Book Title: Jain Sangh aur Sampradaya
Author(s): Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Z_Tirthankar_Mahavir_Smruti_Granth_012001.pdf

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Page 11
________________ के लिए निकला मार्ग में उसने गर्मी और ठण्ड दोनों का कहा कि साधु के मार्ग में अनेक अनर्थ उत्पन्न करने वाले अनुभव एक साथ किया । तब उसने यह मत प्रतिपा- इस कम्बल को ग्रहण करना उचित नहीं । पर शिवभूति दित किया कि एक समय में दो क्रियाओं का अनुभव को उस कम्बल में आसक्ति उत्पन्न हो गई थी। यह हो सकता है। नदी में चलने पर ऊपर की सूर्य उष्णता समझकर आयंकृष्ण ने शिवभूति की अनुपस्थिति में उस और नदी की शीतलता, दोनों का अनुभव होता है। के पादप्रोच्छनक बना दिये । यह देखकर शिवभूति को गंग ने अपने द्विक्रिया मत की स्थापना करली। तथ्य कषाय उत्पन्न हो गई । एक समय आर्यकृष्ण जिनकाल्पियों यह यह है कि मन की सूक्ष्मता के कारण यह भान नहीं का वर्णन कर रहे थे और कह रहे थे कि उपयुक्त संहनन होता क्रिया का वेदन तो क्रमशः ही होता है। आदि के अभाव होने से उसका पालन सम्भव नहीं । शिवभूति ने कहा-'मेरे रहते हए कैसे हो सकता है । ६. षष्ठ निन्हव-राशिक (रोहगुप्त) यह कह कर अभिनिवेशवश निर्वस्त्र होकर यह मत __एक बार अन्तरंजिका नगरी में रोहगुप्त अपने स्थापित किया कि वस्त्र कष य का कारण होने से परिगुरू की बन्दना करने जा रहा था। मार्ग में उसे अनेक ग्रह रूप है अतः त्याज्य है। प्रवादी गिले जिन्हैं उसने पराजित किया। अपने वाद ये निन्हव किसी अभिनिवेश के कारण आगमिक स्थापन काल में उसने जीव और अजीव के साथ ही परम्परा से विपरीत अर्थ प्रस्तुत करने वाले होते हैं । नोजीव की भी स्थापना की गहकिकिलादि की उसने प्रथम निन्हव महावीर के जीवन काल में ही उनकी 'नोजीव' बतलाया। समाभिस्ढ नय को न समझने के ज्ञानोत्पत्ति के चौदह वर्ष बाद हआ। इसके दो वर्ष कारण उसने इस मत की स्थापना की इसे मैराशिक बाद ही द्वितीय निन्हव हुआ। शेष निन्हव महावीर के कहा गया है। के निर्वाण होने पर क्रमश: 214,220, 218, 544, ७. सप्तम निन्हव-अबध्द (गोष्ठामाहिल) 584, ओर 609 वर्ष वाद उत्पन्न हुए। सिद्धान्त भेद से प्रथम सात निन्हवों का उल्लेख मिलता है । पर जिनएक बार दशपुर नगर में गोष्ठामाहिल कर्मप्रवाद भद्र ने विशेष्यावश्यक भाष्य में एक और निन्हव जोड पढ रहा था उसमें आया कि कर्म केवल जीव का स्पर्श कर उनकी संख्या 8 करदी। इसी अष्टम निन्हव को करके अलग हो जाता हैं। इस पर उसने सिद्धान्त दिगम्बर कहा गया है। आश्चर्य की बात है, इन निबनाया कि जीव और कर्म अबद्ध रहते हैं । उनका बन्ध हवों के विषय में दिगम्बर साहित्य बिलकुल मौन है। ही नहीं होता व्यवहारनय को न समझने के कारण ही प्रथम सात निन्हवों के कारण किसी सम्प्रदाय विशेष की गोष्ठामाहिल ने यह मत प्रस्थापित किया। उत्पत्ति नहीं हई। ठाणांङ्ग सूत्र (587) में केवल सात निन्हवों का उल्लेख हैं पर आवश्यकनियुक्ति ८. अष्टम निन्हव-बोटिक- (शिवभूति) (गाथा-779-783) में स्थान काल का उल्लेख करते रथवीरपुर नामक नगर में शिवभूति नामक साधु समय आठ निन्हवों का और उपसंहार करते समय मात्र रहता था। वहां के राजा ने एक बार एक बहुमूल्य रत्न सात निन्हवो का निर्देश किया गया है। इससे यह कंबल भेंट किया। शिवभूति के गुरू आर्यकृष्ण ने स्पष्ट है कि जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने ही सर्वप्रथम 20. एवं एए कहिआ ओसप्पिणिए उ निष्हया सन्त । वीर वरस्स पवयणे संसाणं पवयणे नत्थि 178411 १०६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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