Book Title: Jain Sangh aur Sampradaya
Author(s): Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Z_Tirthankar_Mahavir_Smruti_Granth_012001.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन संघ -और सम्प्रदाय प्रत्येक धर्म में यथासमय संघ और सम्प्रदाय को कैसे जानेगा? तू मिथ्या दृष्टि है, मैं सम्यकदृष्टि हूँ खड़े हो जाते हैं। उनके पीछे सैद्धान्तिक मतभेद की मेरा कथन सार्थक है, तेरा कथन निरर्थक है। पूर्व कथपृष्ठभूमि रहती है । सैद्धान्तिक मतभेद धर्म और नीय बात तूने पीछे कही और पश्चात् कथनीय बात आगे सम्प्रदाय के विकास की कहानी है। इतिहास इसका कही । तेरा वाद बिना विचार का उल्टा है । तूने वाद साक्षी है कि जिन पन्थों में मतभेद नहीं हो पाये वे आरम्भ किया पर निगृहीत होगया। इस वाद से बचने प्रायः अपने प्रवर्तकों अथवा प्रसारकों के साथ ही के लिए इधर-उधर भटक । यदि इस वाद को समेट कालकवलित हो गये और जिनमें वैचारिक मतभेद सकता है तो समेट । इस प्रकार नातपुत्तीय निगण्ठों में पैदा हुए वे उत्तरोत्तर विकसित होते गये । मानों युद्ध ही हो रहा था। जैनधर्म भी इस तथ्य से दूर नहीं रहा । भगवान महावीर के निर्वाण के उपरान्त ही उनके संघ में मतभेद डा० भागचन्द्र जैन भास्कर प्रगट हो गये । पालि त्रिपिटक इसका साक्षी है। वहाँ कहा गया है कि एक बार भगवान बुद्ध शाक्य देश में एवं मे सुतं एक समयं भगवा सक्केसु विहरति सामग्राम में बिहार कर रहे थे। उसी समय निगण्ठ- सामगामे । तेन खो पेन समयेन निगण्ठो नातपुत्तो नातपुत्त का निर्वाण पावा में हो गया था। उनके पावायं अधुनाकालङ्कतो होति । तस्य कालङ्कि निर्वाण के बाद ही उनके अनुयायियों (निगण्ठों) में करियाय भिन्ना निगण्ठा द्वधिक जाता मण्डनजाता मतभेद पंदा हो गये । वे दो भागों (पक्षों) में विभक्त कलहजाता विवादापन्ना अञ्जमज मुखसत्तीहि हो गये थे और परस्पर संघर्ष और कलह कर रहे वितदन्ता विहरन्ति- “न त्वं इमं धम्मविनयं आजाथे। निगण्ठ एक-दूसरे को वचन-बाणों से बींधते हुए नासि, अहं छमं धम्मविनयं आजानामि । किं त्वं धम्मविवाद कर रहे थे-"तुम इस धर्म विनय को नहीं जानते, विनयं आजानिस्सस्मि ? मिच्छापटिपन्नो त्वमसि, मैं इस धर्म विनय को जानता हूँ।" तू इस धर्म विनय अहमस्मि सम्मापटिपन्नो । सहितं मे असहितं ते । 1. विशेष देखिये, लेखक के ग्रन्थ Jainism in Buddhist Literature तथा बौद्ध संस्कृति का इतिहासप्रथम अध्याय (आलोक प्रकाशन, नागपुर)। Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरे वचनीयं पच्छ अवच पच्छा वचनीयं पुरे अवच । अधिचिणं ते विपरावत्तं । आरोपितो ते वादो । निग्गहितोसि चर वादप्यमोक्खाय; निष्पठेहि वा सचे पहोसी" ति । वयो वेव सो मजे निम्गण्ठे सु नातपुत्ति येसु वसति । * आचार्य कालगणना भगवान महावीर के निर्वाण के बाद दिगम्बर परम्परानुसार 62 वर्ष में क्रमश तीन केवली और 100 वर्ष में पाँच अतकेवली इस प्रकार हुए। केवली 1. गौतम गणधर - 12 वर्ष 2. सुधर्मा स्वामी (लोहार्य ) - 12 वर्ष 3. जम्बू स्वामी - 38 वर्ष श्रुतकेबली 1. विष्णुकुमार ( नन्दि ) 2. नन्दिमित्र 3. अपराजित 4. गोवर्धन 5. भद्रबाहु 62 वर्ष - 14 वर्ष - 16 वर्ष - 22 वर्ष - 19 वर्ष - 29 वर्ष 100 वर्ष इस प्रकार महावीर निर्वाण के 162 वर्ष ( 62 + 100 ) पर्यन्त केवली और धतकेवली रहें । श्वेताम्बर परम्परानुसार महावीर के जीवन काल में ही 9 गणवरों का निर्वाण हो गया था। मात्र इन्द्रभूति गौतम और आर्य सुधर्मा शेष रह गये थे। महावीर निर्वाण में उत्तरवर्ती आचार्यों की कालगणना स्थविरावली में इस प्रकार दी गई है - 1. सुधर्मा 2. जम्बू 3. प्रभव 4. शप्पंभव 5. यशोभद्र 6. संभूतिविजय 7. भद्रबाहु 8. स्थूलभद्र १०० - 20 वर्ष - 44 वर्ष 11 वर्ष - 23 वर्ष - 50 वर्ष 8 वर्ष - 14 वर्ष -45 - यहाँ यह दृष्टव्य है कि जैन परम्परानुसार हेमचन्द्र ने 'परिशिष्ट पर्वन' में भगवान महावीर निर्वाण के 155 वर्ष बाद चन्द्रगुप्त मौर्य का राज्यकाल बताया है | आचार्य हेमचन्द्र अवन्ती राजा पालक के राज्यकाल के 60 वर्षों की गणना को किसी कारणवश भूल गये थे। अर्थात् महावीर के निर्वाण (15560) 215 वर्ष बाद चन्द्रगुप्त का राज्याभिषेक हुआ होगा । 2. सुत्तपिटक, मज्झिमनिकाय, सामगामसुत्तन्त दीधनिकाय, पथिकवस्य पासादिकसुत, संगीतिसुत्त 3. घवला भाग 1, पु० 66, तिलोयपण्णसि, 4. 1482-84; जयचवला: भाग 1, पृ० 85, इन्द्र तावतार 72-78 नन्दिसंघीय प्राकृत पट्टावली जैन सिद्धान्त भास्कर, भाग 1, किरण 4. 215 वर्ष उक्त आचार्य कालगणना के अनुसार दिगम्बर पर - म्परा में भगवान महावीर निर्वाण के 12 वर्ष तक गौतम Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणधर का काल माना है। और उनके बाद उनके चन्द्रगुप्त मौर्य की समयकालीनता सिद्ध नहीं होती। उत्तराधिकारी क्रमशः सुधर्मा और जम्बूस्वामी को उन दोनों महापुरुषों के बीच वही प्रसिद्ध 60 वर्ष का रखा है पर स्थविरावली में गौतम के स्थान पर सुधर्मा अन्तर पड़ता है। अर्थात् यदि भद्रबाहु के समय वीर का काल 20 वर्ष (12+8=20) रखा है जबकि नि. 162 में 60 वर्ष बढ़ा दिये जायें तो चन्द्रगुप्त कल्पसूत्र पूर्ववर्ती परम्परा को ही स्वीकार कर महावीर मौर्य और भद्रबाहु की समय कालीनता ठीक बन जाती निर्वाण के बाद 12 वर्ष गौतम का और 8 वर्ष है। अथवा चन्द्र गुप्तमौर्य के काल में से 60 वर्ष पीछे सुधर्मा का काल निर्धारण करता है। यह काल गणना हटा दिये जायें जैसा कि हेमचन्द्राचार्य ने महावीर जो जैसी भी हो, पर दोनों परम्पराए भद्रबाह के कुशल निर्वाण से 215 वर्ष की परम्परा के स्थान में 155 वर्ष नेतृत्व को सहर्ष स्वीकार करती हुई दिखाई देती हैं। पश्चात् चन्द्रगुप्त का राजा होना लिखा है तो दोतों की अन्तर यहाँ यह है कि दिगम्बर परम्परा महावीर समयकालीनता बन सकती है । निर्वाण के 162 वर्ष बाद भद्रबाह का निर्वाण समय मानती है जबकि श्वेताम्बर परम्परा 170 वर्ष बाद । श्वेताम्बर पपम्परानुसार महावीर निर्वाण के यहाँ लगभग आठ वर्ष का कोई विशेष अन्तर नहीं । उपरान्त जैन संघ परम्परा इस प्रकार दी जाती है:पर समस्या यह है कि इस कालगणना से भद्रबाह और आचार्य कालगणना राजकाल 1. गौतम 2. सुधर्मा 3. जम्बू -12 वर्ष ---- 8 वर्ष -44 वर्ष पालक --60 वर्ष 4. प्रभव 5. स्वयंभू 6. यशोभद्र 7. संभूतिविजय 8. भद्रबाहु 9. स्थूलभद्र -11 वर्ष -23 वर्ष -50 वर्ष - 8 वर्ष -14 वर्ष -45 वर्ष नवनन्द -155 वर्ष 215 वर्ष -215 बर्ष 4. जैन साहित्य का इतिहास : पूर्व पीठिका, पृ० 342. 5. पट्टावली समुच्चय, पृ० 17. १०१ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10. महागिरि 11. मुहस्ति 12. गुणसुन्दर 13. गुणसुन्दर - शेष 14. कालिक 15. स्कन्दिल 16. रेवतीमित्र 17. आर्य भंगु 18. बहुल 19. श्रीवत 20. स्वाति 21. हारि 22. श्वामायं 23. शाण्डिल्य आदि 24. भद्रगुप्त 25. श्री गुप्त 26. वजूस्वामी 215 - 30 वर्ष - 46 वर्ष - 32 वर्ष - 12 वर्ष - 40 वर्ष 38 वर्ष . 36 वर्ष -20 वर्ष = 111 वर्ष 580 वर्ष इस प्रकार महावीर निर्वाण के 581 वर्ष व्यतीत हुए। उसके बाद पुष्यमित्र और नाहड़ का राज्यकाल 24 वर्ष का रहा । तदनन्तर । (581+24=605 वर्ष बाद ) शक संवत् की उत्पत्ति हुई। आगे भ० महावीर निर्वाण के 980 वर्ष पूर्ण हो जाने पर महागिरि की परम्परा में उत्पन्न देवद्विगणि क्षमाश्रमण ने कल्पसूत्र की रचना की । 6. कल्पसूत्र स्थविरावली. 7. जबघवला, भाग-1, प्रस्तावना, पृ० 23-30. हरिवंशपुराण १०२ मौर्य वंश पुष्यमित्र ( 1 ) बलमित्र ( 2 ) भानुमित्र (1) नरवाहन ( 2 ) गर्दभिल्ल (3) शक ( 1 ) विक्रमादित्य ( 2 ) धर्मादित्य (3) भाइल 215 - 108 वर्ष - 30 वर्ष - 60 वर्ष - 40 वर्ष - 13 वर्ष 4 वर्ष दिगम्बर परम्परानुसार जिस दिन म० महावीर का परिनिर्वाण हुआ, उसी दिन गौतम गणधर ने केवलज्ञान प्राप्त किया। गौतम के सिद्ध हो जाने पर सुधर्मा स्वामी केवली हुए सुधर्मा स्वामी के सिद्ध हो जाने पर जम्बूस्वामी अन्तिम केवली हुए । इन तीनों केवलियों का काल 62 वर्ष है। उनके बाद नन्दी नन्दिमित्र, अपराजिल, गोवर्धन और भद्रबाहु ये पाँच श्र ुतकेवली - 60 वर्ष 40 वर्ष - 11 वर्ष 581 वर्ष Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हए जिनका समय 100 वर्ष है। उनके बाद विशाख, प्राकृत पट्टावली में में उधत इन दोनों परम्पराओं में प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जय, नाग, सिद्धार्थ, धतिसेन, विजय, आचायों की कालगणना में 118 वर्ष (683-565 = बुद्धिल, गंगदेव और सुधर्म ये ग्यारह आचार्य क्रमश: 118) का अन्तर दिखाई देता है। पर यह अन्तर दश पूर्वधारी हुए। उनका काल 18 3 वर्ष है । उनके एकादशांगधारी आचारांगधारी आचायों में ही है, बाद नक्षत्र, जयपाल, पाण्डु, घ्र वसेन और कस ये पांच केवली, श्रतकेवली और दशपूर्वधारी आचार्यों में नहीं। आचार्य ग्यारह अंग के धारी हुए। उनका समय 220 वर्ष है। उनके बाद भरत क्षेत्र में कोई भी आचार्य आचार्य भद्रबाहु ग्यारह अंग का धारी नहीं हुआ। तदनन्तर सुभद्र, यशो आचार्य कालगणना की उक्त दोनों परम्पराओं को मद्र, यशोबाहु और लोह ये चार आचार्य आचारंग के देखने से यह स्पष्ट है कि जम्बूस्वामी के बाद होनेवाले धारी हुए। ये सभी आचार्य शेष ग्यारह अंग और युगप्रधान आचार्यों में भद्रबाह ही एक ऐसे आचार्य चौदह पूर्व के एकदेश के ज्ञाता थे। उनका समय हए हैं, जिनके व्यक्तित्व को दोनों परम्पराओं ने एक 118 वर्ष होता है। इस