Book Title: Jain Sangh aur Sampradaya
Author(s): Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Z_Tirthankar_Mahavir_Smruti_Granth_012001.pdf

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Page 16
________________ गया। पार्श्वनाथ की परम्परा को सचेल बताने के लिए केशी - गौतम संवाद को जोड़ा गया । स्त्रीमुक्ति, सवस्त्रमुक्ति, केवलिमुक्ति आदि सम्बन्धी वाक्य भी अन्तर्मुक्त कर दिये गये। जिनदासगणि क्षमाश्रमण ने तो अन्तर्मुक्ति के लोप की भी बात कर दी । (विशेषावश्यक अस्य, 2593 गा.) पं. बेचरदास दोसी ने ऐसे ही कथनों या उल्लेखों की भर्त्सना की है । ( जैन साहित्यमा विकार थलाथली, हति, पृ. 103 ) इसी प्रकार की प्रवृत्तियों ने संघ और सम्प्रदाय को जन्म दिया । दिगम्बर संघ और सम्प्रदाय दिगम्बर परम्परा संघभेद के बाद अनेक शाखाप्रशाखाओं में विभक्त हो गई। वीर निर्वाण से 683 वर्ष तक चली आयी लोहाचार्य तक की परम्परा में गण, कुल, संघ आदि की स्थापना नहीं हुई थी। उसके बाद अंग पूर्व के एकदेश के ज्ञाताचार आरातीय मुनि हुए । उनमें आचाय शिवगुप्त अथवा अर्हदबली से नवीन संध और गणों की उत्पत्ति हुई । महावीर के निर्वाण के लगभग इन 700 वषों में आचार-विचार में पर्याप्त परिवर्तन हो चुका था। समाज का आर्थिक, सामाजिक राजनीतिक और सांस्कृतिक ढांचा बदल चुका था । शिथिलाचार की प्रवृत्ति बढ़ने लगी थी । इसी कारण नये-नये संध और सम्प्रदाय खड़े हो गये । कदम्ब एवं गंगवंशी लेखों से पता चलता है कि समूचे दिगम्बर संघ को निर्ग्रन्थ महाश्रमण संघ कहा जाता था । कालान्तर में जब शिथिलाचार बढ़ने लगा तो उसकी विशुद्धि के लिए नये-नये आन्दोलन प्रारम्भ हो गये । भट्टारक युगीन संघ तो इस शिथिलाचार का बहुत अधिक शिकार हुआ । फलस्वरूप विभिन्न संघसम्प्रदाय बन गये । इन संघ सम्प्रदायों में मतभेद का विशेष आधार आचार-प्रक्रिया थी । विचारों में भेद अधिक नहीं आ पाया । बनों में निवास करने वाले मुनि नगर की ओर आने लगे, मन्दिरों और चैत्यों में Jain Education International निवास करने लगे । लगभग 10 वीं शताब्दी तक यह प्रवत्ति अधिक दृढ़ हो गई। विशुद्ध आचारवान् भिक्षुओं ने इसका विरोध किया और शिथिलाचारी साधुओं की भर्त्सना कर उन्हें जैनाभासी और मिथ्यात्वी जैसे सम्बोधनों से सम्बोधित किया। इन सभी कारणों से दिगम्बर सम्प्रदाय में अनेक संघों की स्थापना हो गई । देवसेन ने दर्शनसार में श्वेताम्बर, यापनीय, द्रविड़, काष्ठा संघ और माथुर संघ को जैनाभास बताया है । मूलसघ शिथिलाचारी साधुओं के विरोध में विशुद्धतावादी साधुओं ने जिस आन्दोलन को चलाया उसे मूल सघ कहा गया है। मूल संघ के स्थापकों ने यह नाम देकर अपना सीधा सम्बन्ध महावीर से बताने का प्रयत्न किया और शेष संघ को अमूल्य बता दिया । इस संघ की उत्पत्ति का स्थान और समय अभी तक निश्चित नहीं हो पाया पर यह निश्चित है कि इस संघ का विशेष सम्बन्ध कुन्दकुन्द से रहा है। साधारणतः कुन्दकुन्द का समय ईसा की प्रथम शताब्दी माना गया है । कालान्तर में मूल संघ जैसे ही काष्ठा, द्राविड़ आदि और संघ भी स्थापित हुए। इन सभी संघों पर निग्रन्थ और यापनीय संघों का प्रभाव अधिक है । मूलसंघ का प्राचीनतम उल्लेख 'नोया मंगल' के दानपत्र में पाया जाता है, जिसका समय शक सं. 347 (वि. सं. 482 ) के आसपास है । आचार्य इन्द्रनन्दि (11 वीं शताब्दी) ने मूलसंघ का परिचय देते हुए लिखा है कि पुण्डवर्धनपुर (बोगरा, बंगाल ) के निवासी आचार्य अहंली (लगभग वि. सं 275 ) पाँच वर्ष के अन्त में सो योजन में रहने मुनियों को एकत्र कर युगप्रतिक्रमण किया करते थे। एकबार इसी प्रकार प्रतिक्रमण के समय उन्होंने मुनियों से पूछा- 'क्या सभी मुनि आ चुके ? मुनियों से उत्तर मिला- हाँ, सभी मुनि आ चुके । अर्हद्बली ने उत्तर पाकर यह सोचा कि समय बदल रहा है। अब ११४ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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