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________________ सातवां प्रवचन जीवन एक सुअवसर है
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________________ सच्चाम्मि वसदि तवो, सच्चाम्मि संजमो तह वसे तेसा वि गुणा। सच्चं णिबंधणं हि य, गुणाणमुदधीव मच्छाणं / / 17 / / सुवण्णरूप्पस्स उ पव्वया भवे, सिया हु केलाससमा असंखया। नरस्स लुद्धस्स न तेहि किंचि, इच्छा हु आगाससमा अणन्तिया।।१८।। जहा पोम्मं जले जायं, नोवलिप्पइ वारिणा। एवं अलितं कामेहिं, तं वयं बूम माहणं / / 19 / / जीवो बंभ जीवम्मि, चेव चरिया हविज्ज जा जदिणो। तं जाण बंभचेरं, विमुक्क परदेहनित्तिस्स।।२०।। तेल्लों काडविडहनो, कामग्गी विसयरूक्खपज्जलिओ। जोव्वणतणिल्लचारी, जं ण डहइ सो हदइ घण्णो।। जा जा वज्जई रयणी, ण सा पडिनियत्तई। अहम्मं कुणमाणस्स, अफला जन्ति राइओ।।२१।।
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________________ गहला सूत्र : 'सच्चाम्मि वसदि तवो'-सत्य में तप गुणों का वास है।' क्योंकि सत्य आचरण है। का वास है। 'सच्चामि संजमो तह वसे तेसा वि जिसने सत्य को साध लिया, सब सध जायेगा। फिर अलग से गुणा।' 'सत्य में संयम और समस्त शेष गुणों का कुछ साधने को बचता नहीं। क्योंकि जिसने बाहर और भीतर का भी वास है। जैसे समुद्र मछलियों का आश्रय है, वैसे ही समस्त एक ही जीवन शुरू कर दिया, उसके जीवन में हिंसा नहीं हो गुणों का सत्य आश्रय है।' सकती; उसके जीवन में झूठ नहीं हो सकता; उसके जीवन में सत्य का अर्थ समझ लेना अत्यंत अनिवार्य है। क्रोध नहीं हो सकता; उसके जीवन में प्रतिस्पर्धा नहीं हो सकती। साधारणतः हम सोचते हैं, सत्य कोई वस्तु है, जिसे खोजना | असंभव है। सत्य आया तो जैसे प्रकाश आया; अब अंधेरा नहीं है; जैसे सत्य कहीं रखा है, तैयार है; किसी दूर के मंदिर में हो सकता। सुरक्षित है प्रतिमा की भांति-हमें यात्रा करनी है, मंदिर के द्वार लेकिन सत्य न तो कोई वस्तु है-वस्तु होती तो उधार भी मिल खोलने हैं, और सत्य को उपलब्ध कर लेना है। ऐसा सोचा तो जाती। सत्य उधार नहीं मिलता। मेरे पास हो तो भी तुम्हें देने का भूल हो गई शुरू से ही। कोई उपाय नहीं। सत्य कोई सिद्धांत भी नहीं है: नहीं तो एक बार सत्य कोई वस्त नहीं है। सत्य तो एक प्रतीति है, अनुभूति है। कोई खोज लेता, सबके लिए, सदा के लिए मिल जाता। सत्य कहीं तैयार रखा नहीं है। जीयोगे तो तैयार होगा। कहीं मौजूद कोई तर्क की निष्पत्ति भी नहीं है, कि केवल विचार करने से मिल नहीं है कि उघाड़ लेना है। ऐसा नहीं है कि चाबी मिल जायेगी, जायेगा, कि ठीक से सोचा तो मिल जायेगा। नहीं, जो ठीक से ताला खोल लोगे, तिजोड़ी तक पहुंच जाओगे-और धन तो जीएगा, उसे मिलेगा। सोचना काफी नहीं है-जीना पड़ेगा। तिजोड़ी में रखा ही था; जब चाभी न मिली थी तब भी रखा था; दो ढंग से जीने के उपाय हैं। एक, जिसे हम असत्य का जीवन जब ताला न खोला था तब भी रखा था; न खोलते सदा के लिए कहें। तुम कुछ हो, कुछ होना चाहते हो-बस असत्य शुरू हो तो भी रखा रहता—ऐसा नहीं है। सत्य तो जीवंत अनुभूति है। गया। तुम कुछ हो, कुछ और दिखाना चाहते हो-असत्य हो संज्ञा नहीं, क्रिया है। गया। तुम कुछ हो, और तुमने कुछ मुखौटे ओढ़ लिए: होना तो सत्य का अर्थ है: ऐसे जीना, जिस जीवन में कोई वंचना न कुछ था, प्रदर्शन कुछ और हो गया-असत्य हो गया। हो; ऐसे जीना कि बाहर और भीतर का तालमेल हो। सत्य एक इसे समझोगे तो पाओगे कि तुम्हारे तथाकथित धर्मों ने तुम्हें संगीत है-बाहर और भीतर का तालमेल है। तो कदम-कदम सत्य की तरफ ले जाने में सहायता नहीं दी बाधा डाल दी। सम्हालना होगा, क्योंकि सत्य आचरण है। क्योंकि उन सबने तुम्हें पाखंड सिखाया। उन सबने कहा, कुछ इसलिए महावीर कहते हैं : 'सत्य में तप है, संयम है, समस्त | हो जाओ। 139
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________________ जिन सूत्र भागः 1 महावीर कहते हैं, तुम जो हो उसमें ही रह जाओ; कुछ और न करना, यहां-वहां न डोलना। तुम जो हो सकते हो, तुम हो। होने की कोशिश मत करना, अन्यथा असत्य शुरू हो जाएगा। तुम्हें जैसा अस्तित्व ने चाहा है, वैसे तुम हो। इसमें कुछ सुधार कमल कमल हो, गुलाब गुलाब हो; कमल गुलाब होने की की जरूरत नहीं है। दौड़-धूप बंद करनी है। और इस होने में कोशिश न करे, अन्यथा असत्य शुरू हो जाएगा। तुम तुम हो। थिर हो जाना है। नहीं तो तुम डोलते रहोगे-कभी राम होना तुम महावीर होने की कोशिश भी करोगे तो असत्य हो जाएगा। चाहोगे, धनुष उठा लोगे; कभी कृष्ण होना चाहोगे, बांसुरी तुम बुद्ध होने की कोशिश करोगे तो असत्य हो जायेगा। कभी बजाने लगोगे, न बांसुरी बजेगी न धनुष उठेगा। कभी महावीर कोई दूसरा महावीर हो पाया? कितने लोगों ने तो कोशिश की | होना चाहोगे, नग्न खड़े हो जाओगे-प्रदर्शन हो जाएगा। नग्न है! कितने लोगों ने कोशिश नहीं की है! पच्चीस सौ वर्षों में खड़े हो जाओगे लेकिन महावीर का निर्दोष भाव कहां से हजारों लोग महावीर होने की चेष्टा में रत रहे हैं-कोई दूसरा | लाओगे? तुम्हारी नग्नता तो आरोपित होगी। जो भी आरोपित महावीर हो पाया? | है, वह निर्दोष नहीं होता। तुम्हारी नग्नता तो चेष्टित होगी, इतिहास के ज्वलंत तथ्यों को भी हम देखते नहीं, आंखें चुराते प्रयास से होगी। जो भी प्रयास से होता है, वह निर्दोष नहीं हैं। कोई दूसरा कभी बुद्ध हो पाया? कभी कोई दूसरा राम मिला | होता। जो भी चेष्टा से होता है, वह तो जबर्दस्ती होता है। इस जीवन के पथ पर? कभी फिर कृष्ण की बांसुरी दुबारा सुनी महावीर नग्न कभी हुए नहीं उन्होंने पाया। नग्न होने का गई? पुनरुक्ति यहां होती नहीं। अनुकरण यहां संभव नहीं। कोई अभ्यास नहीं किया, जैसा जैन मुनि करते हैं। नग्न होने के यहां प्रत्येक बस स्वयं होने को पैदा हुआ है। और जिसने भी लिए कोई आयोजन, व्यवस्था नहीं जुटाई-अचानक पाया कि दूसरे होने की कोशिश की वह पाखंडी हो जाता है। नग्न हो गए हैं। आदर्शों ने तुम्हें असत्य कर दिया। यह बात बड़ी कठिन कथा है : महावीर घर से निकले तो एक चादर लेकर निकले मालूम होगी; क्योंकि तुम तो सोचते हो, आदर्शवादी जीवन बड़ा थे। सोचा जितना कम होगा परिग्रह, उतनी कम असुविधा महान जीवन है। आदर्शवादी जीवन असत्य का जीवन है। होगी। सोचा था, जितना कम होगा पास में, उतनी चिंता कम आदर्शवादी का अर्थ है कि मैं कुछ हूं, कुछ होने में लगा हूं। होगी। एक चादर लेकर निकले थे। वही ओढ़नी थी, वही सत्यवादी के जीवन का अर्थ है : जो है, मैंने उसे स्वीकार किया; बिछौना था। वही दिन में वस्त्र का काम दे देगी। वर्षा होगी तो अब मैं उसको सरलता से जी रहा हूं; जो है—बुरा भला, सिर पर ढांककर छाता बना लेंगे। राह पर चल रहे थे कि एक शुभ-अशुभ; जैसा हूं, जैसा इस अनंत ने मुझे चाहा है, जैसा इस नंगे भिखारी ने, भिखमंगे ने कहा, कुछ दे जाएं। सब लुटा चुके अनंत ने मझे सरजा है, जैसा इस अनंत ने मझे गढ़ा है-मैं उससे थे। यह एक चादर बची थी, तो आधी फाड़कर उसे दे दी। सोच राजी हूं। एक से चलता है, आधे से भी चल जाएगा। सत्य है परम स्वीकार स्वयं का, और तब शेष गुण जिनको समझ आ जाए तो कम से कम में भी चल जाता है और अपने-आप चले आते हैं, छाया की तरह चले आते हैं। शेष जिनको समझ न हो तो ज्यादा से ज्यादा में भी नहीं चलता। गुणों को खोजना भी नहीं पड़ता। आदर्शवादी खोजता है; सवाल वस्तुओं का नहीं है, सवाल समझ का है। सत्यवादी के पास अपने से चले आते हैं। आदर्शवादी खोजता महावीर ने कहा, इतनी लंबी की जरूरत भी क्या है, थोड़े पैर रहता है और कभी नहीं पाता। सत्यवादी खोजता नहीं, और पा सिकोड़कर सो जाएंगे। तन पूरा न ढंकेगा, थोड़ा कम ढंकेगा, लेता है। हर्ज क्या है! हवा आती-जाती रहेगी, थोड़ी सूरज की किरणें लेकिन सत्य, समझ में आ जाए तो पहला तो सत्य का अर्थ | शरीर को मिलेंगी। है : तुम जैसे हो, निंदा मत करना। तुम जैसे हो, दूसरे से तुलना | लेकिन आगे बढ़े, भागे जा रहे हैं जंगल की तरफ, एक गुलाब मत करना। क्योंकि तुलना में ही स्पर्धा शुरू हो गई। तुम जैसे की झाड़ी से आधी चादर उलझ गई कांटों में। हंसने लगे। तो हो, वैसे को परिपूर्णता से स्वीकार कर लेना। रत्तीभर भी ना-नुच कहा, मर्जी नहीं है अस्तित्व की, कि चादर को ले जाऊं। राह में 1401 .
