________________ जिन सत्र भाग नहीं है। एक हिस्सा है, लेकिन पूरा नहीं है। पूरा अर्थ तो | दुनिया में इतना अधर्म है। ब्रह्मचर्य शब्द में छिपा हुआ है—ब्रह्म जैसी चर्या, ईश्वर जैसा हम तो 'ताबां' हुए हैं लामजहब आचरण। तुम्हारे भीतर जो ईश्वर छिपा है उससे जब तुम जीने | मजहला देख सब के मजहब का। लगोगे तो ब्रह्मचर्य। स्वभावतः वीर्य-नियमन अपने से आ -यह सब उपद्रव और अज्ञान देखकर, मजहब के नाम पर जाएगा, उसे लाना भी न पड़ेगा। वह उसके साथ आया हुआ | जो चलता है, बहुत-से धार्मिक व्यक्ति अधार्मिक हो जाते हैं। अनुषंग है। तुम्हें पहुंचाना है तुम्हारे भीतर; कहीं और मंदिर नहीं है। तुम्हें अभी तो हम ऐसे जीते हैं जैसे शरीर हैं। शरीर में हैं, ऐसे भी लगाना है तुम्हारी पूजा और अर्चना में; कहीं और देवता नहीं है। नहीं-शरीर ही हैं, ऐसे जीते हैं। अभी तो कोई तुम्हारा शरीर तुम्हें जगाना है वहां, जहां तुम्हारी चैतन्य की धारा उठती काट दे तो तुम समझोगे कि तुम कट गए। अभी तो कोई शरीर है-उसी गंगोत्री में।। को मार डाले तो तुम समझोगे कि तुम मर गए। अभी तो शरीर से धीरे-धीरे उतरो भीतर। शरीर को देखो और पहचानो-मेरी तुमने अपने पृथक 'होने' को जरा भी नहीं जाना, रत्तीभर | खोल है, मेरे घर की दीवाल है। और भीतर उतरो-विचार को फासला नहीं कर पाए। पकड़ो और पहचानो। विचार तुम नहीं हो, क्योंकि तुम उसे भी काट कर पर मुतमईन सैयाद बेपरवा न हो देख सकते हो। और थोड़े भीतर उतरो-वासना, भावना को रूह बुलबुल की इरादा रखती है परवाज का। पकड़ो, पहचानो। यह भी तुम नहीं हो, क्योंकि तुम ऐसी घड़ी अभी तुम्हारे पास नहीं आई कि तुम मौत से कह पहचाननेवाले हो, देखनेवाले हो, द्रष्टा हो। ऐसे चलते चलो, सको चलते चलो-उस घड़ी तक, जब केवल द्रष्टा रह जाए, और काट कर पर मुतमईन सैयाद बेपरवा न हो देखने को कुछ भी न बचे, शुद्ध दर्शन हो! कि हे जल्लाद! पंख काटकर तू निश्चित मत बैठ! जिसके पीछे तुम न जा सको-वही तुम हो। जिसके और रूह बुलबुल की इरादा रखती है परवाज का। पीछे तुम न जा सको—वही तुम हो। ऐसे पीछे पंखों से क्या लेना-देना है, आत्मा उड़ने का इरादा रखती है उतरते-उतरते-उतरते साक्षी पकड़ में आता है। बस उसके पार आकाश में। पंखों को काटकर तू निश्चित मत हो जा। जिस फिर कोई नहीं जा सकता। साक्षी के साक्षी तुम नहीं हो सकते दिन ऐसी घड़ी आती है कि तम मौत से कह सकोगे कि काट डाल हो। आखिरी घड़ी आ गई। बुनियाद आ गई अस्तित्व की। शरीर को, लेकिन इससे निश्चित होकर मत बैठना, क्योंकि मैं भूमि आ गई, जिस पर सब खड़ा है, सारा महल खड़ा है। अनकटा पीछे है। शरीर से थोड़े ही चलता था-शरीर मेरे जिसने इस अस्तित्व की बुनियाद को पकड़ लिया, आत्मा को कारण चलता था। मैं चलता रहूंगा। शरीर से थोड़े ही उड़ता पकड़ लिया, वही ब्राह्मण है। और उसके जीवन की चर्या था-शरीर मेरे कारण उड़ता था। मैं उड़ता रहूंगा। ब्रह्मचर्य है। काट कर पर मुतमईन सैयाद बेपरवा न हो 'विषयरूपी वृक्षों से प्रज्वलित कामाग्नि तीनों लोकरूपी रूह बुलबुल की इरादा रखती है परवाज का। अटवी को जला देती है, किंतु यौवनरूपी तृण पर संचरण करने लेकिन जब तुम अपनी रूह को पहचान सको, आत्मा को में कुशल जिस महात्मा को वह नहीं जलाती या विचलित नहीं अलग शरीर से, तब तुम मौत से भी हंसकर दो बातें कर करती, वह धन्य है।' सकोगे। / 'जो रात बीत रही है वह लौटकर नहीं आती। अधर्म 'जीव ही ब्रह्म है।' जो अपने भीतर उतरेगा, पाएगा। लेकिन करनेवाले की रात्रियां निष्फल चली जाती हैं।' जिनको तुमने धर्म जाना है, वे तुम्हें भीतर तो उतरने की तरफ नहीं | विषयरूपी वृक्षों से प्रज्वलित कामाग्नि तीनों लोकरूपी अटवी ले जाते, वे तुम्हें बाहर के मंदिरों-मस्जिदों में भटकाते हैं। वे को जला रही है। तीनों लोक जल रहे हैं एक ही कामना में। नर्क तुम्हारे हाथ में कुछ झूठे धर्म पकड़ा देते हैं। इन्हीं धर्मों के कारण तो जल ही रहा है। तुमने नर्क की कथाएं सुनी हैं-अग्नि की 152 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org