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________________ दिगम्बरों ने स्वीकार नहीं किया। इसका मूल कारण था कि वहाँ कतिपय प्रकरणों को काट-छाँट और तोड़मरोड़कर उपस्थित किया गया था । श्वेताम्बर सघ में निम्नलिखित प्रधान सम्प्रदाय उत्पन्न हुए । चत्यवासी श्वेताम्बर सम्प्रदाय में बनवासी साधुओं के विप रीत लगभग चतुर्थ शताब्दों में एक चेत्यवासी साधु सम्प्रदाय खड़ा हो गया, जिसने वनों को छोड़कर चैत्यों ( मन्दिरों) में निवास करना और ग्रन्थ संग्रह के लिए आवश्यक द्रव्य रखना विहित माना। इसी के पोषण में उन्होंने निगम नामक शास्त्रों की रचना भी की। हरि मद्रसूरि ने इन चैत्यवासियों की ही निन्दा अपने संबोध प्रकरण में की है। चैत्यवासियों ने 45 आगमों को प्रमाणिक स्वीकार किया है। वि. सं. 802 में अणहिलपुर पट्टाण के राजा पावड़ा ने अपने चत्यवासी गुरू शीलगुणसुरि की आशा से यह निर्देश दिया कि इस नगर में वनवासी साधुओं का प्रवेश नहीं हो सकेगा। इससे पता चलता है कि लगभग आठवीं शताब्दी तक स्पवासी सम्प्रदाय का प्रभाव काफी बढ़ गया था। बाद में वि. सं. 1070 में दुर्लभदेव की सभा में जिनेश्वरसूरि और बुद्धिसागर सूरि ने चत्यवासी साधुओं से शास्त्रार्थं करके उक्त निर्देश को वापिस कराया। इसी उपलक्ष्य में राजा दुर्लभदेव ने वनवासियों को खरतर नाम दिया । इसी नाम पर खरतरगक्छ की स्थापना हुई । श्वेताम्बर सम्प्रदाय कालान्तर में विविध गच्छों में विभक्त हो गया। उन गच्छों में प्रमुख गच्छ इस प्रकार हैं 45 : 2. खरतरगच्छ जैसा उपर कहा जा चुका है, खरतरगच्छ की स्थापना में दुर्लभदेव का विशेष हाथ रहा है । उनके अतिरिक्त वर्धमानसूरि के शिष्य जिनेश्वरसूरि ने चैत्यवासियों के साथ शास्त्रार्थं किया था । Jain Education International ३. तपागच्छ - वि. सं. 1285 में जगच्चन्द्रसूरि की कठोर साधना को देखकर मेवाड़ के राजा ने उन्हें 'तपा' अभिधान दिया। तभी से उनका संघ तपागच्छ के नाम से पुकारा जाने लगा । कालान्तर में उन्हीं के अन्यतम शिष्य विजयचन्द्रसूरि ने शिथिलाचार को प्रोत्साहन दिया। उन्होंने यह स्थापित किया कि साघु अनेक वस्त्र रख सकता है, उन्हें धो सकता है. घी, दूध शाक्, फल आदि खा सकता है, साध्वी द्वारा अर्जित भोजन ग्रहण कर सकता है । ४. पार्श्वनाथगच्छ से - वि. सं. 1515 में तपागच्छ पृथक् होकर आचार्य पार्श्वचन्द्र से इस गच्छ की स्थापना की। वे नियुक्ति, भाष्य, पुर्णि, और छेद ग्रन्थों को प्रमाण कोटि में नहीं रखते थे । ५. साधं पोर्णमीयकगच्छ आचार्य चन्द्रप्रभसूरि ने प्रचलित क्रियाकाण्ड का विशेषकर पौर्णमीयक गच्छ की स्थापना की। वे महानिशीय सूत्र को प्रमाण नहीं मानते थे। कुमारपाल के विरोध के कारण इस गच्छ का कोई विशेष विकास नहीं हो पाया। कालान्तर में सुमतिसिंह ने इस गच्छ का उद्वार किया। इसलिए इसे सार्धं पौर्णमीयकगच्छ कहा जाने लगा । 6. अंचलगच्छ - उपाध्याय विजयसिंह ( आर्यरक्षितसूरि ) ने मुखपट्टी के स्थान पर अंचल (वस्त्र का १. उपदेश गच्छ पार्श्वनाथ का अनुयायी केशी छोर) के उपयोग करने की घोषणा की। इसीलिए - इसका संस्थापक कहा जाता है । अंचलगच्छ कहा जाता है । 45. विस्तार से देखें-जैन धर्म- कैलाशचन्द्र शास्त्री, पू. 290-2. १२१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210885
Book TitleJain Sangh aur Sampradaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherZ_Tirthankar_Mahavir_Smruti_Granth_012001.pdf
Publication Year
Total Pages25
LanguageHindi
ClassificationArticle & Jain Sangh
File Size2 MB
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