Book Title: Jain Sangh aur Sampradaya
Author(s): Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Z_Tirthankar_Mahavir_Smruti_Granth_012001.pdf

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Page 10
________________ १. प्रथम निन्हव-(जामालि); बहुरत सिद्धान्त : ३. तृतीय निन्हव-(आषाढ़ आचार्य); अव्यक्त मत जामालि भ. महावीर का शिष्य था। श्रावस्ती श्वेताविका नगरी में आषाढ़ नामक एक आचार्य में उसने अपने शिष्य से एक बार बिस्तर लगाने के थे। वे अकस्मात मरकर देव हुए और पूनः मृत शरीर लिये कहा। शिष्य ने कहा- विस्तर लग गये। में आकर उपदेश देने लगे । योग साधना समाप्त होने जामालि ने जाकर जब देखा कि अभी विस्तर लग रहा पर उन्होंने अपने शिष्यों से कहा-"मैने असंयमी है तो उसे महावीर का कहा हआ "कियमाणं कृत", होते हुए भी आप लोगों से आज तक बन्दना कराई (किया जाने वाला कर दिया गया) वचन असत्य प्रतीत श्रमणो, मुझे क्षमा करना ।" इतना कहकर वे चले गये हआ। तव उसने उस सिध्दांत के स्थान पर बरहुत तब शिष्य कहने लगे-कौन साधु बन्दनीय है, कौन सिद्धांत की स्थापना की जिसका तात्पर्य है कि कोई भी नहीं, यह नहीं कहा जा सकता। अत: किसी की भी क्रिया एक समय में न होकर अनेक समय में होती है वन्दना नही करनी चाहिए । व्यवहार नय को न सममृदानयन आदि से घट का प्रारम्भ होता है पर घट झने के कारण यह निन्हव पैदा हुआ।18 तो अन्त में ही दिखाई देता है । यह ऋजु सूत्रनय का ४.चतर्थ निन्द्रव-(कौण्डिण्य); सामुच्छेदक: विषय है जिसे जामालि ने नहीं समझा। ___ कौण्डिण्य का शिष्य अश्वमित्र मिथला नगरी में २. द्वितीय निन्हव-(तिष्यगुप्त); जीवप्रादेशिक अनुप्रवाद नामक पूर्व का अध्ययन कर रहा था । उसमें सिद्धांत एक स्थान पर प्रसंग आया कि वर्तमान कालीन नारक विच्छिन्न हो जायेगे द्वितीयादि समय के नारक भी तिष्यगुप्त वसु का शिष्य था। एक समय ऋषभपुर । विच्छिन्न हो जायेगे। अतः उसके मन में आया कि में आत्म प्रवाद पर चर्चा चल रही थी। प्रश्न था-क्या उत्पन्न होते हो जब जीव नष्ट हो जाता है तो कर्म का जीव के एक प्रदेश को जीव कह सकते हैं। भगवान फल कब भोगता है। यह क्षणभंवाद पर्यायनय को महावीर ने उत्तर दिया-नहीं। न मानने के कारण उत्पन्न हआ। इसे समुच्छेदक नाम । युक्त होने पर ही 'जीव' कहा जायगा। दिया गया हैं। इसका अर्थ है-- जन्म होते ही अत्यन्त तब तिष्यगुप्त ने कहा कि जिस प्रदेश के कारण वह विनाश हो जाता हैं। जीव नहीं कहलायेगा । उसी चरम प्रदेश को जीव क्यों ५. पञ्चम निन्हव-द्विक्रिया (गंग) नहीं कहा जाता, यही उसका जीव प्रादेशिक मत है। एवंभूतनय न समझने के कारण ही उसने यह मत धनगुप्त का शिष्य गंग एक बार शरदऋतु में स्थापित किया । उलुकातीर नामक नगर से आचार्य की वन्दना करने - A . सरपणं प्रटेका ae 16. विशेषावश्यक भाष्य, गाथा 2308-32. 17. विशेषावश्यक भाष्य, गाथा-2333-2355. 18. विशेषावश्यक भाष्य, माथा-2356-2388. 19. विशेषावश्यक भाष्य, गाथा,-2389-2433. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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