प्रकार गौतम गणधर से स्वर में स्वीकार किया है । बीच में होनेवाले प्रभव, लेकर लोहाचार्य पर्यन्त कुल काल का परिणाम 683 वर्ष हुआ। अहंबली आदि आचार्यों का समय इस काल शष्यभव, यशोभद्र और सभूतिविजय आचार्यों के विषय में एकमत नहीं। भद्रबाह के विषय में भी जो परिमाण के बाद आता है । मनभेद हैं वह बहुत अधिक नहीं । दिगम्बर परम्परा भद्रबाह का कार्यकाल 29 वर्ष मानती है और उनका (1) तीन केवली -62 वर्ष निर्वाण महावीर निर्वाण के 162 वर्ष बाद स्वीकार (2) पांच श्रुतकेवली -100 वर्ष करती है पर श्वेताम्बर परम्परानुसार यह समय 170 (3) 11 दश पूर्वधारी -18 3 वर्ष बर्ष बाद बताया जाता है और उनका कार्यकाल कुल (4) पांच ग्यारह अंग के धारी-220 वर्ष चौदह वर्ष माना जाता है। जो भी हो दोनों परम्प(5) चार आचारंग धारी -118 वर्ष राओं के बीच आठ वर्ष का अन्तराल कोई बहत अधिक कुल-683 वर्ष नहीं है। परम्परानुसार श्रुतकेवली भद्रबाहु निमित्तज्ञानी नन्दिसंघ की प्राकृत पट्टावली कुछ भिन्न है। उसमें थे। उनके ही समय संघभेद प्रारम्भ हुआ है । अपने उपयुक्त लोहाचार्य तक का समय कुल 565 वर्ष निमित्तज्ञान के बल पर उत्तर में होनेवाले द्वादश वर्षीय बताया है। पश्चात् एकांगधारी अर्हबलि, माधनन्दिद, दुष्काल का आगमन जानकर भद्रबाहु ने बारह हजार धरसेन, भूतबलि, और पुष्पदन्त इन पांच आचार्यों का मनि संघ के साथ दक्षिण की ओर प्रस्थान किया। काल क्रमशः 28, 21, 191 30, और 20 वर्ष निदिष्ट चन्द्रगुप्त मौर्य भी उनके साथ थे। अपना अन्त निकट है। इस दृष्टि से पुष्पदन्त और भूतबली का समय जानकर उन्होंने संघ को चोल, पाण्डय प्रदेशों की ओर 683 वर्ष के ही अन्तर्गत आ जाता है। इस प्रकार जाने का आदेश दिया और स्वयं श्रमणवेलगोल में ही धवला आदि ग्रन्थों में उल्लिखित और नन्दिसंघ की कालमप्र नामक पहाड़ी पर समाधिमरण पूर्वक देह 8. धवला, आदिपुराण तथा श्रतावतार आदि ग्रन्थों में भी लोहाचार्य तक के आचार्यों का काल 683 वर्ष ही दिया गया है। १०३ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्याग किया । इस आशय का छटी शती का एक लेख वारस अंग वियाणं चउदश पूव्वंग विडलवित्थरणं । पुनाड़ के उत्तरी भाग में स्थित चन्द्रगिरि पहाड़ी पर सूयाणि भद्दाबाह गमय गुरू भयवओ जयओ ।।62।। उपलब्ध हुआ है । उसके सामने बिन्ध्यगिरि पर ___ बोहपाहुड़ की इन दोनों गाथाओं से यह स्पष्ट है चामुण्डराय द्वारा स्थापित गोमटेश्वर बाहबलि के 57 है कि आचार्य कुन्दकुन्द के समय तक भद्रबाहु नाम के फीट ऊँची एक भव्य मूर्ति स्थित है । उत्तरभारत में रह दो आचार्य हो चुके थे । प्रथम श्र तकेवली भद्रबाहु जाने वाले साधुओं और क्षुलकों में दुर्भिक्ष जन्य परिस्थितियों के कारण आचार शैथिल्य घर कर गया और जिन्हें कुन्दकुन्द ने गमकगुरू कहा है और द्वितीय उत्तरकाल में यही घटना संघभेद का कारण बनी। परि भद्रबाहु जो कुन्दकुन्द के साक्षात गुरू थे। ये दोनो व्यक्तित्व पृथक पृथक हुए हैं अन्यथा कुन्दकुन्द दोनों शिष्टपर्वन के अनुसार भद्रबाहु दुष्काल समाप्त होने के बाद गाथाओं में भद्रबाह शब्द का प्रयोग नहीं करते । दक्षिण से मगध वापिस हए और पश्चात् महाप्राण ध्यान करने नेपाल चले गये । इसी बीच जैन साधु संघ ने आचारंग, सूत्रकृतांग, सूर्यप्रजप्ति, व्यवहार, कल्प अनभ्यासवश बिस्मृत श्रत को किसी प्रकार से स्थूल- दशाश्र तस्कन्ध, उत्तराध्यायन, आवश्यक, दशवैकालिक भद्र के नेतत्व में एकादश अंगों का सकलन किया और और ऋषिभाषित ग्रन्थों पर किसी अन्य भद्रबाह अवशिट द्वादशवें अंग दृष्टिवाद के संकलन के लिए नेपाल नामक विद्वान ने नियुक्तियाँ लिखी हैं. ऐसी एक परमें अवस्थित भद्रबाह के पास अपने कुछ शिष्यों को भेजा म्परा है। ये नियंतिकार ततीय भद्रबाह होना चाहिए उनमें स्थूलभद्र ही वहाँ कुछ समय रुक सके जिन्होंने जो छेद स्त्रकार भद्रबाह से भिन्न रहे होंगे। नियुक्तियों उसका कुछ यथाशक्य अध्ययन कर पाया । फिर भी में आर्यवज, आर्यरक्षित, पादलिप्ताचार्य, कालिकाचार्य, दृष्टिवाद का संकलन अवशिष्ट ही रह गया। शिवभूति आदि अनेक आचार्यों के नामों के उल्लेख मिलते हैं। ये आचार्य निश्चित ही उक्त प्रथम और देवसेन के भाव संग्रह में भद्रबाहु के स्थान पर द्वितीय भद्रबाह से उत्तरकाल में हुए हैं। शान्ति नामक किसी अन्य आचार्य का उल्लेख है । भद्रारक रत्नन्द ने संभबता देवसेन और हरिषेण की भद्रबाहु के चरित विषयक भद्रबाहचरित्र के कथाओं को सम्बद्ध करके भद्रबाहचरित्र लिखा है। अतिरिक्त ओर भी अनेक ग्रन्थ उपलब्ध हैं-देवाधिप्रथम भद्रबाहु का कोई भी ग्रन्थ प्रामाणिक तौर पर क्षमाश्रमण की स्थविरावली, भद्रेश्वर सूरी की कहानहीं मिलता । छेद सूत्रों का कर्ता उन्हें अवश्य कहा वलि, तित्थोगालि प्रकीर्णक, आवश्यक चूर्णि, आवश्यक गया है पर यह कोई सुनिश्चित परम्परा नहीं। पर हरिभद्रीया वृत्ति तथा हेमचन्द्रसूरी के त्रिषष्ठिश लाका पुरुषचरित का परिशिष्टपर्वन् । उनमें उपलब्ध आचार्य कुन्दकुन्द ने बोहपाहुड में अपने गुरु का विविध कथाएँ ऐतिहासिक सत्य के अधिक समीप नहीं नाम भद्रबाह लिखा है और उन भद्रबाहु को गमक गुरू लगती । मेरुतुंगाचार्य की प्रबन्ध चिन्तामणि और कहा है। कून्दकुन्द के ये गमकगुरू निश्चित हो थत- राजेश्वर सरि का प्रबन्ध कोष. भी इस सम्बन्ध में केवली भद्रबाहु रहे होंगे। दृष्टव्य है। मिल सहवियारो हओ भासासुत्त सू जं जिणे कहियं । प्रबन्धचिन्ता मणि' में एक किंवदन्ति का उल्लेख है सो तह कहियं णयं रीसेण य भद्दबाहुस्स ॥ 61 कि भद्रबाहु बराहमिहिर के सहोदर थे । ब्राह्मण परिवार 9. प्रबन्धचिन्तामणि, सं. मुनि जिनविजय, सिंघी जैन सीरिज प्रकाश 5,5-118. Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में उत्पन्न ये दोनों भाई कुशल निमित्तवेत्ता थे। इन भद्रबाह संहिता आदि ग्रन्थों की रचना तथा नैमित्तिक दोनों भाइयों में भद्रबाह ने जैन दीक्षा ले ली पर बराह होने का कतई उल्लेख नहीं । अत: छेद सूत्रकार भद्रबाह मिहिर ने स्वधर्म परित्याग नहीं किया । बराहमिहिर तथा नियक्तिकार भद्रबाह दोनों का व्यक्तित्व निश्चित के पुत्र के सन्दर्भ में भद्रबाहु का निमित्तज्ञान बराह- ही पृथक पृथक रहा होगा। बराहमिहिर ने अपनी मिहिर की अपेक्षा प्रबल निकलफलतः बराहमिहिर पंच सिद्धांतिका शक संवत 427 (ई. 505) में जैनों से द्वेष करने लगे। इस द्वषभाव के परिणाम समाप्त की थी। अतः तृतीय भद्रबाहु का भी यही समय स्वरूप बराहमिहिर कालकवलित होने पर व्यन्तर निश्चित किया जा सकता है। जाति के देव हए और जैनों पर घनघोर उपसर्ग करने लगे। इन उपसर्गों को दूर करने के लिए भद्रबाहु ने प्रश्न है, बराहमिहिर के भ्राता भद्रबाहु ने प्रस्तुत उपसग्गहरस्तोत्र लिखा । प्रबन्धकोष में इससे भिन्न भद्रबाहु संहिता की रचना की या नहीं ? हमें ऐसा अन्य कथा का उल्लेख है । तदनुसार बराहमिहिर और लगता है कि बराहमिहिर की वृहत्संहिता के समकक्ष भद्रबाहु दोनों ने जैन मुनिब्रत ग्रहण किए । इनमें भद्र में कोई अन्य जन संहिता रखने की दृष्टि से किसी बाहु चतुर्दश पूर्वज्ञान के धारी थे । जिन्होंने नियुक्तियों दिगम्बर जैन लेखक ने श्रु तकेवली भद्रबाहु को सर्वा- . तथा भद्रबाहसंहिता जैसे ग्रन्थों की रचना की। परन्तु धिक श्रेष्ठ एवं उपयोगी आचार्य समझ और उन्हीं के स्वभाव से उद्धत होने के कारण आचार्य बराहमिहिर के नाम पर एक सहिना ग्रन्थ की रचना कर दी। को जैन मुनि दीक्षा त्यागकर पूनः व्राह्मणब्रत धारण वृहत्संहिता का विशाल सांस्कृतिक कोष, विषद निरूपण करना पड़ा। इसी के पश्चात उन्होंने वृहत्संहिता लिखी उदात्त कवित्व शक्ति, सूक्ष्म निरीक्षण और अगाध विद्वता आदि जैसी विशेषताएँ भद्रबाह संहिता में यहा यह उल्लेखनीय है कि प्रबन्धकोष के पूर्ववर्ती अन्य किसी ग्रन्थ में भद्रबाहु को भद्रबाह संहिताकार अथवा दिखाई नहीं देतीं। अतः यह निश्चित है कि भद्रबाहु बराहमिहिर का सहोदर नहीं बताया गया। प्रबन्धकोषा० संहिताकार ने ही वृहत्संहिता का आधार लिया होगा। में भी इसी से मिलती जुलती घटनाका उल्लेख मिलता "भद्रबाहुवनो यथा" आदि शब्दों से भी यही बात स्पष्ट होती है । भद्रबाहु संहिता में छन्दोभंग, ब्याकरण दोष, पूर्वापर विरोध, वस्तु वर्णन शैथिल्य', क्रमबद्धता का परम्प र बराहमिहिर के सहोदर भद्रबाह अभाव, प्रभावहीन निरूपण इत्यादि अनेक अक्षम्य दोष ने ही उपयुक्त नियुक्तियों की रचना की है । जिन भी उक्त कथन की पुष्टि करते हैं। ग्रन्थों में श्र तकेवली भद्रबाहु का चरित्र चित्रण मिलता है। उनमें द्वादशवर्षीय दुष्काल, नेपला, प्रयाण, महाप्राण स्व. पं. जुगलकिशोर मुख्तार, डॉ. गोपाणी का ध्यान का आराधन, स्थूलभद्र की शिक्षा छेद सूत्रों की अनुसरण करते हुए भद्रबाह संहिता को इधर-उधर का रचना आदि का वर्णन तो मिलता है परन्तु बराह- बेढ़ेगा संग्रह मानते हैं जिसे 16-17 वीं शती में संकमिहिर का भाई होना, नियुक्तियों, उपसग्गहरस्तोत्र तथा लित किया गया था। यह ठीक नहीं क्योंकि 16-17 वीं 10. प्रबन्धकोश-सं. मुनि जिनविजय सिंघी जैन सीरिज. 1.2 11. भद्रबाहु संहिता, सं.-ए. एस. गोपाणी, पुष्पिका, पृ. 