Book Title: Jain Sangh aur Sampradaya
Author(s): Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Z_Tirthankar_Mahavir_Smruti_Granth_012001.pdf

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Page 18
________________ कोण्ड कुन्दान्वय का ही रूपान्तर कुन्दकुन्दान्वय है, मूलसंघ के आचार्यों ने इतर संघों को जैनाभास जिसका सम्बन्ध स्पष्टतः आचार्य कुन्दकुन्द से है। यह कहा है। ऐसे संघों में उन्होंने द्राविड़ काष्ठा एवं यापअन्वय देशीगण के अन्तर्गत गिना जाता है। इसका नीय की गणना की है । जैनामास बताने का मूल (देशीगण) उद्भव लगभग 9वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में देश कारण यह था कि उनमें शिथिलाचार की प्रवृत्ति नामक ग्राम (पश्चिमघाट के उच्चभूमिभाग और गोदा अधिक आ चुकी थी । वे मन्दिर आदि का निर्माण वरी के बीच) में हुआ था। कर्नाटक प्रान्त में इस गण का कराते थे और तन्निमित्त दान स्वीकार करते थे। विशेष विकास 10-11 वीं शताब्दी तक हो गया था। पर यह ठीक नहीं । क्योंकि आशाधर जैसे विद्वान इसी तथाकथित जैनाभाष संघों में से थे, जिन्होंने शिथिलामलसंघ के अन्य प्रसिद्ध गणों में सूरस्थगण, क्राणूर न्य प्रसिद्ध गणा म सूरस्थगण, क्राणूर चार की कठोर निन्दा की है । गण और बलात्कारगण विशेष उल्लेखनीय हैं । सूरस्थ गण सौराष्ट्र धारवाड़ और बीजापुर जिले में लगभग द्राविड़ संघ 13 वीं शती तक अधिक लोकप्रिय रहा है। क्राणूरगण द्राविड़ संघ का सम्बन्ध स्पष्टत: तमिल प्रदेश से का अस्तित्व 14 वी शती तक उपलब्ध होता है । इसकी रहा है । ई० पूर्व चतुर्थ शताब्दी में वहाँ जैन धर्म तीन शाखाएं थीं। तन्मिणी गच्छ, मेषपाषण गच्छ और पहुंच चुका था। सिंहल द्वीप में जो जैनधर्म पहुँचा पुस्तक गच्छ । बलात्कारगण के प्रभाव से ये शाखाएं वह तमिल प्रदेश होकर ही गया । आचार्य देवसेन ने हतप्रभ हो गई थीं। इनके अनुयायी भट्टारक पद्मनन्दि इस संघ की उत्पत्ति के विषय में लिखा है कि बज्रनन्दि को अपना प्रधान आचार्य मानते रहे है। पद्मनन्दी ने वि सं. 526 में मथुरा में इस संघ की स्थापना की स्वभावत; आचार्य कुन्दकुन्द का द्वितीय नाम था । बला थी। इस संघ की दृष्टि में वाणिज्य व्यवसाय से जीवित्कारगण का उद्भव बलगार ग्राम में हुआ था । यह . - कार्जन करना और शीतल जल से स्नानादि करना कहा जाता है कि बलात्कारगण के उद्भाबक पद्मनन्दि विहित माना गया है। तमिल प्रदेश में शैव सम्प्रदाय ने गिरनार पर पाषण से निर्मित सरस्वती को वाचाल की प्रतिष्ठा बहुत अधिक थी। सप्तम शताब्दी में उसके कर दिया । इसलिए बलात्कारगण के अन्तर्गत ही साथ अनेक संघर्ष भी हुए। इस संघ को अधिकाधिक एक सारस्वत गच्छ का उदय हुआ । इसका सर्वप्रथम लोकप्रिय बनाने की दृष्टि से इसके यक्ष याक्षिणियों उल्लेख शक सं. 993-994 के शिलालेख में मिलता की पूजा-प्रतिष्ठा आदि की भी स्वीकार कर लिया है। कर्नाटक प्रान्त में इस गण का विकास अधिक हआ गया। पद्मावती की मान्यता यहीं से प्रारम्भ हई है पर इसकी शाखाएं कारंजा, मलयखेड, लातूर, प्रतीत होती है। देहली, अजमेर, जयपुर, सूरत, ईडर, नागौर, सोनागिर आदि स्थानों पर भी स्थापित हई हैं। होयसल नरेशों के लेखों से पता चलता है कि वे भट्टारक पद्मनन्दी और सकलकीर्ति आदि जैसे कुशल इस संघ के संरक्षक रहे हैं। उन्हीं के लेख इस संघ के साहित्यकार इसी बलात्कारगण में हुए हैं । राजस्थान विषय में सामग्री से भरे हुए हैं । द्राविड़ संघ के साथ मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र में इस बलात्कारगण ही इस संघ में कोण्डकुन्दान्वय, नन्दिसंघ, पुस्तकगच्छ का कार्यक्षेत्र अधिक रहा है। एक अन्य शाखा सेनगण और अगलान्वय को भी जोड़ दिया गया है। संभव की परम्पराऐं कोल्हापूर, जिनकांची (मद्रास). है अपने संघ को अधिकाधिक प्रभावशाली बनाने की पेनुगोण्ड (आन्ध्र) और कारंजा (विदर्भ) में उपलब्ध दृष्टि से यह कदम उठाया गया हो मैसूर होती हैं। प्रचार प्रसार का केन्द्र रहा है । ११६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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