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________________ ७. आगमिकगच्छ इस गच्छ के संस्थापकशील तेरापन्थ गुण और देवभद्र पहले पौर्णमेयक थे, बाद में आंचलिक हुए और फिर आगमिक हो गये । वे क्षेत्रपाल की पूजा को अनुचित बताते थे। सोलहवीं शती में इसी गच्छ की एक शाखा 'कटुक' नाम से प्रसिद्ध हुई। इस शाखा के अनुयायी केवल श्रावक ही थे। इन गच्छों की स्थापना छोटे-मोटे कारणों से हुई है। प्रत्येक गच्छ की साधु-चर्या पृथक-पृथक है । इन गच्छों में आजकल खरतरगच्छ तपागच्छ और आंचलिकगच्छ ही अस्तिव में हैं । स्थानकवासी स्थानकवासी सम्प्रदाय की उत्पत्ति चैत्यवासी सम्प्रदाय के विरोध में हुई। पन्द्रहवीं शताब्दी में अहमदाबादवासी मुनि ज्ञानश्री के शिष्य लोकाशाह ने आगमिक ग्रन्थों के आधार पर यह प्रस्थापित किया कि मूर्ति पूजा और आचार-विचार जो आज के समाज में प्रचलित है वह आगम विहित नहीं हैं। इसे लोकागच्छ नाम दिया गया । उत्तरकाल में सूरतवासी एक साधु ने लोकागच्छ की आचार परम्परा में कुछ सुधार किया और ढूंढिया सम्प्रदाय की स्थापना की । लोकागच्छ के सभी अनुयायी इस सम्प्रदाय के अनुयायी हो गये। इसके अनुसार अपना धार्मिक क्रियाकर्म मन्दिरों मे न कर स्थानकों अथवा उपाश्रयों में करते हैं । इसलिए इस सम्प्रदाय को स्थानकवासी सम्प्रदाय कहा जाने लगा। इसे साधुमार्गी भी कहते हैं । यह सम्प्रदाय तीर्थयात्रा में भी विशेष श्रद्धा नहीं रखता। इसके साधु श्वेतवस्त्र पहनते और मुखपट्टी बांधते हैं। अठारहवीं शती में सत्यविजय पंयास ने साधुओं को श्वेतवस्त्र के स्थान पर पीत वस्त्र पहनने का विधान किया, पर आज यह आचार में दिखाई नहीं देता । भट्टारक प्रथा भी इसी समय प्रारम्भ हुई । Jain Education International स्थानकवासी सम्प्रदाय में आचार-विचार की शिथिलता बढ़ रही थी। धावकों में उसकी प्रतिक्रिया के दर्शन हो रहे थे। उनका मानस भिक्षुओं के प्रति श्रद्धा से विदूर हो रहा था। यह सब देखकर स्थानकवासी सम्प्रदाय में दीक्षित आचार्य भिक्षु ( जन्म वि. स. 1783, कन्टालिया - जोधपुर ) ने वि. सं. 1817 चैत्रशुक्ला 9 के दिन अपने पृथक् सम्प्रदाय की स्थापना का सूत्रपात किया। लगभग तीन माह बाद उन्होंने तेरापन्थ की दीक्षा स्वीकार की। इस अवसर पर उनके साथ तेरह साधु थे और तेरह श्रावक । इसी संख्या पर इस सम्प्रदाय का नाम "तेरापन्थ' रख दिया गया । 'तेरा' शब्द से यह भी आशय निक लता है कि है भगवान ! यह तुम्हारा ही मार्ग है जिस पर हम चल रहे हैं । स्थानकवासी सम्प्रदाय के समान तेरापन्थ भी बत्तीस आगमों को प्रामाणिक मानता है । तद्नुसार प्रमुख मान्यतायें इस प्रकार है (1) षष्ठ या षष्ठोत्तर गुणस्थानवर्ती सुपात्र संयमी को यथाविधि प्रदत दान ही पुष्य का मार्ग हैं। (2) जो आत्मशुद्धिपोषक दया है वह परमार्थिक है और जिसमें साध्य और साधन शुद्धि नहीं है, वह मात्र लौकिक (3) मिध्यादृष्टि के दान, शील, तप आदि अनवद्य अनुष्ठान मोक्ष प्राप्ति के ही हेतु हैं और निर्जरा धर्म के अन्तर्गत हैं । 1 इस सम्प्रदाय में एक ही आचार्य होता है और उसी का निर्णय अन्तिम रूप से मान्य होता है। इससे संघ में फूट नही हो पाती। अभी तक तेरापन्य के आठ आचार्य हो चुके हैं भिक्षु ( भीखम), भारमल, रामचन्द्र, जीतमल मछवागणी, माणकगणी, डालगणी, १२२ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210885
Book TitleJain Sangh aur Sampradaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherZ_Tirthankar_Mahavir_Smruti_Granth_012001.pdf
Publication Year
Total Pages25
LanguageHindi
ClassificationArticle & Jain Sangh
File Size2 MB
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