Book Title: Jain Sangh aur Sampradaya
Author(s): Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Z_Tirthankar_Mahavir_Smruti_Granth_012001.pdf

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Page 1
________________ जैन संघ -और सम्प्रदाय प्रत्येक धर्म में यथासमय संघ और सम्प्रदाय को कैसे जानेगा? तू मिथ्या दृष्टि है, मैं सम्यकदृष्टि हूँ खड़े हो जाते हैं। उनके पीछे सैद्धान्तिक मतभेद की मेरा कथन सार्थक है, तेरा कथन निरर्थक है। पूर्व कथपृष्ठभूमि रहती है । सैद्धान्तिक मतभेद धर्म और नीय बात तूने पीछे कही और पश्चात् कथनीय बात आगे सम्प्रदाय के विकास की कहानी है। इतिहास इसका कही । तेरा वाद बिना विचार का उल्टा है । तूने वाद साक्षी है कि जिन पन्थों में मतभेद नहीं हो पाये वे आरम्भ किया पर निगृहीत होगया। इस वाद से बचने प्रायः अपने प्रवर्तकों अथवा प्रसारकों के साथ ही के लिए इधर-उधर भटक । यदि इस वाद को समेट कालकवलित हो गये और जिनमें वैचारिक मतभेद सकता है तो समेट । इस प्रकार नातपुत्तीय निगण्ठों में पैदा हुए वे उत्तरोत्तर विकसित होते गये । मानों युद्ध ही हो रहा था। जैनधर्म भी इस तथ्य से दूर नहीं रहा । भगवान महावीर के निर्वाण के उपरान्त ही उनके संघ में मतभेद डा० भागचन्द्र जैन भास्कर प्रगट हो गये । पालि त्रिपिटक इसका साक्षी है। वहाँ कहा गया है कि एक बार भगवान बुद्ध शाक्य देश में एवं मे सुतं एक समयं भगवा सक्केसु विहरति सामग्राम में बिहार कर रहे थे। उसी समय निगण्ठ- सामगामे । तेन खो पेन समयेन निगण्ठो नातपुत्तो नातपुत्त का निर्वाण पावा में हो गया था। उनके पावायं अधुनाकालङ्कतो होति । तस्य कालङ्कि निर्वाण के बाद ही उनके अनुयायियों (निगण्ठों) में करियाय भिन्ना निगण्ठा द्वधिक जाता मण्डनजाता मतभेद पंदा हो गये । वे दो भागों (पक्षों) में विभक्त कलहजाता विवादापन्ना अञ्जमज मुखसत्तीहि हो गये थे और परस्पर संघर्ष और कलह कर रहे वितदन्ता विहरन्ति- “न त्वं इमं धम्मविनयं आजाथे। निगण्ठ एक-दूसरे को वचन-बाणों से बींधते हुए नासि, अहं छमं धम्मविनयं आजानामि । किं त्वं धम्मविवाद कर रहे थे-"तुम इस धर्म विनय को नहीं जानते, विनयं आजानिस्सस्मि ? मिच्छापटिपन्नो त्वमसि, मैं इस धर्म विनय को जानता हूँ।" तू इस धर्म विनय अहमस्मि सम्मापटिपन्नो । सहितं मे असहितं ते । 1. विशेष देखिये, लेखक के ग्रन्थ Jainism in Buddhist Literature तथा बौद्ध संस्कृति का इतिहासप्रथम अध्याय (आलोक प्रकाशन, नागपुर)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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