Book Title: Jain Dharm Kya Hai
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown
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Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *- AAMRAP जैनधर्म क्या है ? जैन धर्म एक स्वतंत्र वैज्ञानिक धर्म है । यह आज्ञाप्रधान धर्म नहीं है । और न जैन धर्म अपनेको ईश्वर प्रणीत धर्म प्रदर्शित करता है। सुतरां उसके तत्वादि वैज्ञानिक ढंग पर होते हुए उन महात्माओं द्वारा प्रतिपादित किए गए थे जिन्होंने केवलज्ञान अथवा सर्वज्ञता इन तत्वादिके ही मथन करनेसे प्राप्त की थी। ऐसे वैज्ञानिक ढंग पर न आज्ञाप्रधान ही की और न पुराण आदिकी ही पहुंच है। और यह कहना तो निरर्थक ही है कि विज्ञान अथवा Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) वैज्ञानिक ढंगसे ही शीघ और निौति फल प्राप्त होते हैं। __ जैन धर्मके समझनेके लिए यह आवश्यक है कि पहिले हम 'धर्म'का अर्थ समझ लें । हम निशदिन धर्म २ कहा करते हैं परन्तु उसके यथार्थ भावको समझनेमें असमर्थ हैं । भला जब इतने वर्तमान प्रचलित मत ही विविध विविध प्रकारका थोथा धर्म निरूपण करें तो उपर्युक्त असमर्थतामें संशय ही क्या है ? ___ साधारणतया संसारमें चक्कर काटते हुए हम : सदृश जीवोंको सांसारिक दुःख और पीडाओंसे हटा मुक्ति सच्चे मार्गमें लगानेको धर्म कह सके हैं । सर्व प्राणीसमुदाय भी-मनुप्य, पशु, पक्षी आदि-प्रत्येक वस्तु और कार्यमें सुखकी वाञ्छा करते हैं । संसारमें ऐसा कोई जीव नहीं Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है जो अगाध नौवन और किसी न किसी रूपमें वाम्ननिक भानंदना अभिलागी न हो। धर्म ही एक ऐसा विज्ञान है जो इसकी दवा है | धर्मरे ही हमें वह सुख और आनंद गिल सक्ता है जिसके लिए प्राणीमात्र लालायित हो भटक रहे हैं। परन्तु विम्गय है कि रितने ही प्रचलिन धर्म कंबल आनाओं और निरर्थक गुप्त समन्यायों पुराणादिकका निरूपण कर ही नुप दो रहे हैं जब कि उनके स्थानमें वैज्ञानिक ढंगनी आवश्यक्ता है । यह पहिले ही दर्मा दिया है कि विज्ञान (Scit.nce) ही एक ऐसा माधन है कि नियरे शंकाएं शीघ्र और निधीनिरूपमें दूर कर दी जाती हैं और इच्छित पदार्थकी सिद्धि हो सकी है। जैन धर्ममें अन्य धर्मास यही विलक्षणता है कि यह एक शुद्ध . Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · ( ४ ) निर्ऋति, और अपूर्व विज्ञान है और न उसमें निरर्थक रीतियोंका ही निरूपण है और न मयोत्पादक पूजा आदिसे ही पूर्ण है । जैनधर्म में अंधश्रद्धाका भी अभाव है। वह अपने अनुयावियोंको प्रत्येक तत्वको न्यायपूर्ण परीक्षाकी कसौटी पर कसकर और उनके यथार्थ भावको समझ कर ही श्रद्धान करने की अनुमति देता है। प्रारम्भ में जैनधर्म में सर्व-प्राणी- समुदाय तृषित सुखके यथार्थ रूपका निरूपण है । यद्यपि कुछ कालके लिए विषय सुख इन्द्रियोंको सातासी पहुचा देते हैं परंतु यह तो प्रत्यक्ष ही है कि इन्द्रियजनित विषय सुखोंसे जीवोंकी तृषा नहीं बुझती । इन्द्रियजनित सुख पूर्णतया क्षणभंगुर है, अन्य वस्तुओं और देहधारियोंक मेल