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(७) रुपासे नात्मा वास्तविक आनन्दका रसास्वादन फरती है । अन्ततः अब यह प्रत्यक्ष है कि इन बाह्य मारस्वरूप पदार्थोंमें ही आत्माका स्वाभाविक आनन्द प्रदर्शित होता है और वह सुख स्वाभाविक होनेके कारण अक्षय है।
अज्ञान ही वह वस्तु है जिसके वश हो आत्मा स्वाभाविक आनन्दके उपभोगसे वंचित रहती है। कठिनतासे सहस्रों प्राणधारियोंमें कोई एक मिलेगा जो इस स्वाभाविक आनन्दके म्वरूपकी झलकसे भिज्ञ हो, नहीं तो सब ही मनुष्य अपने इर्द गिर्दकी बाह्य वस्तुओंसे इस स्वाभाविक आनन्दको प्राप्त करना चाहते हैं। परन्तु यह बाह्य वस्तुसमुदाय अपने स्वमावसे ही उसे देने में असमर्थ हैं। यदि मनुष्य अपने आन्तिरिक भावोंपर ही विचार करे तो भी उसे