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________________ यापनीय संघ भी कालान्तर में अनेक शाखा प्रशा- दोनों शब्द श्वेताम्बर सम्प्रदाय में अधिक प्रचलित हए खाओं में विभक्त हो गया। उसकी सर्वप्रथम शाखा दिगम्बर सम्प्रदाय में उनका स्थान क्रमशः मूलसंघ और 'नन्दिगण, नाम से प्रसिद्ध है। कुछ अन्य गणों का भी द्राविड़ संघ ने ले लिया। बाद में तो मलसंघी भी . उल्लेख शिलालेखों में मिलाता है जैसे-कनकोपलसम्भू चैत्यवासी बनते दिखाई देने लगे। आचार्य गुणभद्र तवृक्षमूल गण, श्रीमूलगण, पुन्नागवृक्षमूलगण कौमुदीगण (नवीं शताब्दी) के समय साघुओं की प्रवृत्ति नगरवास मडुवगप वान्दियूरगण, कण्डरगण, बलहारीगण आदि की ओर अधिक झुकने लगी थी। इसका उन्होंने तीब्र ये नाम प्रायः वृक्षों के नामों पर रखे गये हैं । सम्भव है विरोध भी किया । इस संघ ने उन वृक्षों को किसी कारणवश महत्व दिया मध्ययुग तक आते-आते जैनधर्म की आचार हो । लगता है, बाद में यापनीय संघ मूलसघ से सम्बद्ध व्यवस्था में काफी परिवर्तन आ गया। साधु समाज में हो गया होगा। लगभग 11 वीं शताब्दी तक नन्दिसंघ परिग्रह और उपभोग के साधनों की ओर खिचाव का उल्लेख द्रविडसंघ के अंतर्गत होता रहा और 12 अधिक दिखाई देने लगा । श्वेताम्बर सम्प्रदाय में तो वीं शताब्दी से वह मूलसंघ के अंतर्भूत होता हुआ यह प्रवृत्ति बहत पहले से ही प्रारम्भ हो गई थी। पर दिखता हैं। दिगम्बर सम्प्रदाय भी अब वस्त्र की ओर आकर्षित यापनीय संघ के आचार्य साहित्य सर्जना में भी होने लगा । इसका प्रारम्भ वसन्तकीति (13 वीं अग्रणी थे। पाल्यकीर्ति का शकटायन व्याकरण, अपरा- शताब्दी) द्वारा मण्डपदुर्ग (मांडलगढ़, राजस्थान) में जित की मूलाराधना पर विजयोदया टीका और शिवार्य किया गया 140 भट्टारक प्रथा भी लगभग यहीं से प्रारम्भ की भगवती आराधना का विशेष उल्लेख यहाँ किया जा हो गई । यहाँ यह उल्लेखनीय है कि वे दिगम्बर भट्टासमता है। रक नग्न मुद्रा को पूज्य मानते थे और यथावसर उसे धारण करते थे । स्नान को भी वे वर्जित नहीं मानते भट्टारक सम्प्रदाय थे । पिच्छी के प्रकार और उपयोग में भी अन्तर आया उक्त संघों की आचार विचार परम्परा की समीक्षा धीरे-धीरे ये साधू-मठाधीश होने लगे और अपनी पीठ करने पर यह स्पष्ट आभास होता है कि जैन संघ में __ स्थापित करने लगे । उस पीठ की प्रचुर सम्पदा के भी समय और परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तन होता वे उत्तराधिकारी होने लगे । इसके बावजूद उनमें निर्वस्त्र रहने अथवा जीवन के अन्तिम समय नग्न रहा है। यह संघ मूलतः निष्परिग्रही और वनवासी मुद्रा धारण करने की प्रथा थी । प्रसिद्ध विद्वान भट्टाथा, पर लगभग चौथी पाँचनी शताब्दी में कुछ साधु चैत्यों में भी आवास करने लगे। यह प्रवृत्ति श्वेताम्बर रक कुमुदचन्द्र पालकी पर बैठते थे, छत्र लगाते थे. और दिगम्बर, दोनों परम्पराओं में लगभग एक साथ और नग्न रहते थे।" पनपी । इस तरह नहाँ साधु सम्प्रदाय दो भागों में लगभग बारहवीं शती तक आते-आते भट्टारक विभक्त हो गया वनवासी और चैत्यवनी पर ये समुदाय का आचार मूलाचार से बहुत भिन्न हो गया। 39. आत्मानुशासन, 197. 40. भट्टारक सम्प्रदाय, विद्याधर जोहगपुर कर, आचार्य भिक्षु स्मृति ग्रन्थ, द्वितीय खण्ड प. 37. 41. जैन निबन्ध रत्नावली 405. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210885
Book TitleJain Sangh aur Sampradaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherZ_Tirthankar_Mahavir_Smruti_Granth_012001.pdf
Publication Year
Total Pages25
LanguageHindi
ClassificationArticle & Jain Sangh
File Size2 MB
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