________________ जीवन एक सुअवसर है भी नहीं होता, तृप्ति नहीं होती, क्योंकि इच्छा आकाश के समान ज्यादा गरीब हो जाता है। जितना होता जाता है उतनी ही मुश्किल अनंत है।' होती जाती है। इतना हो गया, कुछ भी नहीं हुआ और बेचैनी सोने और चांदी के कैलाश, हिमालय के हिमालय सोने और बढ़ती है। गरीब को तो कम से कम एक चैन रहता है, एक चांदी के, अनंत हिमालय, असंख्य पर्वत तुम्हें उपलब्ध हो जाएं, आशा रहती है कि जब हो जाएगा तो सब ठीक हो जाएगा: तो भी लोभी पुरुष को उनसे कुछ भी नहीं होता। क्योंकि लोभ | अमीर की वह आशा भी छिन जाती है। क्योंकि उसे एक का इससे कोई संबंध ही नहीं है। लोभ का जो तुम्हारे पास है बात...कब तक झुठलाएगा वह कि इतना तो हो गया, और कुछ उससे कोई संबंध ही नहीं है। लोभ की दौड़ तो उसके लिए है जो भी नहीं हुआ! तुम्हारे पास नहीं है। यह कुछ आश्चर्यजनक नहीं है कि जैनों के चौबीस ही तीर्थंकर लोभ के गणित को समझो। जो तुम्हारे पास है, लोभ उसको राजपुत्र थे। यह कुछ आश्चर्यजनक नहीं है कि बुद्ध भी राजपुत्र देखता ही नहीं; जो तुमसे दूर है, उसी को देखता है। | थे। और कृष्ण और राम और हिंदुओं के सारे अवतार शाही घरों एक बहुत मोटा आदमी था। डाक्टर ने उसको सलाह दी कि से आए थे। अगर उनको यह दिखाई पड़ गया, तो इसके दिखाई अब तुम कुछ और नहीं करते तो मरोगे। तुम गोल्फ खेलना शुरू पड़ने के पीछे एक कारण है। उन्होंने दौड़ को देखा। कितना धन कर दो। तो वह सात दिन बाद आया। उसने कहा, बड़ी | था, कुछ सार नहीं मिलता, लोभ तो पकड़े ही रहता है! मुश्किल है। अगर गेंद को बहुत पास रखता हूं तो दिखाई नहीं तो एक बात तय है कि लोभ का जिसने साथ रखा, अतृप्ति की पड़ती! तोंद बड़ी है। अगर बहुत दूर रखता हूं तो चोट नहीं मार छाया बनती रहेगी। लोभ से जिसने तृप्ति चाही, वह असंभव सकता। अब करूं क्या? चाह रहा है जो न हआ है, न होता है, न हो सकता है। तृप्ति लोभ की तोंद बड़ी है। जो पास है वह तो दिखाई ही नहीं अगर चाहनी हो तो लोभ से जागो। पड़ता। जो दूर है वही दिखाई पड़ता है। लेकिन जो दूर है वह 'कदाचित सोने और चांदी के कैलाश के समान असंख्य पर्वत तभी तक दिखाई पड़ता है जब तक दूर है। जैसे-जैसे तुम पास | हो जाएं...।' आए, तुम्हारी तोंद भी गई। जब तुम पास पहुंचे वह तोंद के नीचे 'सुवण्णरूप्पस्स उ पव्वया भवे, सिया हु केलाससमा फिर ढंक गया। अब फिर दूर रखो। तुम्हारे पास दस हजार हैं तो असंखया...' असंख्य हो जाएं कैलास: 'नरस्स लद्धस्स न नहीं दिखाई पड़ते, लाख दिखाई पड़ते हैं। लाख हो गए, वे नहीं तेहि किंचि...' फिर भी लोभी को कोई तृप्ति नहीं। दिखाई पड़ते, वे तोंद के नीचे पड़ गए-दस लाख दिखाई पड़ते | 'इच्छा हु आगाससमा अणन्तिया।' इच्छा आकाश की तरह हैं। अगर यह गणित समझ में आ गया, तो एक हिमालय हो कि अनंत है। बढ़ो, दिखाई पड़ता है, आकाश छू रहा है पृथ्वी को, हजार हिमालय हो जाएं सोने से भरे हुए तुम्हारे पास, क्या फर्क यही कोई दस-पांच मील दूर, क्षितिज पास ही दिखाई पड़ता पड़ता है! है-पहुंचो, कभी मिलता नहीं। जो तुम्हारे पास है, वह लोभ को दिखाई नहीं पड़ेगा; जो दूर है, तुम जितने बढ़ते हो, क्षितिज भी उतना ही तुम्हारे साथ बढ़ता जो नहीं है, वही दिखाई पड़ता है। जाता है। तुम्हारे और क्षितिज के बीच का जो फासला है, वह तो जो इस बात को समझ लेगा, वह एक बात समझ लेगा कि सदा उतना ही रहता है। उसमें कोई अंतर नहीं पड़ता। तुम्हारे लोभ के तृप्त होने का कोई उपाय नहीं है। चोट लग ही नहीं पास क्या है, इससे कुछ भेद नहीं पड़ता। तुम्हारे और तुम्हारे सकती। पास रखो, दिखाई नहीं पड़ता; दूर रखो, दिखाई पड़ता लोभ का अंतर सदा समान रहता है। गरीब और उसकी है-लेकिन दूर को चोट कैसे मारो! चोट तो पास को लग | उपलब्धि में, अमीर और उसकी उपलब्धि में उतना ही अंतर है। सकती थी। इसलिए लोभ कभी तृप्त नहीं होता। तुम यह मत अंतर बराबर है। सोचना कि गरीब आदमी का तृप्त नहीं होता, अमीर का तो हो ऐ शेख! अगर खुल्द की तारीफ यही है जाता होगा। किसी का तृप्त नहीं होता। अमीर गरीब से भी मैं इसका तलबगार कभी हो नहीं सकता। 1471 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org