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श्रीधनहर्षशिष्यकृतः विज्ञप्तिकालेखः ॥
-सं. विजयशीलचन्द्रसूरि जैन श्रमण-परंपरामां विज्ञप्तिपत्रो लखवानी एक समृद्ध प्रणालिका मध्ययुगमा हती, जेना लीधे आपणने अनेक काव्यमय श्रेष्ठ रचनाओ तेमज ऐतिहासिक माहिती वर्णवतां दस्तावेजी लेखो तथा चित्रो पण प्राप्त थयां छे.
विज्ञप्तिपत्रो मुख्यत्वे त्रणेक प्रयोजनोथी लखाता : १. पर्युषणापर्व वीती जाय, पछी गच्छनायकनी क्षमापना करवाना प्रयोजनथी; २. गच्छपतिने पधारवानी के पोताना क्षेत्र (गाम) माटे चातुर्मास माटे साधु मोकलवानी विनंतीना प्रयोजनथी; ३. शिष्यो द्वारा गुरुभक्तिथी प्रेरित.
आ प्रकारना विज्ञप्तिपत्रो-लेखोनी संख्या घणा मोटी छे, परंतु शोधको। अभ्यासीओनी प्रतीक्षा करती ते सामग्री विविध भंडारोमां सचवाई पडी छे.
__ अहीं तेवो ज एक अप्रगट विज्ञप्ति-लेख प्रस्तुत थाय छे. सामान्यतया आवा लेखो ओळियां (Scrolh)ना रूपमा जोवा मळे छे. पण आ लेख प्रतना स्वरूपे मळ्यो छे, अने वळी ते अधूरो पण छे. आ अंगे विभिन्न अटकळो थई शके : लेख-कर्ताए प्रथम आनो खरडो आ रूपे लख्यो होय अने ते अधूरो रही गयो होय. अथवा कोईए मूळ लेखनी नकल उतारी होय अने ते अधूरी ज रही गई होय.
लेख-कर्ताए पोतानुं नाम नथी आप्युं, पण पोतानी ओळख 'धनहर्षना शिष्य' (८६) तरीके आपी छे. वळी, तेओ जे गच्छपति प्रत्ये लेख पाठवे छे, तेओनुं स्पष्ट नाम पण क्यांय जणावतां नथी; 'तातपाद' के 'तात' तरीके ज वर्णन आप्युं छे. एक ठेकाणे 'तपागणपते !' (२४) अने एक स्थाने 'चन्द्रगणाधिप' (३३) तरीके गुरुने कर्ता वर्णवे छे, ते परथी गच्छनायक चन्द्रकुलना अने तपागच्छना वडा होवानुं सूचित थाय छे. आम छतां, एक स्थळे तेपणे गुरु माटे 'कमाजन्मनः (१२७) एवं विशेषण प्रयोज्युं छे, ते सूचवी जाय छे के आ लेख 'कमाशा' शेठना पुत्र-विजयसेनसूरिगुरु उपर लखवामां आव्यो छे.
पत्रलेखननो समय जो के निर्देशायो नथी, परंतु स्वाभाविक रीते ज अनुमानी शकाय छे के श्रीहीरविजयसूरिना स्वगारोहण पछी ज, १६५२ पछी ज
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अनुसंधान-१६ .2 आ लेख लखायो होवो जोईए; ते विना सेनसूरि महाराज माटे 'तातपाद' शब्दनो प्रयोग असंभवित छे. हीरगुरुनी विद्यमानतामां तेमनो निर्देश आ शब्दथी थतो होवाना दाखला मळ्या छे. एटले लागे छे के तेमनी विद्यमानता पछी सेनगुरु माटे पण आ प्रयोग शिष्यवृन्दे चालु कर्यो हशे.
___अने आ लेख जहांगीर बादशाहना शासन-काळमां लखायो होवानुं पण मालूम पडे छे. पद्य १०३मां 'तातपादे नृपति पासेथी १२ दिननो अमारि पट्ट प्राप्त करेलो तदनुसार अहीं पण अमारिपडह वगडाव्यो हतो' तेवो निर्देश छे. तेनो इतिहास एवो छे के अकबरना देहान्त पछी जहांगीरना शासनमां, अकबर द्वारा प्रस्थापित अमारिघोषणानी व्यवस्थामा त्रुटी आवेली. तेथी विजयसेनसूरिए फरीथी तेने प्रतिबोध करीने १२ दिवसनो अमारि-पट्ट प्राप्त करेलो. लेखगत १०३मा पद्यमां ते घटनानो ज संदर्भ होवानुं मानी शकाय तेवू छे.