70 12. वही, प्राक्कथन, प. 3-4 १०५ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शती तक का सांस्कृतिक अथवा ऐतिहासिक कोई (1) चातुर्वर्ण्य व्यवस्था तथा वर्णसंकर का उल्लेख प्रमाण इसमें नहीं मिलता जिसके आधार पर मुख्तार भ० स० में अनेक स्थानों पर विकसित अवस्था में हुआ साहब के मत को समर्थन दिया जा सके। मुनि जिन- है। जैन संस्कृति में चातुर्वर्ण्य व्यवस्था जिनसेन द्वारा विजय ने यह समय 11-12वीं शती निश्चित किया की गई जिसका परिपोषक रूप सोमदेव के ग्रन्थों में हैं। यह मत कहीं अधिक उपयुक्त जान पड़ता है। मिलता है। वैसे ग्रन्थ के अन्त प्रमाणों के आधार पर इस समय को भी एक दो शताब्दी आगे किया जा सकता है। (2) अरिष्टों के वर्णन के प्रसंग में दुर्गाचार्य और एलाचार्य का उल्लेख है । दर्गाचार्य का ग्रन्थ रिष्ट समुच्चय का रचनाकाल 1032 ई. है। । कुछेक वर्षों पूर्व भारतीय ज्ञानपीठ से डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री द्वारा सम्पादित एवं अनुवादित भद्रबाहु संहिता (3) चन्द्र, वरुण, रुद्र, इन्द्र, बलदेव, प्रद्युम्न, का प्रकाशन हआ था। उसकी प्रस्तावना में डॉ. शास्त्री सर्य, लक्ष्मी, भद्रकाली, इन्द्राणी. धन्वन्तरि, परशराम, ने एक स्थान पर भद्रबाहु को बराहमिहिर से प्रभावित रामचन्द्र' तुलसा, गड़, भूत, अर्हन्त, वरुण, रुद्र, सूर्य बताया । दूसरे स्थान पर उन्होंने लिखा कि कुछ विषयों शक्र, द्रोण, इन्द्र, अग्नि, वाय, समद्र, विश्वकर्मा, प्रजाका वर्णन बराहमिहिर से भी अधिक भद्रबाहु संहिता पति, पार्वती, रति आदि की प्रतिमाओं का वर्णन इस में मिलता है और यही नवीनता प्राचीनता की पोषिका ग्रन्थ में है। इन सभी के रूप 12वीं शती तक विकहै । फलतः भद्रबाहु बराहमिहिर के पूर्ववर्ती हो सकते सित हो चुके थे। हैं और अन्त में डॉ. शास्त्री ने इस कृति का समय 8-9 वीं शती भी बता दिया। इन तीन मतों में कौन (4) भद्रबाहु वचो यथा (ई. 64), यथावदनुसा मत उनका माना जाय, निश्चित नहीं किया जा पूर्वशः (91) आदि जैसे वाक्यों का प्रयोग मिलता सकता। लगता है, वे स्वयं इस समय की परिधि को है। इससे स्पष्ट है कि भ. सं. की रचना श्रतकेवली निश्चित नहीं कर पाये। भद्रबाह ने तो नहीं की। उनके अनुसार अन्य किसी भद्रबाह ने की हो अथवा उनके नाम पर किसी यद्वा . इस सन्दर्भ में मेरा अपना मत है कि भद्रबाहु तद्वा विद्रान ने। 11-12 वीं शती के होना चाहिए, जो न तो श्रतकेवली भद्रबाहु हैं, न कुन्द कुन्द के साक्षात गुरू और न ही (5) भौगोलिक और राजनीतिक वर्णन । नियुक्तिकार भद्रबाह । इनके अतिरिक्त अन्य कोई (6) वृहत्संहिता की अपेक्षा विषय वर्णन में चतुर्थ भद्रबाहु ही होना चाहिए, क्योंकि नियुक्तिकार नवीनता। भद्रबाहु की भाषा प्रायः शुद्ध और समीचीन जान पड़ती है जबकि प्रस्तुत ग्रन्थ इस दृष्टि से अस्पष्ट तथा इन सभी प्रमाणों से यह स्पष्ट है कि भद्रबाहु व्याकरण दोषो से परिपूर्ण है। संहिता की रचना 11-12 वीं शती से पूर्ववर्ती नहीं होना चाहिए । मूल ग्रन्थ प्राकृत में रहा हो यह भी भद्रबाहु संहिता की रचना 12-13 वीं शती की समीचीन नहीं जान पड़ता। बौद्ध साहित्य की श्रेणी में है । इस मत के समर्थन में निम्नलिखित प्रमाण प्रस्तुत इसे नहीं रखा जा सकता क्योंकि प्राकृत के रूप किये जा सकते हैं इतने अधिक भ० सं० में नहीं मिलते । अतः इस ग्रन्थ १०६ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की उपरितम सीमा 12-13वीं शती मानी जानी अनुयायियों में परस्पर विषाद और कलह हो रहा है। चाहिए। ये एक दूसरे की बातों को गलत सिद्ध कर रहे हैं। बुध्द ने इसका कारण बताग कि निगण्ठों के तीर्थकर संघ भेद निगण्टनातपुत्त न तो सर्वज्ञ हैं और न टीक तरह से उन्होंने धर्मदेशना दी है। अटठकथा में इसका विश्लेप्रायः हर तीर्थ कर अथवा महापुरुष के परिनिर्वत षण करते हुए कहा गया है कि निगण्ठनातपुत्त ने अपने अथवा देहावसान हो जाने के बाद उसके संघ अथवा अपने सिद्धांतों की निरर्थकता को समझ कर अपने अनुयायियों में मतभेद पैदा हो जाते हैं । इस मतभेद अनुयायियों से कहा था कि वे बुध्द के सिद्धांतों को के मूल कारण आर्थिक, सामाजिक और धार्मिक स्वीकार करलें । आगे वहां बताया गया है कि उन्होंने परिस्थितियों के परिवर्तित रूप हुआ करते हैं। मतभेद अन्तिम समय में एक शिष्य को शाश्वतबाद की शिक्षा की गोद में विकास निहित होता है जिसे जागृति का दी और दूसरों को उच्छेदवाद की। फलतः वे दोनों प्रतीक कहा जा सकता है । पार्श्वनाथ और महावीर परस्पर संघर्ष करने लगे। संघभेद का मूल कारण के संघ में भी उनके निर्वाण में बाद मतभेद उत्पन्न यही है । , होना आरम्भ हो गया था। उस मतभेद के पीछे भी आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियों के बदलते हुए उक्त उध्दरण कहां तक सही है, कहा नहीं जा रूप थे। सकता पर यह अवश्य है कि शासन भेद निगण्ठनात पत्त के परिनिर्वाण के बाद किसी न किसी अंश में इस प्रकार महावीर के निर्वाण के बाद उनका प्रारम्भ हो गया था। संघ अन्तिम रूप में दो भागों में विभक्त हो गयादिगम्बर और श्वेताम्बर । संघभेद के संदर्भ में दोनों इस शासनभेद को श्वेताम्बर परम्परा में निन्हव सम्प्रदायों में अपनी अपनी परम्पराएं हैं । दिगम्बर कहा गया है। उनकी संख्या सात बताई गयी है। सम्प्रदाय पूर्णतः अचेलत्वय को स्वीकार करता है पर जामालि, तिष्यगप्त, आषाढ़, विश्वमित्र, गंग, रोह. श्वेताम्बर सम्प्रदाय सवस्त्र अवस्था को भी मान्यता गुप्त और गोष्ठामाहिल । निन्हव का तात्पर्य है--किसी प्रदान करता है। दोनों परम्पराओं का अध्ययन करने विशेष दृष्टिकोण से आगमिक परम्परा से विपरीत से यह पष्ट है कि मतभेद का मूल कारण वस्त्र था। अर्थ प्रस्तुत करनेवाला । यह यहां दृष्टव्य है कि प्रत्येक निन्हव जैनागमिक परम्परा के किसी एक पक्ष को पालि साहित्य से पता चलता है कि निगण्ठ नात- अस्वीकार करता है और शेष पक्षों को स्वीकार करता पत्त के परिवर्तन के बाद ही संघभेद के बीज प्रारम्भ है अत: वह जैन धर्म के ही अन्तर्गत अपना एक पृथक हो चुके थे। आनन्द ने बुद्ध को चुन्द का समाचार मत स्थापित करता है। ये सातों निन्हव संक्षेपतः इस दिया था कि महावीर के निर्वाण के उपरान्त उनके प्रकार हैं । 13. माज्झिमनिकाय भा. 2. पृ.-243 (रो.); दीघनिकाय मा. 3- 1. 117, 120 {रो.) 14. दीधनिकाय भा. 3, पृ. 121. 15. दीधनिकाय : अट्ठकथा भा-२, पृ. 996 १०७ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. प्रथम निन्हव-(जामालि); बहुरत सिद्धान्त : ३. तृतीय निन्हव-(आषाढ़ आचार्य); अव्यक्त मत जामालि भ. महावीर का शिष्य था। श्रावस्ती श्वेताविका नगरी में आषाढ़ नामक एक आचार्य में उसने अपने शिष्य से एक बार बिस्तर लगाने के थे। वे अकस्मात मरकर देव हुए और पूनः मृत शरीर लिये कहा। शिष्य ने कहा- विस्तर लग गये। में आकर उपदेश देने लगे । योग साधना समाप्त होने जामालि ने जाकर जब देखा कि अभी विस्तर लग रहा पर उन्होंने अपने शिष्यों से कहा-"मैने असंयमी है तो उसे महावीर का कहा हआ "कियमाणं कृत", होते हुए भी आप लोगों से आज तक बन्दना कराई (किया जाने वाला कर दिया गया) वचन असत्य प्रतीत श्रमणो, मुझे क्षमा करना ।" इतना कहकर वे चले गये हआ। तव उसने उस सिध्दांत के स्थान पर बरहुत तब शिष्य कहने लगे-कौन साधु बन्दनीय है, कौन सिद्धांत की स्थापना की जिसका तात्पर्य है कि कोई भी नहीं, यह नहीं कहा जा सकता। अत: किसी की भी क्रिया एक समय में न होकर अनेक समय में होती है वन्दना नही करनी चाहिए । व्यवहार नय को न सममृदानयन आदि से घट का प्रारम्भ होता है पर घट झने के कारण यह निन्हव पैदा हुआ।18 तो अन्त में ही दिखाई देता है । यह ऋजु सूत्रनय का ४.चतर्थ निन्द्रव-(कौण्डिण्य); सामुच्छेदक: विषय है जिसे जामालि ने नहीं समझा। ___ कौण्डिण्य का शिष्य अश्वमित्र मिथला नगरी में २. द्वितीय निन्हव-(तिष्यगुप्त); जीवप्रादेशिक अनुप्रवाद नामक पूर्व का अध्ययन कर रहा था । उसमें सिद्धांत एक स्थान पर प्रसंग आया कि वर्तमान कालीन नारक विच्छिन्न हो जायेगे द्वितीयादि समय के नारक भी तिष्यगुप्त वसु का शिष्य था। एक समय ऋषभपुर । विच्छिन्न हो जायेगे। अतः उसके मन में आया कि में आत्म प्रवाद पर चर्चा चल रही थी। प्रश्न था-क्या उत्पन्न होते हो जब जीव नष्ट हो जाता है तो कर्म का जीव के एक प्रदेश को जीव कह सकते हैं। भगवान फल कब भोगता है। यह क्षणभंवाद पर्यायनय को महावीर ने उत्तर दिया-नहीं। न मानने के कारण उत्पन्न हआ। इसे समुच्छेदक नाम । युक्त होने पर ही 'जीव' कहा जायगा। दिया गया हैं। इसका अर्थ है-- जन्म होते ही अत्यन्त तब तिष्यगुप्त ने कहा कि जिस प्रदेश के कारण वह विनाश हो जाता हैं। जीव नहीं कहलायेगा । उसी चरम प्रदेश को जीव क्यों ५. पञ्चम निन्हव-द्विक्रिया (गंग) नहीं कहा जाता, यही उसका जीव प्रादेशिक मत है। एवंभूतनय न समझने के कारण ही उसने यह मत धनगुप्त का शिष्य गंग एक बार शरदऋतु में स्थापित किया । उलुकातीर नामक नगर से आचार्य की वन्दना करने - A . सरपणं प्रटेका ae 16. विशेषावश्यक भाष्य, गाथा 2308-32. 17. विशेषावश्यक भाष्य, गाथा-2333-2355. 18. विशेषावश्यक भाष्य, माथा-2356-2388. 19. विशेषावश्यक भाष्य, गाथा,-2389-2433. Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के लिए निकला मार्ग में उसने गर्मी और ठण्ड दोनों का कहा कि साधु के मार्ग में अनेक अनर्थ उत्पन्न करने वाले अनुभव एक साथ किया । तब उसने यह मत प्रतिपा- इस कम्बल को ग्रहण करना उचित नहीं । पर शिवभूति दित किया कि एक समय में दो क्रियाओं का अनुभव को उस कम्बल में आसक्ति उत्पन्न हो गई थी। यह हो सकता है। नदी में चलने पर ऊपर की सूर्य उष्णता समझकर आयंकृष्ण ने शिवभूति की अनुपस्थिति में उस और नदी की शीतलता, दोनों का अनुभव होता है। के पादप्रोच्छनक बना दिये । यह देखकर शिवभूति को गंग ने अपने द्विक्रिया मत की स्थापना करली। तथ्य कषाय उत्पन्न हो गई । एक समय आर्यकृष्ण जिनकाल्पियों यह यह है कि मन की सूक्ष्मता के कारण यह भान नहीं का वर्णन कर रहे थे और कह रहे थे कि उपयुक्त संहनन होता क्रिया का वेदन तो क्रमशः ही होता है। आदि के अभाव होने से उसका पालन सम्भव नहीं । शिवभूति ने कहा-'मेरे रहते हए कैसे हो सकता है । ६. षष्ठ निन्हव-राशिक (रोहगुप्त) यह कह कर अभिनिवेशवश निर्वस्त्र होकर यह मत __एक बार अन्तरंजिका नगरी में रोहगुप्त अपने स्थापित किया कि वस्त्र कष य का कारण होने से परिगुरू की बन्दना करने जा रहा था। मार्ग में उसे अनेक ग्रह रूप है अतः त्याज्य है। प्रवादी गिले जिन्हैं उसने पराजित किया। अपने वाद ये निन्हव किसी अभिनिवेश के कारण आगमिक स्थापन काल में उसने जीव और अजीव के साथ ही परम्परा से विपरीत अर्थ प्रस्तुत करने वाले होते हैं । नोजीव की भी स्थापना की गहकिकिलादि की उसने प्रथम निन्हव महावीर के जीवन काल में ही उनकी 'नोजीव' बतलाया। समाभिस्ढ नय को न समझने के ज्ञानोत्पत्ति के चौदह वर्ष बाद हआ। इसके दो वर्ष कारण उसने इस मत की स्थापना की इसे मैराशिक बाद ही द्वितीय निन्हव हुआ। शेष निन्हव महावीर के कहा गया है। के निर्वाण होने पर क्रमश: 214,220, 218, 544, ७. सप्तम निन्हव-अबध्द (गोष्ठामाहिल) 584, ओर 609 वर्ष वाद उत्पन्न हुए। सिद्धान्त भेद से प्रथम सात निन्हवों का उल्लेख मिलता है । पर जिनएक बार दशपुर नगर में गोष्ठामाहिल कर्मप्रवाद भद्र ने विशेष्यावश्यक भाष्य में एक और निन्हव जोड पढ रहा था उसमें आया कि कर्म केवल जीव का स्पर्श कर उनकी संख्या 8 करदी। इसी अष्टम निन्हव को करके अलग हो जाता हैं। इस पर उसने सिद्धान्त दिगम्बर कहा गया है। आश्चर्य की बात है, इन निबनाया कि जीव और कर्म अबद्ध रहते हैं । उनका बन्ध हवों के विषय में दिगम्बर साहित्य बिलकुल मौन है। ही नहीं होता व्यवहारनय को न समझने के कारण ही प्रथम सात निन्हवों के कारण किसी सम्प्रदाय विशेष की गोष्ठामाहिल ने यह मत प्रस्थापित किया। उत्पत्ति नहीं हई। ठाणांङ्ग सूत्र (587) में केवल सात निन्हवों का उल्लेख हैं पर आवश्यकनियुक्ति ८. अष्टम निन्हव-बोटिक- (शिवभूति) (गाथा-779-783) में स्थान काल का उल्लेख करते रथवीरपुर नामक नगर में शिवभूति नामक साधु समय आठ निन्हवों का और उपसंहार करते समय मात्र रहता था। वहां के राजा ने एक बार एक बहुमूल्य रत्न सात निन्हवो का निर्देश किया गया है। इससे यह कंबल भेंट किया। शिवभूति के गुरू आर्यकृष्ण ने स्पष्ट है कि जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने ही सर्वप्रथम 20. एवं एए कहिआ ओसप्पिणिए उ निष्हया सन्त । वीर वरस्स पवयणे संसाणं पवयणे नत्थि 178411 १०६ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम निन्हव के रूप में दिगम्बर मत की उत्पत्ति की मुनियों-निर्ग्रन्थों को भी रात्रि भोजन प्रारम्भ करना कल्पना की हैं। उन्होंने यह भी कहा है कि उपयुक्त पड़ा। एक बार अंधकार में भिक्षा की खोज में निकले संहननादि का अभाव होने से जिनकल्प का धारण निर्ग्रन्थ को देखकर भय से एक गभिणी का गर्भपात करना अब शक्य नहीं। इससे यह स्पष्ट है कि दिगम्बर हो गया। इस घटना के मूल कारण को दूर करने के सम्प्रदाय की उत्पत्ति अर्वाचीन नहीं, प्राचीनतर है। लिये श्रावकों ने मुनियों को "अर्धफलक' (अर्धवस्यऋषभदेव ने जिनकल्प की ही स्थापना की थी और खण्ड) धारण करने के लिये निवेदन किया । सभिक्ष वह अविच्छिन्नरूप से श्वेताम्बर सम्प्रदाय के अनुसार हो जाने पर रामिल्ल, स्थविर स्थल और भद्राचार्य ने भी जम्बूस्वामी तक चला आया। बाद में उसका तो मुनिव्रत धारण कर लिये पर जिन्हें वह अनुकूल विच्छेद हुअ । शिवभूति ने उसकी पुन: स्थापना की। नहीं लगा, उन्होंने जिनकल्प के स्थान पर अर्धफलक अतः जिनकल्प को निन्हव कैसे कहा जा सकता है ! सम्प्रदाय की स्थापना कर ली। उत्तरकासा में इसी और फिर बोटिक का सम्बन्ध दिगम्बर सम्प्रदाय से अर्धफलक सम्प्रदाय से काम्बल सम्प्रदाय, फिर यापनीय कैसे लिया जाय, इसका स्पष्टीकरण श्वेताम्बर साहित्य संघ और बाद में इबेताम्बर संघ की उत्पत्ति हई। में नहीं मिलता। सम्भव है, बोटिक नाम का कोई पृथक सम्प्रदाय ही रहा होगा जिसका अधिक समय तक देवसेन के 'दर्शनसार' (वि. सं. 999) में अस्तित्व नहीं रह सका। एतत् सम्बन्धी कथा इस प्रकार मिलती है श्वेताम्बर सम्प्रदाय की उत्पत्ति विक्रमाधिपति की मृत्यु के 136 वर्ष बाद सौराष्ट देश के बलभीपूर में श्वेताम्बर संध की उत्पत्ति हई। दिगम्बर साहित्य में श्वेताम्बर सम्प्रदाय की उत्पत्ति के विषय में जो कथानक मिलते हैं बे इस प्रकार इस संघ की उत्पत्ति में मूल कारण भद्रबाहुगणि के आचार्य शान्ति के शिष्य जिनचन्द्र नामक एक शिथि लाचारी साधु था। उसने स्त्री-मोक्ष, कवलाहार, सव. हरिषेण के वृहत्कथाकोश (शक संवत् 853) स्त्र मुक्ति, महावीर का गर्भ परिवर्तन आदि जैसे मत में यह उल्लेख मिलता है कि गोवर्धन के शिष्य श्रुत- प्रस्थापित किये थे ।। केवली भद्रबाह ने उज्जयिनी में द्वादशवर्षीय दुष्काल को निकट भविष्य में जानकर मुनि विशाखाचार्य (चन्द्र- दर्शनसार में व्यक्त ये मत नि सन्देह श्वेताम्बर गुप्त मौर्य) के नेतृत्व में मुनिसंघ को दक्षिणापथवर्ती सम्प्रदाय से सम्बद्ध हैं। उनके संस्थापक तो नहीं, पुनार नगर भेज दिया और स्वयं भाद्रपद देश में जाकर प्रबल पोषक कोई जिनचन्द्र नामक आचार्य हुए होंगे। समाधिमरण पूर्वक शरीर त्याग दिया। इधर दुष्काल पर चूकि आचार्य शान्ति और उनके शिष्य जिनचन्द्र की समाप्ति हो जाने पर विशाखाचार्य ससंघ वापस आ का अस्तित्व देवसेन के पूर्व नहीं मिलता अत: ये जिनचन्द्र 'गये। संघ में से रामिल्ल, स्थविर स्थूल और भद्राचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण (सप्तम शती) होना चाहिये। सिन्धु देश की ओर चले गये थे। वहाँ दुर्भिक्ष पीड़ितों उन्होंने विशेषावश्यक भाष्य में उक्त मतों का भरपर के कारण लोग रात्रि में भोजन करते थे। फलतः समर्थन किया है। 21. दर्शनसार-11-14. Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक अन्य देवसेन ने भावसंग्रह में भी श्वेताम्बर प्रतिकृति में दिखाई देता है। वहाँ एक साधू 'कण्ह' संघ की उत्पत्ति इसी प्रकार बतायी है। थोड़ा-सा जो बायें हाथ से वस्त्रखण्ड के मध्य भाग को पकड़कर भी अन्तर है, वह यह है कि यहाँ शान्ति नामक आचार्य नग्नता को छिपाने का यत्न कर रहा है। हरिभद्र के सौराष्ट्र देशीय बल भी नगर अपने शिष्यों सहित पहचे सम्बोधप्रकरण से भी श्वेताम्बर सम्प्रदाय के इस पूर्व पर वहाँ भी दुष्काल का प्रकोप हो गया। फलतः साधु- रूप पर प्रकाश पड़ता है। कुछ समय बाद उसी वस्त्र वर्ग यथेच्छ भोजनदि करने लगा। दुष्काल समाप्त हो को कमर में धागे से ब ध दिया जाने लगा। यह रूप जाने पर शान्ति आचार्य ने उनसे इस वृत्ति को छोड़ने के मथुरा में प्राप्त एक आयागपट्ट पर उटैंकित रूप से लिए कहा पर उसे उन्होंने स्वीकार नहीं किया । तब मिलता-जुलता है । इस विकास का समय प्रथम शब्तादि आचार्य ने उन्हें बहुत समझाया। उनकी बात पर किसी के आस पास माना जा सकता है। शिष्य को क्रोध आया और उसने गुरू को अपने दीर्घ ऊपर के कथानकों से यह भी स्पष्ट है कि दिगम्बर दण्ड से सिर पर प्रहार कर उन्हें स्वर्ग लोक पहूँचाया और स्वयं संघ का नेता बन गया। उसी ने सवस्त्र और श्वेताम्बर सम्प्रदाय के बीच विभेदक रेखा खींचने मुक्ति का उपदेश दिया और श्वेताम्बर संघ की स्था का उत्तरदायित्व वस्त्र की अस्वीकृति और स्वीकृति पर पना की । 22 है। उत्तराध्ययन में केशी और गौतम के बीच हुए संवाद का उल्लेख है। केशी पार्श्वनाथ परम्परा के भट्टारक रत्ननन्दि का एक भद्रबाहुचरित्र मिलता अनुयायी हैं और गौतम महावीर परम्परा के । पार्श्वहै, जिसमें उन्होंने कुछ परिवर्तन के साथ इस घटना का नाथ ने सन्तरुत्तर (सान्तरोत्तर) का उपदेश दिया और उल्लेख किया है। उन्होंने लिखा है कि दुर्भिक्ष पड़ने पर महावीर ने अचेलकता का। इन दोनों शब्दों के अर्थ भद्रबाहु ससंघ दक्षिण गये। पर रामल्य, स्थूलाचार्य की ओर हमारा ध्यान श्री.पं. कैलाशचन्द्रजी शास्त्री आदि मुनि उज्जयिनी में ही रह गये । कालान्तर में संघ ने आकर्षित किया है। उन्होंने लिखा है कि उत्तरामें व्याप्त शिथिलाचार्य को छोड़ने के लिए जब स्थूला- ध्ययन की टीकाओं में सान्तोत्तर का अर्थ महामल्यचार्य ने मार डाला। उन शिथिलाचारी साधुओं से ही वान और अपरिमित वस्त्र (सान्तर-प्रमाण और वर्ग बाद में अर्ध फलक और श्वेताम्बर संघ की स्थापना में विशिष्ट, तथा उत्तर-प्रधान) किया गया है और उसी के अनुरूप अचेल का अर्थ वस्त्रभाव के स्थान में क्रमश: कुत्सितचेल, अल्पचेल, और अमूल्यचेल मिलता है । इन कथानकों से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता किन्तु आचारंग सूत्र 209 में आये 'संतरुत्तर' शब्द का है कि भद्रबाहु की परम्परा दिगम्बर सम्प्रदाय से और स्थलभद्र की परंपरा श्वेताम्बर सम्प्रदाय से जुड़ी हई __ अर्थ दृष्टव्य है। वहाँ कहा गया है कि तीन वस्त्रधारी साधु का कर्तव्य है कि वह जब शीत ऋतु व्यतीत हो है। यह श्वेताम्बर सम्प्रदाय अर्धफलक संघ का ही जाय जाय और ग्रीष्म ऋतु आ जाये और वस्त्र यदि जीर्ण विकसित रूप है। न हुए हों तो कहीं रख दे अथवा सान्तरोत्तर हो जाये। ___ अर्धफलक सम्प्रदाय का यह रूप मथुरा कंकाली शीलांक ने सान्तरोत्तर का अर्थ किया है-सान्तर है टीले से प्राप्त शिलापट्ट में अंकित एक जैन साधु की उत्तर ओढ़ना जिसका अर्थात्, जो आवश्यकता होने पर 2 . मावस ग्रह-गा. 