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________________ त्याग किया । इस आशय का छटी शती का एक लेख वारस अंग वियाणं चउदश पूव्वंग विडलवित्थरणं । पुनाड़ के उत्तरी भाग में स्थित चन्द्रगिरि पहाड़ी पर सूयाणि भद्दाबाह गमय गुरू भयवओ जयओ ।।62।। उपलब्ध हुआ है । उसके सामने बिन्ध्यगिरि पर ___ बोहपाहुड़ की इन दोनों गाथाओं से यह स्पष्ट है चामुण्डराय द्वारा स्थापित गोमटेश्वर बाहबलि के 57 है कि आचार्य कुन्दकुन्द के समय तक भद्रबाहु नाम के फीट ऊँची एक भव्य मूर्ति स्थित है । उत्तरभारत में रह दो आचार्य हो चुके थे । प्रथम श्र तकेवली भद्रबाहु जाने वाले साधुओं और क्षुलकों में दुर्भिक्ष जन्य परिस्थितियों के कारण आचार शैथिल्य घर कर गया और जिन्हें कुन्दकुन्द ने गमकगुरू कहा है और द्वितीय उत्तरकाल में यही घटना संघभेद का कारण बनी। परि भद्रबाहु जो कुन्दकुन्द के साक्षात गुरू थे। ये दोनो व्यक्तित्व पृथक पृथक हुए हैं अन्यथा कुन्दकुन्द दोनों शिष्टपर्वन के अनुसार भद्रबाहु दुष्काल समाप्त होने के बाद गाथाओं में भद्रबाह शब्द का प्रयोग नहीं करते । दक्षिण से मगध वापिस हए और पश्चात् महाप्राण ध्यान करने नेपाल चले गये । इसी बीच जैन साधु संघ ने आचारंग, सूत्रकृतांग, सूर्यप्रजप्ति, व्यवहार, कल्प अनभ्यासवश बिस्मृत श्रत को किसी प्रकार से स्थूल- दशाश्र तस्कन्ध, उत्तराध्यायन, आवश्यक, दशवैकालिक भद्र के नेतत्व में एकादश अंगों का सकलन किया और और ऋषिभाषित ग्रन्थों पर किसी अन्य भद्रबाह अवशिट द्वादशवें अंग दृष्टिवाद के संकलन के लिए नेपाल नामक विद्वान ने नियुक्तियाँ लिखी हैं. ऐसी एक परमें अवस्थित भद्रबाह के पास अपने कुछ शिष्यों को भेजा म्परा है। ये नियंतिकार ततीय भद्रबाह होना चाहिए उनमें स्थूलभद्र ही वहाँ कुछ समय रुक सके जिन्होंने जो छेद स्त्रकार भद्रबाह से भिन्न रहे होंगे। नियुक्तियों उसका कुछ यथाशक्य अध्ययन कर पाया । फिर भी में आर्यवज, आर्यरक्षित, पादलिप्ताचार्य, कालिकाचार्य, दृष्टिवाद का संकलन अवशिष्ट ही रह गया। शिवभूति आदि अनेक आचार्यों के नामों के उल्लेख मिलते हैं। ये आचार्य निश्चित ही उक्त प्रथम और देवसेन के भाव संग्रह में भद्रबाहु के स्थान पर द्वितीय भद्रबाह से उत्तरकाल में हुए हैं। शान्ति नामक किसी अन्य आचार्य का उल्लेख है । भद्रारक रत्नन्द ने संभबता देवसेन और हरिषेण की भद्रबाहु के चरित विषयक भद्रबाहचरित्र के कथाओं को सम्बद्ध करके भद्रबाहचरित्र लिखा है। अतिरिक्त ओर भी अनेक ग्रन्थ उपलब्ध हैं-देवाधिप्रथम भद्रबाहु का कोई भी ग्रन्थ प्रामाणिक तौर पर क्षमाश्रमण की स्थविरावली, भद्रेश्वर सूरी की कहानहीं मिलता । छेद सूत्रों का कर्ता उन्हें अवश्य कहा वलि, तित्थोगालि प्रकीर्णक, आवश्यक चूर्णि, आवश्यक गया है पर यह कोई सुनिश्चित परम्परा नहीं। पर हरिभद्रीया वृत्ति तथा हेमचन्द्रसूरी के त्रिषष्ठिश लाका पुरुषचरित का परिशिष्टपर्वन् । उनमें उपलब्ध आचार्य कुन्दकुन्द ने बोहपाहुड में अपने गुरु का विविध कथाएँ ऐतिहासिक सत्य के अधिक समीप नहीं नाम भद्रबाह लिखा है और उन भद्रबाहु को गमक गुरू लगती । मेरुतुंगाचार्य की प्रबन्ध चिन्तामणि और कहा है। कून्दकुन्द के ये गमकगुरू निश्चित हो थत- राजेश्वर सरि का प्रबन्ध कोष. भी इस सम्बन्ध में केवली भद्रबाहु रहे होंगे। दृष्टव्य है। मिल सहवियारो हओ भासासुत्त सू जं जिणे कहियं । प्रबन्धचिन्ता मणि' में एक किंवदन्ति का उल्लेख है सो तह कहियं णयं रीसेण य भद्दबाहुस्स ॥ 61 कि भद्रबाहु बराहमिहिर के सहोदर थे । ब्राह्मण परिवार 9. प्रबन्धचिन्तामणि, सं. मुनि जिनविजय, सिंघी जैन सीरिज प्रकाश 5,5-118. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210885
Book TitleJain Sangh aur Sampradaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherZ_Tirthankar_Mahavir_Smruti_Granth_012001.pdf
Publication Year
Total Pages25
LanguageHindi
ClassificationArticle & Jain Sangh
File Size2 MB
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