प्रसंगोपात्त नोंधवं जोईए के जहांगीरे आपेल ते फरमान-वेळानी घटनानुं आंखेदेख्यु चित्रांकन, दरबारी चित्रकार उस्ताद शालिवाहने कर्यु हतुं, जे आजे अमदावादमां विद्यमान छे. ते फरमानना संदर्भो तथा चित्रो धरावता विज्ञप्तिपत्र साथे संकळायेला विवेकहर्ष गणिने याद करीए तो, प्रस्तुत विज्ञप्तिलेख तेमनी रचना होय तो बनवाजोग छे.
लेख लखनारा अमदावादमां चातुर्मास छे (८४) अने गच्छपति पत्तनपाटण बिराजे छे (८३) ते तो स्पष्ट ज छे.
लेखना प्रारंभे १८ पद्यो मंगलाचरणनां छे, जेमां श्रीशान्तिनाथनी स्तुति छे. तेमांये प्रथम आठ पद्योनो प्रारंभ 'स्वस्ति' शब्दथी थाय छे, ते तो अद्भुत लागे छे. १९मा पद्यमां गूर्जर देशनुं वर्णन छे, तेमां तेने अकबर-प्रशासित देश तरीके वर्णव्यो छे.
आ 'अकब्बरो यं प्रशास्ति' एवो निर्देश छे के आ लेख अकबरनी हयातीमां ज लखायो होवान, ते परथी, लागे. परंतु १२ दिनना अमारिपत्रवाळा संदर्भ साथे मेळवतां आईं मंतव्य टाळवू ज पडे; आ प्रकार- वाक्य ए कविनी विचित्र वर्णनशैलीनो नमूनो पण गणाय, अने अकबर प्रत्येना रूढ सद्भावनी टेववश थयेली अभिव्यक्ति तरीके पण आने मानी शकाय.
आ पछी ६४ पद्योमा ‘पत्तन'नुं वर्णन थयु छे, जेमा, २०-२३ वप्र(किल्ला)
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अनुसंधान-१६ .3 वर्णन; २४-३३-परिखा(खाई) वर्णन; २५-३९ सरस्वती नदीनुं वर्णन; ४०-४६ गायो, वर्णन; ४७-५१ महिषी (भेंस) वर्णन; ५२-५६ श्राद्ध (श्रावक) वर्णन; ५७-६३ श्राद्धी (श्राविका)वर्णन; ६४-६८ जिनमन्दिर वर्णन; ६९-८३ उपाश्रय वर्णन-आम पेयवर्णनो छे.
आमां पद्य ४४मां चोरी माटे 'चतुरिका' शब्द प्रयोजायो छे, ते ध्यानाह छे. ५९मां श्राविकाओना सेंथामां पूरेला सिन्दूरनो निर्देश छे. उपाश्रय-वर्णनमांउपाश्रयो चूनाथी धोळेला, भीत पर हाथीनां सौम्य चित्रो छे, धूप-सुगंधथी ते महेकता होवा, मोतीजडेला चंदरवा-पुंठियां बांधेला होय वगेरेनुं वर्णन माहितीसभर तेमज रसप्रद छे. तो उपाश्रयमा वसता साधुओनी कामगीरीनी वातो पण नोंधपात्र छे. कर्ता जणावे छे: आचार्य (पूज्यपादः) वाचकोने, वाचको पंडितोने अने पंडितो शिष्योने भणावता हता. वळी ते बधा शब्दशास्त्र, शब्दकोश, तर्कशास्त्र, जिनगमो वगेरे भणे-भणावे छे, तेमज जूनां-नवां शास्त्रोनुं लेखन, वाचन, योजना तेम ज शोधन पण चाली रह्यां छे.