53-70, Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ } वस्त्र का उपयोग कर लेता है अन्यथा उसे पास रखे रहता है। केशी और गौतम के संवाद " में आये हुए सान्तरोत्तर का तात्पर्य भी यही है कि पार्श्वनाथ परम्परा के साधु अचेलक तो थे पर आवश्यकता पड़ने पर वे वस्त्र भी धारण कर लेते थे जबकि महावीर के धर्म में साधु पूर्णतः अचेलक अवस्था में रहता था। साधु सचेलक वही हो सकता था जो अचेलक होने में असमर्थ रहता था। पालि साहित्य में निम्गण्ड साधुओं को जो 'एकसाटका' कहा गया है वह भी हमारे मत का पोषण करता है । 20 पार्श्वनाथ परम्परा में महावीर के समय तक उसमें चारित्रिक पतन हो गया था । इसलिए उस परम्परा के अनुयायी साधुओं को 'पासावज्जिय ( पाश्र्वापत्यीय ) बघवा 'पासज्ज' (पार्श्वस्थ ) कहा जाने लगा । पासज्ज का तात्पर्य है कर्म से बँधा हुआ साधु । यह शब्द इतना अधिक प्रचलित हो गया कि चरित्र से पतित साधु का वह पर्यायवाची बन गया 126 सूत्रकृतांग में पार्श्वस्थ साधुओं को अनायें, बाल, जिनशासन से विमुख एवं स्त्रियों में आसक्त कहा गया है ।" भगवती आराधना (गाथा 1300 आदि में भी पार्श्वस्थ साधुओं का चरित्र चित्रण इसी प्रकार किया गया है । 1 इसका मूल कारण है कि पार्श्व परम्परा में ब्रह्मचर्य व्रत को अपरिग्रह व्रत में सम्मिलित कर दिया गया था । 'पञ्चाशक विवरण' में कहा गया है कि प्रथम और अन्तिम तीर्थकरों के अनुयायी माधु स्वभावतः कठिन और वक्रजड़ होते थे। इसलिए उन्हें अलाव स्था का पालन करना आवश्यक बताया गया जबकि बीच के बाईस तीर्थ करों के अनुयायी साधु स्वभावतः सरल और बुद्धिमान थे, अतः उन्हें आवश्यकता पड़ने पर सचेलावस्था को भी विहित बना दिया गया 128 श्वेताम्बर सम्प्रदाय में भी साधु को अपरिग्रही होना आवश्यक बताया गया है 129 आचारंगसूत्र एतदर्थं द्वष्टव्य है । उसमें अचेलक साधु की प्रशंसा की गयी है और उसे वस्त्रादि से निश्चिन्त बताया गया है 1 30 ठाणांग (सूत्र 171 ) में वस्त्र धारण करने के तीन कारणों का उल्लेख मिलता है-लज्जा निवारण, ग्लानि निवारण और परिषह निवारण | आगे पाँच कारणों से अचेतावस्था की प्रशंसा की गई है-प्रतिलेखना की अल्पता, लाघवता, विश्वस्तरूपता, तपशीलता और इन्द्रिय निग्रहता । " और भी अन्य आगमों में अचेलावस्था को प्रशस्त माना गया है । मात्र असमर्थता होने पर ही वस्त्र ग्रहण करने की अनुज्ञ दी गई है। 23. जैन साहित्य का इतिहास पूर्व पीठिका - 397-98. 24. उत्तराध्ययन, 23-29-33. 25. तत्रिदं भन्ते, पूरणेन कस्सपेन लोहिताभिजातिपञ्चता, निम्गण्ठा एकसाटका, अगुत्तरनिकाय 6-6-3. 26. सूत्रकृतांग - 1-1-2-5 वृत्ति; 27. सूत्रकृतांग -- 3-4-3 वृत्ति.. 28. पञ्चाशक विवरण 17-8-10; 29. आचारंग-5, 150-152. 30. आवारंगसूत्र- 182. 31. ठाणांगसूत्र-5 ११२ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालान्तर में वस्त्रग्रहण की प्रवृत्ति बढ़ती गई और उसी के साथ आगमों की टीकाओं और घृणियों आदि में अचेलकता के अर्थ में परिवर्तन किया जाने लगा। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण के काल तक स्थिति बिलकुल बदल गई। फलतः उन्हें आचार के दो रूप करना पड़े- जिनकल्प और स्थविरकल्प जिनकल्परूप अचेलकता का प्रतिपादक बना तथा स्थविरकल्प सचेलकता का । जम्बूस्वामी के मोक्ष जाने के बाद जिनकरूप को विच्छिन्न बता दिया गया। वृहत्करूपसूत्र और विशेषावश्यक भाष्य ( गाथा 2598-2601 ) में इसका विशेष विवेचन मिलता है । वहाँ अचेल के दो भेद कर दिये गये हैंसंताचेल और असंताचेल । संताचेल (वस्त्र रहते हुए भी अचेल) जिनकल्पी आदि सभी प्रकार के साधु कह लाते हैं और असम्ताचल के अन्तर्गत मात्र तीर्थंकर आते हैं । उत्तरकाल में इस प्रकार के अर्थ करने की प्रवृत्ति और भी बढ़ती गई। हरिभद्रसूरि ने दशर्वकालिक सूत्र में आये शब्द नग्न का अर्थ उपचरितनग्न और निरूपचरितनग्न किया है । कुचेलवान् साधु को उपचरितनग्न और जिनकल्पी साधु को निरूपचरित नग्न कहा गया है । " बाद में अचेल का अर्थ अल्पमूल्यचेल भी किया गया है। सिद्धसेनमणि ने भी दसकल्पों में आये आचेलक्ष्य कल्प का अर्थ यही किया गया है। धीरे-धीरे साधु बस्तियों में रहने लगे, कश्विवस्त्र के स्थान पर पुलपट्ट का प्रयोग होने लगा और उपकरणों में वृध्दि हो गई । लगभग आठवीं शताब्दी तक श्वेताम्बर सम्प्रदाय में यह विकास हो चुका था। उक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि शिथिलाचार की पृष्ठभूमि में संबभेद के बीज जम्बूस्वामी के बाद से ही 32. दशवेकालिक सूत्र, गाथा - 64 चणि 33 तत्वार्थ सूत्र - 99, उपाध्या -- प्रारम्भ हो गये थे जो भद्रवाह के काल में दुर्भिक्ष की समाप्ति पर कुछ अधिक उभरकर सामने आये। 'परि शिष्ट पर्वन' (9.55.76) तथा तित्थोगाली पन्नय ( गा० 730-33) के अनुसार भी पाटलिपुत्र में हुई प्रथम वाचना काल में संघभेद प्रारम्भ हो गया था । यह वाचना मद्रबाहु की अनुपस्थिति में हुई थी। इसी के फलस्वरूप दोनों परम्पराओं की गुर्वावलियों में भी अन्तर आ गया । यह स्वाभाविक भी था । उत्तरकाल में इस अन्तर ने आचार-विचार क्षेत्र को भी प्रभावित किया और देवधिराणि क्षमाश्रमण के काल तक दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्परायें सदैव के लिये एक-दूसरे से पृथक हो गई। भद्रबाहु के समय तक बौद्धधर्म के मध्यममार्ग का प्रचार अपने पूरे जोर पर था। जैन संघ के आचार शैथिल्य में वह विशेष कारण बना। विचारों में भी परिवर्तन हुआ जो विभिन्न वाचनाओं के बीच हुए संवादों से ज्ञात होती है। यहाँ वस्त्र और पात्र के रखने के तरह-तरह से विधान बने। महावीर भगवान के साथ देवस्य वस्त्र की कल्पना का सम्बन्ध भी ऐसे ही विधानों से रहा होगा । इतना ही नहीं, प्रथम और अन्तिम तीर्थकरों का धर्म अचेलक कहा गया तथा शेष बाईस तीर्थकरों को अचेलक और सचेलक दोनों माना गया । आलवको धम्मो पुस्त्रिस्म य. पच्छिमस्स जिणस्स 1 मज्झिमगाण जिणाण होइ सचेतो अथ पंचाशक अचेलो ॥ आचारांग सूत्र की टीका में शीलांक ने अचेलक का जिनकल्प का और ममेलक को स्थविरकल्य का आधार बताय है। इस मत में दृढ़ता लाने के लिये एषणा समिति में वस्त्र और पात्र एषणा को सम्मिलित किया ११३ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गया। पार्श्वनाथ की परम्परा को सचेल बताने के लिए केशी - गौतम संवाद को जोड़ा गया । स्त्रीमुक्ति, सवस्त्रमुक्ति, केवलिमुक्ति आदि सम्बन्धी वाक्य भी अन्तर्मुक्त कर दिये गये। जिनदासगणि क्षमाश्रमण ने तो अन्तर्मुक्ति के लोप की भी बात कर दी । (विशेषावश्यक अस्य, 2593 गा.) पं. बेचरदास दोसी ने ऐसे ही कथनों या उल्लेखों की भर्त्सना की है । ( जैन साहित्यमा विकार थलाथली, हति, पृ. 103 ) इसी प्रकार की प्रवृत्तियों ने संघ और सम्प्रदाय को जन्म दिया । दिगम्बर संघ और सम्प्रदाय दिगम्बर परम्परा संघभेद के बाद अनेक शाखाप्रशाखाओं में विभक्त हो गई। वीर निर्वाण से 683 वर्ष तक चली आयी लोहाचार्य तक की परम्परा में गण, कुल, संघ आदि की स्थापना नहीं हुई थी। उसके बाद अंग पूर्व के एकदेश के ज्ञाताचार आरातीय मुनि हुए । उनमें आचाय शिवगुप्त अथवा अर्हदबली से नवीन संध और गणों की उत्पत्ति हुई । महावीर के निर्वाण के लगभग इन 700 वषों में आचार-विचार में पर्याप्त परिवर्तन हो चुका था। समाज का आर्थिक, सामाजिक राजनीतिक और सांस्कृतिक ढांचा बदल चुका था । शिथिलाचार की प्रवृत्ति बढ़ने लगी थी । इसी कारण नये-नये संध और सम्प्रदाय खड़े हो गये । कदम्ब एवं गंगवंशी लेखों से पता चलता है कि समूचे दिगम्बर संघ को निर्ग्रन्थ महाश्रमण संघ कहा जाता था । कालान्तर में जब शिथिलाचार बढ़ने लगा तो उसकी विशुद्धि के लिए नये-नये आन्दोलन प्रारम्भ हो गये । भट्टारक युगीन संघ तो इस शिथिलाचार का बहुत अधिक शिकार हुआ । फलस्वरूप विभिन्न संघसम्प्रदाय बन गये । इन संघ सम्प्रदायों में मतभेद का विशेष आधार आचार-प्रक्रिया थी । विचारों में भेद अधिक नहीं आ पाया । बनों में निवास करने वाले मुनि नगर की ओर आने लगे, मन्दिरों और चैत्यों में निवास करने लगे । लगभग 10 वीं शताब्दी तक यह प्रवत्ति अधिक दृढ़ हो गई। विशुद्ध आचारवान् भिक्षुओं ने इसका विरोध किया और शिथिलाचारी साधुओं की भर्त्सना कर उन्हें जैनाभासी और मिथ्यात्वी जैसे सम्बोधनों से सम्बोधित किया। इन सभी कारणों से दिगम्बर सम्प्रदाय में अनेक संघों की स्थापना हो गई । देवसेन ने दर्शनसार में श्वेताम्बर, यापनीय, द्रविड़, काष्ठा संघ और माथुर संघ को जैनाभास बताया है । मूलसघ शिथिलाचारी साधुओं के विरोध में विशुद्धतावादी साधुओं ने जिस आन्दोलन को चलाया उसे मूल सघ कहा गया है। मूल संघ के स्थापकों ने यह नाम देकर अपना सीधा सम्बन्ध महावीर से बताने का प्रयत्न किया और शेष संघ को अमूल्य बता दिया । इस संघ की उत्पत्ति का स्थान और समय अभी तक निश्चित नहीं हो पाया पर यह निश्चित है कि इस संघ का विशेष सम्बन्ध कुन्दकुन्द से रहा है। साधारणतः कुन्दकुन्द का समय ईसा की प्रथम शताब्दी माना गया है । कालान्तर में मूल संघ जैसे ही काष्ठा, द्राविड़ आदि और संघ भी स्थापित हुए। इन सभी संघों पर निग्रन्थ और यापनीय संघों का प्रभाव अधिक है । मूलसंघ का प्राचीनतम उल्लेख 'नोया मंगल' के दानपत्र में पाया जाता है, जिसका समय शक सं. 