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________________ SM जीवन एक सुअवसर है कोई मिल गया, आधा बोझ उसने ले लिया। अब यह झाड़ी लिए है यह आयोजन। मांगती है. आधी मझे दे दो। तो आधी चादर हम दिखाते हैं केवल अपने हाथ, अपना चेहरा: शेष शरीर को झाड़ी को दे दी। सोचा कि आधी से चल जाएगा, बिना भी चल | हम ढांके हैं। ढांकने के दो अर्थ हैं। एक तो हम सोचते हैं, जाएगा। आखिर सारे पशु-पक्षी बिना चादर के चला रहे हैं। तो दिखाने योग्य नहीं। दूसरा : ढांकने से जो ढंका है उसमें आकर्षण मैं आदमी हूं; जो पशु-पक्षी कर लेते हैं वह मुझसे न हो बढ़ता है। दूसरे उसे उघाड़ना चाहते हैं। स्त्रियां अगर नग्न हों तो सकेगा? और अब झाड़ी से छुड़ाना शोभा नहीं देता। कोई गौर से देखे भी न। आदि समाजों में, आदिवासियों में जिसने देना ही जाना हो, छुड़ाने का उसका मन नहीं करता। स्त्रियां नग्न हैं, कोई चिंता नहीं करता। जिसने देने का ही रस पाया हो, वह झाड़ी से भी न छीनना स्त्री खूब ढांककर शरीर को चलती है। जो-जो ढंका है, चाहेगा। वह चादर झाड़ी को भेंट कर दी, वे नग्न हो गए। ऐसे उसे-उसे उघाड़ने का सहज मन होता है। महावीर नग्न हुए। | तो एक तो हम छिपाते भी हैं; हम आकर्षित भी करते हैं, यह कोई चेष्टा न थी—यह घटना थी। इसके पीछे कोई लुभाते भी हैं। इसके पीछे आयोजन है। हमारे वस्त्रों के पीछे भी आयोजन न था; न कोई शास्त्र थे, न कोई सिद्धांत था। नग्न आयोजन है। किसी दिन हम थक जाते हैं इन वस्त्रों से, इस होने के लिए कोई विचार न था। यह कोई अनुशासन नहीं था, प्रदर्शन से, इस दिखावे से, इस नाटक से, तो फिर हम दूसरा जो उन्होंने थोपा अपने ऊपर। ऐसा जीवन के सहज प्रवाह में आयोजन करते हैं-नग्न कैसे हो जाएं। लेकिन वह भी पाया कि जो लेकर आए थे वह भी जा चुका। फिर वे नग्न हो आयोजन है। सरलता से तुम कुछ भी न होने दोगे? सहजता से गए। फिर नग्न होने में जो मस्ती पायी तो फिर उन्होंने दुबारा तुम कुछ भी न होने दोगे? तुम्हारे जीवन में क्या कोई भी निर्दोष चादर पाने का कोई आग्रह न रखा। ज्योति न जगेगी? सभी प्रयोजन से होगा? सोच-सोचकर क्योंकि जो नग्न होकर मिला...क्या मिला नग्न होकर? | होगा? हिसाब लगाकर होगा? अपने जीवन का सत्य। अब जैन मुनि हैं, नग्न खड़े हैं। मगर नग्न खड़ा होना उनका हम नग्न होने से डरते क्यों हैं? शरीर को भी हम वैसे ही है, जैसे तुमने दांव लगाया हो जुए पर। वे कहते हैं, नग्न छिपा-छिपाकर दिखाते हैं। उतना ही दिखाते हैं जितना हमें हुए बिना मोक्ष न मिलेगा। इसलिए दिगंबर जैन कहते हैं कि लगता है, दिखाने योग्य है। उतना ही दिखाते हैं जितना लगता है स्त्रियों का मोक्ष नहीं है; क्योंकि स्त्रियों को नग्न करना कठिन कि दूसरों को भी रुचेगा, भाएगा। उसको छिपाते हैं जो हमें होगा, समाज डांवाडोल होगा, अड़चन खड़ी होगी। तो स्त्री को लगता है कहीं दूसरों को न रुचे, न भाए। कपड़े तुम अपने लिए पहले पुरुष-योनि में जन्म लेना पड़ेगा। क्योंकि बिना थोड़े ही पहनते हो, दूसरों के लिए पहनते हो। इसलिए तो जिस पुरुष-योनि में जन्म लिये वह नग्न न हो सकेगी। नग्न न हो दिन घर में बैठे हो, छुट्टी के दिन बैठे हो तो कैसे ही कपड़े पहने सकेगी, तो मोक्ष कैसे? बैठे रहते हो। बाजार चले कि सजे, कि तैयार हए। विवाह में जा अब तुम थोड़ा सोचो! नग्न होने में भी दांव है, हिसाब है, रहे हैं, महोत्सव में जा रहे हैं, तो और सजे, और भी तैयार हुए। गणित है। यह नग्न होना भी शुद्ध सरल नहीं है। महावीर नग्न दूसरे के लिए कपड़े पहनते हैं हम। शरीर के उन हिस्सों को हुए थे, मोक्ष का कोई सवाल न था—एक भिखारी ने चादर मांग छिपाते हैं जो हम चाहते हैं कोई दूसरा जान न ले। ये कपड़े हम ली थी। महावीर नग्न हुए थे, मोक्ष का कोई सवाल न था-एक कोई धूप, सर्दी, वर्षा से बचाने को थोड़े ही पहने हुए हैं। इनके | फूलों की झाड़ी ने चादर छीन ली थी। महावीर नग्न हए थे, पीछे बड़ा मन जुड़ा है, बड़ा आयोजन जुड़ा है। इसके पीछे कभी सोचा भी न था। जिस दिन किसी स्त्री को तुम चाहते हो लुभाना, उस दिन तुम लेकिन तुम जब नग्न होओगे, तो मोक्ष...। तुम्हारी नग्नता भी ज्यादा देर रुक जाते हो दर्पण के सामने। उस दिन ज्यादा ढंग से सौदा है। दाढ़ी बनाते हो, कपड़े सजाते हो. इत्र छिडक लेते हो। दसरे के कपड़ों में ढांका है हमने अपने शरीर को। और ऐसे ही हमने
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________________ जिन सूत्र भागः 1 TIMEIN बहुत-बहुत पर्ते अपने मन में ढांकी हैं। हम वही कहते हैं, जो होने को नहीं है वहां भी असत्य निकलता है। वहां भी सत्य नहीं हम सोचते हैं रुचिकर लगेगा। हम वही कहते हैं, चुन-चुनकर, निकलता, वहां भी असत्य निकलता है। छांट-छांटकर, जो दूसरे को मोहित करेगा और हमारी एक सुंदर कभी तुमने पकड़ा अपने को? ऐसे मौकों पर भी, जब कि प्रतिमा निर्मित होगी। हम वही नहीं कहते जो हमारे भीतर उठता | कोई लाभ भी नहीं दिखाई पड़ता झूठ बोलने में, लेकिन झूठ है। भीतर गालियां भी उठती हों तो भी हम बाहर स्वागत के गीत बोलने की आदत हो गई है! इस आदत को तोड़ना पड़े! कितनी गाए चले जाते हैं। भीतर क्रोध भी उठता है तो भी ओंठों पर ही मजबूत हो, कितने ही हथौड़े मारने पड़ें, पर तोड़ना पड़े। और मुस्कुराहट को फैलाए चले जाते हैं। मुस्कुराहट झूठी होती है। धीरे-धीरे तुम जो हो उसके लिए राजी होना पड़े! हो सकता है, जो भी थोड़ा आंखवाला है, वह देख लेगा, झूठी है; जबर्दस्ती | प्रतिष्ठा खो जाए; क्योंकि हो सकता है, प्रतिष्ठा तुम्हारे असत्य ओंठों को ताना गया है, खींचा गया है-बही नहीं है। | पर ही खड़ी हो। हो सकता है, तुम्हारा सम्मान खो जाए; क्योंकि मुस्कुराहट भीतर से उठी नहीं है। मुस्कुराहट कहीं से आयी नहीं अकसर इस बात की संभावना है कि तुम्हारा सम्मान तुम्हारे उन्हीं है, बस ऊपर से लीपी-पोती गयी है। लेकिन हमारी मुस्कुराहट झूठों पर खड़ा हो, जो तुमने समाज के सामने बोले हैं। तुम्हारा झूठी है। हमारे आंसू झूठे हैं। हमारी सहानुभूति झूठी है, उदासी दिखावा, तुम्हारे प्रदर्शन, तुम्हारे नाटक ही बुनियाद में हों, तो झूठी है। हमारा सारा जीवन एक झूठ का व्यापार है। सम्मान भी गिर जाएगा। गिर जाने दो! इसे ही मैं संन्यास कहता जब महावीर कहते हैं सत्य, तो उनका अर्थ यह नहीं है, जैसा है, जिसको महावीर सत्य कह रहे हैं। गणित में होता है—दो और दो चार, यह सत्य हुआ गणित तुम जैसे हो, तुम बेशर्त उसे स्वीकार कर लो। कठिन होगा। का-ऐसे सत्य की बात महावीर नहीं कर रहे हैं। जब महावीर आग से गुजरना होगा। मगर आग निखारेगी। कचरा जल कहते हैं सत्य, तो वे यह कह रहे हैं कि तुम जो हो, जैसे हो, जाएगा, कुंदन बाहर आएगा। साफ शुद्ध सोना होकर तुम निपट और नग्न, खोल दो अपने को वैसा ही। तुम चिंता न करो निकलोगे। जो सोना आग से निकलने से डर गया वह कभी कि कौन क्या सोचेगा। तुम अपने में कोई भी आयोजन न करो। शुद्ध नहीं हो पाता। जो मनुष्य सत्य की आग से निकलने से जैसे वृक्ष खड़े हैं नग्न और सहज, ऐसे ही तुम भी नग्न और डरता है, वह कभी मनुष्य नहीं हो पाता। सहज हो जाओ। 'सत्य में तप, संयम, शेष समस्त गुणों का वास है।' महावीर का सत्य बड़ा कठिन है। पर महावीर का सत्य बड़ा तो पहला सत्य तो जो मैं हूं, वैसा ही अपने को स्वीकार कर गहरा भी है। और महावीर का सत्य ही सत्य है, दार्शनिकों के | लूं। जो मैं हूं, उससे अन्यथा होने की चेष्टा भी न करूं; क्योंकि सत्य में कुछ भी नहीं रखा है। वह तो बातचीत है, शब्दों का उस सब चेष्टा में ही झूठ प्रवेश करता है। जाल है। वह भी शायद कुछ छिपाने की चेष्टा है। ___ तुम क्रोधी हो, तो तुम क्या करते हो? तुम अक्रोध की साधना तुम अपने को पकड़ो। तुम अपना पीछा करो और | करते हो। मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, 'मन बड़ा अशांत जगह-जगह देखो, चौबीस घंटे में कितना असत्य कर रहे हो! है, शांति की कोई तरकीब बता दें।' क्या करोगे शांति की अनजाने ही! ऐसा भी नहीं कि तुम सभी असत्य जान-जानकर तरकीब का? ऊपर-ऊपर लीपा-पोती कर लोगे, भीतर अशांति बोलते हो, सोच-सोचकर बोलते हो-आदत इतनी प्रगाढ़ हो उबलती रहेगी ज्वालामुखी की तरह। ऊपर-ऊपर तुम शांति के गई है, ऐसे रग-रोएं में समा गई है, ऐसे खून-खून की बूंद में बैठ भवन बना लोगे, ज्वालामुखियों पर बैठे होंगे भवन। भूकंप आते गई है, कि अब तो तुम किए चले जाते हो, कोई हिसाब भी नहीं ही रहेंगे। शांत तुम हो न पाओगे। रखना पड़ता। तुमसे असत्य ऐसे ही निकलता है जैसे वृक्षों से | शांत होने की उतनी जरूरत नहीं है, जितनी अशांति को पत्ते निकलते हैं। अब कुछ करना भी नहीं पड़ता, कुशलता इतनी समझने की जरूरत है। पहले तो अशांति को स्वीकार करने की गहन हो गई है। कभी तो तुम चौंकोगे कि जहां जरूरत भी नहीं जरूरत है कि मैं अशांत हूं। फिर अशांति को पहचानने की होती, वहां भी असत्य निकलता है। जहां उससे कुछ लाभ भी जरूरत है कि यह अशांति क्या है—बिना किसी निंदा के। पहले 142 Main Education International
