भी महीने में एकाध बार भोजन करोगे तो उनमें सरलता का आविर्भाव हुआ। निग्रंथ होने का यही अर्थ है। मल-मूत्र की जरूरत न रह जायेगी। शरीर पूरा पचा जायेगा। | वे ऐसे सरल हो गये कि उनमें एक भी तिरछी लकीर न बची। शरीर के पचाने की जरूरत इतनी होगी कि तुमने जो लिया है। दो बिंदुओं के बीच जो निकटतम दूरी है, उसको कहते हैं सरल उसमें से कुछ भी छोड़ने का उपाय न होगा। महावीर ने बारह रेखा। और दो बिंदुओं के बीच जो इरछी-तिरछी यात्रा करनी वर्षों की साधना में कहते हैं, मुश्किल से तीन सौ साठ दिन पड़े, गोल, घुमावदार, वह है ग्रंथि। भोजन किया। तो हर बारह दिन में एक दिन भोजन पड़ता है। महावीर सीधी सरल रेखा की भांति हैं। हम बड़े इरछे-तिरछे वह भोजन इतना कम था, और वह भी एक बार और वह भी | हैं। हम कहते कुछ, करते कुछ। हम करते कुछ और अपने को महावीर खड़े-खड़े करते, बैठते भी न थे। क्योंकि महावीर समझाते कुछ। हम दूसरे को ही धोखा देते हों, ऐसा नहीं है। हम कहते, बैठो तो थोड़ा ज्यादा भोजन आदमी कर लेता है। अपने को भी धोखा देते हैं। छोटी-छोटी चीजों से फर्क पड़ते हैं। | मैं मुल्ला नसरुद्दीन के साथ लखनऊ में ठहरा हुआ था। गर्मी तुमने कभी खयाल किया? खड़े-खड़े भोजन करके देखो एक के दिन और भरी दुपहरी में बिजली चली गई, तो वह बहुत दफा। 'बफे' महावीर ने शुरू किया। ज्यादा मेहमान हों, झल्लाया। उसे जो भी चुनी हुई गालियां आती थीं, उसने दी। भोजन कम हो, तो बफे। बिठालना मत, बिठालो तो फिर ज्यादा फिर वह भागा, नीचे गया, होटल के नीचे से एक पंखा खरीद खाते हैं। खड़े-खड़े शरीर का आसन ऐसा होता है कि पेट तना लाया। पंखा उसने किया नहीं कि टूटा नहीं। दो टुकड़े हो गये। होता है; बैठने से पेट शिथिल हो जाता है, ज्यादा जगह हो जाती फिर तो जो वह बहुत ही नाराज हुआ। फिर तो वह गालियां है। अब किसी को कहो दौड़ते-दौड़ते भोजन करो तो और कम | विशेष रूप से सुरक्षित रखता है, वे भी उसने दीं। फिर वह हो जायेगा, स्वभावतः। भागा, नीचे गया। यह सोचकर कि कहीं कोई झगड़ा-फसाद न महावीर खड़े-खड़े भोजन करते। पात्र में भोजन नहीं करते हो, मैं भी उसके पीछे गया कि अब यह कुछ...। पर नीचे जो थे-करपात्री थे हाथ में ही भोजन करते थे। अब हाथ में जरा देखा, वह...। अच्छा हआ कि गया। पंखेवाले ने उससे कहा भोजन करके देखो! दो-चार ग्रास के बाद ही तुम सोचोगे, अब कि इसमें क्या आश्चर्य की बात है, इसमें क्यों बौखलाये जा रहे बहुत हो गया। वह प्रक्रिया कोई ऐसी नहीं कि बहुत देर जारी हो? नसरुद्दीन ने कहा, एक ही बार किया और पंखा टूट गया, रखने का सुख मालूम पड़े। धूप में, सड़क पर खड़े हुए, हाथ में, और तुम कहते हो आश्चर्य की बात नहीं! उस पंखेवाले ने नग्न, जो थोड़ा-बहुत मिल गया, वे ले लेते। बैठते भी न। एक लखनवी अंदाज में कहा, हुजूर! यह लखनऊ का नफासत, बार! वह भी दस-बारह दिन में एक बार। यह पूरा का पूरा नजाकत का पंखा है। आपको करना नहीं आता। आपने लट्ठ भोजन पच जाता। यह पूरा का पूरा भोजन शरीर में लीन हो | की तरह घुमा दिया होगा। हुजूर! लखनऊ में तो पंखे को सामने जाता। तो संभव है, मलमूत्र पैदा होने की जरूरत न रह जाये। रख लेते हैं और सिर को हिलाते हैं। फिर सिर भला टूट जाये, ऐसे नैसर्गिक ढंग से जीना उन्होंने शुरू किया कि मन से कोई पंखा कभी नहीं टूटता। आप जरा लज्जत बाधा न हो। | आये हैं तो थोड़े लखनऊ का रिवाज भी सीखिये। हम तो ऐसा उपाय करते हैं...