पद्य ८३मां श्रीतातपादनो तथा पत्तननो अने ८४मां धर्मधाम तेमज अहम्मद राजाए स्वनाम उपरथी स्थापेल 'अहम्मद' शहेरनो उल्लेख थयो छे. ८६मां धनहर्षशिष्य विज्ञप्तिका करी रह्यानी नोंध छे. ८७-९३मां प्रातः-वर्णन अने ९४९७मां रवि-वर्णन थयुं छे..
९८-९९मा लेखकार पोतानी धर्मचर्याना विशेषतुं बयान आपे छे के 'हुं व्याख्यानमां, श्रीमानतुंगाचार्ये रचेल 'शीलभावना' ग्रंथ परनी श्रीरविप्रभाचार्यकृत टीकार्नु वाचन करूं छु.
आ मानतुंगाचार्य कया ? तेमज तेमनो आ ग्रंथ कयो ? तेनो ऊहापोह तथा शोध थवा जोईए, तेम सूचन कर उचित छे. रविप्रभाचार्ये सं. १२२९मां 'शीलभावना' ग्रंथ पर वृत्ति रच्यानो उल्लेख तो 'जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास' (पृ. १७५)मां मळे ज छे. .
१००मा पद्यमां साधुओ-साध्वीओनुं अध्ययन तथा योगोद्वहन सुखे प्रवर्ततुं होवानी वात जणावी छे. १०१मां वार्षिक पर्वनो, २मां नव व्याख्याने कल्पसूत्रवांचननो, ३मां १२ दिनना अमारि पत्रनो, ४ थी ७मां अमारिघोषणानो निर्देश छे. ८मां भाविकोए करेल ३०, १५, १०, ८, ५ उपवास-तपस्यानो, ९मां ६४ स्नात्र
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भणायांनो अने १० मा १७ प्रकारी पूजा भणायानो उल्लेख थयो छे. ११मां याचकोने दाननी, १२मां साधर्मिकवात्सल्यनी, १३मां चैत्यपरिपाटीनी अने १४मां तातपादना पसाये आ बधुं रूडुं थयानी वात वर्णवी छे.
११५ थी ४१ सुधीनां पद्योमां गुरुनुं वर्णन थयुं छे, जे गुरुभक्तिनो श्रेष्ठ नमूनो पूरो पाडे छे. ४२-४७ मां तातपादने लेख (पत्र) लखवानी विज्ञप्ति तथा ते माटेनी तीव्र उत्कंठा व्यक्त थई छे. १४८मां पोतानी वन्दना तातपादने सदैव छे तेम निरूपे छे.
१४९ थी १६२ पद्योमां अमदावादना श्रद्धावंत गुरुभक्त श्रावकोनी दीर्घ नामावली छे. तेमां देवचंद तथा समर्थ - ए बे श्रावकोए पाटणमां पूज्यने वांद्या होवानी (५२) यादी छे; श्रावकोनां नाम साथे जोडेल अटकोमां जणाती विशेषता आवी छे : वखारियां - वक्षस्कारिक (४९), गाला- गल्लक (५२), परीख - परीक्षक (५५) इत्यादि. श्रावक - नामावली पूर्ण थर्ता ज ' इति श्राद्धनामानि लखेल छे, अने प्रति पूर्ण थाय छे. आम एक रसप्रद कृति अपूर्णतामां ज पूर्ण थाय छे.
जे प्रतना आधारे आ संपादन थयुं छे ते प्रत खंभातना श्रीविजयनेमिसूरिज्ञानशाळा - भंडारनी छे. पांच पानानी आ प्रत त्यांनी यादीमां 'पत्तननगरवर्णनं ' एवा नामे नोंधाएली छे. प्रत ऊधईथी कोरायेली छे.
प्रांते, एक मुद्दो नधुं के आ लेख मात्र विज्ञप्ति - लेख ज छे, लेख नहि. केम के आमां क्यांय क्षमायाचनानी वात छे नहीं.