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________________ जीवन एक सुअवसर है से ही अगर तुमने तय कर लिया कि अशांति बुरी है तो तुम जान जो तुम्हारे पास है उसको ही कैसे रूपांतरित करें, कैसे उसमें से कैसे पाओगे, देख कैसे पाओगे? जो आंखें पहले ही पक्षपात से ही सार को खोजें, असार को त्यागें, कैसे उसको निचोड़ें, इत्र भर गईं और जिन्होंने तय कर लिया कि अशांति बुरी है और बनाएं-तो तुम सत्य हो सकोगे। अशांति से छूटना है, वे आंखें अशांति का अवलोकन न कर | महंगा है यह सौदा। इसलिए महावीर कहते हैं, तप है यह पाएंगी। अवलोकन शुद्ध न होगा, अवलोकन प्रामाणिक न सत्य। इसमें तपना पड़ेगा। यह तपना सस्ता तपना नहीं है कि होगा। तुम पहले से ही तैयार हो। तुम जूझने को तैयार हो, लड़ने धूप में खड़े हो गए और तप लिए। वह तो बच्चे भी कर लेते हैं। को तैयार हो। दुश्मन को कभी कोई भर आंख देख पाता है! वह तो बुद्धू भी कर लेते हैं। उसके लिए तो कोई बुद्धिमत्ता की दश्मन से तो हम आंखें बचा लेते हैं। मित्र को देख पाते हैं। प्रेमी जरूरत नहीं है। जड़ भी कर लेते हैं। वस्तुतः जो जड़बुद्धि हैं, वे को देख पाते हैं। जिससे हमारा प्रेम हो, उसकी आंखों में आंखें ज्यादा आसानी से कर लेते हैं। क्योंकि जितनी जड़बुद्धि होती है डाल पाते हैं। उतनी जिद्दी होती है। और जितनी जड़बुद्धि होती है, उतनी तो अपने को प्रेम करो, अगर सत्य होना है। और जैसे भी हो संवेदनहीन होती है। धूप में भी खड़े हो जाते हैं, थोड़े दिन में बुरे-भले, यही हो, इसके अतिरिक्त कुछ और हो नहीं सकता | उसका भी अभ्यास हो जाता है। उपवास भी कर लेते हैं. उसका था। जो तुम हुए हो, इसको पहचानो, परखो, जांचो, खोलो भी अभ्यास हो जाता है। कुछ लोग हैं जो खड़े हैं वर्षों से, बैठे एक-एक गांठ। अशांति है तो अशांति सही, क्या करोगे? नहीं, लेटे नहीं-उसका भी अभ्यास हो गया। लेकिन तुमने अशांति तुम्हारा तथ्य है। जैसे आग जलाती है, वह उसका | कभी इन लोगों की आंखों में गौर से देखा! वहां तुम्हें प्रतिभा की गुणधर्म है। अशांति तुम्हारे आज का तथ्य है। आज तुम जैसे हो दमक न मिलेगी। वहां तुम्हें आनंद और शांति के स्वर सुनाई न उसमें अशांति के फूल लगते हैं, अशांति के कांटे लगते हैं। पड़ेंगे। इनकी छाती के पास, हृदय के पास कान लगाकर लेकिन देखो, पहचानो, समझो, स्वीकार करो। भागो मत। डरो | सुनना; वहां कोई अनाहत का नाद न मिलेगा। वहां तुम मत। विपरीत की चेष्टा मत करो। अशांति है तो शांति को लाने पाओगे : जड़ता, राख, मरे हुए लोग। के प्रयास में संलग्न मत हो जाओ। वह प्रयास अशांति से बचने अकसर हठी जड़ होता है। और जिसको तुम तप कहते हो, का प्रयास है। बचकर कोई कभी बच नहीं पाया। अगर वह हठ से ज्यादा नहीं है, जिद्द है, क्रोध है, अहंकार है लेकिन कामवासना है तो उतरो। उस गहरे कुएं में उतरो जिसका नाम सत्य नहीं। कामवासना है। उसकी सीढ़ी दर सीढ़ी नीचे जाओ। उसकी | सत्य का तप क्या है? सत्य का तप है : अपने को जैसा है आखिरी तलहटी को खोजो। वहीं से उठेगा ब्रह्मचर्य। जागरण वैसा स्वीकार किया, वैसा ही प्रगट किया; अपने और अपनी से उठेगा ब्रह्मचर्य। कामवासना की पहचान में से ही ब्रह्मचर्य अभिव्यक्ति में कोई भेद न किया। फिर जो हो, समाज अच्छा पैदा होता है। कामवासना में ही छिपा है ब्रह्मचर्य; जैसे | कहे बुरा कहे, लोग चाहें न चाहें, सम्मान दें अपमान दें, फिर जो कामवासना बीज का खोल है और उसके भीतर छिपा है कोमल हो–यह है असली तप। लोग निंदा करें, वह भी स्वीकार है। तंत, कोमल पौधा ब्रह्मचर्य का। तुम समझो, बीज को कैसे लोग प्रशंसा करें, वह भी स्वीकार है। लोग भूल जाएं, उपेक्षा जमीन में बोएं. फिर कैसे सम्हालें-उसी से निकलेगा। कीचड़ करें, वह भी स्वीकार है। यह है तप। सत्य होने को महावीर से जैसे कमल निकलता है, ऐसे ही कामवासना से ब्रह्मचर्य कहते हैं तप। निकलता है। 'सच्चामि वसदि तवो'–सत्य में बसता है तप। संयम भी अशांति का ही सार है शांति। उसी के भीतर से निचोड़ना है। वहीं है। जैसे फलों से इत्र निचोड़ते हैं, ऐसे ही क्रोध से निचुड़कर करुणा इन दो शब्दों को समझ लेना चाहिए, क्योंकि महावीर ने इन दो आती है। शब्दों का साथ-साथ उपयोग किया। तो जो तुम्हारे पास है उसके विपरीत होने में मत लग जाओ। तप का अर्थ है : तुम्हारे भीतर ऐसी बहुत-सी सचाइयां हैं 43
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________________ जिन सत्र भाग जिनके कारण तुम्हें अड़चन होगी। उस अड़चन को झेलने के | है।' उस अंधे ने कहा, 'मालिक! अब और क्या प्रमाण | लिए तैयार होना तप है। तुम्हारे भीतर ऐसी बहुत-सी सचाइयां चाहिए! मारवाड़ी से भीख मांग रहा हूं, इससे बड़ा प्रमाण अंधे हैं; जिनके कारण बहुत-से काम तुम जो अभी कर रहे हो, कल होने का और क्या होगा?' न कर पाओगे। वह जो न करने की अवस्था है, वही संयम है। भिखमंगा भी सोच-समझकर पकड़ता है। भिखमंगा भी समझो! अब तक तुम दान दे रहे थे। लेकिन सच्चा आदमी | जानता है, दान तो कोई देना नहीं चाहता। लेकिन लोग इतने सोचेगा : 'दान का भाव उठा है या नहीं?' दान के लिए ही तो ईमानदार भी नहीं हैं कि कह दें कि हम दान नहीं देना चाहते। सभी दान नहीं देते, और दूसरे कारणों से देते हैं। राह पर लोग दिखाना चाहते हैं कि हम हैं तो दानी। उसी का भिखमंगा भिखमंगा पकड़ लेता है, इज्जत दांव पर लगा देता है। भिखमंगा शोषण कर रहा है। तुम भी लज्जा से भर जाते हो कि अब कैसे भी अकेले में तुमसे भीख नहीं मांगता, क्योंकि अकेले में जानता निकलें! चलो, छुटकारा पाने के लिए देते हो। लेकिन अगर तुम है कि तुम धुतकारोगे। बीच बाजार में पकड़ लेता है। वहां ईमानदार हुए तो तुम कहोगे कि बाबा, मेरे मन में देने की कोई इज्जत सवाल है : 'लोग क्या कहेंगे, दो पैसे भी न देते बने! इच्छा नहीं है। चाहे बाजार में सारी इज्जत प्रतिष्ठा पर लग जाए, लोग हंसेंगे।' वहां तुम दो पैसा देकर दानी बन जाना चाहते हो। चाहे कल दुकान बंद क्यों न हो जाए, चाहे लोग तुम्हें कृपण क्योंकि उस दो पैसे में इज्जत मिल रही है, वह इज्जत तुम दुकान | समझें, बेईमान समझें, धोखेबाज समझें, धन का आग्रही | पर काम में ले आओगे। दो पैसे से तुम दो रुपये निकालोगे। समझें-लेकिन तुम कहोगे कि क्या करूं, मेरे मन में देने का जिसने आज तुम्हें दानी की तरह देख लिया है, कल वही ग्राहक कोई स्वर नहीं है। की तरह दुकान पर होगा, तो तुम जो भी दाम बताओगे, मान | तप पैदा होगा। संयम भी पैदा होगा। क्योंकि बहत-से काम लेगा-आदमी दानी है! बाजार में अगर भिखमंगे ने पकड़ | तुम कर रहे हो इसलिए, क्योंकि करने चाहिए। अगर सब खरीद लिया तो तुम्हें देना ही पड़ता है। | रहे हैं कोई सामान, नया फर्नीचर, नई कार, तो तुम भी खरीद रहे एक मारवाड़ी को एक भिखमंगे ने पकड़ लिया बाजार में। हो—बिना इसकी फिक्र किए कि तुम्हें जरूरत है। तुमने कभी तख्ती लगाए था भिखमंगा कि मैं अंधा हूं। और उसने कहा, सोचा कि तुम जो चीजें खरीद लाते हो, उनकी जरूरत थी? 'सेठ कुछ मिल जाए! बड़े दिन से सिनेमा नहीं गया हूं।' लेकिन अगर पड़ोसी खरीद लाए थे तो तुम भी खरीद लाते हो। मारवाड़ी तो तैयार ही था कि कैसे छूटे! उसने देखा, तुमने कभी सोचा है कि तुम जो कर रहे हो, जो दिखावा कर रहे 'सिनेमा-और तख्ती लगाए हो कि मैं अंधा हूं! सिनेमा जाकर हो, उसकी कोई जरूरत है? लेकिन और दिखावा कर रहे हैं तो करोगे क्या? धोखा देने की कोशिश कर रहे हो?' उस अंधे ने | तुम कैसे रह सकते हो! अगर व्यक्ति सचाई से अपने भीतर कहा, 'दाता! गाने ही सुन लूंगा! अब देने से न बचो।' देखने लगे, तो पाएगा: अचानक बहुत-से काम तो बंद हो गए, 'भीड़ लग गई थी। सेठ ने देखा, बचने का उपाय नहीं है, तो क्योंकि निष्प्रयोजन थे; दूसरे कर रहे थे, दूसरों के दिखावे के पांच पैसे का सिक्का निकालकर उसको देने लगा। अंधे ने कहा लिए तुम भी कर रहे थे। कि सेठ, बैंक में जमा करवा देना। मेरा मार्केट तो मत बिगाड़ लड़की की शादी करनी है, लोग हजारों रुपये लुटाते बाबा! पांच पैसे? हैं-उनके पास नहीं हैं, कर्ज लेकर लुटाते हैं। क्यों? और भिखमंगा भी बाजार में है। उसका भी मार्केट है। सेठ भी दूसरों ने, दुश्मनों ने, पड़ोसियों ने पड़ोसी यानी बाजार में है; उसका भी मार्केट है। न दे तो उसका मार्केट दुश्मन-उन्होंने अपनी लड़की की शादी में इतना लगाया...। बिगड़ता है। ये लोग देख रहे हैं चारों तरफ, वे कहेंगे, अरे अब तुम्हारी इज्जत दांव पर लगी है। तुम्हारे अहंकार का सवाल कृपण! अरे कंजूस! है। तुम्हें भी लगाना होगा। तुम्हें लड़की से कोई मतलब नहीं है। उस सेठ ने कहा कि 'तू पहचाना कैसे कि पांच पैसे का सिक्का न तुमने जो दिया है, वह प्रेम से दिया है। न तुमने लड़की को है, अगर तू अंधा है? अभी मैंने दिया भी नहीं, हाथ में ही लिया दिया है। तुमने अहंकार को दिया है। तुम अपने झंडे को ऊंचा s |