तुमने देखा, जब बहुत मित्रों को | | हम तरकीबें खोज लेते हैं। हम तर्क खोज लेते हैं। जीवन बुला लो घर पर, तो ज्यादा खाना हो जाता है। रेडियो चला दो, उलटा भी जा रहा हो तो भी हम उसे सीधा मानने के ढंग खोज गीत-संगीत बजा दो, तो ज्यादा खाना हो जाता है। हम तो ऐसे | लेते हैं। 3851 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः 1 तुम न जागो तो कोई तुम्हें जगा न सकेगा। तुम्हें ही देखना | ये आत्मा की तरफ इशारे हैं। ये इशारे जो आत्मा को उपलब्ध पड़ेगा कि तुमने कहां-कहां अपनी ग्रंथियों को मजबूत करने के हो जाता है, उसे उपलब्ध होते हैं। और जो आत्मा को उपलब्ध लिए तर्क खोज रखे हैं। क्रोध करते हो तो तुम कहते हो, जरूरी नहीं हुआ है, उसके लिए ये इशारे मार्ग के सूचक हैं। ये दो बातें है। मोह करते हो तो तुम कहते हो, जरूरी है। राग को तुम प्रेम हैं इसमें। यह आत्मा की दशा का वर्णन है और आत्मा की तरफ | कहते हो। अच्छा शब्द रख लेते हो, नीचे गंदगी छिप जाती है। पहुंचने की व्यवस्था, उपाय भी। तो अगर तुम्हें उसे पाना भय के कारण किसी के साथ हो लेते हो; लेकिन कहते हो, मैत्री है-उस आत्मा को, जहां कोई मद नहीं है, जहां कोई बेहोशी है। लोभ के कारण किसी के साथ हाथ में हाथ डाल लेते हो; नहीं है, न मान का मद है, न पद का, न धन का, कोई मद नहीं लेकिन कहते हो, मैत्री है, मित्रता है। अहंकार के कारण त्याग है-अगर तुम्हें उस दशा को पाना है, तो मदों को छोड़ना शुरू करते हो; लेकिन कहते हो, दान है। ऐसे तो फिर तुम ग्रंथियों में कर दो। अकड़ो मत! तो अपने को हटाने लगो मद से। उस उलझते चले जाओगे। फिर तो ग्रंथियों के जंगल में खो जाओगे। आत्मा की दशा में कोई ग्रंथि नहीं है। तो अगर तुम्हें उसे पाना है महावीर कहते हैं, सरल हो रहो। जैसे हो वैसा ही अपने को | तो ग्रंथियों को धीरे-धीरे छोड़ो; जितना बन सके उतना छोड़ो; जानो। धीरे-धीरे ग्रंथियां छूट जाती हैं और जीवन में एक अलग जिस मात्रा में बन सके उतना छोड़ो। कभी-कभी सच होना शुरू तरह की ऊर्जा का आविर्भाव होता है। एक सहजता! एक करो, सरल होना शुरू करो। कभी-कभी तो सचाई को करके भी सरलता! एक भोलापन ! एक बच्चे के जैसा भाव! देखो, जोखिम भी हो तो भी करके देखो। कभी सच भी बोलकर 'निराग, निशल्य...।' देखो; चाहे कुछ खोता हो तो भी बोलकर देखो। दांव लगाओ। और निश्चित ही जिस आदमी के जीवन में कोई ग्रंथि नहीं है, अगर आत्मा निशल्य है तो तुम अपने कांटे जहां-जहां तुम्हें उसके जीवन में कोई राग नहीं होता। उसके पास न बचाने को चुभते हैं उनको