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________________ एक अन्य देवसेन ने भावसंग्रह में भी श्वेताम्बर प्रतिकृति में दिखाई देता है। वहाँ एक साधू 'कण्ह' संघ की उत्पत्ति इसी प्रकार बतायी है। थोड़ा-सा जो बायें हाथ से वस्त्रखण्ड के मध्य भाग को पकड़कर भी अन्तर है, वह यह है कि यहाँ शान्ति नामक आचार्य नग्नता को छिपाने का यत्न कर रहा है। हरिभद्र के सौराष्ट्र देशीय बल भी नगर अपने शिष्यों सहित पहचे सम्बोधप्रकरण से भी श्वेताम्बर सम्प्रदाय के इस पूर्व पर वहाँ भी दुष्काल का प्रकोप हो गया। फलतः साधु- रूप पर प्रकाश पड़ता है। कुछ समय बाद उसी वस्त्र वर्ग यथेच्छ भोजनदि करने लगा। दुष्काल समाप्त हो को कमर में धागे से ब ध दिया जाने लगा। यह रूप जाने पर शान्ति आचार्य ने उनसे इस वृत्ति को छोड़ने के मथुरा में प्राप्त एक आयागपट्ट पर उटैंकित रूप से लिए कहा पर उसे उन्होंने स्वीकार नहीं किया । तब मिलता-जुलता है । इस विकास का समय प्रथम शब्तादि आचार्य ने उन्हें बहुत समझाया। उनकी बात पर किसी के आस पास माना जा सकता है। शिष्य को क्रोध आया और उसने गुरू को अपने दीर्घ ऊपर के कथानकों से यह भी स्पष्ट है कि दिगम्बर दण्ड से सिर पर प्रहार कर उन्हें स्वर्ग लोक पहूँचाया और स्वयं संघ का नेता बन गया। उसी ने सवस्त्र और श्वेताम्बर सम्प्रदाय के बीच विभेदक रेखा खींचने मुक्ति का उपदेश दिया और श्वेताम्बर संघ की स्था का उत्तरदायित्व वस्त्र की अस्वीकृति और स्वीकृति पर पना की । 22 है। उत्तराध्ययन में केशी और गौतम के बीच हुए संवाद का उल्लेख है। केशी पार्श्वनाथ परम्परा के भट्टारक रत्ननन्दि का एक भद्रबाहुचरित्र मिलता अनुयायी हैं और गौतम महावीर परम्परा के । पार्श्वहै, जिसमें उन्होंने कुछ परिवर्तन के साथ इस घटना का नाथ ने सन्तरुत्तर (सान्तरोत्तर) का उपदेश दिया और उल्लेख किया है। उन्होंने लिखा है कि दुर्भिक्ष पड़ने पर महावीर ने अचेलकता का। इन दोनों शब्दों के अर्थ भद्रबाहु ससंघ दक्षिण गये। पर रामल्य, स्थूलाचार्य की ओर हमारा ध्यान श्री.पं. कैलाशचन्द्रजी शास्त्री आदि मुनि उज्जयिनी में ही रह गये । कालान्तर में संघ ने आकर्षित किया है। उन्होंने लिखा है कि उत्तरामें व्याप्त शिथिलाचार्य को छोड़ने के लिए जब स्थूला- ध्ययन की टीकाओं में सान्तोत्तर का अर्थ महामल्यचार्य ने मार डाला। उन शिथिलाचारी साधुओं से ही वान और अपरिमित वस्त्र (सान्तर-प्रमाण और वर्ग बाद में अर्ध फलक और श्वेताम्बर संघ की स्थापना में विशिष्ट, तथा उत्तर-प्रधान) किया गया है और उसी के अनुरूप अचेल का अर्थ वस्त्रभाव के स्थान में क्रमश: कुत्सितचेल, अल्पचेल, और अमूल्यचेल मिलता है । इन कथानकों से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता किन्तु आचारंग सूत्र 209 में आये 'संतरुत्तर' शब्द का है कि भद्रबाहु की परम्परा दिगम्बर सम्प्रदाय से और स्थलभद्र की परंपरा श्वेताम्बर सम्प्रदाय से जुड़ी हई __ अर्थ दृष्टव्य है। वहाँ कहा गया है कि तीन वस्त्रधारी साधु का कर्तव्य है कि वह जब शीत ऋतु व्यतीत हो है। यह श्वेताम्बर सम्प्रदाय अर्धफलक संघ का ही जाय जाय और ग्रीष्म ऋतु आ जाये और वस्त्र यदि जीर्ण विकसित रूप है। न हुए हों तो कहीं रख दे अथवा सान्तरोत्तर हो जाये। ___ अर्धफलक सम्प्रदाय का यह रूप मथुरा कंकाली शीलांक ने सान्तरोत्तर का अर्थ किया है-सान्तर है टीले से प्राप्त शिलापट्ट में अंकित एक जैन साधु की उत्तर ओढ़ना जिसका अर्थात्, जो आवश्यकता होने पर 2 . मावस ग्रह-गा. 53-70, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210885
Book TitleJain Sangh aur Sampradaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherZ_Tirthankar_Mahavir_Smruti_Granth_012001.pdf
Publication Year
Total Pages25
LanguageHindi
ClassificationArticle & Jain Sangh
File Size2 MB
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