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________________ जीवन एक सुअवसर है करके दिखाना चाहते थे कि देख लो! तुम अगर गौर से अपनी बिलकुल जरूरी थीं। सचाई को पहचानने लगो तो तुम पाओगेः तप भी आता, संयम संयम पैदा होता है, जो व्यक्ति सच्चा होने लगता है। उसे भी आता। दिखाई पड़ता है, जो मेरे लिए जरूरी है वह करूंगा; जो नहीं सौ में निन्यानबे आकांक्षाएं तुम्हारी बिलकुल व्यर्थ हैं। वे तुमने | जरूरी है वह नहीं करूंगा। और ऐसा व्यक्ति धीरे-धीरे भीड़ के न मालूम कैसे उधार ले ली हैं। संक्रामक रोग की तरह तुम्हें लग | बाहर हो जाता है। इस अकेले हो जाने का नाम ही संन्यास है। गई हैं। दुख आएगा तो तुम स्वीकार करोगे। और बहुत-से सुख भीड़ में ही होता है, लेकिन अकेला हो जाता है। अपने ढंग से जो सुख नहीं हैं, तुम दूसरों के कारण ही भोगे चले जाते हो। / जीता है। और अपने ढंग को किसी हालत में भी समझौता नहीं मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन जा रहा था। पूछा, 'कहां जा रहे करता। कुछ भी हो जाए, सत्य की आकांक्षा करनेवाला हो?' उसने कहा, 'शास्त्रीय संगीत सुनने जा रहा हूं।' मैंने समझौतावादी नहीं होता। वह आगे-पीछे नहीं देखता, वह यह कहा, 'लेकिन तुम जानते नहीं।' उसने कहा, 'अब क्या करें! हिसाब नहीं लगाता कि इसके क्या परिणाम होंगे। वह कहता है, सभी जा रहे हैं, न जाओ तो ऐसा लगता है कि शास्त्रीय संगीत जो भी परिणाम होंगे उसका तप झेल लूंगा; जो भी खोना पड़ेगा, नहीं आता। हालांकि कुछ समझ में नहीं आता मेरे। अभी से डरा | उसका संयम हो जाएगा। लेकिन जो मैं हूं, उससे अन्यथा मैं नहीं हुआ हूं कि वहां करूंगा क्या। मुझे तो उलटी घबड़ाहट होती है। होना चाहता। जब आऽऽऽऽ करने लगते हैं, मुझे ऐसा लगता है कि अब पता एक बड़ी क्रांति घटती है, जब तुम अपने से राजी होते हो। जब नहीं कब यहां से निकलना हो पाएगा।' उसने बताया मुझे कि तुम अपने से राजी होते हो तो तुम अपने भीतर उतरने लगते हो। पहले भी एक दफा ऐसा हो चुका है: मैं गया था शास्त्रीय संगीत जब तुम अपने से राजी होते हो और यहां-वहां नहीं दौड़ते और सुनने और जब संगीतज्ञ बहुत आऽऽऽऽ करने लगा तो मैं रोने दूसरों का अनुगमन नहीं करते तो तुम अपने में डूबने लगते हो, लगा। तो मेरे पड़ोस के लोगों ने पछा कि अरे मुल्ला! हमने तो एक डुबकी लगती है। उस डुबकी के माध्यम से तुम अपनी कभी सोचा भी न था कि तुम इतने संगीत के पारखी हो! सतह से ही परिचित नहीं होते, अपने भीतर की गहराइयों से ' उसने कहा, 'पारखी-वारखी कुछ नहीं; यही हालत मेरे बकरे परिचित होने लगते हो। की हुई थी। उसी रात मर गया था। यह आदमी बचेगा नहीं। और एक दिन ऐसी भी घड़ी आती है कि तुम अपने केंद्र पर यह बिलकुल मरने के करीब है। इसलिए मुझे याद आ रही है आरोपित हो जाते हो। वही है धर्म, आत्मज्ञान कहो। बकरे की, कि बेचारा बकरा, इसी तरह शास्त्रीय संगीत 'सत्य में तप, संयम और शेष समस्त गुणों का वास होता है। करते-करते..!' | जैसे समुद्र मछलियों का आश्रय है, वैसे ही सत्य समस्त गुणों का ___ मगर जाना पड़ रहा है, क्योंकि सारा मोहल्ला-पड़ोस जा रहा | आश्रय है।' है। इज्जत का सवाल है। सत्य जैसे सागर है, सभी नदियां उसी में गिर जाती हैं, ऐसे ही तुमने कभी गौर किया अपने को! तुम बहुत-सी चीजों में सत्य जीवन का परम आचरण है; धर्म का पर्यायवाची है; और सम्मिलित हुए हो, जहां तुम कभी जाना न चाहते थे, लेकिन क्या सभी गुण उसी में गिर जाते हैं। करते! तुम भीड़ के हिस्से हो! तुमने कभी-कभी अपनी जरूरतों लेकिन लोग उलटा कर रहे हैं। लोग कहते हैं, तप साध रहे हैं, को भी कुर्बान किया है-उन बातों के लिए जो तुम्हारी जरूरतें न संयम साध रहे हैं क्योंकि सत्य पाना है। महावीर कहते हैं, थीं। तुमने गहने खरीद लिए हैं, पेट को भूखा रखा है। तुमने सत्य साधो, तो संयम और तप अपने से आ जाते हैं। अब इतनी बड़ा मकान बना लिया है, बच्चों के लिए औषधि नहीं जुटा सीधी-सी बात भी कैसे चूक जाती है! ऐसा लगता है, लोग पाए। तुमने कार खरीद ली, बच्चों को शिक्षा नहीं दे पाए। चूकना ही चाहते हैं। अब इतना साफ-सा वचन है। 'सच्चाम्मि तुमने कभी गौर किया है कि तुम वे चीजें कर गुजरे, जो न करते वसदि तवो'...लेकिन किसी जैन मुनि से पूछो, तो वह कहेगा, तो चल जाता; और उन चीजों को न कर पाए जो कि करनी | 'तप करोगे तो ही सत्य मिलेगा। तपश्चर्या के बिना कहीं सत्य 145
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________________ जिन सूत्र भागः1 SSE मिला है!' महावीर ठीक उलटी बात कह रहे हैं कि सत्य के भागे। दिन-रातें ऐसे गुजर जाती हैं जैसे आईं और गईं, पता ही न बिना कहीं तपश्चर्या हुई है। दोनों दुश्मन मालूम पड़ते हैं। यह चला। जैन मुनि महावीर के पीछे चलता हुआ मालूम नहीं पड़ता। यह तो जरा सोचो, जिस दिन भीतर का प्यारा, भीतर का प्रियतम तो उलटा ही काम कर रहा है। यह तो कारण को पकड़कर कार्य | मिल जाए, जब उसके पास सरकने लगोगे तो कहां याद आएगी को लाना चाहता है, जो कि संभव नहीं है। कार्य से कारण आता | भूख की, कहां याद आएगी प्यास की! है। तुम चलते हो, तुम्हारी छाया तुम्हारे पीछे चलती है। महावीर महावीर कहते हैं, उपवास के कारण अनशन हो जाता है। जैन कहते हैं, तुम चलोगे, तुम्हारी छाया तुम्हारे पीछे चलेगी। जैन मुनि कहता है, अनशन करो तो आत्मा के पास जाओगे। मुनि कहता है, छाया का पीछा करो, कहीं ऐसा न हो कि छाया अब बड़ा मुश्किल है मामला। अनशन करनेवाला और भी यहां-वहां चली जाए। शरीर के पास हो जाता है। भूखे मरोगे तो शरीर की ही याद अब तुम अड़चन में पड़ जाओगे, अगर तुमने छाया का पीछा आएगी। नहीं तो करके देख लो। उपवास करके देख लो। किया तो तुम तो उलटी यात्रा पर लग गए। यह तो छाया तुम्हारी जिसको जैन मुनि उपवास कहते हैं, मैं तो अनशन कहता हूं। आत्मा हो गई, तुम छाया हो गए। अनशन करके देख लो। जिस दिन खाना न खाओगे, उस दिन महावीर कहते हैं, सत्य में तप, संयम और शेष समस्त गुणों खाने ही खाने की याद आएगी। उस दिन रास्ते पर गुजरोगे तो न का वास हो जाता है। वे नाम भी नहीं गिनाते। गिनाने की कोई | तो कपड़े की दुकानें दिखाई पड़ेंगी, न जूतों की दुकानें; बस जरूरत नहीं है। कह दिया सागर, तो सभी नदियां आ गईं। आ रेस्तरां, होटल, उन्हीं-उन्हीं के बोर्ड एकदम पढ़ोगे और दिल में ही जाती हैं देर-अबेर। नदी-नदी का कहां-कहां पीछा करोगे? बड़ी तरंगें उठेगी। रसगुल्ले उठेंगे! रसमलाई फैलेगी! संदेशों सागर को ही पकड़ लो। जब सागर ही मिलता हो तो नदियों के के संदेश आएंगे। पीछे क्यों भटकते हो? भूखा आदमी भोजन का ही सोच सकता है। लेकिन अगर जैन मुनि ऐसी बात कहे, तो उसका खुद का क्या इसलिए जैन जब उपवास करते हैं पर्युषण के दिनों में, तो मंदिर हो। क्योंकि वह भी नदियों के पीछे भटक रहा है। में गुजारते हैं ज्यादा समय, क्योंकि घर तो बहुत ज्यादा याद आती इसे समझो। है। मंदिर में किसी तरह भुलाए रखते हैं; शोरगुल मचाए रखते जैनों का शब्द है : 'उपवास'। बड़ा प्यारा शब्द है! उपवास | हैं! और फिर वहां और भी उन्हीं जैसे भूखे बैठे हैं, उनको देखकर शब्द का अर्थ होता है : अपने अंतर्तम में वास। उप+वासः | भी ऐसा लगता है : 'कोई अकेले ही थोड़े ही हैं! अपन ही थोड़े अपने पास होना; अपने निकट होना। इसका खाने न खाने से ही परेशान हो रहे हैं, और भी सब हो रहे हैं।' कुछ भी संबंध नहीं। तुम जिसे उपवास कहते हो, वह अनशन | और एक-दूसरे की हिम्मत बंधाए रखते हैं। बैंड-बाजा बजाए है, उपवास नहीं। फर्क क्या है? महावीर कहते हैं, जब तुम रखते हैं। घर आए तो भोजन की याद आती है। वहां भी भोजन अपने पास हो जाओगे तो उन घड़ियों में भोजन भूल जाता है, की ही याद आती है। तुम जिस चीज के साथ जबर्दस्ती करोगे, क्योंकि शरीर भूल जाता है। जब कोई अपने पास होता है, उसका कांटा चुभेगा। आत्मा के पास होता है। जब आत्मा का सत्संग चलता है, जब महावीर कहते हैं, उपवास हो जाए-अनशन अपने से हो उस रस में कोई डूबता है-कहां याद रहती है भूख-प्यास की! | जाता है। तुमने कभी खयाल नहीं किया ! कोई मित्र घर आ जाए वर्षों का जैन मुनि कहते हैं, अनशन करो तो उपवास होगा। यही पूरी बिछड़ा हुआ, भूख याद पड़ती है ? प्यास पता चलती है ? घंटों की पूरी उलट-बांसी चल रही है, उलटी धारा बह रही है। बीत जाते हैं, बैठे हैं, चर्चा कर रहे हैं, न भूख है न प्यास है। 'समुद्र जैसे सभी नदियों का आश्रय है, ऐसे ही सत्य सभी तुम्हारा प्रेमी मिल जाए, तुम्हारी प्रेयसी मिल जाए— भूख, | धर्मों का आश्रय है। कदाचित सोने और चांदी के कैलाश के प्यास भूल जाती है। घड़ियां ऐसे बीतने लगती हैं जैसे पल समान असंख्य पर्वत हो जाएं तो भी लोभी पुरुष को उनसे कुछ 146]