पहचानो। दूसरे को दोष मत दो। अपने भीतर कुछ है, न छोड़ने को कुछ है। और जिस आदमी के जीवन में घाव हैं, उनको भरो। जब तक तुम दूसरे को दोष देते रहोगे, वे निग्रंथि है, उसके जीवन में शल्य खो जाते हैं। शल्य यानी कांटे। घाव न भरेंगे। और तब तक तुम बार-बार कांटों से चुभते रहोगे जो चुभते हैं, वह खो जाते हैं। और घाव को संजोते रहोगे। किसी ने तुम्हें गाली दी। तुम कहते हो, इसकी गाली चुभी। अब कौन चाहता है कि गाली कोई दे! लेकिन तुम कैसे रोकोगे गाली के कारण गाली नहीं चुभती-तुम्हारे अहंकार के कारण इस सारे संसार को कि कोई तुम्हें गाली न दे? उपाय एक है कि चुभती है। अहंकार को जाने दो, फिर कोई गाली देता रहे, कोई तुम भीतर से गाली जहां अटकती है, खटकती है, उस जगह को फर्क न पड़ेगा। फिर गाली में कोई शल्य न रह जायेगा। हटा दो। तुम उस घाव को भर लो, फिर सारा संसार गाली देता . 'निशल्यता' महावीर का बड़ा प्यारा शब्द है। वे कहते हैं, रहे तो भी तुम इसके बीच से गुजर जाओगे-निशल्य। भीतर से तुम कांटों को पकड़ने को तैयार हो, वही असली शल्य यह जो वर्णन है आत्मा का, यही पथ भी है पहुंचने का। है। तुमने मान चाहा, इसलिए अपमान का कांटा चुभा। तुम दिल में जौके-वस्लो-यादे-यार तक बाकी नहीं मान ही न चाहते तो अपमान का कांटा न चुभता। तुमने सफलता आग इस घर को लगी ऐसी कि जो था जल गया। चाही, इसलिए विफलता का विषाद आया। तुम सफलता ही न ऐसी आग लगाओ इस घर को, इस बेहोशी को, कि जो भी है मांगते, विफलता का विषाद कभी न आता। तुमने प्रथम खड़े इसमें, जल जाये। ऐसी आग सुलगाओ कि ये सारी ग्रंथियां, ये होना चाहा था, इसलिए तुम रो रहे हो कि तुम प्रथम खड़े न हो सारे शल्य, ये सारे घाव, यह तादात्म्य-शरीर का, मन का, पाये। तुमने अंतिम ही खड़े होने की आकांक्षा की होती, तो तुम्हें विचार का, यह अहंकार, यह मिट्टी के प्रति इतनी ज्यादा कौन हरा पाता? फिर तुम्हारा जीवन निशल्य हो जाता। आकांक्षा, जल जाये! 'सर्वदोषों से विमुक्त, निष्काम, निक्रोध, निर्मान और दिल में जौके-वस्लो-यादे-यार तक बाकी नहीं! निर्मद...।' –कि इनकी याद भी न रह जाये। 386 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा परम आधार है आग इस घर को लगी ऐसी कि जो था जल गया। और ध्यान रखना, अगर तुम्हारी अंतरात्मा में ही चाह न उठी ऐसी जलाओ! उस जलने के बाद ही तुम्हारा कुंदन-रूप, हो तो ऐसा कोई व्रत-नियम ऊपर से मत ले लेना। नहीं तो तुम्हारा स्वर्ण शुद्ध होकर बाहर आयेगा। व्रत-नियम तुम्हें और झूठा बनायेगा। लोग व्रत और नियम ले तलाशे-यार में क्या दंढ़िए किसी का साथ लेते हैं भीड़ के लिए। मंदिर में जाते हैं, इतने लोग देख रहे हैं : हमारा साया हमें नागबार राह में है। लोग व्रत ले लेते हैं, कि ब्रह्मचर्य का व्रत लेते हैं। यह ब्रह्मचर्य और यह जो महावीर की अंतर्यात्रा है, इसमें कोई संगी-साथी का व्रत उनके जीवन से नहीं आ रहा है। ये इतने लोग प्रशंसा न मिलेगा। यहां तो अपनी छाया भी भारी पड़ती