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(१०) अथवा आनेका नाम आश्रव है । आश्रवके उदयरूपमें आत्मा पुद्गल परम णुओंको स्वतः ही आकर्षित करने लगता है और इसके 'विविध कषायों वश ये परमाणु आत्मासे मिल जाते हैं जिससे आत्माके निजगुण ढंक जाते हैं और बंध बंध जाता है। जैनधर्म आत्माको
अनादिसे ही इन कर्मोंके आश्रव और बंधके • कारण दूषित मानता है जिसके कारण जीवात्मा अनादिसे ही जन्ममरण धारण कर भ्रमण करता फिर रहा है । यह कर्मबंध. आत्मा और पुद्गलके मेलसे होते हैं। और इन्हींसे जीव
अपने स्वाभाविक पूर्णता और स्वतंत्रतासे हाथ । धो बैठता है । इस प्रकार एक बंधयुक्त-कर्म
जंजीरोंसे जकड़ी. हुई आत्मा उस चिड़ियाके सदृश है जिसके पंख सी