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________________ जीवन एक सुअवसर है भी नहीं होता, तृप्ति नहीं होती, क्योंकि इच्छा आकाश के समान ज्यादा गरीब हो जाता है। जितना होता जाता है उतनी ही मुश्किल अनंत है।' होती जाती है। इतना हो गया, कुछ भी नहीं हुआ और बेचैनी सोने और चांदी के कैलाश, हिमालय के हिमालय सोने और बढ़ती है। गरीब को तो कम से कम एक चैन रहता है, एक चांदी के, अनंत हिमालय, असंख्य पर्वत तुम्हें उपलब्ध हो जाएं, आशा रहती है कि जब हो जाएगा तो सब ठीक हो जाएगा: तो भी लोभी पुरुष को उनसे कुछ भी नहीं होता। क्योंकि लोभ | अमीर की वह आशा भी छिन जाती है। क्योंकि उसे एक का इससे कोई संबंध ही नहीं है। लोभ का जो तुम्हारे पास है बात...कब तक झुठलाएगा वह कि इतना तो हो गया, और कुछ उससे कोई संबंध ही नहीं है। लोभ की दौड़ तो उसके लिए है जो भी नहीं हुआ! तुम्हारे पास नहीं है। यह कुछ आश्चर्यजनक नहीं है कि जैनों के चौबीस ही तीर्थंकर लोभ के गणित को समझो। जो तुम्हारे पास है, लोभ उसको राजपुत्र थे। यह कुछ आश्चर्यजनक नहीं है कि बुद्ध भी राजपुत्र देखता ही नहीं; जो तुमसे दूर है, उसी को देखता है। | थे। और कृष्ण और राम और हिंदुओं के सारे अवतार शाही घरों एक बहुत मोटा आदमी था। डाक्टर ने उसको सलाह दी कि से आए थे। अगर उनको यह दिखाई पड़ गया, तो इसके दिखाई अब तुम कुछ और नहीं करते तो मरोगे। तुम गोल्फ खेलना शुरू पड़ने के पीछे एक कारण है। उन्होंने दौड़ को देखा। कितना धन कर दो। तो वह सात दिन बाद आया। उसने कहा, बड़ी | था, कुछ सार नहीं मिलता, लोभ तो पकड़े ही रहता है! मुश्किल है। अगर गेंद को बहुत पास रखता हूं तो दिखाई नहीं तो एक बात तय है कि लोभ का जिसने साथ रखा, अतृप्ति की पड़ती! तोंद बड़ी है। अगर बहुत दूर रखता हूं तो चोट नहीं मार छाया बनती रहेगी। लोभ से जिसने तृप्ति चाही, वह असंभव सकता। अब करूं क्या? चाह रहा है जो न हआ है, न होता है, न हो सकता है। तृप्ति लोभ की तोंद बड़ी है। जो पास है वह तो दिखाई ही नहीं अगर चाहनी हो तो लोभ से जागो। पड़ता। जो दूर है वही दिखाई पड़ता है। लेकिन जो दूर है वह 'कदाचित सोने और चांदी के कैलाश के समान असंख्य पर्वत तभी तक दिखाई पड़ता है जब तक दूर है। जैसे-जैसे तुम पास | हो जाएं...।' आए, तुम्हारी तोंद भी गई। जब तुम पास पहुंचे वह तोंद के नीचे 'सुवण्णरूप्पस्स उ पव्वया भवे, सिया हु केलाससमा फिर ढंक गया। अब फिर दूर रखो। तुम्हारे पास दस हजार हैं तो असंखया...' असंख्य हो जाएं कैलास: 'नरस्स लद्धस्स न नहीं दिखाई पड़ते, लाख दिखाई पड़ते हैं। लाख हो गए, वे नहीं तेहि किंचि...' फिर भी लोभी को कोई तृप्ति नहीं। दिखाई पड़ते, वे तोंद के नीचे पड़ गए-दस लाख दिखाई पड़ते | 'इच्छा हु आगाससमा अणन्तिया।' इच्छा आकाश की तरह हैं। अगर यह गणित समझ में आ गया, तो एक हिमालय हो कि अनंत है। बढ़ो, दिखाई पड़ता है, आकाश छू रहा है पृथ्वी को, हजार हिमालय हो जाएं सोने से भरे हुए तुम्हारे पास, क्या फर्क यही कोई दस-पांच मील दूर, क्षितिज पास ही दिखाई पड़ता पड़ता है! है-पहुंचो, कभी मिलता नहीं। जो तुम्हारे पास है, वह लोभ को दिखाई नहीं पड़ेगा; जो दूर है, तुम जितने बढ़ते हो, क्षितिज भी उतना ही तुम्हारे साथ बढ़ता जो नहीं है, वही दिखाई पड़ता है। जाता है। तुम्हारे और क्षितिज के बीच का जो फासला है, वह तो जो इस बात को समझ लेगा, वह एक बात समझ लेगा कि सदा उतना ही रहता है। उसमें कोई अंतर नहीं पड़ता। तुम्हारे लोभ के तृप्त होने का कोई उपाय नहीं है। चोट लग ही नहीं पास क्या है, इससे कुछ भेद नहीं पड़ता। तुम्हारे और तुम्हारे सकती। पास रखो, दिखाई नहीं पड़ता; दूर रखो, दिखाई पड़ता लोभ का अंतर सदा समान रहता है। गरीब और उसकी है-लेकिन दूर को चोट कैसे मारो! चोट तो पास को लग | उपलब्धि में, अमीर और उसकी उपलब्धि में उतना ही अंतर है। सकती थी। इसलिए लोभ कभी तृप्त नहीं होता। तुम यह मत अंतर बराबर है। सोचना कि गरीब आदमी का तृप्त नहीं होता, अमीर का तो हो ऐ शेख! अगर खुल्द की तारीफ यही है जाता होगा। किसी का तृप्त नहीं होता। अमीर गरीब से भी मैं इसका तलबगार कभी हो नहीं सकता। 1471
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________________ जिन सूत्र भागः कवि ने कहा है कि अगर तुम्हारे स्वर्ग की यही प्रशंसा है कि जो जानते हैं, वे कहते हैं 'प्रभु! तुम्हारा मुकाबला चाहते हैं।' वहां सोने के वृक्ष हैं और हीरे-जवाहरातों, मणि-माणिक्य के यह जन्नत मुबारिक रहे जाहिदों को! यह तुम्हारे तथाकथित फूल हैं, और वहां सुंदर स्त्रियां हैं जिनका रूप कभी ढलता नहीं, | त्यागी, विरक्तों को मुबारिक! जिन्होंने यहां बेचारों ने छोड़ा है और वहां शराब के चश्मे हैं तो कवि ने कहा है: ऐ शेख। | इस आकांक्षा में कि वहां पा लेंगे, उनको दे देना जन्नत। यहां अगर खुल्द की तारीफ यही है-अगर तेरे स्वर्ग की यही तारीफ स्त्रियां छोड़ दी हैं, बैठे हैं आसन लगाए, आशा कर रहे हैं है, यही प्रशंसा है, मैं इसका तलबगार कभी हो नहीं अप्सराओं की। उर्वशी से कम में उनका काम न चलेगा। सकता तो फिर मैं इसकी आकांक्षा नहीं कर सकता। क्योंकि चौंक-चौंककर देखते हैं, मेनका अभी तक आई नहीं! सुना तो यह तो फिर वही मूढ़ता है जो संसार की है। इसमें तो कुछ भेद न | था कि आती है। जब ऋषि-मुनि पहुंच जाते हैं समाधि की हुआ। यहां थोड़े-थोड़े ढेर थे सोने-चांदी के, वहां कैलाश जैसे | अवस्था को, समाधि में भी आंख खोल-खोलकर देख लेते हैं, पर्वत होंगे। यहां सुंदर स्त्रियां थीं, लेकिन उनका रूप ढल जाता | मेनका अभी तक आई नहीं। इंद्र का आसन नहीं डोला! लेकिन था; वहां सुंदर स्त्रियां होंगी जिनका रूप न ढलेगा। अंतर जो आंख खोल-खोलकर मेनका को देख रहा है, उसकी समाधि परिमाणात्मक है, गुणात्मक नहीं-क्वांटिटी का है, क्वालिटी | कहां लगी? उसकी समाधि कैसे लगेगी? का नहीं। समाधि का अर्थ है: लोभ व्यर्थ हो गया। ऐसे समाधान का मैं इसका तलबगार कभी हो नहीं सकता! नाम समाधि है। लोभ व्यर्थ हो गया-यहां का नहीं, वहां का जिसने जीवन की लोभ की प्रक्रिया को समझ लिया, वह स्वर्ग नहीं, लोभ मात्र व्यर्थ हो गया। न अब यहां, न अब वहां-अब की मांग न करेगा। और अगर तुम अभी भी स्वर्ग की मांग कर | लोभ की कोई आकांक्षा न रही। जान लिया, पहचान लिया, रहे हो तो तुम समझना कि तुम संसार को ही बार-बार मांगे जा | लोभ का सार पकड़ लिया कि लोभ कभी तृप्त नहीं हो सकता, रहे हो। तुम्हारा स्वर्ग तुम्हारे संसार का ही फैलाव है, इसका ही | इसलिए अब लोभ छोड़ दिया। संसार का लोभ नहीं-लोभ विस्तार है। को ही छोड़ दिया। क्योंकि जब तक लोभ है, लोभ नए संसार तुम जरा स्वर्ग की तारीफ तो देखो! तुम जरा शास्त्रों में स्वर्ग बनाए चले जाता है। लोभ संसार का सूत्र है। का वर्णन तो देखो। जिनने ये शास्त्र लिखे हैं, वे बुद्धिमान नहीं __ तो लोग कहते हैं, 'हम कोई संसारी थोड़े ही हैं। हमने तो सकते। और जिन्होंने स्वर्ग की ये प्रशंसाएं की हैं, वे लोभ से | संसार छोड़ दिया है। हम तो उस सुख की तलाश कर रहे हैं जो मुक्त नहीं हो सकते। वस्तुतः स्वर्ग की इन आकांक्षाओं में लोभ | शाश्वत है।' लेकिन सुख की ही तलाश जारी है। ये लोग, ही सघनीभूत होकर प्रगट हुआ है। जो यहां पूरा नहीं होता, जो | जिनको तुम संन्यासी कहते हो, ऋषि-मुनि कहते हो, ये संसारी क्षितिज यहां नहीं मिलते, उनको पूरा कर लेने की आकांक्षा है। हैं; ये तुमसे भी गहन संसारी हैं। तुम तो छोटे-मोटे से राजी हो, लोभ, स्वर्ग में कह रहा है, घबड़ाओ मत, वहां तुम जहां खड़े हो | छोटा-मोटा टीला सोने का काफी है; ये कहते हैं, सुमेरु पर्वत, वहीं जमीन आसमान को छुएगा। कल्पवृक्ष! आकांक्षा हुई नहीं कैलाश, हिमालय! इनका लोभ तुमसे बड़ा है। 'नरस्स कि पूरी हुई। तुमने चाहा नहीं कि पा लूं क्षितिज को और क्षितिज लुद्धस्स न तेहि किंचि!' इनका लोभ इन्हें गिद्ध बना रहा है। ये खुद चला आएगा। तुम्हें जाना न पड़ेगा। बैठे व्यर्थ की आकांक्षा लगाए। ये जो आकांक्षाएं हैं, ये धार्मिक नहीं हैं ये अधार्मिक आदमी गिद्धों को देखा है। जहां लाश पड़ी है, वहीं मंडराते हैं। ऐसा की आकांक्षाएं हैं। संसार में आकांक्षा हार गई तो वह कहता है, ही लोभ भी गिद्ध की भांति व्यर्थ पर, असार पर, मुर्दे पर मंडराता कोई हर्ज नहीं, स्वर्ग में पूरी कर लेंगे; जो यहां नहीं हुआ उसे वहां | है। और जीवन चूका जाता है। पूरा कर लेंगे। यह जन्नत मुबारिक रहे जाहिदों को यह जन्नत मुबारिक रहे जाहिदों को कि मैं आपका सामना चाहता हूं। कि मैं आपका सामना चाहता हूं। जिसने समझा लोभ के सत्य को, वह लोभ से मुक्त हुआ। 1481
