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(११) अधर्म (४) आकाश और (५) काल । जैन धर्मके अनुपार नृष्टि का कार्य अथवा विकास . इन पंच अनीव पदाधोंके एक या ज्यादाके और जीवोंक अभावमें नहीं हो सक्ता है । आकाश ध्यान देनेके लिए आवश्यक है तो काल भी उतना ही चलाव-पड़ावके लिए आवश्यक है । धर्म और अधर्म चलनेमें व अवकाश ग्रहण करने में क्रमशः सहकारी है। पुद्गल शर.रों की मामिग्रीका देनेवाला है और जीव जीतव्य ज्ञान और सुखोपभोग करने हेतु आवश्यक्त है। इन छः द्रव्योका वर्णन जैनाचार्योने जन पन्थों में विशेष रूपमें किया है अतः यहां उनका वर्णन करना उचित नहीं है।
(३) तीसरा तत्व आश्रव है | आत्मामें कार्माण पुद्गल वर्गणाओंका आश्रिवित होना