पर निर्भर है। इनकी प्राप्ति दुःख पूर्ण है और अंत : Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५) भी दुःण्डदायी । आपसमें वैमनस्योत्पादक है। और वृहावयामें अथवा इन्द्रिय-शिथिलता पर पूर्ण अशांतिके दाता है। नि: व्यक्तिने अपनी मानिरिक इच्छाओं पर विचार किया होगा तो उसे विदित हुआ होगा कि वह विषयसुख उसे उसके इच्छित पदार्थ अथवा सुखकी पूर्ति कर शांति प्राप्त नहीं कराते । इनसे उसकी अशांति उत्तरोत्तर बढ़ती ही जाती है । यथार्थमें जिस सुखकी प्राणीमात्र रक्षा करता है वह सुख ईश्वरीय नुखो सदृश अक्षय, अपरिमति है तर्थव आत्माको मुख ।। उत्पादक है। वह इंद्रियलोलुपताकी पूर्तिक सदृश नहीं है । वह अपूर्व आनंद अथवा सुख है। यह अपूर्व आनंद न क्षणभंगुर ही है और न इंद्रियनित सुखके सहश दुःख अथवा पीड़ा Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्पादक । यह आनंद आत्माका ही निजी स्वभाव है । यद्यपि अज्ञानतमके कारण वह प्रकट नहीं है । इस वक्तव्यकी सत्यताका प्रमाण मनोवाञ्छाकी पूर्तिमें हमारी आत्माको. सुखका अनुभव स्वतः ही हृदयसे बाह्य इद्रिय साहाय्यके विना ही अनुभवित होनेमें है। गंभीर विचार करनेसे ऐमा सुख पूर्ण स्वतंत्रतामें ही प्रदर्शित होता है । वस्तुतः जब कभी भी आत्मासे यह आच्छादित वर्ण अथवा तमका अभाव हो जायगा तब ही स्वाभाविक आनंद झलक उठेगा। संसारी आत्मा स्वकृत्योंसे पूर्ण हैं अत: इन बाह्य बोझा बढ़ानेवाले कार्यादि उसे भारस्वरूप दुःखपूर्ण प्रतीत होते हैं । इन पर पदार्थोके क्षय होनेपर आत्माको यथार्थः सुख अर्थात् स्वतंत्रता (मोक्ष) प्राप्त हो जाती है जिसकी Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७) रुपासे नात्मा वास्तविक आनन्दका रसास्वादन फरती है । अन्ततः अब यह प्रत्यक्ष है कि इन बाह्य मारस्वरूप पदार्थोंमें ही आत्माका स्वाभाविक आनन्द प्रदर्शित होता है और वह सुख स्वाभाविक होनेके कारण अक्षय है। अज्ञान ही वह वस्तु है जिसके वश हो आत्मा स्वाभाविक आनन्दके उपभोगसे वंचित रहती है। कठिनतासे सहस्रों प्राणधारियोंमें कोई एक मिलेगा जो इस स्वाभाविक आनन्दके म्वरूपकी झलकसे भिज्ञ हो, नहीं तो सब ही मनुष्य अपने इर्द गिर्दकी बाह्य वस्तुओंसे इस स्वाभाविक आनन्दको प्राप्त करना चाहते हैं। परन्तु यह बाह्य वस्तुसमुदाय अपने स्वमावसे ही उसे देने में असमर्थ हैं। यदि मनुष्य अपने आन्तिरिक भावोंपर ही विचार करे तो भी उसे Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 6 ) " विदित हो जाय कि जिस समय सच्चा आनन्द अनुभवगोचर होने लगे उसी समय उसकी पूर्ण मुक्ति हो जाय । आत्मके स्वाभाविक आनन्दके स्वरूपकी अनिभिज्ञता-अजानकारी ही आत्मा और सच्चे सुखके बीच में रोड़ा हैं । अतः ज्ञान ही सच्चे सुखका मार्ग हैं । ""आजकलके स्कूलों और कालिजों में जो ज्ञान ...