SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 9
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ की उपरितम सीमा 12-13वीं शती मानी जानी अनुयायियों में परस्पर विषाद और कलह हो रहा है। चाहिए। ये एक दूसरे की बातों को गलत सिद्ध कर रहे हैं। बुध्द ने इसका कारण बताग कि निगण्ठों के तीर्थकर संघ भेद निगण्टनातपुत्त न तो सर्वज्ञ हैं और न टीक तरह से उन्होंने धर्मदेशना दी है। अटठकथा में इसका विश्लेप्रायः हर तीर्थ कर अथवा महापुरुष के परिनिर्वत षण करते हुए कहा गया है कि निगण्ठनातपुत्त ने अपने अथवा देहावसान हो जाने के बाद उसके संघ अथवा अपने सिद्धांतों की निरर्थकता को समझ कर अपने अनुयायियों में मतभेद पैदा हो जाते हैं । इस मतभेद अनुयायियों से कहा था कि वे बुध्द के सिद्धांतों को के मूल कारण आर्थिक, सामाजिक और धार्मिक स्वीकार करलें । आगे वहां बताया गया है कि उन्होंने परिस्थितियों के परिवर्तित रूप हुआ करते हैं। मतभेद अन्तिम समय में एक शिष्य को शाश्वतबाद की शिक्षा की गोद में विकास निहित होता है जिसे जागृति का दी और दूसरों को उच्छेदवाद की। फलतः वे दोनों प्रतीक कहा जा सकता है । पार्श्वनाथ और महावीर परस्पर संघर्ष करने लगे। संघभेद का मूल कारण के संघ में भी उनके निर्वाण में बाद मतभेद उत्पन्न यही है । , होना आरम्भ हो गया था। उस मतभेद के पीछे भी आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियों के बदलते हुए उक्त उध्दरण कहां तक सही है, कहा नहीं जा रूप थे। सकता पर यह अवश्य है कि शासन भेद निगण्ठनात पत्त के परिनिर्वाण के बाद किसी न किसी अंश में इस प्रकार महावीर के निर्वाण के बाद उनका प्रारम्भ हो गया था। संघ अन्तिम रूप में दो भागों में विभक्त हो गयादिगम्बर और श्वेताम्बर । संघभेद के संदर्भ में दोनों इस शासनभेद को श्वेताम्बर परम्परा में निन्हव सम्प्रदायों में अपनी अपनी परम्पराएं हैं । दिगम्बर कहा गया है। उनकी संख्या सात बताई गयी है। सम्प्रदाय पूर्णतः अचेलत्वय को स्वीकार करता है पर जामालि, तिष्यगप्त, आषाढ़, विश्वमित्र, गंग, रोह. श्वेताम्बर सम्प्रदाय सवस्त्र अवस्था को भी मान्यता गुप्त और गोष्ठामाहिल । निन्हव का तात्पर्य है--किसी प्रदान करता है। दोनों परम्पराओं का अध्ययन करने विशेष दृष्टिकोण से आगमिक परम्परा से विपरीत से यह पष्ट है कि मतभेद का मूल कारण वस्त्र था। अर्थ प्रस्तुत करनेवाला । यह यहां दृष्टव्य है कि प्रत्येक निन्हव जैनागमिक परम्परा के किसी एक पक्ष को पालि साहित्य से पता चलता है कि निगण्ठ नात- अस्वीकार करता है और शेष पक्षों को स्वीकार करता पत्त के परिवर्तन के बाद ही संघभेद के बीज प्रारम्भ है अत: वह जैन धर्म के ही अन्तर्गत अपना एक पृथक हो चुके थे। आनन्द ने बुद्ध को चुन्द का समाचार मत स्थापित करता है। ये सातों निन्हव संक्षेपतः इस दिया था कि महावीर के निर्वाण के उपरान्त उनके प्रकार हैं । 13. माज्झिमनिकाय भा. 2. पृ.-243 (रो.); दीघनिकाय मा. 3- 1. 117, 120 {रो.) 14. दीधनिकाय भा. 3, पृ. 121. 15. दीधनिकाय : अट्ठकथा भा-२, पृ. 996 १०७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210885
Book TitleJain Sangh aur Sampradaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherZ_Tirthankar_Mahavir_Smruti_Granth_012001.pdf
Publication Year
Total Pages25
LanguageHindi
ClassificationArticle & Jain Sangh
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy