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________________ (५) भी दुःण्डदायी । आपसमें वैमनस्योत्पादक है। और वृहावयामें अथवा इन्द्रिय-शिथिलता पर पूर्ण अशांतिके दाता है। नि: व्यक्तिने अपनी मानिरिक इच्छाओं पर विचार किया होगा तो उसे विदित हुआ होगा कि वह विषयसुख उसे उसके इच्छित पदार्थ अथवा सुखकी पूर्ति कर शांति प्राप्त नहीं कराते । इनसे उसकी अशांति उत्तरोत्तर बढ़ती ही जाती है । यथार्थमें जिस सुखकी प्राणीमात्र रक्षा करता है वह सुख ईश्वरीय नुखो सदृश अक्षय, अपरिमति है तर्थव आत्माको मुख ।। उत्पादक है। वह इंद्रियलोलुपताकी पूर्तिक सदृश नहीं है । वह अपूर्व आनंद अथवा सुख है। यह अपूर्व आनंद न क्षणभंगुर ही है और न इंद्रियनित सुखके सहश दुःख अथवा पीड़ा
SR No.010230
Book TitleJain Dharm Kya Hai
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages29
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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