सिखाया जाता है उससे यह सच्चा ज्ञान विशेष योग्य और पूर्ण है । इस सच्चे ज्ञान में न वस्तुओंका स्वभाव और प्रकृति की उन शक्तियों का वर्णन है जिससे आत्माका स्वाभाविक आनन्द नष्ट हुआ है और पुनः प्राप्त हो सक्ता है । अन्य चाहे कोई ज्ञान मनुष्यको हितकर भी हो परन्तु सच्चे सुखके अभिलाषीके लिए यही ज्ञान अभीष्ट एवं श्रेष्ठ है । " Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस ज्ञानके मुग्थ्य सात ग्राह्य-आवश्यकीय पदार्थ हैं, जिनको नागनमें तत्व कहते हैं। ये इस प्रकार हैं (१) जीतव्य अथवा चेतन पदार्थ अर्थात जीव तत्य (२) अचेतन अर्थात् अनीव तत्व (2) आश्रयतत्व अर्थात् आत्मामें पुगलका आना (४) बंध तत्व (६) संबर तत्व (६) निरा और (५, मोक्ष तत्व । इनकता विशेष वर्णन निम्न प्रकार है: (१) जीव तत्व एक मीतव्य पदार्थ है और यह वास्तवमें परमोष्ट चेतना म्वरूप है। उसकी उत्ति किसी दृष्टि से भी पुगलसे नहीं है । म्यभावतः जीव तत्व सर्वदर्शी और सर्वानन्द पूर्ण है तथा अपरिगति अतुल और अक्षय बल-वीय संयुक्त है । जैसे अन्य सर्व पदार्थ अनादिनिधन है जैसे ही जीवतत्व है। यह Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) अमूर्तीक है इसलिए इन्द्रियोंद्वारा नानाना नहीं सक्ता है। परन्तु दूसरी तरफ पूर्णतया निराकार भी नहीं है क्योंकि जितने पदार्थोकी सत्ता सिद्ध है उतने समस्त पदार्थोकी साकार होना आवश्यक है । जीव सदैवसे सत्तामें है। और सदैवसे ही पुद्गलसे सम्बन्धित है। इस कारण अपने स्वाभाविक गुण अनन्त ज्ञान, अनन्त बल और अनन्त सुखके उपभोगसे वंचित है। सम्यक् चारित्रके अनुसार वर्तन करनेसे उन मलरूपी शक्तियों का क्षय होनाता है जो आत्माके चार अनन्त चतुष्टय-(१) अनन्तदर्शन (२) अनन्तज्ञान (३) अनन्तसुख (४) अनन्तबलनामक गुणको प्रेकट नहीं होने देते हैं। । । (२) अजीव तत्व चेतना रहित है और पांच प्रकारका है (१) पद्धल (२) धर्म (३) Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) अधर्म (४) आकाश और (५) काल । जैन धर्मके अनुपार नृष्टि का कार्य अथवा विकास . इन पंच अनीव पदाधोंके एक या ज्यादाके और जीवोंक अभावमें नहीं हो सक्ता है । आकाश ध्यान देनेके लिए आवश्यक है तो काल भी उतना ही चलाव-पड़ावके लिए आवश्यक है । धर्म और अधर्म चलनेमें व अवकाश ग्रहण करने में क्रमशः सहकारी है। पुद्गल शर.रों की मामिग्रीका देनेवाला है और जीव जीतव्य ज्ञान और सुखोपभोग करने हेतु आवश्यक्त है। इन छः द्रव्योका वर्णन जैनाचार्योने जन पन्थों में विशेष रूपमें किया है अतः यहां उनका वर्णन करना उचित नहीं है। (३) तीसरा तत्व आश्रव है | आत्मामें कार्माण पुद्गल वर्गणाओंका आश्रिवित होना Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) अथवा आनेका नाम आश्रव है । आश्रवके उदयरूपमें आत्मा पुद्गल परम णुओंको स्वतः ही आकर्षित करने लगता है और इसके 'विविध कषायों वश ये परमाणु आत्मासे मिल जाते हैं जिससे आत्माके निजगुण ढंक जाते हैं और बंध बंध जाता है। जैनधर्म आत्माको अनादिसे ही इन कर्मोंके आश्रव और बंधके • कारण दूषित मानता है जिसके कारण जीवात्मा अनादिसे ही जन्ममरण धारण कर भ्रमण करता फिर रहा है । यह कर्मबंध. आत्मा और पुद्गलके मेलसे होते हैं। और इन्हींसे जीव अपने स्वाभाविक पूर्णता और स्वतंत्रतासे हाथ । धो बैठता है । इस प्रकार एक बंधयुक्त-कर्म