347 (वि. सं. 482 ) के आसपास है । आचार्य इन्द्रनन्दि (11 वीं शताब्दी) ने मूलसंघ का परिचय देते हुए लिखा है कि पुण्डवर्धनपुर (बोगरा, बंगाल ) के निवासी आचार्य अहंली (लगभग वि. सं 275 ) पाँच वर्ष के अन्त में सो योजन में रहने मुनियों को एकत्र कर युगप्रतिक्रमण किया करते थे। एकबार इसी प्रकार प्रतिक्रमण के समय उन्होंने मुनियों से पूछा- 'क्या सभी मुनि आ चुके ? मुनियों से उत्तर मिला- हाँ, सभी मुनि आ चुके । अर्हद्बली ने उत्तर पाकर यह सोचा कि समय बदल रहा है। अब ११४ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का अस्तित्व गणपक्षपात के आधार पर ही रह में तथा हरिवंश कथाकोष में भी मिलता है। 'सेनगण' सकेगा, उदासीन भाव से नहीं। तब उन्होंने संघ अथवा नाम भी उत्तरकालीन ही प्रतीत होता है। यह दक्षिण गण स्थापित किये । गुहाओं से आनेवाले मुनियों को भारत के भट्टारकों में अधिक प्रचलित रहा है। 'नन्दि' और 'वीर' संज्ञा दी, अशोक वाटिका से आनेवालों को "देव" और "अपराजित" कहा, पञ्चस्तूप मूलसंघ के अन्तर्गत जो शाखाएँ प्रशाखाएं उपलब्ध से आनेवालों को" सेन या 'भद्र" नाम दिया, शाल्म- होती हैं, उन्हें हम निम्न प्रकार से विभाजित कर लिवृक्ष से आनेवालों को “गुणधर" या गुप्त बताया सकते हैं । तथा खण्डकेशर वृक्षों से आनेवालों को सिंह और चन्द्र कहकर पुकारा । इसी संदर्भ में इन्द्रनन्दि ने कुछ 1. अन्वय -कोण्डकुन्दान्वय, श्रीपुरान्वय, कित्त, . मतभेदों का भी उल्लेख किया है, जिससे पता चलता है रान्वय, चन्द्रकवायन्वय, चित्रकूटान्वय निगमान्वय आदि । कि इन्द्रनन्दि को भी संघभेद का स्पष्ट ज्ञान नहीं था । पर यह निश्चित है कि उस समय विशेषतः नन्दि । सेन , सन 2. बलि-इनसोगे या पनसोगे इंगलेश्वर एवं वाणद देव और सिंह गण ही प्रचलित थे । उन्होंने गोपु- अलि आदि । च्छिक, श्वेताम्बर, द्रविड, यापनीय, और निपिच्छ को जैनाभास कहा है। 3. गच्छ-चित्रकूट, होत्तगे, तगरिक, होगरि, पारि जात, मेषपाषाण, तित्रिणीक, सरस्वती, इनमें नन्दि संघ प्राचीनतम संघ प्रतीत होता है। पुस्तक, वक्रगच्छ आदि । इस संघ की एक प्राकृत पट्टावली भी मिली है । ये कठोर तपस्वी हुआ करते थे । यापनीय और द्राविड़ 4. संघ-नावित्मूरसंघ, मयुरसंघ, किचूरसंघ, कोशलसंघ में भी नन्दिसंघ मिलता है। लगभग 14-15 वीं नूर संघ, गनेश्वरसंघ, गौड़संघ, श्रीसंघ, शताब्दी में नन्दिसंघ और मूलसंघ एकार्थ वाची से हो सिंहसंघ, परलूरसंघ आदि । गये । नन्दिसंघ का नाम “नन्दि" नामान्तधारी मुनियों से हुआ जान पड़ता है। 5. गण-बलात्कार, सूरस्थ, कालोन, उदार, योग रिय, पुलागवृक्ष मूलगण, पंकुर, देवगण, सेनसंघ का नाम भी सेनान्त आचार्यों से हा सेनागण, सूरस्थगण, क्राणूरगण आदि । होगा । जिनसेन एक संघ के प्रधान नायक कहे जा सकते हैं। उनके पूर्व संभव है उसे पञ्चस्तूपान्वय ये गण दक्षिण भारत में अधिक पाये जाते हैं, कहा जाता हो । जिनसेन ने अपने गुरू वीरसेन को उत्तर भारत में कम । उनमें प्रधानतः उल्लेखनीय हैंइसी अन्वय का लिखा है । इस अन्वय का उल्लेख कोण्डकुन्दान्वय, सरस्वतीपुस्तक गच्छ, सूरस्थगण, पहाड़पुर (बंगाल) के पाँचवी शताब्दी के शिलालेखों क्राणूरमण एव बलात्कारगण । 34. श्रु तावतार, 96. 35. नीतिसार, 6-8; 36. चौधरी गुलाबचन्द्र-दिगम्बर जैन संघ के अतीत को झांकी, आचार्य भिक्षु स्मृति ग्रन्थ, द्वितीय खण्ड, पृ. 295. ११५ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोण्ड कुन्दान्वय का ही रूपान्तर कुन्दकुन्दान्वय है, मूलसंघ के आचार्यों ने इतर संघों को जैनाभास जिसका सम्बन्ध स्पष्टतः आचार्य कुन्दकुन्द से है। यह कहा है। ऐसे संघों में उन्होंने द्राविड़ काष्ठा एवं यापअन्वय देशीगण के अन्तर्गत गिना जाता है। इसका नीय की गणना की है । जैनामास बताने का मूल (देशीगण) उद्भव लगभग 9वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में देश कारण यह था कि उनमें शिथिलाचार की प्रवृत्ति नामक ग्राम (पश्चिमघाट के उच्चभूमिभाग और गोदा अधिक आ चुकी थी । वे मन्दिर आदि का निर्माण वरी के बीच) में हुआ था। कर्नाटक प्रान्त में इस गण का कराते थे और तन्निमित्त दान स्वीकार करते थे। विशेष विकास 10-11 वीं शताब्दी तक हो गया था। पर यह ठीक नहीं । क्योंकि आशाधर जैसे विद्वान इसी तथाकथित जैनाभाष संघों में से थे, जिन्होंने शिथिलामलसंघ के अन्य प्रसिद्ध गणों में सूरस्थगण, क्राणूर न्य प्रसिद्ध गणा म सूरस्थगण, क्राणूर चार की कठोर निन्दा की है । गण और बलात्कारगण विशेष उल्लेखनीय हैं । सूरस्थ गण सौराष्ट्र धारवाड़ और बीजापुर जिले में लगभग द्राविड़ संघ 13 वीं शती तक अधिक लोकप्रिय रहा है। क्राणूरगण द्राविड़ संघ का सम्बन्ध स्पष्टत: तमिल प्रदेश से का अस्तित्व 14 वी शती तक उपलब्ध होता है । इसकी रहा है । ई० पूर्व चतुर्थ शताब्दी में वहाँ जैन धर्म तीन शाखाएं थीं। तन्मिणी गच्छ, मेषपाषण गच्छ और पहुंच चुका था। सिंहल द्वीप में जो जैनधर्म पहुँचा पुस्तक गच्छ । बलात्कारगण के प्रभाव से ये शाखाएं वह तमिल प्रदेश होकर ही गया । आचार्य देवसेन ने हतप्रभ हो गई थीं। इनके अनुयायी भट्टारक पद्मनन्दि इस संघ की उत्पत्ति के विषय में लिखा है कि बज्रनन्दि को अपना प्रधान आचार्य मानते रहे है। पद्मनन्दी ने वि सं. 526 में मथुरा में इस संघ की स्थापना की स्वभावत; आचार्य कुन्दकुन्द का द्वितीय नाम था । बला थी। इस संघ की दृष्टि में वाणिज्य व्यवसाय से जीवित्कारगण का उद्भव बलगार ग्राम में हुआ था । यह . - कार्जन करना और शीतल जल से स्नानादि करना कहा जाता है कि बलात्कारगण के उद्भाबक पद्मनन्दि विहित माना गया है। तमिल प्रदेश में शैव सम्प्रदाय ने गिरनार पर पाषण से निर्मित सरस्वती को वाचाल की प्रतिष्ठा बहुत अधिक थी। सप्तम शताब्दी में उसके कर दिया । इसलिए बलात्कारगण के अन्तर्गत ही साथ अनेक संघर्ष भी हुए। इस संघ को अधिकाधिक एक सारस्वत गच्छ का उदय हुआ । इसका सर्वप्रथम लोकप्रिय बनाने की दृष्टि से इसके यक्ष याक्षिणियों उल्लेख शक सं. 993-994 के शिलालेख में मिलता की पूजा-प्रतिष्ठा आदि की भी स्वीकार कर लिया है। कर्नाटक प्रान्त में इस गण का विकास अधिक हआ गया। पद्मावती की मान्यता यहीं से प्रारम्भ हई है पर इसकी शाखाएं कारंजा, मलयखेड, लातूर, प्रतीत होती है। देहली, अजमेर, जयपुर, सूरत, ईडर, नागौर, सोनागिर आदि स्थानों पर भी स्थापित हई हैं। होयसल नरेशों के लेखों से पता चलता है कि वे भट्टारक पद्मनन्दी और सकलकीर्ति आदि जैसे कुशल इस संघ के संरक्षक रहे हैं। उन्हीं के लेख इस संघ के साहित्यकार इसी बलात्कारगण में हुए हैं । राजस्थान विषय में सामग्री से भरे हुए हैं । द्राविड़ संघ के साथ मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र में इस बलात्कारगण ही इस संघ में कोण्डकुन्दान्वय, नन्दिसंघ, पुस्तकगच्छ का कार्यक्षेत्र अधिक रहा है। एक अन्य शाखा सेनगण और अगलान्वय को भी जोड़ दिया गया है। संभव की परम्पराऐं कोल्हापूर, जिनकांची (मद्रास). है अपने संघ को अधिकाधिक प्रभावशाली बनाने की पेनुगोण्ड (आन्ध्र) और कारंजा (विदर्भ) में उपलब्ध दृष्टि से यह कदम उठाया गया हो मैसूर होती हैं। प्रचार प्रसार का केन्द्र रहा है । ११६ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्राविड़ संघ में अनेक प्रसिद्ध आचार्य हए हैं। को एकीकरण कर काष्ठासंघ नाम दे दिया गया हो उनमें वादिराज और माल्लिषण विशेष उल्लेखनीय इस संघ में जयसेन, महासेन आदि जैसे अनेक प्रसिद्ध है। उनके ग्रन्थों में मंत्र तत्र के प्रयोग अधिक मिलते आचार्य और ग्रन्थकार हए हैं। अपवाल, खण्डेलबाल हैं । भट्टारक प्रथा का प्रचलन विशेषतः द्राविड संघ आदि उप जातियां इसी संघ के अन्तरगत निर्मित हई हैं। से ही हुआ होगा। यापनीय संघ काष्ठ संघ काष्ठासंघ की उत्पनि मथग के समीपवर्ती दर्शनसार के अनुसार इस संघ की उत्पत्ति वि. सं. काष्ठा ग्राम में हुई थी। दर्शनमार के अनुसार वि. कि 205 में श्री कलश नामक श्वेताम्बर साध ने की थी। सं. 753 में इसकी स्थापना विनयसेन के शिष्य संघभेद होने के बाद शायद यह प्रथम संघ था जिसने । कुमारसेन के द्वारा की गई थी। तदनानुसार मयूर श्वेताम्बर और दिगम्बर, दोनों की मान्यताओं को पिक्ष के स्थान पर गोपिच्छ रखने की अनुमति दी गई। एकाकार कर दोनों को मिलाने प्रयत्न किया था। इस वि. स 853 में रामसेन ने माथूर संघ की स्थापना संव के आचार के अनुसार साधु नग्न रहता, मयुरकर गोपिच्छ रखने को भी अनावश्यक बताया है। पिच्छ धारण करता, पाणितलभोजी होता और नग्न बुलाकीचन्द के वचन कोश (वि.सं. 1737) में काष्ठान मूर्ति की पूजन करता था। पर विचार की दृष्टि संघ की उत्पत्ति उमा स्वामी के शिष्य लोहाचार्य द्वारा से वे श्वेताम्बर सम्प्रदाय के समीप थे। तदनुसार निर्दिष्ट है। वे स्त्रीमुक्ति, केवलीकवलाहार और सवस्त्र मुक्ति मानते थे उनमें आवश्यक छेदसूत्र, नियुक्ति, दशवकाकाष्ठा संघ का प्राचीनतम उल्लेख श्रवण वेलगोला लिक आदि श्वेताम्बरीय प्रन्थों का भी अध्ययन होता के वि. सं. 1119 के लेख में मिलता है । मुरेन्द्र कीति था । (वि. सं. 