________________ जिन सूत्र भागः 1 तुम न जागो तो कोई तुम्हें जगा न सकेगा। तुम्हें ही देखना | ये आत्मा की तरफ इशारे हैं। ये इशारे जो आत्मा को उपलब्ध पड़ेगा कि तुमने कहां-कहां अपनी ग्रंथियों को मजबूत करने के हो जाता है, उसे उपलब्ध होते हैं। और जो आत्मा को उपलब्ध लिए तर्क खोज रखे हैं। क्रोध करते हो तो तुम कहते हो, जरूरी नहीं हुआ है, उसके लिए ये इशारे मार्ग के सूचक हैं। ये दो बातें है। मोह करते हो तो तुम कहते हो, जरूरी है। राग को तुम प्रेम हैं इसमें। यह आत्मा की दशा का वर्णन है और आत्मा की तरफ | कहते हो। अच्छा शब्द रख लेते हो, नीचे गंदगी छिप जाती है। पहुंचने की व्यवस्था, उपाय भी। तो अगर तुम्हें उसे पाना भय के कारण किसी के साथ हो लेते हो; लेकिन कहते हो, मैत्री है-उस आत्मा को, जहां कोई मद नहीं है, जहां कोई बेहोशी है। लोभ के कारण किसी के साथ हाथ में हाथ डाल लेते हो; नहीं है, न मान का मद है, न पद का, न धन का, कोई मद नहीं लेकिन कहते हो, मैत्री है, मित्रता है। अहंकार के कारण त्याग है-अगर तुम्हें उस दशा को पाना है, तो मदों को छोड़ना शुरू करते हो; लेकिन कहते हो, दान है। ऐसे तो फिर तुम ग्रंथियों में कर दो। अकड़ो मत! तो अपने को हटाने लगो मद से। उस उलझते चले जाओगे। फिर तो ग्रंथियों के जंगल में खो जाओगे। आत्मा की दशा में कोई ग्रंथि नहीं है। तो अगर तुम्हें उसे पाना है महावीर कहते हैं, सरल हो रहो। जैसे हो वैसा ही अपने को | तो ग्रंथियों को धीरे-धीरे छोड़ो; जितना बन सके उतना छोड़ो; जानो। धीरे-धीरे ग्रंथियां छूट जाती हैं और जीवन में एक अलग जिस मात्रा में बन सके उतना छोड़ो। कभी-कभी सच होना शुरू तरह की ऊर्जा का आविर्भाव होता है। एक सहजता! एक करो, सरल होना शुरू करो। कभी-कभी तो सचाई को करके भी सरलता! एक भोलापन ! एक बच्चे के जैसा भाव! देखो, जोखिम भी हो तो भी करके देखो। कभी सच भी बोलकर 'निराग, निशल्य...।' देखो; चाहे कुछ खोता हो तो भी बोलकर देखो। दांव लगाओ। और निश्चित ही जिस आदमी के जीवन में कोई ग्रंथि नहीं है, अगर आत्मा निशल्य है तो तुम अपने कांटे जहां-जहां तुम्हें उसके जीवन में कोई राग नहीं होता। उसके पास न बचाने को चुभते हैं उनको पहचानो। दूसरे को दोष मत दो। अपने भीतर कुछ है, न छोड़ने को कुछ है। और जिस आदमी के जीवन में घाव हैं, उनको भरो। जब तक तुम दूसरे को दोष देते रहोगे, वे निग्रंथि है, उसके जीवन में शल्य खो जाते हैं। शल्य यानी कांटे। घाव न भरेंगे। और तब तक तुम बार-बार कांटों से चुभते रहोगे जो चुभते हैं, वह खो जाते हैं। और घाव को संजोते रहोगे। किसी ने तुम्हें गाली दी। तुम कहते हो, इसकी गाली चुभी। अब कौन चाहता है कि गाली कोई दे! लेकिन तुम कैसे रोकोगे गाली के कारण गाली नहीं चुभती-तुम्हारे अहंकार के कारण इस सारे संसार को कि कोई तुम्हें गाली न दे? उपाय एक है कि चुभती है। अहंकार को जाने दो, फिर कोई गाली देता रहे, कोई तुम भीतर से गाली जहां अटकती है, खटकती है, उस जगह को फर्क न पड़ेगा। फिर गाली में कोई शल्य न रह जायेगा। हटा दो। तुम उस घाव को भर लो, फिर सारा संसार गाली देता . 'निशल्यता' महावीर का बड़ा प्यारा शब्द है। वे कहते हैं, रहे तो भी तुम इसके बीच से गुजर जाओगे-निशल्य। भीतर से तुम कांटों को पकड़ने को तैयार हो, वही असली शल्य यह जो वर्णन है आत्मा का, यही पथ भी है पहुंचने का। है। तुमने मान चाहा, इसलिए अपमान का कांटा चुभा। तुम दिल में जौके-वस्लो-यादे-यार तक बाकी नहीं मान ही न चाहते तो अपमान का कांटा न चुभता। तुमने सफलता आग इस घर को लगी ऐसी कि जो था जल गया। चाही, इसलिए विफलता का विषाद आया। तुम सफलता ही न ऐसी आग लगाओ इस घर को, इस बेहोशी को, कि जो भी है मांगते, विफलता का विषाद कभी न आता। तुमने प्रथम खड़े इसमें, जल जाये। ऐसी आग सुलगाओ कि ये सारी ग्रंथियां, ये होना चाहा था, इसलिए तुम रो रहे हो कि तुम प्रथम खड़े न हो सारे शल्य, ये सारे घाव, यह तादात्म्य-शरीर का, मन का, पाये। तुमने अंतिम ही खड़े होने की आकांक्षा की होती, तो तुम्हें विचार का, यह अहंकार, यह मिट्टी के प्रति इतनी ज्यादा कौन हरा पाता? फिर तुम्हारा जीवन निशल्य हो जाता। आकांक्षा, जल जाये! 'सर्वदोषों से विमुक्त, निष्काम, निक्रोध, निर्मान और दिल में जौके-वस्लो-यादे-यार तक बाकी नहीं! निर्मद...।' –कि इनकी याद भी न रह जाये। 386 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org