जंजीरोंसे जकड़ी. हुई आत्मा उस चिड़ियाके सदृश है जिसके पंख सी Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३) दिर गए हों, जिसके कारण वह उड़ नहीं 'सकती है । आत्मा अथवा जव चिड़ियाके तरह वास्तवमें स्वतंत्र है। परंतु पुद्गलके सम्बन्धके कारण अपने पंख कटे हुए सा समझना है और अपने स्वाभाविक सुख व स्वतंत्रताका उपभोग नहीं कर सक्ता है। . :: (४) घंध अत्मामें कर्म वर्गणाओं का आ श्रधित होकर काल स्थिति के लिए मिल जाकर ठहर जाना ही है जैसा ऊपर वर्णन कर चुके हैं। निर्वाण अथवा मोक्ष प्राप्त करने में पहिले इन कितने ही प्रकारके बंधनोंको तोड़ना ही पड़ता है। ... (५) संवर तत्व माश्रवका प्रतिकारक है अर्थात् आत्मामें कर्ममलको एकत्रित होनेसे रोकता है। प्रत्यक्षतः जब तक आत्मासे कर्म Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४ ) बंधकी पुद्गल वर्गणाएँ दूर नहीं कर दी जायगीं तब तक मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती है । अतः संवर अर्थात् हर समय आत्मामें आनेवाली कर्मवर्मणाओंको आश्रवेत न होने देना मुक्ति प्राप्त करनेके मार्ग में प्रथम श्रेणी अथवा पादुकाके रूपमें है । (६) जब अन्य श्गुल वर्गणाओंका आश्रव होना रुक जाता है तब दूसरी श्रेणीमें उन पूर्व संचित कर्म वर्गणाओंको एक एक कर निकालना रह जाता है । यही दूसरी श्रेणी निर्जरा तत्व है | जत्र समस्त कर्मबंध तोड़ दिए जाते हैं और आत्माका पुद्गलसे किसी प्रकारका संबंध नहीं रहता तर आत्मा अपने स्वाभाविक गुण स्वतंत्रता, सुख और केवलज्ञानका अनुभव करती है । Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) 1 : (७) वां और अंतिम तत्व आत्माके वास्तविक उद्देश्य की पूर्ति है । अर्थात् आत्मा के निज स्वरूपकी स्वतंत्रता, मोक्ष अथवा सुखका पा लेना ही है । इस मोक्ष तत्वको आत्मा अपने साथ लगे हुए समस्त पुद्गलोंके दूर करने पर प्राप्त करती है । इस प्रकारका इन तत्वोंका स्वरूप है । थोड़े हीमें जैन धर्मकी शिक्षा इस प्रकार है कि पहल और मूर्तीक पदार्थोंसे वेष्टित संसारके जीव चेतन पदार्थ हैं। इनमें पूर्णपने और सर्वदर्शिता की शक्ति विद्यमान् है । ये शक्तियां उनकी उन्हें 1 अपने सम्यक् वर्तावसे प्राप्त होती हैं । इन जीवोंके अनन्तदर्शन और अनन्त सुख संयुक्त पूर्णपनेका अभाव स्वोपार्जित कर्मोदयके कारण हुआ छ । अर्थात् इन जीवोंने स्वतः ही पर Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) पदार्थोंको अपनाया है जिसके कारण वे अपने ही कृत्यों वश इन कर्म रूपी पूल वर्गणाओं से बांधे गये हैं । और अपने यथार्थ स्वरूपको भूल रहे हैं ! अतः अब केवल यही आवश्यक है कि जीव अगाड़ी अन्य पुद्गलं वर्गेणाओंका समावेश न होने दे और जो पूर्व संचित बंध स्वरूप सत्ता में है उनको विध्वंश कर दे। जिस समय यह किया जायगा उसी समय आत्माकी स्वाभाविक संर्वदर्शिता और पूर्णपना प्राप्त हो जायंगे और स्वतंत्रता, अतेन्द्रियता . . • और आनन्दका उपयोग होने लगेगा। इस मतमें किसीसे प्रार्थना अथवा याचना करनेकी आवश्यक्ता तो है नहीं । और ध्यान