1747) द्वारा लिखित पट्टावली के अनुसार लगभग 14 वीं शताब्दी तक इस संघ के प्रमुख चार आचार विचार का यह संयोग यापनीय संघ की अवान्तर भेद हो गये थे-माथुरगच्छ, वागडगच्छ, लाट- लोकप्रियता का कारण बना । इसलिए इसे राज्य संरवागडगच्छ एवं नन्दितगच्छ । बारहवीं शती तक के क्षण भी पर्याप्त मिला। कदम्ब, चालुक्य, गंग राष्ट्रकूट, शिलालेखों में ये नन्दितगच्छ को छोड़कर शेष तीनों र आदि वंशों के राजाओं ने यापनीय संघ को प्रभूत गच्छ स्वतन्त्र संघ के रूप में उल्लिखित हैं। उनका दानादि देकर उसका विकास किया था। इस संघ का उदय क्रमशः मथुरा, बागड (पूर्व गुजरात) और लाट अस्तित्व लगभग 15 वीं शताब्दी तक रहा है, यह दक्षिण गुजरात) देश में हुआ था। चतुर्थ गच्छ नन्दितट शिलालेखों से प्रमाणित होता है । ये शिलालेख विशेषतः की उत्पत्ति नान्देड़ (महाराष्ट्र) में हुई दर्शनसार के कर्नाटक प्रदेश में मिलते हैं । यही इसका प्रधान केन्द्र रहा अनुसार नान्देड़ महाराष्ट्र ही काष्ठा संघ का उद्भव होगा। बेलगांव, वीजापूर, धारवाड़ कोल्हापुर आदि स्थान है। संभव है इस समय तक उक्त चारों गच्छों स्थानों पर भी यापनीय संघ का प्रभाव देखा जाता है। . 37. षडदर्शन समुच्चय, षट्प्राभूतटीका, पृ. 7 छ. 38. अमोध वृत्ति 1-2-201-4. Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यापनीय संघ भी कालान्तर में अनेक शाखा प्रशा- दोनों शब्द श्वेताम्बर सम्प्रदाय में अधिक प्रचलित हए खाओं में विभक्त हो गया। उसकी सर्वप्रथम शाखा दिगम्बर सम्प्रदाय में उनका स्थान क्रमशः मूलसंघ और 'नन्दिगण, नाम से प्रसिद्ध है। कुछ अन्य गणों का भी द्राविड़ संघ ने ले लिया। बाद में तो मलसंघी भी . उल्लेख शिलालेखों में मिलाता है जैसे-कनकोपलसम्भू चैत्यवासी बनते दिखाई देने लगे। आचार्य गुणभद्र तवृक्षमूल गण, श्रीमूलगण, पुन्नागवृक्षमूलगण कौमुदीगण (नवीं शताब्दी) के समय साघुओं की प्रवृत्ति नगरवास मडुवगप वान्दियूरगण, कण्डरगण, बलहारीगण आदि की ओर अधिक झुकने लगी थी। इसका उन्होंने तीब्र ये नाम प्रायः वृक्षों के नामों पर रखे गये हैं । सम्भव है विरोध भी किया । इस संघ ने उन वृक्षों को किसी कारणवश महत्व दिया मध्ययुग तक आते-आते जैनधर्म की आचार हो । लगता है, बाद में यापनीय संघ मूलसघ से सम्बद्ध व्यवस्था में काफी परिवर्तन आ गया। साधु समाज में हो गया होगा। लगभग 11 वीं शताब्दी तक नन्दिसंघ परिग्रह और उपभोग के साधनों की ओर खिचाव का उल्लेख द्रविडसंघ के अंतर्गत होता रहा और 12 अधिक दिखाई देने लगा । श्वेताम्बर सम्प्रदाय में तो वीं शताब्दी से वह मूलसंघ के अंतर्भूत होता हुआ यह प्रवृत्ति बहत पहले से ही प्रारम्भ हो गई थी। पर दिखता हैं। दिगम्बर सम्प्रदाय भी अब वस्त्र की ओर आकर्षित यापनीय संघ के आचार्य साहित्य सर्जना में भी होने लगा । इसका प्रारम्भ वसन्तकीति (13 वीं अग्रणी थे। पाल्यकीर्ति का शकटायन व्याकरण, अपरा- शताब्दी) द्वारा मण्डपदुर्ग (मांडलगढ़, राजस्थान) में जित की मूलाराधना पर विजयोदया टीका और शिवार्य किया गया 140 भट्टारक प्रथा भी लगभग यहीं से प्रारम्भ की भगवती आराधना का विशेष उल्लेख यहाँ किया जा हो गई । यहाँ यह उल्लेखनीय है कि वे दिगम्बर भट्टासमता है। रक नग्न मुद्रा को पूज्य मानते थे और यथावसर उसे धारण करते थे । स्नान को भी वे वर्जित नहीं मानते भट्टारक सम्प्रदाय थे । पिच्छी के प्रकार और उपयोग में भी अन्तर आया उक्त संघों की आचार विचार परम्परा की समीक्षा धीरे-धीरे ये साधू-मठाधीश होने लगे और अपनी पीठ करने पर यह स्पष्ट आभास होता है कि जैन संघ में __ स्थापित करने लगे । उस पीठ की प्रचुर सम्पदा के भी समय और परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तन होता वे उत्तराधिकारी होने लगे । इसके बावजूद उनमें निर्वस्त्र रहने अथवा जीवन के अन्तिम समय नग्न रहा है। यह संघ मूलतः निष्परिग्रही और वनवासी मुद्रा धारण करने की प्रथा थी । प्रसिद्ध विद्वान भट्टाथा, पर लगभग चौथी पाँचनी शताब्दी में कुछ साधु चैत्यों में भी आवास करने लगे। यह प्रवृत्ति श्वेताम्बर रक कुमुदचन्द्र पालकी पर बैठते थे, छत्र लगाते थे. और दिगम्बर, दोनों परम्पराओं में लगभग एक साथ और नग्न रहते थे।" पनपी । इस तरह नहाँ साधु सम्प्रदाय दो भागों में लगभग बारहवीं शती तक आते-आते भट्टारक विभक्त हो गया वनवासी और चैत्यवनी पर ये समुदाय का आचार मूलाचार से बहुत भिन्न हो गया। 39. आत्मानुशासन, 197. 40. भट्टारक सम्प्रदाय, विद्याधर जोहगपुर कर, आचार्य भिक्षु स्मृति ग्रन्थ, द्वितीय खण्ड प. 37. 41. जैन निबन्ध रत्नावली 405. Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आशाधर ने उनके आचार को म्लेच्छों के आचार के टन करते और वैद्यक यन्त्र, मन्त्र, गण्डा, ताबीज आदि समान बताया है । सोमदेव ने भी यशस्तिलक चम्पू में कुशल होते हैं। में इसका उल्लेख किया है । इबेताम्बर चैत्यवासियों में ये श्रावकों को सुविहित साधुओं के पास जाते हुए भी इसी प्रकार का कुत्सित आचरण घर कर गया था, रोकते हैं, शाप देने का भय दिखाते हैं, परस्पर विरोध जिसका उल्लेख हरिभद्र ने संबोध प्रकरण में किया है। उन्होंने लिखा है कि ये कुसाधु चैत्यों और मठों में रहते हैं. रखते हैं, और चेलों के लिए एक दूसरे से लड़ मरते हैं। पूजा करने का आरम्भ करते हैं, देव द्रव्य का उपभोग जो लोग इन भ्रष्टचारियों को भी मुनि मानते करते हैं, जिन मन्दिर और शालाऐं चिनवाते है, रंग-बिरंगे थे, उनको लक्ष्य करके हरिभद्र ने कहा है, "कुछ अज्ञानी सुगन्धित धूपवासित वस्त्र पहिनते हैं, बिना नाथ के बैलों कहते हैं कि यह तीर्थकरों का वेष है. इसे भी नमस्कार के सदृश स्त्रियों के आगे गाते हैं, आयिकाओं द्वारा लाये करना चाहिए । अहो ! धिक्कार हो इन्हें । मैं अपने गये पदार्थ खाते हैं और तरह तरह के उपकरण रखते त शिर के शूल की पुकार किसके आगे जाकर करूं।" हैं । जल, फल, फूल आदि संचित्त द्रव्यों का उपभोग करते हैं. दो तीन बार भोजन करते और ताम्बूल दिगम्बर साधुओं में भी लगभग इसी प्रकार का लवंगादि भी खाते हैं। आचरण प्रचलित हो गया था। महेन्द्रसूरि की शतपदी (वि. स. 1263) इसका प्रमाण है। तदनुसार दिगम्बर ये मुहूर्त निकालते हैं, निमित्त बतलाते हैं, भभूत मुनि नग्नत्व के प्रावरण के लिए योगपट्ट (रेशमी वस्त्र) भी देते है । ज्योनारों में मिष्ठाहार प्राप्त करते हैं, आदि धारण करते थे। उत्तर काल में उसका स्थान आहार के लिए खुशामद करते है और पूछने पर भी वस्त्र ने ले लिया। श्र तसगर की तत्वार्थसूत्र टीका में यह सत्य धर्म नहीं बतलाते । भी लिखा है कि शीतकाल में ये दिगम्बर मनि कम्बल स्वयं भ्रष्ट होते हए भी दूसरों से आलोचना प्रति- आदि भी ग्रहण कर लेते थे और शीतकाल के व्यतीत कमण कराते हैं । स्नान करते, तेल लगाते, श्रगार होने के उपरान्त वे उन्हें छोड़ देते थे। धीरे-धीरे ऋतु करते और इत्र फुलेल का उपयोग करते हैं । अपने काल का भी बन्धनत्व दूर हो गया और साधु यथेच्छ हीनाचारी मृतक गुरूओं की दाहभूमि पर स्तप बनवाते वस्त्र धारण करने लगे । साथ ही गद्दे, तकिये, पालकी हैं। स्त्रियों के समक्ष ध्याख्याम देते हैं और स्त्रियाँ छत्र, चंवर, मठ, सम्पत्ति आदि विलासी सामग्री का उनके गुणों के गीत गाती हैं। भी परिग्रह बढ़ने लगा । ऐसे साधुओं को भट्टारक अथवा चैत्यवासी कहा गया है । सारी रात सोते, क्रय-विक्रय करते और प्रवचन के बहाने बिकथायें किया करते हैं । चेला बनाने के उक्त तथ्यों से यह स्पष्ट है कि मध्यकालीन जैन लिए छोटे-छोटे बच्चों को खरीदते, भोले लोगों को ठगाते संघ में यह शिथिलाचार सुरसा की भाँति बढ़ता चला और जिन प्रतिमाओं को भी बेचते खरीदते हैं । उच्चा- जा रहा था। विशुद्धतावादी आचार्यों ने उसकी घनघोर 42. अनागार धर्मामृत, 2,96. 43. जैन साहित्य और इतिहास-पृ. 489. 44. संबोध प्रकरण, 76: जैन साहित्य का इतिहास, पृ. 480-81. ११६ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निन्दा की फिर भी उसका विशेष प्रभाव नहीं पड़ा। मूर्तिकला और स्थापत्यकला को गहरा आघात दूसरा मूल कारण था कि समाज का मानसिक परिवर्तन पहुचा दिया था। उन्होने इन सभी साँस्कृतिक धरोबडी तीब्रता से होता चला जा रहा था। भट ट रकों हरों को अधिकाधिक परिमाण में नष्ट भ्रष्ट कर दिया का मुख्य कार्य मूर्तियों की प्रतिष्ठा, मन्दिरों का निर्माण था । ये अचेतन मतियाँ इस कार्य का कोई विरोध नहीं और उनकी व्यवस्था, यान्त्रिक, मान्त्रिक और तान्त्रिक कर सकी। प्रत्यत उन्होंने आपत्तियों को निमन्त्रित प्रतिपादन तथा यक्ष-यक्षणियों और देवी-देवताओं का किया । फलस्वरूप दिगम्बर सम्प्रदाय के ही व्यक्ति के भजन-पूजन हो गया । साधारण समाज में ये कार्य बड़े मन में Taara गई लोकप्रिय हो गये थे । अत: उपासकों में भट्टारक और उसने अपना नया पन्थ प्रारम्भ कर दिया। कालासमाज के प्रति श्रद्धा जाग्रत हो गई थी। भट्टारको न्तर में इस पन्थ के संस्थापक तारणतरण स्वामी के के कारण मूर्ति और स्थापत्य कला को अधिकाधिक नाम से प्रसिद्ध हुआ । सन् 1515 में उनका स्वर्गवास प्रोत्साहन मिला । जैन ग्रन्थभण्डार स्थापित किये मल्हारगढ़ (ग्वालियर) में हुआ । यही स्थान आज गये, साहित्य सृजन और संरक्षण की ओर अभिरुचि नसिया जी कहलाता है, जो आज एक तीर्थ स्थान बन जाग्रत हई तथा जैनधर्म का प्रभावना-क्षेत्र बढ गया। गया है । इस पन्थ का विशेष प्रचार मध्यप्रदेश में जैन संघ और सम्प्रदाय को भट्टारक सम्प्रदाय की यह हुआ। इसके अनुयायी मूर्ति के स्थान पर शास्त्र की देन अविस्मरणीय है। पूजा करते हैं । ये दिगम्बर सम्प्रदाय में मान्य सभी तेरहपन्थ और वीसपन्थ ग्रन्थों को स्वीकार करते हैं । तारणतरण स्वामी ने तारणतरण श्रावकाचार, पण्डितपूजा, मालारोहण, - भट्टारक सम्प्रदाय का उक्त आचार-विचार जैन कमलबचीसी, उपदेशशुद्धसार, ज्ञानसमुच्यमार, अंमल