विज्ञसि - लेखनुं छंदोवैविध्य ध्यानपात्र छे, तो कविनी प्रसन्न कल्पनाशक्ति पण तेमने एक नीवडेल पद्यकार/ काव्यकार तरीके स्थापी आपे तेवी छे. विज्ञप्ति - लेखः ॥
स्वस्ति श्रीकरिणी यदीयविलसत्पादद्वयी सोमजा मध्ये नर्मविधिं चकार चतुरा दीप्रप्रभाम्भोभरैः । विघ्नालीनलिनीनिबर्हणकरी श्रेयस्विनां शङ्करी व्यापत्संहतिदुःसपत्त्रपृतनासन्त्राससम्पादिनी ॥१॥ स्वस्ति श्रीदिविषद्रवीव दिविषद्रेहं यदीयक्रमद्वन्द्वं तारतरत्विषा विलसितं व्यद्योतयद् भास्वती ।
क्षमापना -
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अनुसंधान - १६ 5 तस्याऽनन्तचिदः प्रभारमहसस्त्रैलोक्यपूज्यस्य चेत्यादौ भासयतः परं त्रिजगत चित्रं न तन्मन्महे ॥२॥ स्वस्तिश्रीश्चरणद्वयं भगवतो यस्यातिविभ्राजयांचक्रे तां प्रति तत्सितत्विषमिव श्रेष्ठा तमी तं च सा । इत्यन्योन्यसुदीप्यदीपकमहासम्बन्धसम्बन्धिनौ तौ निःशेषरसास्पृशां वृषजुषां स्यातां प्रसन्नौ सदा ॥३॥ स्वस्ति श्रीजलधिर्ददात्यस्मतां मुक्तिश्रियं पावनामाख्यानं स्मृतमेव तच्चरणयोरभ्यर्चनं किं पुनः । दृष्टः सन्तमसश्छिदां प्रकुरुते प्रागग्रजोऽहिद्विषस्तत्किं वाच्यमिहास्ति पुष्करमणौ पद्यां दशोः सङ्गते ||४|| स्वस्ति श्रीर्व्यतरन् यदीयचरणा अर्णांसि पाथोभृतः कामं कल्पनगाः समीहितभरान् प्राणस्पृशां भूयसाम् । तन्मध्ये हि पदानवैमि रुचिरान् सद्दानशौण्डान् यतः पाथोदाः कतिमास एव ददते कल्पा अमुष्मिन् भवे ॥५॥ स्वस्ति श्रीकरणं यदीयचरणं (ण) द्वन्द्वस्य चर्चाविधि विज्ञायाऽतिविदध्युद्भुततया स्वप्नास्तमेवादरात् । दण्डं कुम्भनिबन्धनं घटकृतो निश्चित्य तन्निर्मितं कुर्वीरंश्च निबन्धनेन हि विना कृत्यं न कुत्राप्यहो ! ||६|| स्वस्तिश्रीः श्रयति स्म मोदनिवहैर्यं योगिनं स्वःसदां वृन्दैर्वन्द्यपदद्वयं शममयं निःशेषनष्टामयम् । पाथोनाथमिवापगामृतलिहां नीराधिनाथाङ्गजाराजीवं च सरोरुहासनसुताश्वेतच्छदं व्योमगम् ॥७॥
स्वस्तिश्रीः परिपूरितस्य विलसत्पादद्वयाम्भोरुहे यस्याऽस्वप्नगणाः सदा शुशुभिरे किं नाम पुष्पन्धयाः । विस्फारङ्गुलिपत्रसुन्दरतरे रङ्गत्प्रभाभासुरे रेखादम्भमृणालदण्डकलिते लक्ष्मीविनासोचिते ॥८॥
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अनुसंधान-१६ .6 रसास्पृशामर्हणामाददानं यं दानशौण्डं प्रवदन्ति सन्तः । यः पर्यणैषीद्वरसिद्धिकामिनी, तथापि यो ब्रह्मवतां धुरि स्थितः ।।९।। द्विधा समस्तान् प्रजघान यो द्विषस्तथाप्यमन्युप्रथितावदातभाक् । यो निर्मिमीते नहि कस्यचिन्नति तथाप्यमानीति वचस्विनोऽब्रुवन् ॥१०॥ न स्थाणुभावं न च भीमभावं न चैकदक्त्वं न च षण्ढभावम् । बरीभरीति स्म न बभ्रुभावं शिवो महेशोऽपि हि शङ्करोऽपि ॥११॥ न चैकपात् त्वं शिपिविष्टभावं न रुद्रभावं न च शूलिभृत्त्वम् । दरीधरीति स्म न गोपतित्वं महाव्रती शम्भुरपीश्वरोऽपि ॥१२।। शिवश्रीपरीरम्भविद्वन्मनस्कं प्रणेमुश्चतुःषष्टिराखण्डला यम् । ददे यश्च तेषामनन्तां समृद्धि भवत्येव नान्तर्गडुः शिष्टसेवा ।।१३।। ब्रुवाणस्य तत्त्वं ददानस्य चेष्टं ददाना अभीष्टं सतां पारिजाताः । लभन्ते स्म यस्योपमां नैव जातु प्रपन्ना यतः सन्ति ते मूकभावम् ॥१४।। क्षमस्व तापं हि हिरण्यरेतसस्तथापि कार्तस्वर ! नाप्स्यसि त्वम् ।
औपम्यमनस्य जिनेन्द्रवर्मणः प्रभूतभासो भवतो भुवस्तले ॥१५॥
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अनुसंधान-१६.7 जिनाधिराजस्य तनोस्तुलामहं दरीधरीमि स्म न जातु भूतले । इतीव हेतोः कनकं हि दिव्यति विशेत् कृशानौ कथमन्यथा हि तत् ॥१६॥ विश्वाधीश्वरविश्वसेनतनयः श्रीशान्तितीर्थेश्वरश्चक्रे यः शुचिकेवलेन निबिडाज्ञानक्षयं भूस्पृशाम् । स्वीयेनेव करोत्करेण नलिनीनाथस्तमिश्रक्षयं तापेनेव निजेन सप्तकिरणो निःशेषजाड्यच्छिदाम् ॥१७॥ इति नुतिपथं नीतो भक्त्याऽचिरातनुसम्भवस्त्रिदशवृषभैनित्यस्तुत्यक्रमाम्बुजयामलः । प्रशमितमहामोहं लब्धापुनर्भवसम्पदं जगति वितरन् शान्ति शान्ति प्रणम्य तमीश्वरम् ॥१८।।
इति अष्टादशभिः काव्यैः श्रीशान्तिनाथवर्णनम् ।। पृथ्वीपालः प्रथितमहिमाऽकब्बरो यं प्रशास्ति श्रेय:स्थानं स जयतु चिरं गूर्जरो नाम देशः । मुक्ताक(का)र्तस्वरवरमणीमुख्यसम्पन्निधानं दस्युव्रातैरकलितपथः सर्वनीवृत्प्रधानः ॥१९॥
अथ पत्तननगरवर्णनम् ||
तत्र प्रथमं वप्रवर्णनं यथाअपि सहनसमूहैर्भूरिशौर्यैरभ(भे)द्यो मणिमयकपिशीर्षश्रेणिसंशोभितश्रीः । कनकघटितसालो राजते यत्र पूते किमु धरणिमृगाक्ष्याः कंकणं वृत्तवृत्तम् ! ॥२०॥ न विशति परमोषी यत्र सालस्य सत्त्वाअहि सदनमणौ वा विद्यमाने तमिश्रम् । उदयमियति पत्यौ रोचिषां क्षोणिपीठे न हि विशति शरीरे शीतवेगव्यथा वा ॥२१॥
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अनुसंधान-१६ .8 इति मनसि विमर्शो जायते कोविदानां नगरमभि निरीक्ष्य प्रोच्छ्रितं वृत्तसालम् । किमु निधिमभिवेष्टुं नायको दृक्श्रुतीनामकृत वलयभावं लोभधर्माभिभूतः ॥२२॥ जनपददयितस्यानन्दवृन्दप्रदात्री किमुत नगरयोषिद् वप्रदम्भान्नितम्बे । अधरदखिलचीरं वा कलापं कलापं निजनिगरणशोभं वासमुक्ताकलापम् ।।२३।।
इति चतुभिः काव्यैर्वप्रवर्णनम् ॥
