________________ SM जीवन एक सुअवसर है कोई मिल गया, आधा बोझ उसने ले लिया। अब यह झाड़ी लिए है यह आयोजन। मांगती है. आधी मझे दे दो। तो आधी चादर हम दिखाते हैं केवल अपने हाथ, अपना चेहरा: शेष शरीर को झाड़ी को दे दी। सोचा कि आधी से चल जाएगा, बिना भी चल | हम ढांके हैं। ढांकने के दो अर्थ हैं। एक तो हम सोचते हैं, जाएगा। आखिर सारे पशु-पक्षी बिना चादर के चला रहे हैं। तो दिखाने योग्य नहीं। दूसरा : ढांकने से जो ढंका है उसमें आकर्षण मैं आदमी हूं; जो पशु-पक्षी कर लेते हैं वह मुझसे न हो बढ़ता है। दूसरे उसे उघाड़ना चाहते हैं। स्त्रियां अगर नग्न हों तो सकेगा? और अब झाड़ी से छुड़ाना शोभा नहीं देता। कोई गौर से देखे भी न। आदि समाजों में, आदिवासियों में जिसने देना ही जाना हो, छुड़ाने का उसका मन नहीं करता। स्त्रियां नग्न हैं, कोई चिंता नहीं करता। जिसने देने का ही रस पाया हो, वह झाड़ी से भी न छीनना स्त्री खूब ढांककर शरीर को चलती है। जो-जो ढंका है, चाहेगा। वह चादर झाड़ी को भेंट कर दी, वे नग्न हो गए। ऐसे उसे-उसे उघाड़ने का सहज मन होता है। महावीर नग्न हुए। | तो एक तो हम छिपाते भी हैं; हम आकर्षित भी करते हैं, यह कोई चेष्टा न थी—यह घटना थी। इसके पीछे कोई लुभाते भी हैं। इसके पीछे आयोजन है। हमारे वस्त्रों के पीछे भी आयोजन न था; न कोई शास्त्र थे, न कोई सिद्धांत था। नग्न आयोजन है। किसी दिन हम थक जाते हैं इन वस्त्रों से, इस होने के लिए कोई विचार न था। यह कोई अनुशासन नहीं था, प्रदर्शन से, इस दिखावे से, इस नाटक से, तो फिर हम दूसरा जो उन्होंने थोपा अपने ऊपर। ऐसा जीवन के सहज प्रवाह में आयोजन करते हैं-नग्न कैसे हो जाएं। लेकिन वह भी पाया कि जो लेकर आए थे वह भी जा चुका। फिर वे नग्न हो आयोजन है। सरलता से तुम कुछ भी न होने दोगे? सहजता से गए। फिर नग्न होने में जो मस्ती पायी तो फिर उन्होंने दुबारा तुम कुछ भी न होने दोगे? तुम्हारे जीवन में क्या कोई भी निर्दोष चादर पाने का कोई आग्रह न रखा। ज्योति न जगेगी? सभी प्रयोजन से होगा? सोच-सोचकर क्योंकि जो नग्न होकर मिला...क्या मिला नग्न होकर? | होगा? हिसाब लगाकर होगा? अपने जीवन का सत्य। अब जैन मुनि हैं, नग्न खड़े हैं। मगर नग्न खड़ा होना उनका हम नग्न होने से डरते क्यों हैं? शरीर को भी हम वैसे ही है, जैसे तुमने दांव लगाया हो जुए पर। वे कहते हैं, नग्न छिपा-छिपाकर दिखाते हैं। उतना ही दिखाते हैं जितना हमें हुए बिना मोक्ष न मिलेगा। इसलिए दिगंबर जैन कहते हैं कि लगता है, दिखाने योग्य है। उतना ही दिखाते हैं जितना लगता है स्त्रियों का मोक्ष नहीं है; क्योंकि स्त्रियों को नग्न करना कठिन कि दूसरों को भी रुचेगा, भाएगा। उसको छिपाते हैं जो हमें होगा, समाज डांवाडोल होगा, अड़चन खड़ी होगी। तो स्त्री को लगता है कहीं दूसरों को न रुचे, न भाए। कपड़े तुम अपने लिए पहले पुरुष-योनि में जन्म लेना पड़ेगा। क्योंकि बिना थोड़े ही पहनते हो, दूसरों के लिए पहनते हो। इसलिए तो जिस पुरुष-योनि में जन्म लिये वह नग्न न हो सकेगी। नग्न न हो दिन घर में बैठे हो, छुट्टी के दिन बैठे हो तो कैसे ही कपड़े पहने सकेगी, तो मोक्ष कैसे? बैठे रहते हो। बाजार चले कि सजे, कि तैयार हए। विवाह में जा अब तुम थोड़ा सोचो! नग्न होने में भी दांव है, हिसाब है, रहे हैं, महोत्सव में जा रहे हैं, तो और सजे, और भी तैयार हुए। गणित है। यह नग्न होना भी शुद्ध सरल नहीं है। महावीर नग्न दूसरे के लिए कपड़े पहनते हैं हम। शरीर के उन हिस्सों को हुए थे, मोक्ष का कोई सवाल न था—एक भिखारी ने चादर मांग छिपाते हैं जो हम चाहते हैं कोई दूसरा जान न ले। ये कपड़े हम ली थी। महावीर नग्न हुए थे, मोक्ष का कोई सवाल न था-एक कोई धूप, सर्दी, वर्षा से बचाने को थोड़े ही पहने हुए हैं। इनके | फूलों की झाड़ी ने चादर छीन ली थी। महावीर नग्न हए थे, पीछे बड़ा मन जुड़ा है, बड़ा आयोजन जुड़ा है। इसके पीछे कभी सोचा भी न था। जिस दिन किसी स्त्री को तुम चाहते हो लुभाना, उस दिन तुम लेकिन तुम जब नग्न होओगे, तो मोक्ष...। तुम्हारी नग्नता भी ज्यादा देर रुक जाते हो दर्पण के सामने। उस दिन ज्यादा ढंग से सौदा है। दाढ़ी बनाते हो, कपड़े सजाते हो. इत्र छिडक लेते हो। दसरे के कपड़ों में ढांका है हमने अपने शरीर को। और ऐसे ही हमने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org