Book Title: Jain Sangh aur Sampradaya
Author(s): Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Z_Tirthankar_Mahavir_Smruti_Granth_012001.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 22
________________ निन्दा की फिर भी उसका विशेष प्रभाव नहीं पड़ा। मूर्तिकला और स्थापत्यकला को गहरा आघात दूसरा मूल कारण था कि समाज का मानसिक परिवर्तन पहुचा दिया था। उन्होने इन सभी साँस्कृतिक धरोबडी तीब्रता से होता चला जा रहा था। भट ट रकों हरों को अधिकाधिक परिमाण में नष्ट भ्रष्ट कर दिया का मुख्य कार्य मूर्तियों की प्रतिष्ठा, मन्दिरों का निर्माण था । ये अचेतन मतियाँ इस कार्य का कोई विरोध नहीं और उनकी व्यवस्था, यान्त्रिक, मान्त्रिक और तान्त्रिक कर सकी। प्रत्यत उन्होंने आपत्तियों को निमन्त्रित प्रतिपादन तथा यक्ष-यक्षणियों और देवी-देवताओं का किया । फलस्वरूप दिगम्बर सम्प्रदाय के ही व्यक्ति के भजन-पूजन हो गया । साधारण समाज में ये कार्य बड़े मन में Taara गई लोकप्रिय हो गये थे । अत: उपासकों में भट्टारक और उसने अपना नया पन्थ प्रारम्भ कर दिया। कालासमाज के प्रति श्रद्धा जाग्रत हो गई थी। भट्टारको न्तर में इस पन्थ के संस्थापक तारणतरण स्वामी के के कारण मूर्ति और स्थापत्य कला को अधिकाधिक नाम से प्रसिद्ध हुआ । सन् 1515 में उनका स्वर्गवास प्रोत्साहन मिला । जैन ग्रन्थभण्डार स्थापित किये मल्हारगढ़ (ग्वालियर) में हुआ । यही स्थान आज गये, साहित्य सृजन और संरक्षण की ओर अभिरुचि नसिया जी कहलाता है, जो आज एक तीर्थ स्थान बन जाग्रत हई तथा जैनधर्म का प्रभावना-क्षेत्र बढ गया। गया है । इस पन्थ का विशेष प्रचार मध्यप्रदेश में जैन संघ और सम्प्रदाय को भट्टारक सम्प्रदाय की यह हुआ। इसके अनुयायी मूर्ति के स्थान पर शास्त्र की देन अविस्मरणीय है। पूजा करते हैं । ये दिगम्बर सम्प्रदाय में मान्य सभी तेरहपन्थ और वीसपन्थ ग्रन्थों को स्वीकार करते हैं । तारणतरण स्वामी ने तारणतरण श्रावकाचार, पण्डितपूजा, मालारोहण, - भट्टारक सम्प्रदाय का उक्त आचार-विचार जैन कमलबचीसी, उपदेशशुद्धसार, ज्ञानसमुच्यमार, अंमल धर्म के कुशल ज्ञाताओं के बीच आलोचना का विषय पाहुड़, चौबीस ठाण, त्रिभङ्गीसार आदि 14 छोटे-मोटे बना रहा। कहा जाता है कि उसके विरोध में पण्डित ग्रन्थों की रचना की हैं उनमें श्रावकाचार प्रमुख हैं। प्रवर बनारसी दास ने सत्रहवीं शताब्दी में आगरा में एक आन्दोलन चलाया। इसी आन्दोलन का नाम तेरह . श्वेताम्बर संघ और सम्प्रदाय पन्थ रखा गया। इसके नाम के विषय में कोई निविवाद सिद्धान्त नहीं है। इस तेरहपन्थ की दृष्टि में भट टा. .. जैसा हम पहले कह चुके हैं, श्वेताम्बर सम्प्रदाय रकों का आचार सम्यक नहीं । वह तो महावीर के की उत्पत्ति एक विकास का परिणाम है। कुछ समय द्वारा निर्दिष्ट मूलाचार को ही मूल सिद्धान्त स्वीकार तक श्वेताम्बर साधु वस्त्र को अपवाद के रूप में ही करता है। यह पन्थ समाज में काफी लोकप्रिय हो कटिवस्त्र धारण किया करते थे। पर बाद में लगभग गया। दूसरी ओर भट टारकों अथवा चैत्यवामियों आठवीं शती में उन्होंने उन्हें पूर्णतः स्वीकार कर लिया। के अनयायी अपने आप को वीसपन्थी कहने लगे । इस साधारणतः उनके पास ये चौदह उपकरण होते हैंपन्थ के अनुयायी प्रतिमाओं पर केसर लगाते तथा पाव, पात्रबन्ध, पात्रस्थापन, पात्रप्रमार्जनिका, पटलं, पंष्पमालायें और हरे फल आदि चढ़ाते हैं । तेरहपन्थ रजस्माण, गुच्छक, दो चादर, कम्बल (ऊनी वस्त्र), के अनुयायी इसके विरोधक है । रजोहरण, मुखवस्त्रिका, मात्रक और चोलक । महावीर निर्वाण के लगभग 1000 वर्ष बाद देवधिगणि क्षमातारणपन्थ श्रमण के नेतृत्व में श्वेताम्बर सम्प्रदाय ने अपने ग्रन्थों पन्द्रहवीं शताब्दी तक मुस्लिम आक्रमणों ने जंन का संकलन श्रुति परम्परा के आधार पर किया जिन्हें १२९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 20 21 22 23 24 25