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________________ द्राविड़ संघ में अनेक प्रसिद्ध आचार्य हए हैं। को एकीकरण कर काष्ठासंघ नाम दे दिया गया हो उनमें वादिराज और माल्लिषण विशेष उल्लेखनीय इस संघ में जयसेन, महासेन आदि जैसे अनेक प्रसिद्ध है। उनके ग्रन्थों में मंत्र तत्र के प्रयोग अधिक मिलते आचार्य और ग्रन्थकार हए हैं। अपवाल, खण्डेलबाल हैं । भट्टारक प्रथा का प्रचलन विशेषतः द्राविड संघ आदि उप जातियां इसी संघ के अन्तरगत निर्मित हई हैं। से ही हुआ होगा। यापनीय संघ काष्ठ संघ काष्ठासंघ की उत्पनि मथग के समीपवर्ती दर्शनसार के अनुसार इस संघ की उत्पत्ति वि. सं. काष्ठा ग्राम में हुई थी। दर्शनमार के अनुसार वि. कि 205 में श्री कलश नामक श्वेताम्बर साध ने की थी। सं. 753 में इसकी स्थापना विनयसेन के शिष्य संघभेद होने के बाद शायद यह प्रथम संघ था जिसने । कुमारसेन के द्वारा की गई थी। तदनानुसार मयूर श्वेताम्बर और दिगम्बर, दोनों की मान्यताओं को पिक्ष के स्थान पर गोपिच्छ रखने की अनुमति दी गई। एकाकार कर दोनों को मिलाने प्रयत्न किया था। इस वि. स 853 में रामसेन ने माथूर संघ की स्थापना संव के आचार के अनुसार साधु नग्न रहता, मयुरकर गोपिच्छ रखने को भी अनावश्यक बताया है। पिच्छ धारण करता, पाणितलभोजी होता और नग्न बुलाकीचन्द के वचन कोश (वि.सं. 1737) में काष्ठान मूर्ति की पूजन करता था। पर विचार की दृष्टि संघ की उत्पत्ति उमा स्वामी के शिष्य लोहाचार्य द्वारा से वे श्वेताम्बर सम्प्रदाय के समीप थे। तदनुसार निर्दिष्ट है। वे स्त्रीमुक्ति, केवलीकवलाहार और सवस्त्र मुक्ति मानते थे उनमें आवश्यक छेदसूत्र, नियुक्ति, दशवकाकाष्ठा संघ का प्राचीनतम उल्लेख श्रवण वेलगोला लिक आदि श्वेताम्बरीय प्रन्थों का भी अध्ययन होता के वि. सं. 1119 के लेख में मिलता है । मुरेन्द्र कीति था । (वि. सं. 1747) द्वारा लिखित पट्टावली के अनुसार लगभग 14 वीं शताब्दी तक इस संघ के प्रमुख चार आचार विचार का यह संयोग यापनीय संघ की अवान्तर भेद हो गये थे-माथुरगच्छ, वागडगच्छ, लाट- लोकप्रियता का कारण बना । इसलिए इसे राज्य संरवागडगच्छ एवं नन्दितगच्छ । बारहवीं शती तक के क्षण भी पर्याप्त मिला। कदम्ब, चालुक्य, गंग राष्ट्रकूट, शिलालेखों में ये नन्दितगच्छ को छोड़कर शेष तीनों र आदि वंशों के राजाओं ने यापनीय संघ को प्रभूत गच्छ स्वतन्त्र संघ के रूप में उल्लिखित हैं। उनका दानादि देकर उसका विकास किया था। इस संघ का उदय क्रमशः मथुरा, बागड (पूर्व गुजरात) और लाट अस्तित्व लगभग 15 वीं शताब्दी तक रहा है, यह दक्षिण गुजरात) देश में हुआ था। चतुर्थ गच्छ नन्दितट शिलालेखों से प्रमाणित होता है । ये शिलालेख विशेषतः की उत्पत्ति नान्देड़ (महाराष्ट्र) में हुई दर्शनसार के कर्नाटक प्रदेश में मिलते हैं । यही इसका प्रधान केन्द्र रहा अनुसार नान्देड़ महाराष्ट्र ही काष्ठा संघ का उद्भव होगा। बेलगांव, वीजापूर, धारवाड़ कोल्हापुर आदि स्थान है। संभव है इस समय तक उक्त चारों गच्छों स्थानों पर भी यापनीय संघ का प्रभाव देखा जाता है। . 37. षडदर्शन समुच्चय, षट्प्राभूतटीका, पृ. 7 छ. 38. अमोध वृत्ति 1-2-201-4. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210885
Book TitleJain Sangh aur Sampradaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherZ_Tirthankar_Mahavir_Smruti_Granth_012001.pdf
Publication Year
Total Pages25
LanguageHindi
ClassificationArticle & Jain Sangh
File Size2 MB
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