है। यह अकेले करेंगे, ताली बजायेंगे और कहेंगे कि इस व्यक्ति ने ब्रह्मचर्य का का रास्ता है। यह एकाकी का रास्ता है। यह एकांत! व्रत धारण कर लिया है और हम अभागे, अभी तक ब्रह्मचर्य का तो धीरे-धीरे हटो भीड़ से! धीरे-धीरे हटो दूसरे से। धीरे-धीरे व्रत धारण न कर पाये! इस कारण ब्रह्मचर्य का व्रत मत ले लेना, दूसरे का खयाल, दूसरे की धारणा छोड़ो। धीरे-धीरे द्वंद्वों को नहीं तो पछताओगे। हटाओ। होती नहीं कबूल दुआ तर्के-इश्क की! तलाशे-यार में क्या ढूंढ़िए किसी का साथ। -अगर तुम प्रार्थना कर रहे हो कि हे प्रभु! मुझे राग से, मोह हमारा साया हमें नागबार राह में है। | से ऊपर उठा...लेकिन यह कबूल न होगी, यह प्रार्थना स्वीकार एक ऐसी घड़ी आती है कि तुम्हारी छाया भी तुम्हारे साथ नहीं | न होगी। होती, क्योंकि छाया भी शरीर की बनती है, मन की बनती है, दिल चाहता न हो तो जबां में असर कहां? विचार की बनती है। छाया भी स्थूल की बनती है। आत्मा की -और अगर तुम्हारा भीतर का दिल ही यह न चाहता हो तो कोई छाया नहीं बनती। अभी तो हालत ऐसी है कि आत्मा खो कहने से क्या होगा? और अगर भीतर का दिल चाहता हो तो गई है, छाया ही रही है। फिर ऐसी हालत आती है, आत्मा बचती प्रार्थना की जरूरत ही नहीं। तुमने चाहा कि हुआ। है, छाया तक खो जाती है। लोग ऐसे हैं कि दोनों संसार सम्हाले चले जाते हैं। इसी वजह महावीर को सुनकर, समझकर तुम कुछ कर पाओगे, ऐसा मैं | से आदमी जटिल हो जाता है। नहीं सोचता। जब तक कि तुम अपने जीवन में भी महावीर जो शब को मय खूब सी पी, सुबह को तौबा कर ली कह रहे हैं, उसके आधार न खोज लोगे; जब तुम्हारे जीवन में भी रिंद के रिद रहे, हाथ से जन्नत न गई। तुम्हें ऐसा न दिखाई पड़ने लगेगा कि महावीर ठीक कहते रात शराब पी लेते हैं, सुबह पश्चात्ताप कर लेते हैं। हैं-तब तक तुमने अगर ऊपर-ऊपर से उनकी बातों का शब को मय खुब सी पी, सुबह को तौबा कर ली आरोपण भी कर लिया, जैसा कि जैन कर रहे हैं, तो कुछ लाभ न रिद के रिद रहे, हाथ से जन्नत न गयी। होगा। उससे तुम और उलझन में पड़ जाओगे। उससे जटिलता स्वर्ग भी सम्हाल लिया, संसार भी सम्हाल लिया। ऐसी बढ़ेगी, ग्रंथियां और बढ़ जायेंगी। मेरे देखे कभी-कभी ऐसा हो | बेईमानी में मत पड़ना। जिसने दोनों सम्हाले, उसके दोनों गये। जाता है कि सामान्य गृहस्थ कहीं ज्यादा निग्रंथ मालूम होता है जिसने एक को सम्हाला, उसका सब सम्हल जाता है। और वह बजाय मुनि के। उसकी और ज्यादा ग्रंथियां हो गई होती हैं। वह एक तुम्हारे भीतर छिपा है। वह एक तुम हो। उसे महावीर और तिरछा हो गया। उसने और नियमों के जाल खड़े कर | तुम्हारी अंतरात्मा कहते हैं, तुम्हारा परमात्मा कहते हैं। लिये। नैसर्गिक तो नहीं हुआ है। उसने और छोटी-छोटी बातों की इतनी व्यवस्था कर ली कि अब वो व्यवस्था ही जुटाने में आज इतना ही। उसका समय नष्ट होता है। चौबीस घंटे इसी में व्यतीत होते हैं। होती नहीं कबूल दुआ तकें-इश्क की दिल चाहता न हो तो जबां में असर कहां। 387