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________________ जीवन एक सुअवसर है ऐसा नहीं कि वह चेष्टा करता है मुक्त होने की; क्योंकि चेष्टा तो मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, अभी तो हम जवान हैं। तभी होती है जब नया लोभ पैदा हो। समझना! तुम तो चेष्टा कब तक रहोगे जवान? टालो! चलो जवानी के नाम पर टालो कर ही नहीं सकते बिना लोभ के। कि जब बूढ़े होंगे तब। बूढ़ा आदमी कहता है, अभी तो मैं जिंदा मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, 'ध्यान तो करें, लेकिन हूं। टालो! जब मर जाओगे तब? कोई न कोई बहाना लाभ क्या? कोई लाभ बताएं।' तो मैं उनसे कहता हूं, तुम आदमी खोजे जाता है। लेकिन असली बहाना यह है कि तुम्हें महर्षि महेश योगी के पास जाओ। वे लाभ बताते हैं। वे कहते वस्तुतः धर्म में कुछ लाभ नहीं दिखाई पड़ रहा। सुनते हो बातें हैं, धन भी बढ़ेगा ध्यान करने से। तब तो अमरीका में इतना महावीरों की, बुद्धों की-चमत्कृत हो जाते हो। सुनते हो प्रभाव है। ध्यान में किसकी चिंता है! धन बढ़ाना है! धन भी गुणगान उस परम दशा का, तुम्हारे भीतर लोभ जगता है कि अरे, बढ़ेगा ध्यान करने से! कभी सोचा नहीं था किसी ने कि ध्यान | हमें यह भी मिल जाए! लेकिन जो तुम्हें मिल रहा है, मिला हुआ करने से धन बढ़ता है। लेकिन अगर लोगों को ध्यान में लगाना है, या मिलने की आशा में है, उसके साथ-साथ मिल जाए! यह हो तो धन बढ़ाने का प्रलोभन देना जरूरी है। धन में ही लोग भी तुम्हारा लोभ ही बनता है। उत्सुक हैं, ध्यान में उत्सुक नहीं। उन्हें ध्यान का पता ही नहीं। और ध्यान?-तुलसी ने कहा है: स्वांतः सुखाय तुलसी ध्यान का अर्थ है : ऐसी मनोदशा जिसके पार कोई लोभ की रघुनाथ गाथा! अपनी प्रसन्नता के लिए, आनंद के लिए! कोई आकांक्षा नहीं है। पूछता है कि क्यों गाए जाते हो राम के गीत! स्वांतः सुखाय अब तुम पूछते हो, 'ध्यान से लाभ क्या?' कुछ भी लाभ तुलसी रघुनाथ गाथा-अपने सुख के लिए। कहीं कोई भविष्य नहीं है। कमल खिलते हैं-लाभ क्या? सरज निकलता में लाभ नहीं है। अभी. यहीं मजा आ रहा है। मैं ही तमसे है-लाभ क्या? परमात्मा है-लाभ क्या? बुद्ध और बोल रहा हूं-स्वांतः सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा। बोल रहा | महावीर सिद्धशिलाओं पर बैठे हैं-लाभ क्या? हूं-न कोई लाभ है, न कोई लोभ है। बोल रहा हूं, ऐसे ही जैसे तुम सोचते हो कि पच्चीस सौ साल में खूब धन इकट्ठा कर पक्षी कलरव कर रहे हैं वृक्षों में। काश, तुम भी ऐसे ही सुन सको लिया होगा महावीर ने सिद्ध शिला पर बैठे-बैठे, खूब दुकान | जैसे मैं बोल रहा हूं! तो ध्यान हो गया। चलाई होगी? लाभ क्या? ध्यान के लिए कुछ करने का थोड़े ही सवाल है। ध्यान तो एक बड रसेल ने लिखा है कि यह पूरब के लोगों का मोक्ष मुझे | समझ की दशा है, एक प्रज्ञा की स्थिति है। जहां लोभ गिर गया घबड़ाता है-सीधा साफ गणित वाला आदमी है-मुझे वहां ध्यान। जहां तुमने लोभ की असारता संपूर्णता से जान ली घबड़ाता है। अनंत काल तक वहां बैठे-बैठे करेंगे क्या? एक और पहचान ली, कि यह असंभव आकांक्षा है, पूरी नहीं होगी। दफा मुक्त हो गए, हो गए; फिर लौटने का तो उपाय भी नहीं है। इसमें तम्हारी कमजोरी का सवाल नहीं है। तम कितने ही संसार से बाहर जाने की व्यवस्था है, भीतर आने की व्यवस्था | बलशाली होओ तो भी पूरी न होगी। नेपोलियन भी पूरी नहीं नहीं है। सोच-समझकर बाहर जाना—गए कि गए; फिर लाख करता, सिकंदर भी पूरी नहीं करता, चंगेज और नादिर और तैमूर सिर मारो, दरवाजा नहीं खुलता। अब तक जो भी मोक्ष गया, कोई पूरी नहीं करते। इसमें कमजोरी या ताकत का सवाल नहीं लौटकर नहीं आ पाया। इसीलिए जो समझदार हैं, वे कहते हैं, है। यह तो ऐसे ही है जैसे कोई रेत से तेल निचोड़ने की कोशिश जल्दी क्या है? वे कहते हैं, पहले इसको तो भोग लें! कर रहा है। इसमें ताकत और कमजोरी का थोड़े ही सवाल है। देख ले इस चश्मे-दहर को दिल भरकर 'नजीर' | रेत में तेल है ही नहीं. तो निचडेगा कैसे? फिर तेरा काहे को इस बाग में आना होगा। लोभ से जो आनंद को निचोड़ने की कोशिश कर रहा है, बस देख लो दिल भरकर! लौटकर आना...कोई आया उलझ गया। कोशिश जारी रहेगी, हाथ कभी कुछ भी न लगेगा। नहीं। इसलिए लोग कहते हैं, थोड़ा टालो मोक्ष को, इतनी जल्दी 'कदाचित सोने और चांदी के कैलाश के समान असंख्य पर्वत कहां है! हो जाएं, तो भी लोभी पुरुष को उनसे कुछ भी नहीं होता।' 1149
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________________ जिन सूत्र भागः / तृप्ति नहीं होती, क्योंकि इच्छा आकाश के समान अनंत है। का ही खेल है। जो है वह तो सदा वर्तमान है। जिस दिन तुम्हारे लोभ की दौड़ में तम कछ गंवा रहे हो, मिलता तो | मन में कोई लोभ न होगा, उसी दिन तम पाओगे, भविष्य भी खो कुछ भी नहीं। एक बात तय है कि मिलता कुछ भी नहीं। लेकिन | गया। लोभ भविष्य है। भय अतीत है। भय के कारण तुम गंवा तुम बहुत कुछ रहे हो। कमा तो कुछ भी नहीं पाते, गंवाते अतीत को पकड़े रहते हो। क्योंकि कुछ तो सहारा चाहिए, नहीं बहुत हो। अपने को गंवा रहे हो। धन के ठीकरे इकट्ठे करोगे, तो गिर पड़ेंगे अखंड खड्ड में। पकड़े रहते हो कि मैं कौन आत्मा को बेचते जाओगे टुकड़ा-टुकड़ा करके; क्योंकि बिना | हूं-जाति, कुल, धर्म, परिवार, वंश, प्रतिष्ठा, पद, उपाधि, अपने को बेचे यह धन इकट्ठा न होगा। बिना अपने को बेचे तुम जो-जो किया उस सबका सार संग्रह-तुम पकड़े रहते हो। लोभ की दौड़ में न लग पाओगे। हर कदम, लोभ की दिशा में अतीत को पकड़े रहते हो, क्योंकि वही लगता है कि उसी को उठाया गया, आत्मघात है। यह जिस दिन जीवन का दीया बुझने पकड़कर लटके रहें, अन्यथा शून्य है विराट। अगर कोई सहारा लगेगा उस दिन पछताओगे, उस दिन रोओगे; लेकिन तब बहुत | न रहा पीछे, शून्य में गिर जाएंगे। देर हो चुकी होगी। अतीत को पकड़े हो-भय के कारण। और भविष्य को तूफाने-दो-गम में न गुल हो सकी मगर जिलाए रखते हो, जगाए रखते हो-लोभ के कारण। लोभ शम-ए-हयात सांस के झोंके से बझ गई। और भय एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इसलिए लोभी कभी बड़े-बड़े तूफान और दुख और दर्द भी जिसे नहीं बुझा पाते, भय से मुक्त नहीं हो सकता और भयभीत कभी लोभ से मुक्त वह जिंदगी बस जरा से सांस के झोंके से बुझ जाती है। नहीं हो सकता। तूफाने-दर्दो-गम में न गुल हो सकी मगर तुमने देखा! जितना तुम्हारे पास धन इकट्ठा होता जाता है, शम-ए-हयात सांस के झोंके से बुझ गई। उतना ही भय भी बढ़ता जाता है। यह बड़ा अजीब मामला है। पर जिस दिन वह जीवन की शमा, वह जीवन की ज्योति सांस लोग धन इकट्ठा करते हैं ताकि भय न रहे जीवन में; लेकिन के जरा-से झोंके में बुझने लगेगी, उस दिन पछताओगे, छाती | जैसे-जैसे धन इकट्ठा होता है, वैसे-वैसे भय बढ़ता है, घटता पीटोगे, रोओगे। मेरे देखे मरते वक्त आदमी का जो रुदन है, नहीं। अब और एक नया भय लगता है कि कोई धन न छीन ले। मरते वक्त आदमी की जो पीड़ा है, वह मृत्यु के कारण नहीं | अब एक नया भय लगता है कि कहीं जो मिला है वह खो न है—वह व्यर्थ गए जीवन के कारण है। सारा जीवन असार | जाए! मिला कुछ भी नहीं है; लेकिन खो न जाए, यह भय गया, हाथ यह मौत आई अब। क्या-क्या चाहा था! | तुम्हारे जीवन को घेर लेता है। तब तुम और ज्यादा दौड़ में लगते कैसी-कैसी चाहत न की थी! कैसे-कैसे इंद्रधनुष फैलाए थे हो कि और कमाओ, और इकट्ठा करो। इसलिए तो देने में डरते वासनाओं के! वह तो कुछ भी हाथ न आया। हाथ यह मौत हो कि कहीं दे दिया तो फिर भय में खड़े हो जाओगे। इकट्ठा होता आई है। जिसको कभी न चाहा था वह हाथ आई। जिसको कभी जाता है, कृपणता बढ़ती चली जाती है। जितना धनी, उतना न मांगा था वह मिली। जिसकी कभी आरजू न की थी, मिन्नत न | ज्यादा कृपण हो जाता है। गरीब तो शायद कुछ दे भी दे, क्योंकि की थी, प्रार्थना न की थी, जिसके लिए परमात्मा के द्वार पर कभी वह कहता है, दे भी दिया, तो क्या हर्ज है, वैसे ही कुछ नहीं है; दस्तक न दी थी, वह मिली। और जो-जो चाहा था वह तो मिला | होता तो बचाते, जब है ही नहीं तो बचाना क्या! अमीर तो कुछ ही नहीं। उसको पाने की कोशिश में जो जीवन मिला था वह भी भी नहीं दे पाता। एक-एक पैसे का हिसाब रखता है। अब गंवा दिया। डरता है कि एक भी पैसा खिसका तो कम हुआ। अब यह बड़े इसलिए धार्मिक व्यक्ति कल का भरोसा नहीं करता। वह कल मजे की बात है, मिला कुछ भी नहीं है। लेकिन कम होने का डर पर नहीं टालता। कल पर टालना ही लोभ है। लोभ का अर्थ है: | पकड़ता है। कोई छीन न ले! धन की आकांक्षा भय से होती कल मिलेगा। धार्मिक व्यक्ति कहता है, अभी जिएंगे, यहीं है-धन पाकर भय और दुगना हो जाता है। जिएंगे। कल होता कहां? भविष्य है कहां? भविष्य तुम्हारे मन तुमने भय के कदम देखे! लोभ के पीछे-पीछे ही चलते हैं। 1500