देने योग्य विशेषता यह है कि कोई भी अन्य द्वार ऐसा नहीं है जो मोक्ष अथवा सुखमेंसे किसी Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकको भी दिला सके निनके लिए जीवात्मा मारे मारे फिर रहे हैं । समुचित प्रणालीका दंग कारण-कार्य सिद्धान्तपर निर्भर है। उपर्युक्त वर्णति कारणवश ही भैन धर्ममें किसी भी व्यक्तिसे सुख अथवा मोक्षकी याचना करनेका अथवा तदप्राप्ति हेतु उनकी पूना करने का निषेध है। ये सुख और मोक्ष आत्मा की निन वस्तुगे हैं। इस कारण बाह्य प्रकरणोंसे प्राप्त नहीं हो सक्ती । अतः अन्य प्रनिलित सैद्धान्तिक मतों के सदृश जैन धर्म परमात्मपदका निरूपण नहीं करता है और उन सर्व पूर्ण सिद्धोंकी उपासना उसी ढंगसे करनेका उपदेश देता है जिस ढंगसे हम अपने गुरुभोंकी विनय करते हैं। सर्वोचतम विद्वान् गुरुके लिए परमोत्कट विनयकी आवश्यक्ता यथेष्ट ही है। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८) और सर्वज्ञ तीर्थंकरोंसे बढ़कर कोई अन्य गुरु हो ही नहीं सक्ता है। तीर्थकर त्रिकालकी समस्त वस्तुओंके ज्ञाता हैं और उनका ज्ञान पूर्ण है जिसके फल स्वरूप उन्हें पूर्णपना अर्थात् सिद्धता प्राप्त है। इस प्रकारकी शिक्षा जैनधर्मकी है। और यह नितान्त ही सीधी साधी वैज्ञानिक ढंगकी है । गुप्त समस्यायों और भेदोंका तो नाम तक नहीं है जैसा कि अन्य मामें पाया जाता है । जैनधर्मके अनुसार निर्वाणका मार्ग सम्यक् चारित्र कर संयुक्त है। अन यह देखना शेष है कि जैन धर्मका आधुनिक सभ्यतापरक्या प्रभाव पड़ता है ? कोई २ 'सभ्य' मनुष्य तो आजकल धर्मके नामसें. हो घबड़ाते हैं। उनका विश्वास है कि धर्मके पालनके साथ ही साथ विचारी सभ्यताका भी अन्त हो जायगा ! Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) परन्तु यह भ्रमपूर्ण विश्वास नितांत प्रमाण रहित ही है और उ ही लोगोंका है जो मा. न्माएँ यथार्थ दृश्यसे अनिभिज्ञ है और उनके निकट अत्मा इस जन्मके उपरांत फिर अगाड़ी जन्म धारण ही नहीं करेगी। सभ्यताको इन्द्रिय लोलुपता मान कर उसका अनर्थ करना न्याय संगत नहीं है । यथार्थमें सभ्यताके अर्थ आत्मशिक्षासे ही सम्बन्ध रखते हैं. कारण कि जीवात्मां यहां भी निरन्तर विकाशको प्राप्त होती रहती हैं. और दूसरे जन्मोंमें गी। इन्द्रियलोलुपता कितनी भी सृदृष्टि क्यों न हो परन्तु अंततः अनंत आत्माके गुणोंकी घातक ही है कारण पहिले तो आत्मा- . का अस्तित्व ज्ञान ही प्रगट नहीं होने देती और फिर इन पापाचारोंके कारण उसे नर्क Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) अथवा तियञ्च गतिके दुःखोंमें ले पटकती है। प्राचीन कालके मनुष्य बुद्धि, विद्या अंथवा उस वन्तुविज्ञानसे किमी प्रकार भी अनिभिज्ञ अथवा अल्पज्ञानी नहीं थे जिस ज्ञानके आधारसे इस आधुनिक मन्यताका निर्माण हुआ है। सुतरां उनमें विशेषता और थी कि उनको विश्वास था कि इन्द्रियले.लु ता दुःखोत्पादक और आत्मा. को निकृष्ट बनानेवाली है : इसो कारण उन्होंने आवश्यकीय सीमाके अंतर्गतके उपरांत आत्मगुणको नष्ट करनेवाली शारं रिक इन्द्रिय पुष्टिकारक कला अथवा विज्ञानका निरूपण नहीं किया था । मनुष्य और पशुमें केवल ज्ञान शक्तिने बड़ा अंतर. डाल दिया है कारण कि ज्ञानकी. महिमासे मनुष्य तो. अपने स्वाभाविक पूर्णपनको प्राप्त कर सकता है.