Book Title: Jain Sangh aur Sampradaya
Author(s): Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Z_Tirthankar_Mahavir_Smruti_Granth_012001.pdf

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Page 15
________________ कालान्तर में वस्त्रग्रहण की प्रवृत्ति बढ़ती गई और उसी के साथ आगमों की टीकाओं और घृणियों आदि में अचेलकता के अर्थ में परिवर्तन किया जाने लगा। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण के काल तक स्थिति बिलकुल बदल गई। फलतः उन्हें आचार के दो रूप करना पड़े- जिनकल्प और स्थविरकल्प जिनकल्परूप अचेलकता का प्रतिपादक बना तथा स्थविरकल्प सचेलकता का । जम्बूस्वामी के मोक्ष जाने के बाद जिनकरूप को विच्छिन्न बता दिया गया। वृहत्करूपसूत्र और विशेषावश्यक भाष्य ( गाथा 2598-2601 ) में इसका विशेष विवेचन मिलता है । वहाँ अचेल के दो भेद कर दिये गये हैंसंताचेल और असंताचेल । संताचेल (वस्त्र रहते हुए भी अचेल) जिनकल्पी आदि सभी प्रकार के साधु कह लाते हैं और असम्ताचल के अन्तर्गत मात्र तीर्थंकर आते हैं । उत्तरकाल में इस प्रकार के अर्थ करने की प्रवृत्ति और भी बढ़ती गई। हरिभद्रसूरि ने दशर्वकालिक सूत्र में आये शब्द नग्न का अर्थ उपचरितनग्न और निरूपचरितनग्न किया है । कुचेलवान् साधु को उपचरितनग्न और जिनकल्पी साधु को निरूपचरित नग्न कहा गया है । " बाद में अचेल का अर्थ अल्पमूल्यचेल भी किया गया है। सिद्धसेनमणि ने भी दसकल्पों में आये आचेलक्ष्य कल्प का अर्थ यही किया गया है। धीरे-धीरे साधु बस्तियों में रहने लगे, कश्विवस्त्र के स्थान पर पुलपट्ट का प्रयोग होने लगा और उपकरणों में वृध्दि हो गई । लगभग आठवीं शताब्दी तक श्वेताम्बर सम्प्रदाय में यह विकास हो चुका था। उक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि शिथिलाचार की पृष्ठभूमि में संबभेद के बीज जम्बूस्वामी के बाद से ही 32. दशवेकालिक सूत्र, गाथा - 64 चणि 33 तत्वार्थ सूत्र - 99, उपाध्या -- Jain Education International प्रारम्भ हो गये थे जो भद्रवाह के काल में दुर्भिक्ष की समाप्ति पर कुछ अधिक उभरकर सामने आये। 'परि शिष्ट पर्वन' (9.55.76) तथा तित्थोगाली पन्नय ( गा० 730-33) के अनुसार भी पाटलिपुत्र में हुई प्रथम वाचना काल में संघभेद प्रारम्भ हो गया था । यह वाचना मद्रबाहु की अनुपस्थिति में हुई थी। इसी के फलस्वरूप दोनों परम्पराओं की गुर्वावलियों में भी अन्तर आ गया । यह स्वाभाविक भी था । उत्तरकाल में इस अन्तर ने आचार-विचार क्षेत्र को भी प्रभावित किया और देवधिराणि क्षमाश्रमण के काल तक दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्परायें सदैव के लिये एक-दूसरे से पृथक हो गई। भद्रबाहु के समय तक बौद्धधर्म के मध्यममार्ग का प्रचार अपने पूरे जोर पर था। जैन संघ के आचार शैथिल्य में वह विशेष कारण बना। विचारों में भी परिवर्तन हुआ जो विभिन्न वाचनाओं के बीच हुए संवादों से ज्ञात होती है। यहाँ वस्त्र और पात्र के रखने के तरह-तरह से विधान बने। महावीर भगवान के साथ देवस्य वस्त्र की कल्पना का सम्बन्ध भी ऐसे ही विधानों से रहा होगा । इतना ही नहीं, प्रथम और अन्तिम तीर्थकरों का धर्म अचेलक कहा गया तथा शेष बाईस तीर्थकरों को अचेलक और सचेलक दोनों माना गया । आलवको धम्मो पुस्त्रिस्म य. पच्छिमस्स जिणस्स 1 मज्झिमगाण जिणाण होइ सचेतो अथ पंचाशक अचेलो ॥ आचारांग सूत्र की टीका में शीलांक ने अचेलक का जिनकल्प का और ममेलक को स्थविरकल्य का आधार बताय है। इस मत में दृढ़ता लाने के लिये एषणा समिति में वस्त्र और पात्र एषणा को सम्मिलित किया ११३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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