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________________ जीवन एक सअवसर हम लेकिन धार्मिक व्यक्ति अभी जीता है। इतना अलिप्त कि जल उसे छ भी नहीं पाता: ऐसा निर्दोष कि मैं कल का भरोसा नहीं करता साकी कुछ भी उसे दोषी नहीं कर पाता; ऐसा पुण्य का फूल कि पाप मुमकिन है कि जाम रहे मैं न रहूं। उसे छू भी नहीं पाता। पाप में ही खड़ा रहेगा, क्योंकि जाओगे मैं कल का भरोसा नहीं करता साकी कहां? संसार से भागोगे कहां? जहां जाओगे वहां भी संसार मुमकिन है कि जाम रहे मैं न रहूं। है। जहां भी जाना-आना हो सकता है वहां संसार है। इसलिए आज काफी है। यह क्षण काफी है। इस क्षण में जो जीता है, तो हम संसार को आवागमन कहते हैं—आना-जाना। तो कहां वही ध्यान में है। जिसने पूछा, ध्यान का लाभ क्या, वह कल पर जाओगे? कहां आओगे? जहां भी जाओगे, जहां भी आओगे, सरक गया। उसने पूछा, लाभ क्या? मिलेगा क्या? कृष्ण की | वहीं संसार है। ठहर जाओ! आना-जाना छोड़ो! जहां हो वहीं पूरी गीता बस इतनी-सी ही बात कहती है : ठहर जाओ! भीतर उतरो! इतने भीतर उतर जाओ कि बाहर की मैं कल का भरोसा नहीं करता साकी धुन भी न पहुंचे! इतने भीतर उतर जाओ कि बाजार चलता रहे मुमकिन है कि जाम रहे मैं न रहूं। और चलता रहे और तुम्हें पता भी न चले। इतने भीतर उतर कृष्ण कहते हैं, फलाकांक्षा-रहित होकर तू कर्म में जुट जाओ कि पत्नी पास हो, बच्चे पास हों, मकान हो, घर-गृहस्थी जा-यही ध्यान है, यही धर्म है। फलाकांक्षा यानी लोभ। तू | हो, सब हो-लेकिन तुम भीतर अकेले हो जाओ। यह मत पूछ कि क्या मिलेगा। जैसे ही कोई व्यक्ति लोभ को | सबके बीच जो अकेला हो गया, वही संन्यासी है। भीड़ के हटाकर जीना शुरू कर देता है, उसके जीवन में ध्यान की वर्षा हो | बीच जो भीड़ का हिस्सा न रहा, वही संन्यासी है। जाती है, उसका कण-कण ध्यान से भर जाता है। लोभ के जल में कमलवत–महावीर कहते हैं—यही मेरी व्याख्या है बादल को हटाओ, ध्यान का आकाश उपलब्ध हो जाता है। ब्राह्मण की। "जिस प्रकार जल में उत्पन्न हुआ कमल जल से लिप्त नहीं इसलिए ब्राह्मण कोई जाति से नहीं होता, न जन्म से होता है। होता, इसी प्रकार काम-भोग के वातावरण में उत्पन्न हुआ जो जन्म और जाति से तो सभी शूद्र हैं। ब्राह्मण तो कोई उपलब्धि से मनुष्य उससे लिप्त नहीं होता, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।' होता है। इसलिए महावीर ने वर्ण-व्यवस्था नहीं मानी। महावीर महावीर की ब्राह्मण की परिभाषा: ने कहा, यह कैसे हो सकता है कि कोई कहे, कि मैं ब्राह्मण हूं 'जहा पोम्मं जले जायं, नोवलिप्पइ वारिणा। जन्म से! जन्म से तो कोई ब्राह्मण नहीं होता-जागरण से कोई एवं अलितं कामेहि, तं वयं बूम माहणं।।' ब्राह्मण होता है। होश से कोई ब्राह्मण होता है। कहते हैं हम ब्राह्मण, जो कामवासना में पैदा हुआ, 'जीव ही ब्रह्म है। देहासक्ति से मुक्त होकर मुनि की ब्रह्म के कामवासना में ही जन्मा और बड़ा हुआ, कामवासना के ही जगत | लिए जो चर्या है, वही ब्रह्मचर्य है।' में जीता है लेकिन कमल के फूल की भांति, अलिप्त, जगत बड़ी प्यारी परिभाषा है! ब्राह्मण की जो चर्या है, वह ब्रह्मचर्य। उसे छू नहीं पाता। और प्रत्येक व्यक्ति के भीतर ब्रह्म है। इसे समझें। __ 'जीव ही ब्रह्म है। देहासक्ति से मुक्त व्यक्ति की जो चर्या है, हिंद-शास्त्र भी कहते हैं कि जन्म से तो सभी शूद्र हैं। जन्म से | वही ब्रह्मचर्या है, वही ब्रह्मचर्य है।' तो सभी शूद्र हैं ही; क्योंकि जन्म ही कीचड़ में होता है, जन्म ही | जैसे ही तुम शरीर के द्वारा नहीं जीते, शरीर का उपयोग करते कामवासना में होता है। जन्म ही असंभव है कामवासना के | हो, लेकिन शरीर के मालिक होकर जीते हो; शरीर सेवक हो बिना। तो जन्म से तो सभी कीचड़ हैं, शूद्र हैं। फिर इनमें से | जाता है, तुम स्वामी हो जाते-उसी क्षण तुम्हारे भीतर के ब्रह्म ब्राह्मण कोई बन सकता है, बनना चाहे। सभी बन सकते हैं, का आविष्कार हुआ; तुमने जाना, तुम कौन हो। और उस जानने बनना चाहें। लेकिन ब्राह्मण कोई तभी बनता है, जब कमल की | के बाद जो आचरण है, वही ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य का इतना भांति कीचड़ से दूर होता जाता है-इतना दूर, इतना पार और छोटा-सा अर्थ जो लोग ले लेते हैं–वीर्य-नियमन–काफी 151
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________________ जिन सत्र भाग नहीं है। एक हिस्सा है, लेकिन पूरा नहीं है। पूरा अर्थ तो | दुनिया में इतना अधर्म है। ब्रह्मचर्य शब्द में छिपा हुआ है—ब्रह्म जैसी चर्या, ईश्वर जैसा हम तो 'ताबां' हुए हैं लामजहब आचरण। तुम्हारे भीतर जो ईश्वर छिपा है उससे जब तुम जीने | मजहला देख सब के मजहब का। लगोगे तो ब्रह्मचर्य। स्वभावतः वीर्य-नियमन अपने से आ -यह सब उपद्रव और अज्ञान देखकर, मजहब के नाम पर जाएगा, उसे लाना भी न पड़ेगा। वह उसके साथ आया हुआ | जो चलता है, बहुत-से धार्मिक व्यक्ति अधार्मिक हो जाते हैं। अनुषंग है। तुम्हें पहुंचाना है तुम्हारे भीतर; कहीं और मंदिर नहीं है। तुम्हें अभी तो हम ऐसे जीते हैं जैसे शरीर हैं। शरीर में हैं, ऐसे भी लगाना है तुम्हारी पूजा और अर्चना में; कहीं और देवता नहीं है। नहीं-शरीर ही हैं, ऐसे जीते हैं। अभी तो कोई तुम्हारा शरीर तुम्हें जगाना है वहां, जहां तुम्हारी चैतन्य की धारा उठती काट दे तो तुम समझोगे कि तुम कट गए। अभी तो कोई शरीर है-उसी गंगोत्री में।। को मार डाले तो तुम समझोगे कि तुम मर गए। अभी तो शरीर से धीरे-धीरे उतरो भीतर। शरीर को देखो और पहचानो-मेरी तुमने अपने पृथक 'होने' को जरा भी नहीं जाना, रत्तीभर | खोल है, मेरे घर की दीवाल है। और भीतर उतरो-विचार को फासला नहीं कर पाए। पकड़ो और पहचानो। विचार तुम नहीं हो, क्योंकि तुम उसे भी काट कर पर मुतमईन सैयाद बेपरवा न हो देख सकते हो। और थोड़े भीतर उतरो-वासना, भावना को रूह बुलबुल की इरादा रखती है परवाज का। पकड़ो, पहचानो। यह भी तुम नहीं हो, क्योंकि तुम ऐसी घड़ी अभी तुम्हारे पास नहीं आई कि तुम मौत से कह पहचाननेवाले हो, देखनेवाले हो, द्रष्टा हो। ऐसे चलते चलो, सको चलते चलो-उस घड़ी तक, जब केवल द्रष्टा रह जाए, और काट कर पर मुतमईन सैयाद बेपरवा न हो देखने को कुछ भी न बचे, शुद्ध दर्शन हो! कि हे जल्लाद! पंख काटकर तू निश्चित मत बैठ! जिसके पीछे तुम न जा सको-वही तुम हो। जिसके और रूह बुलबुल की इरादा रखती है परवाज का। पीछे तुम न जा सको—वही तुम हो। ऐसे पीछे पंखों से क्या लेना-देना है, आत्मा उड़ने का इरादा रखती है उतरते-उतरते-उतरते साक्षी पकड़ में आता है। बस उसके पार आकाश में। पंखों को काटकर तू निश्चित मत हो जा। जिस फिर कोई नहीं जा सकता। साक्षी के साक्षी तुम नहीं हो सकते दिन ऐसी घड़ी आती है कि तम मौत से कह सकोगे कि काट डाल हो। आखिरी घड़ी आ गई। बुनियाद आ गई अस्तित्व की। शरीर को, लेकिन इससे निश्चित होकर मत बैठना, क्योंकि मैं भूमि आ गई, जिस पर सब खड़ा है, सारा महल खड़ा है। अनकटा पीछे है। शरीर से थोड़े ही चलता था-शरीर मेरे जिसने इस अस्तित्व की बुनियाद को पकड़ लिया, आत्मा को कारण चलता था। मैं चलता रहूंगा। शरीर से थोड़े ही उड़ता पकड़ लिया, वही ब्राह्मण है। और उसके जीवन की चर्या था-शरीर मेरे कारण उड़ता था। मैं उड़ता रहूंगा। ब्रह्मचर्य है। काट कर पर मुतमईन सैयाद बेपरवा न हो 'विषयरूपी वृक्षों से प्रज्वलित कामाग्नि तीनों लोकरूपी रूह बुलबुल की इरादा रखती है परवाज का। अटवी को जला देती है, किंतु यौवनरूपी तृण पर संचरण करने लेकिन जब तुम अपनी रूह को पहचान सको, आत्मा को में कुशल जिस महात्मा को वह नहीं जलाती या विचलित नहीं अलग शरीर से, तब तुम मौत से भी हंसकर दो बातें कर करती, वह धन्य है।' सकोगे। / 'जो रात बीत रही है वह लौटकर नहीं आती। अधर्म 'जीव ही ब्रह्म है।' जो अपने भीतर उतरेगा, पाएगा। लेकिन करनेवाले की रात्रियां निष्फल चली जाती हैं।' जिनको तुमने धर्म जाना है, वे तुम्हें भीतर तो उतरने की तरफ नहीं | विषयरूपी वृक्षों से प्रज्वलित कामाग्नि तीनों लोकरूपी अटवी ले जाते, वे तुम्हें बाहर के मंदिरों-मस्जिदों में भटकाते हैं। वे को जला रही है। तीनों लोक जल रहे हैं एक ही कामना में। नर्क तुम्हारे हाथ में कुछ झूठे धर्म पकड़ा देते हैं। इन्हीं धर्मों के कारण तो जल ही रहा है। तुमने नर्क की कथाएं सुनी हैं-अग्नि की 152
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________________ जीवन एक सुअवसर है लपटें, और लोग जलाए जा रहे हैं। लेकिन तुमने जरा गौर से विषयरूपी वृक्षों से प्रज्वलित कामाग्नि तीनों. लोकरूपी अपने आसपास देखा, यहां क्या हो रहा है। लपटें यहां भी हैं | अटवी को जला रही है।' और लोग जल रहे हैं! लपटें जरा सूक्ष्म हैं-वासना की हैं, नर्क तो जल ही रहा है; साफ-साफ लपटें हैं उसकी। पृथ्वी काम की हैं, दिखाई नहीं पड़तीं। शायद नर्क की लपटें ज्यादा भी जल रही है। लपटें उतनी साफ नहीं हैं। स्वर्ग भी जल रहा स्थूल होंगी। लेकिन स्थूल लपटों के साथ तो कुछ उपाय भी है; लपटें और भी सूक्ष्म हैं स्वर्ग में। पृथ्वी पर तो लपटें पाप की किया जा सकता है, क्योंकि दिखाई पड़ती हैं। | हैं। स्वर्ग में लपटें पुण्य की हैं-और भी सूक्ष्म हैं। देवता भी मैंने सुना है, एक धनपति मरा। कंजूस था बहुत। तो मरते जल रहे हैं। देवताओं की भी भाग-दौड़ मची है—वही वासना, वक्त उसने अपनी पत्नी से कहा कि मेरे कपड़े पहनाने की लाश | वही उपद्रव, वही नाच-गान। और वहां भी घबड़ाहट है। वहां को कोई जरूरत नहीं है। सम्हालकर रखना, बच्चों के काम आ भी तृप्ति मालूम नहीं होती। जाएंगे। पत्नी ने कहा, 'क्या बात करते हो! नंगे जाने का सोचते कथा है उर्वशी की। पृथ्वी पर विचरण करने आई थी, पुरुरवा हो?' धनपति ने कहा, 'मुझे पता है, कहां जाना है। वहां काफी | के प्रेम में पड़ गई—एक मृत्य के प्रेम में, एक पृथ्वीवासी के प्रेम गर्मी है। तू फिक्र मत कर।' मर गया, लेकिन दूसरे ही दिन रात में। देवताओं से तृप्ति न मिली। देवता नहीं तृप्त कर पाए। जो आकर दरवाजे पर उसने खटखट की। पत्नी घबड़ाई। उसने | भी मिल जाए उससे तृप्ति नहीं