धर्म के कुशल ज्ञाताओं के बीच आलोचना का विषय पाहुड़, चौबीस ठाण, त्रिभङ्गीसार आदि 14 छोटे-मोटे बना रहा। कहा जाता है कि उसके विरोध में पण्डित ग्रन्थों की रचना की हैं उनमें श्रावकाचार प्रमुख हैं। प्रवर बनारसी दास ने सत्रहवीं शताब्दी में आगरा में एक आन्दोलन चलाया। इसी आन्दोलन का नाम तेरह . श्वेताम्बर संघ और सम्प्रदाय पन्थ रखा गया। इसके नाम के विषय में कोई निविवाद सिद्धान्त नहीं है। इस तेरहपन्थ की दृष्टि में भट टा. .. जैसा हम पहले कह चुके हैं, श्वेताम्बर सम्प्रदाय रकों का आचार सम्यक नहीं । वह तो महावीर के की उत्पत्ति एक विकास का परिणाम है। कुछ समय द्वारा निर्दिष्ट मूलाचार को ही मूल सिद्धान्त स्वीकार तक श्वेताम्बर साधु वस्त्र को अपवाद के रूप में ही करता है। यह पन्थ समाज में काफी लोकप्रिय हो कटिवस्त्र धारण किया करते थे। पर बाद में लगभग गया। दूसरी ओर भट टारकों अथवा चैत्यवामियों आठवीं शती में उन्होंने उन्हें पूर्णतः स्वीकार कर लिया। के अनयायी अपने आप को वीसपन्थी कहने लगे । इस साधारणतः उनके पास ये चौदह उपकरण होते हैंपन्थ के अनुयायी प्रतिमाओं पर केसर लगाते तथा पाव, पात्रबन्ध, पात्रस्थापन, पात्रप्रमार्जनिका, पटलं, पंष्पमालायें और हरे फल आदि चढ़ाते हैं । तेरहपन्थ रजस्माण, गुच्छक, दो चादर, कम्बल (ऊनी वस्त्र), के अनुयायी इसके विरोधक है । रजोहरण, मुखवस्त्रिका, मात्रक और चोलक । महावीर निर्वाण के लगभग 1000 वर्ष बाद देवधिगणि क्षमातारणपन्थ श्रमण के नेतृत्व में श्वेताम्बर सम्प्रदाय ने अपने ग्रन्थों पन्द्रहवीं शताब्दी तक मुस्लिम आक्रमणों ने जंन का संकलन श्रुति परम्परा के आधार पर किया जिन्हें १२९ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगम्बरों ने स्वीकार नहीं किया। इसका मूल कारण था कि वहाँ कतिपय प्रकरणों को काट-छाँट और तोड़मरोड़कर उपस्थित किया गया था । श्वेताम्बर सघ में निम्नलिखित प्रधान सम्प्रदाय उत्पन्न हुए । चत्यवासी श्वेताम्बर सम्प्रदाय में बनवासी साधुओं के विप रीत लगभग चतुर्थ शताब्दों में एक चेत्यवासी साधु सम्प्रदाय खड़ा हो गया, जिसने वनों को छोड़कर चैत्यों ( मन्दिरों) में निवास करना और ग्रन्थ संग्रह के लिए आवश्यक द्रव्य रखना विहित माना। इसी के पोषण में उन्होंने निगम नामक शास्त्रों की रचना भी की। हरि मद्रसूरि ने इन चैत्यवासियों की ही निन्दा अपने संबोध प्रकरण में की है। चैत्यवासियों ने 45 आगमों को प्रमाणिक स्वीकार किया है। वि. सं. 802 में अणहिलपुर पट्टाण के राजा पावड़ा ने अपने चत्यवासी गुरू शीलगुणसुरि की आशा से यह निर्देश दिया कि इस नगर में वनवासी साधुओं का प्रवेश नहीं हो सकेगा। इससे पता चलता है कि लगभग आठवीं शताब्दी तक स्पवासी सम्प्रदाय का प्रभाव काफी बढ़ गया था। बाद में वि. सं. 1070 में दुर्लभदेव की सभा में जिनेश्वरसूरि और बुद्धिसागर सूरि ने चत्यवासी साधुओं से शास्त्रार्थं करके उक्त निर्देश को वापिस कराया। इसी उपलक्ष्य में राजा दुर्लभदेव ने वनवासियों को खरतर नाम दिया । इसी नाम पर खरतरगक्छ की स्थापना हुई । श्वेताम्बर सम्प्रदाय कालान्तर में विविध गच्छों में विभक्त हो गया। उन गच्छों में प्रमुख गच्छ इस प्रकार हैं 45 : 2. खरतरगच्छ जैसा उपर कहा जा चुका है, खरतरगच्छ की स्थापना में दुर्लभदेव का विशेष हाथ रहा है । उनके अतिरिक्त वर्धमानसूरि के शिष्य जिनेश्वरसूरि ने चैत्यवासियों के साथ शास्त्रार्थं किया था । ३. तपागच्छ - वि. सं. 1285 में जगच्चन्द्रसूरि की कठोर साधना को देखकर मेवाड़ के राजा ने उन्हें 'तपा' अभिधान दिया। तभी से उनका संघ तपागच्छ के नाम से पुकारा जाने लगा । कालान्तर में उन्हीं के अन्यतम शिष्य विजयचन्द्रसूरि ने शिथिलाचार को प्रोत्साहन दिया। उन्होंने यह स्थापित किया कि साघु अनेक वस्त्र रख सकता है, उन्हें धो सकता है. घी, दूध शाक्, फल आदि खा सकता है, साध्वी द्वारा अर्जित भोजन ग्रहण कर सकता है । ४. पार्श्वनाथगच्छ से - वि. सं. 1515 में तपागच्छ पृथक् होकर आचार्य पार्श्वचन्द्र से इस गच्छ की स्थापना की। वे नियुक्ति, भाष्य, पुर्णि, और छेद ग्रन्थों को प्रमाण कोटि में नहीं रखते थे । ५. साधं पोर्णमीयकगच्छ आचार्य चन्द्रप्रभसूरि ने प्रचलित क्रियाकाण्ड का विशेषकर पौर्णमीयक गच्छ की स्थापना की। वे महानिशीय सूत्र को प्रमाण नहीं मानते थे। कुमारपाल के विरोध के कारण इस गच्छ का कोई विशेष विकास नहीं हो पाया। कालान्तर में सुमतिसिंह ने इस गच्छ का उद्वार किया। इसलिए इसे सार्धं पौर्णमीयकगच्छ कहा जाने लगा । 6. अंचलगच्छ - उपाध्याय विजयसिंह ( आर्यरक्षितसूरि ) ने मुखपट्टी के स्थान पर अंचल (वस्त्र का १. उपदेश गच्छ पार्श्वनाथ का अनुयायी केशी छोर) के उपयोग करने की घोषणा की। इसीलिए - इसका संस्थापक कहा जाता है । अंचलगच्छ कहा जाता है । 45. विस्तार से देखें-जैन धर्म- कैलाशचन्द्र शास्त्री, पू. 290-2. १२१ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. आगमिकगच्छ इस गच्छ के संस्थापकशील तेरापन्थ गुण और देवभद्र पहले पौर्णमेयक थे, बाद में आंचलिक हुए और फिर आगमिक हो गये । वे क्षेत्रपाल की पूजा को अनुचित बताते थे। सोलहवीं शती में इसी गच्छ की एक शाखा 'कटुक' नाम से प्रसिद्ध हुई। इस शाखा के अनुयायी केवल श्रावक ही थे। इन गच्छों की स्थापना छोटे-मोटे कारणों से हुई है। प्रत्येक गच्छ की साधु-चर्या पृथक-पृथक है । इन गच्छों में आजकल खरतरगच्छ तपागच्छ और आंचलिकगच्छ ही अस्तिव में हैं । स्थानकवासी स्थानकवासी सम्प्रदाय की उत्पत्ति चैत्यवासी सम्प्रदाय के विरोध में हुई। पन्द्रहवीं शताब्दी में अहमदाबादवासी मुनि ज्ञानश्री के शिष्य लोकाशाह ने आगमिक ग्रन्थों के आधार पर यह प्रस्थापित किया कि मूर्ति पूजा और आचार-विचार जो आज के समाज में प्रचलित है वह आगम विहित नहीं हैं। इसे लोकागच्छ नाम दिया गया । उत्तरकाल में सूरतवासी एक साधु ने लोकागच्छ की आचार परम्परा में कुछ सुधार किया और ढूंढिया सम्प्रदाय की स्थापना की । लोकागच्छ के सभी अनुयायी इस सम्प्रदाय के अनुयायी हो गये। इसके अनुसार अपना धार्मिक क्रियाकर्म मन्दिरों मे न कर स्थानकों अथवा उपाश्रयों में करते हैं । इसलिए इस सम्प्रदाय को स्थानकवासी सम्प्रदाय कहा जाने लगा। इसे साधुमार्गी भी कहते हैं । यह सम्प्रदाय तीर्थयात्रा में भी विशेष श्रद्धा नहीं रखता। इसके साधु श्वेतवस्त्र पहनते और मुखपट्टी बांधते हैं। अठारहवीं शती में सत्यविजय पंयास ने साधुओं को श्वेतवस्त्र के स्थान पर पीत वस्त्र पहनने का विधान किया, पर आज यह आचार में दिखाई नहीं देता । भट्टारक प्रथा भी इसी समय प्रारम्भ हुई । स्थानकवासी सम्प्रदाय में आचार-विचार की शिथिलता बढ़ रही थी। धावकों में उसकी प्रतिक्रिया के दर्शन हो रहे थे। उनका मानस भिक्षुओं के प्रति श्रद्धा से विदूर हो रहा था। यह सब देखकर स्थानकवासी सम्प्रदाय में दीक्षित आचार्य भिक्षु ( जन्म वि. स. 1783, कन्टालिया - जोधपुर ) ने वि. सं. 1817 चैत्रशुक्ला 9 के दिन अपने पृथक् सम्प्रदाय की स्थापना का सूत्रपात किया। लगभग तीन माह बाद उन्होंने तेरापन्थ की दीक्षा स्वीकार की। इस अवसर पर उनके साथ तेरह साधु थे और तेरह श्रावक । इसी संख्या पर इस सम्प्रदाय का नाम "तेरापन्थ' रख दिया गया । 'तेरा' शब्द से यह भी आशय निक लता है कि है भगवान ! यह तुम्हारा ही मार्ग है जिस पर हम चल रहे हैं । स्थानकवासी सम्प्रदाय के समान तेरापन्थ भी बत्तीस आगमों को प्रामाणिक मानता है । तद्नुसार प्रमुख मान्यतायें इस प्रकार है (1) षष्ठ या षष्ठोत्तर गुणस्थानवर्ती सुपात्र संयमी को यथाविधि प्रदत दान ही पुष्य का मार्ग हैं। (2) जो आत्मशुद्धिपोषक दया है वह परमार्थिक है और जिसमें साध्य और साधन शुद्धि नहीं है, वह मात्र लौकिक (3) मिध्यादृष्टि के दान, शील, तप आदि अनवद्य अनुष्ठान मोक्ष प्राप्ति के ही हेतु हैं और निर्जरा धर्म के अन्तर्गत हैं । 1 इस सम्प्रदाय में एक ही आचार्य होता है और उसी का निर्णय अन्तिम रूप से मान्य होता है। इससे संघ में फूट नही हो पाती। अभी तक तेरापन्य के आठ आचार्य हो चुके हैं भिक्षु ( भीखम), भारमल, रामचन्द्र, जीतमल मछवागणी, माणकगणी, डालगणी, १२२ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और कालूगणी। इसी श्रखला में आचार्य तुलसी जी अधिक बन जाती हैं / विकास में बाधक होती हैं रुढ़िया नवम् आचार्य हैं। जो तेरापन्थ में यथा समय भग्न होती चली जाती हैं। आचार-विचार की दिशा में भी यह पन्थ आगे हैं। तेरापन्थ की संघ व्यवस्था विशेष प्रशंसनीय है। उदाहरणतः (1) साधु के भोजन, वस्त्र, पुस्तक आदि इस प्रकार महावीर के निर्वाण के बाद जैन संघ जैसी आवश्यकताओं की पूर्ति का सामुदायिक उत्तर- और सम्प्रदाय अनेक शाखा-प्रशाखाओं में विभक्त हो दायित्व संघ पर है। (2) प्रति वर्ष साधु-साध्वियाँ गया। पर उनका आचार-विचार जैन धर्म के मूल रूप आचार्य के सान्निध्य में एकत्रित होकर अपने-अपने कायों से बहुत दूर नहीं रहा। इसलिए उनमें बह-हास नहीं का विवरणं प्रस्तुत करते हैं और आगामी वर्ष का आया जो बौद्धधर्म में आ गया था। जैन संघ की यह कार्यक्रम तैयार करते हैं। इसे मर्यादा महोत्सव कहा विशेषता जनेतर संघों की दष्टि से निःसदेह महत्वजाता है / (3) संघ में दीक्षित करने का अधिकार मात्र पूर्ण है / आचार्य को है, अन्य किसी को नहीं / इस व्यवस्था से संघ का एक ओर जहाँ सामुदायिक विकास होता है वहाँ वैयक्तिक विकास की भी संभावनाएँ 123