परन्तु पशु ज्ञानके Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१) अभाव में असमर्थ हैं । अतः पशु गतिमें तो दशा सुधारनेका कोई कारण उपलब्ध नहीं है। परन्तु इस मनुष्यावस्थामें जीवात्माओंको अपनी दशा सुधार इस जीवन और अन्य जीवनकी पीड़ाओंसे छुटकारा पानेकी उपयुक्त अवस्था प्राप्त है। जो दुःखोंसे जल्दी छुटकारा दिला सुखका उपभोग कराए वही वास्तविक सभ्यता है और यही न्यायकी तीव्रालोचनासे भी सिद्ध है न कि वह आधुनिक सभ्यता जो इंद्रिय विषय वासनाओं में फंसा हमें पशु सटश बनाने में कुछ कसर नहीं रखती । आधुनिक सभ्यतामें ध्यान देने योग्य विषय वर्तमा व्यय है । आजजीवन - निर्वाह-व्यय नमें जीवन निर्वाह कल दिनोदिन यह अथवा ग्रहस्थीका खर्च बढ़ता जाता है। इस Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२) कारण इस सभ्यताकी रूपा दृष्टिसे हर समय ही-दिन अथवा रात में परिश्रम कर गृहस्थीका खर्च एकत्रित करनेमें और उन साधनोंके मिलनेकी च्येष्टामें जिनसे मनुष्य अपनी समाज में “ कोई आदमी " समझा जाता है मनुष्यका उपयोग लगा रहता है । इस प्रकार वर्तमान ममयमें मनुष्य जीवनमें आत्मिक विकासके लिए कोई भी समय उपलब्ध नहीं होता है परन्तु वास्तविक मुख प्राप्ति हेतु अथवा मनुप्य जन्मकी सार्थकताके हेतु कर्म बंधनोंका क्षय कर अपनी अपूर्व निधिका प्राप्त करना आवश्यक है। प्राचीन सभ्यतामें आधुनिककी नितान्त विपरीततामें मनुष्यको आत्मविकासकी ओर पूर्ण ध्यान था। इसी कारण उस समय जीवन Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्वाह इतना सुगम था कि थोड़ेसे परिश्रममें ही मनुष्य स्वतंत्रता पूर्वक आनन्दसे जीवन व्यतीत करता था और साथ ही साथ शेप समयमें परमात्मोपासनामें अयवा अपने आत्म. विकाशमें व्यय करता था। जनधर्मन मोक्षामिलापी जीवात्माओंके लिए दो तरहके चारित्रका निरूपण किया है। (१) मुनिधर्म। (२) गृहस्थधर्म । मुनिधर्मकी विषमता और चारित्रसी निमलता इसीसे विदित है कि उसमें उसी भवसे मोक्षप्राप्तिका प्रयत्न किया जाता है और गृहस्थ धर्म उन आत्माओंके लिए है जो मुनि धर्म धारण करनेमें असमर्थ हैं। ___ अतः जनधर्मका आधुनिक सभ्यतासे प्रबंध होने पर किसी प्रकारकी भी क्षति उसके किसी अंगको प्राप्त नहीं हो सकी है सुतरां इससे Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४) उसको . इस अपूर्णताका अभाव हो जायगा जिसकी कपासे आधुनिक सभ्य समाज आत्माको कोई वस्तु नहीं समझती और मनमाने. पापाचरण कर इस भव और दूसरे भवों में दुःख उठाती है। अन्तमें प्रिय पाठक ! आपसे जैनधर्मको वैज्ञानिक ढंगसे अध्ययन करनेका ही निवेदन है और यदि आप आत्माके वास्तविक उद्देश्यको ध्यानमें रक्खे रहोगे तो जैनधर्म ही उस उद्देश्यकी पूर्ति हेतु परमोत्कृष्ट मार्ग प्रदर्शित होगा । एवम् भवतु । * . ॐ शांति ! शांति ! 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