होती। अप्सराएं तड़पती हैं पृथ्वी कहा कि सुन, मेरा कोट कमीज सब निकालकर दे। पत्नी ने कहा के पुरुषों के लिए। यह कथा है उर्वशी की। पृथ्वी के लोग तड़फ कि तुम तो कहते थे ऐसी जगह जाना है, जहां काफी गर्मी है। रहे हैं अप्सराओं के लिए। कुछ मामला ऐसा है कि जो जहां है उसने कहा, 'वहीं गया; लेकिन सभी धनी वहां गए हैं, उन्होंने वहां अतृप्त है। कहीं और, कहीं और होते तो तृप्ति हो जाती! सब एयरकंडीशन्ड कर डाला। मरा जा रहा हूं ठंड में, सिकुड़ा 'किंतु यौवनरूपी तृण पर संचरण करने में कुशल जिस जा रहा हूं। कपड़े दे। शीत सर्दी के सब कपड़े दे दे।' महात्मा को वह नहीं जलाती या विचलित नहीं करती, वह धन्य भूत लेने आया है कपड़े। तो नर्क में तो संभव भी है कि एयरकंडीशनिंग हो सके; क्योंकि तीनों लोक जल रहे हैं। जो इस विराट दावानल में अलिप्त लपटें बाहर हैं। यहां इस पृथ्वी पर लपटें बहुत अदृश्य हैं। बाहर खड़ा है, अनजला खड़ा है, जिसे कोई लपट भीतर से नहीं इतनी नहीं हैं जितनी भीतर हैं। रोएं-रोएं में हैं। तुम्हें कोई आग में | पकड़ती, जिसके भीतर कामवासना की लपट नहीं उठती-वह फेंक नहीं रहा है, तुम आग में ही खड़े हो।। धन्य है। कामवासना जलाती है, इसे देखा नहीं! कितना जलाती है। एक ही धन्यता को महावीर जानते हैं और वह धन्यता है किस बुरी तरह जलाती है! तृप्त होती ही नहीं। और तुम जो भी वासना की दौड़ से छूट जाना। क्योंकि वासना की दौड़ से छूटते कामवासना की तृप्ति के लिए आयोजन करते हो, वह सब अग्नि ही तुम आत्मा में थिर हो जाते हो। वासना ऐसे है जैसे हवा के में डाले गए घी की तरह सिद्ध होता है। और बढ़ती है, और थपेड़े, और लौ को डगमागाते हैं तुम्हारी ज्योति की, तुम्हारे दीये लपटें लेती है। एक स्त्री से तृप्त नहीं, दो स्त्री से तृप्त नहीं, तीन को। और वासना से छूट जाना ऐसे है जैसे हवाएं बंद हो गईं और स्त्री से तृप्त नहीं-किससे कौन तृप्त है! | ज्योति निष्कंप हो गई। वासना यानी आत्मा का डगमगाना। पश्चिम के एक बहुत बड़े विचारक मार्शल ने लिखा है कि आत्मा यानी वासना से मुक्त हो जाना। डगमगाहट गई, अकंप जीवन भर के अनुभव के बाद मैं यह कहता हूं कि मुझे सारी हुए! धन्य है वह व्यक्ति! स्त्रियां भी संसार की मिल जाएं, तो भी मैं तृप्त न हो सकूँगा। 'जो-जो रात बीत रही है, वह लौटकर नहीं आती। अधर्म तप्त कोई हो ही नहीं सकता, क्योंकि तप्ति के लिए हम जो करने वाले की रात्रियां निष्फल चली जाती हैं।' करते हैं वह घी सिद्ध होता है। अभ्यास और बढ़ता है। और जड़ें बहादुरशाह जफर ने मरने के पहले कुछ वचन कहे: मजबूत होती हैं मूढ़ता की। न किसी की आंख का नूर हूं 153
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________________ जिन सूत्र भागः1 न किसी के दिल का करार हूं लाओत्सु। कुछ हैं थोड़े-से धन्यभागी, जिन्होंने जीवन इस तरह जो किसी के काम न आ सके से साधा कि मौत से बचकर निकल गये। मैं वो एक मुश्ते-गुबार हूं। उनकी साधना की कला क्या है? -एक मुट्ठी भर धूल! उनकी कला का सूत्र महावीर कह रहे हैं: न किसी की आंख का नूर हूं! 'यौवनरूपी तृण पर संचरण करने में कुशल जिस महात्मा को -अब किसी के आंख की रोशनी नहीं हं मैं। वह नहीं जलाती या विचलित नहीं करती, वह धन्यभागी है।' न किसी के दिल का करार हूं! जो जीवन में रहते-रहते जीवन की वासना के पार हो जाता है, -न किसी के प्रेम, लागत, चाहत का विषय हूं, विषयवस्तु उसे मौत के आगे रास्ता मिल जाता है। क्योंकि मौत सिर्फ वासना की है, तुम्हारी नहीं है। जो किसी के काम न आ सके। अगर तुमने वासना को जीते-जी त्याग दिया, तो फिर तुम्हारी -अब तो बस हालत ऐसी है कि एक मुट्ठी भर धूल हूं जो कोई मौत नहीं है। अन्यथा, जिसको तुम जिंदगी कहते हो वह किसी के भी काम की नहीं है। बस नाममात्र को जिंदगी है—कहने को। जिंदगी जैसा क्या है आदमी की देखी हालत! जानवर मर जाते हैं तो कुछ काम भी वहां? कहां हैं अंगार? राख ही राख है। आ जाते हैं। हाथी मर जाए तो हजारों में बिकता है। जिंदा हाथी मुझसे जो पूछिए तो बहरहाल शक्र है की कीमत कम है, मरे की ज्यादा है। जिंदा को पाले कौन! न यूं भी गुजर गई मेरी यूं भी गुजर गई। राजा-महाराजा रहे, न महंत-अधिपति रहे-हाथी को पाले | बस ऐसी ही गुजरी जाती है। कौन! मर जाता है तो भी कीमत है लेकिन, हड्डियां बिक जाती लोग कहते हैं, सब ठीक है। पर कभी गौर से देखा, जब लोग हैं। आदमी अकेला प्राणी है संसार में जिसका मरने पर कुछ भी, कहते हैं सब ठीक है; तब उनके चेहरे पर कैसी उदासी होती है! कुछ काम नहीं आता; सब जलाने-योग्य सिद्ध होता है; सब | जब वे कहते हैं, सब ठीक है, तो जैसे कहते हैं, कुछ भी ठीक व्यर्थ सिद्ध होता है! कहां! मगर अब कहने से भी क्या सार है! सब ठीक है! जो किसी के काम न आ सके किसी से पूछो, कहो, क्या हालचाल हैं?— कहता है, सब मैं वो एक मुश्ते-गुबार हूं। ठीक है, सब मजे में चल रही है! दिन रात बीते चले जाते हैं.... मुझसे जो पूछिए तो बहरहाल शुक्र है। बजुज गोरेगरीबां नक्शे-पा थे फिर नहीं आगे यूं भी गुजर गई मेरी यूं भी गुजर गई। यहीं तक हर मुसाफिर ने पता पाया है मंजिल का। बस किसी तरह ले-देकर गुजर जाती है। ऐसे-वैसे गुजर जाती लोगों को देखो! बस उनके पैर उनके मरघट तक जाते हैं। है। इसको तुम जिंदगी कहते हो जो ऐसे गजर जाती है? और वहां सब खो जाता है। अगर इसको जिंदगी कहते हो, तो किसी दिन रोओगे, तड़फोगे बजुज गोरेगरीबां नक्शे-पा थे फिर नहीं आगे-बस मौत तक और कहोगेः लोगों के पैरों के चिह्न दिखाई पड़ते हैं। यहीं तक हर मसाफिर ने मैं वो एक मश्तेगबार हं पता पाया है मंजिल का। जो किसी के काम न आ सके...! पर मौत मंजिल है कि कब्र गंतव्य है?...कि चले और गिरे गुजारो मत-जीयो! काटो मत-जीयो! गंवाओ कब्र में, तो जीवन का अर्थ क्या हआ, सार्थकता क्या हुई? नहीं, मत-जीयो। कुछ और भी लोग हुए हैं, थोड़े-से धन्यभागी लोग, जिन्होंने | 'जा जा वज्जई रयणी, ण सा पडिनियत्तई। मौत के आगे का भी पता पाया है। उन्हीं की हम यहां चर्चा कर अहम्मं कुणमाणस्स, अफला जन्ति राइओ।।' रहे हैं—महावीर, बुद्ध, कृष्ण, क्राइस्ट, मोहम्मद, जरथुस्त्र, जो-जो रात बीत रही, लौटकर नहीं आएगी, नहीं आती है। 154
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________________ जीवन एक सुअवसर है 'अधर्म करने वाले की रात्रियां निष्फल चली जाती हैं।' की तैयारी में लगें! तुम्हारे दिवस और रात्रि ध्यान बन जाएं। निष्फल मत जाने दो! ये दिवस-रात महंगे हैं। ये दिवस-रात धीरे-धीरे समाधि का संगीत तुम्हारे भीतर उठे, बजे! तो ही, तुम बड़ी मुश्किल से मिले हैं। किसी दिन जान पाओगे—उसे, जो तुम हो! जान पाओगे उसे, मनुष्य का जन्म दुर्लभ है। कोटि-कोटि योनियों के बाद मनुष्य जो जीवन का अर्थ है, प्रयोजन है! जान पाओगे उसे, जो जीवन हो पाता है। कितनी आकांक्षाओं, कितनी अभीप्साओं को लेकर का गंतव्य है। उसे जाने बिना जो जीते हैं, वे नाममात्र को जीते तुम मनुष्य हए हो! अब इसे ऐसे ही मत गुजर जाने देना ! कितनी है। उसे जानकर जो जीते, वही जीते हैं। उसे बिना जाने जो जीते, चेष्टाओं और कितने जन्मों के यात्रा-पथों के बाद, कितनी देहें, वे तो सिर्फ मरते। उसे जानकर जो मरते भी हैं, तो भी अमृत को कितनी योनियों में भटकने के बाद, सौभाग्य का क्षण आया है कि उपलब्ध होते हैं। तुम मनुष्य हुए हो? इसे ऐसे ही मत गंवा देना! ये दिन फिर लौटकर नहीं आते! ये रातें गईं तो गईं। इनमें एक-एक क्षण को आज इतना ही। इस ढंग से जीना कि क्षण तो जाए, लेकिन अमृत की तुम्हें खबर दे जाए। क्षण तो जाएगा ही, लेकिन इस ढंग से निचोड़ लेना कि क्षण तो चला जाए, लेकिन सार तुम्हारे साथ रह जाए। क्षण तो जाए, लेकिन अमृत का द्वार खोलता जाए। यह जीवन तो जाएगा ही, लेकिन जाते-जाते तुम जीवन का ऐसा उपयोग कर लेना कि तुम इसके कंधों पर चढ़ जाओ और इसके पार देख लो। इसके पार जो है वही असली जीवन है। मनुष्य संक्रमण है, एक सेतु है। पीछे अतीत है-जानवरों का, पशु-पक्षियों का, पत्थरों का, पहाड़ों का। आगे परमात्मा है। तुम बीच के सेतु हो। यह मनुष्य कुछ घर नहीं है, जहां बस जाना है-यह धर्मशाला है, जहां रात टिके, सुबह जाना है। याद रखना, यात्रा अभी होने को है-हो नहीं गई। अभी कुछ घटने को है, घट नहीं गया। तुम सिर्फ एक अवसर हो। अवसर को ही सत्य मत मान लेना। तुम सिर्फ एक संभावना हो, अनंत संभावना, जिसमें अगर ठीक से तैयारी चली, अगर तुम अपने को मंदिर बना पाए, तो किसी दिन, सत्य कहो, ब्रह्म कहो, या जो नाम तुम्हें पसंद हो, जीवन का वह भगवत रूप, भगवत्ता तुममें उतरेगी। तो इस जीवन को तुम भोग ही मत समझना-यह जीवन योग भी है। भोग का अर्थ है : गुजार दो: यह कर लो, वह कर लो: यह भोग लो, वह भोग लो। योग का अर्थ है : गुजारो ही मत, सुधारो भी। योग का अर्थ है; सजाओ, कोई मेहमान आने को है! अतिथि आ रहा पास। ऐसा न हो कि वह आए और तुम्हें तैयार न पाए। तुम तैयार रहना, द्वार खोले! सिंहासन सजाकर रखना! धूप-दीप, अर्चा, फूल, वंदनवार! तुम्हारे क्षण अमृत 155