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________________ जिन सूत्र भागः कवि ने कहा है कि अगर तुम्हारे स्वर्ग की यही प्रशंसा है कि जो जानते हैं, वे कहते हैं 'प्रभु! तुम्हारा मुकाबला चाहते हैं।' वहां सोने के वृक्ष हैं और हीरे-जवाहरातों, मणि-माणिक्य के यह जन्नत मुबारिक रहे जाहिदों को! यह तुम्हारे तथाकथित फूल हैं, और वहां सुंदर स्त्रियां हैं जिनका रूप कभी ढलता नहीं, | त्यागी, विरक्तों को मुबारिक! जिन्होंने यहां बेचारों ने छोड़ा है और वहां शराब के चश्मे हैं तो कवि ने कहा है: ऐ शेख। | इस आकांक्षा में कि वहां पा लेंगे, उनको दे देना जन्नत। यहां अगर खुल्द की तारीफ यही है-अगर तेरे स्वर्ग की यही तारीफ स्त्रियां छोड़ दी हैं, बैठे हैं आसन लगाए, आशा कर रहे हैं है, यही प्रशंसा है, मैं इसका तलबगार कभी हो नहीं अप्सराओं की। उर्वशी से कम में उनका काम न चलेगा। सकता तो फिर मैं इसकी आकांक्षा नहीं कर सकता। क्योंकि चौंक-चौंककर देखते हैं, मेनका अभी तक आई नहीं! सुना तो यह तो फिर वही मूढ़ता है जो संसार की है। इसमें तो कुछ भेद न | था कि आती है। जब ऋषि-मुनि पहुंच जाते हैं समाधि की हुआ। यहां थोड़े-थोड़े ढेर थे सोने-चांदी के, वहां कैलाश जैसे | अवस्था को, समाधि में भी आंख खोल-खोलकर देख लेते हैं, पर्वत होंगे। यहां सुंदर स्त्रियां थीं, लेकिन उनका रूप ढल जाता | मेनका अभी तक आई नहीं। इंद्र का आसन नहीं डोला! लेकिन था; वहां सुंदर स्त्रियां होंगी जिनका रूप न ढलेगा। अंतर जो आंख खोल-खोलकर मेनका को देख रहा है, उसकी समाधि परिमाणात्मक है, गुणात्मक नहीं-क्वांटिटी का है, क्वालिटी | कहां लगी? उसकी समाधि कैसे लगेगी? का नहीं। समाधि का अर्थ है: लोभ व्यर्थ हो गया। ऐसे समाधान का मैं इसका तलबगार कभी हो नहीं सकता! नाम समाधि है। लोभ व्यर्थ हो गया-यहां का नहीं, वहां का जिसने जीवन की लोभ की प्रक्रिया को समझ लिया, वह स्वर्ग नहीं, लोभ मात्र व्यर्थ हो गया। न अब यहां, न अब वहां-अब की मांग न करेगा। और अगर तुम अभी भी स्वर्ग की मांग कर | लोभ की कोई आकांक्षा न रही। जान लिया, पहचान लिया, रहे हो तो तुम समझना कि तुम संसार को ही बार-बार मांगे जा | लोभ का सार पकड़ लिया कि लोभ कभी तृप्त नहीं हो सकता, रहे हो। तुम्हारा स्वर्ग तुम्हारे संसार का ही फैलाव है, इसका ही | इसलिए अब लोभ छोड़ दिया। संसार का लोभ नहीं-लोभ विस्तार है। को ही छोड़ दिया। क्योंकि जब तक लोभ है, लोभ नए संसार तुम जरा स्वर्ग की तारीफ तो देखो! तुम जरा शास्त्रों में स्वर्ग बनाए चले जाता है। लोभ संसार का सूत्र है। का वर्णन तो देखो। जिनने ये शास्त्र लिखे हैं, वे बुद्धिमान नहीं __ तो लोग कहते हैं, 'हम कोई संसारी थोड़े ही हैं। हमने तो सकते। और जिन्होंने स्वर्ग की ये प्रशंसाएं की हैं, वे लोभ से | संसार छोड़ दिया है। हम तो उस सुख की तलाश कर रहे हैं जो मुक्त नहीं हो सकते। वस्तुतः स्वर्ग की इन आकांक्षाओं में लोभ | शाश्वत है।' लेकिन सुख की ही तलाश जारी है। ये लोग, ही सघनीभूत होकर प्रगट हुआ है। जो यहां पूरा नहीं होता, जो | जिनको तुम संन्यासी कहते हो, ऋषि-मुनि कहते हो, ये संसारी क्षितिज यहां नहीं मिलते, उनको पूरा कर लेने की आकांक्षा है। हैं; ये तुमसे भी गहन संसारी हैं। तुम तो छोटे-मोटे से राजी हो, लोभ, स्वर्ग में कह रहा है, घबड़ाओ मत, वहां तुम जहां खड़े हो | छोटा-मोटा टीला सोने का काफी है; ये कहते हैं, सुमेरु पर्वत, वहीं जमीन आसमान को छुएगा। कल्पवृक्ष! आकांक्षा हुई नहीं कैलाश, हिमालय! इनका लोभ तुमसे बड़ा है। 'नरस्स कि पूरी हुई। तुमने चाहा नहीं कि पा लूं क्षितिज को और क्षितिज लुद्धस्स न तेहि किंचि!' इनका लोभ इन्हें गिद्ध बना रहा है। ये खुद चला आएगा। तुम्हें जाना न पड़ेगा। बैठे व्यर्थ की आकांक्षा लगाए। ये जो आकांक्षाएं हैं, ये धार्मिक नहीं हैं ये अधार्मिक आदमी गिद्धों को देखा है। जहां लाश पड़ी है, वहीं मंडराते हैं। ऐसा की आकांक्षाएं हैं। संसार में आकांक्षा हार गई तो वह कहता है, ही लोभ भी गिद्ध की भांति व्यर्थ पर, असार पर, मुर्दे पर मंडराता कोई हर्ज नहीं, स्वर्ग में पूरी कर लेंगे; जो यहां नहीं हुआ उसे वहां | है। और जीवन चूका जाता है। पूरा कर लेंगे। यह जन्नत मुबारिक रहे जाहिदों को यह जन्नत मुबारिक रहे जाहिदों को कि मैं आपका सामना चाहता हूं। कि मैं आपका सामना चाहता हूं। जिसने समझा लोभ के सत्य को, वह लोभ से मुक्त हुआ। 1481 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340107
Book TitleJinsutra Lecture 07 Jivan Ek Suavsar Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Jinsutra_MP3_and_PDF_Files
File Size35 MB
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