अथ परिखावर्णनं यथास्वर्णरत्नमणिभिर्विनिर्मिता संयुताऽतिविशदैः कुशेशयैः । नीरपूरनिभृता च खातिका यत्र सर्वगुणधाम्नि दिद्युते ॥२४॥ गत एव विहितो विधिनाऽयं, कोविदाः ! कपटतः परिखायाः । श्रीअकब्बरनृपस्य विरोधि-क्षोणिनाथहरिणग्रहणार्थम् ॥२५॥ दुर्ग एष लभते प्रतिबिम्बं खातिकापयसि किं वद विद्वन् ! । तिग्मसानुमहसा बहुतप्तः स्नातुकाम इव स प्रविवेश ॥२६॥ वप्रसंनिधिगता च खातिका भात्यशेषगुणवारिवारिधिः । कि सितद्युतिमुखी निजं धवं सङ्गताऽङ्गुलिगतेव मुद्रिका ॥२७॥ वृत्तवप्रपरिखे प्रविभात: कुण्डले श्रवणयोः पुरलक्ष्म्याः । पादयो[स्तु] कटके अथवा ते सज्जिते इति वदन्ति विदग्धाः ॥२८|| पुरि यत्र मनोरमश्रियां लसतो वरवप्रखातिके ।। शयने दयिताङ्गने यथा सविधे सविधे स्थिते उभे ॥२९॥ स्थितेन मूर्धन्यसमेन भासते वृत्तेन वप्रेण वरेण्यखातिका । हृदीश्वरेणेव सरोरुहानना द्विजातिजातेन यथा रसज्ञका ॥३०॥ संवीक्षितुं पुरमनोहरतां सुलङ्कावप्रः समागत इहाऽतिहठादरक्षि ।
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अनुसंधान-१६ .9 कृत्वा कराग्रवलयं परिखाच्छलेन भूयोषिता हि सुनरं नहि कापि जह्यात् ॥३१॥ यत्र चारुपरिखा व्यभासयद् दुर्गमुत्तममहीधराचलम् । किं चकासयति नो विकूणिका वक्त्रमालपममोत्तरं सुधीः ॥३२॥ या विराजति पुरीव मानिनी तद्गलः किमुत दुर्ग एषकः । खातिकोपरि वशात् सुरेखया संयुतोऽस्ति मम नैव संशयः ॥३३॥
इति दशभिः काव्यैः परिखावर्णनम् ॥
अथ सरस्वतीसद्धिर्णनं यथायत्रिवासिजनतासुचातुरी-निर्जिता वहति शारदा पयः । न ब्री(ब्रवी)ति जनपादघट्टिता क्षालयत्यशुचिचीवराण्यहो ! ॥३४|| यत्र वासमधिगच्छति स्वयं स्थानपावनतया सरस्वती । मानवा यदि हि तत्रिवासिनः कोविदाः किल न तत्र कौतुकम् ॥३५॥ यत्र बालतरुणा स्थविरा वा येऽपि सन्ति निखिलाः सुधियस्ते । आजनविहितसारशारदो-पासिनां हि कविता न चित्रकृत् ॥३६।। यत्र पूर्जनविवेकचारुतालोकनाय समियाय हंसगा । सा प्रवाहमिषतस्ततः परं तत्र च स्थितगतीव रागतः ॥३७॥ यत्र पावनपयःप्रपूरिता मत्तषट्चरणपद्मसङ्गता । गर्जतीत्यथ च युक्तमीदृशं स्वे धवेऽपि हि तथैव दर्शनात् ॥३८॥ यत्र नादिवणिगादियोगतः शिक्षितादरमहाविसर्जना । भाति हंसगसुता तदीयका-द्योगतश्च विबुधा नरोऽभवन् ॥३९॥ इति षड्भिः काव्यैः सरस्वतीसरिद्वर्णनम् ।।
अर्थ गोवर्णनम् - स्तनैश्चतुर्भि: समलङ्कृता सदाऽस्ति वल्लभा यत्र गवां ततिर्नृणाम् । कुतूहलं तद्विदुषां न जायते यतः स्तनद्वन्द्वयुताऽपि वल्लभा ।।४०॥
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अनुसंधान-१६ . 10 अहं [तु]जाने हिमवालुकाभि
त्राणि यासां परियोजितानि । माहा(? गाव?)स्ततो बिभ्रति य[त्र] पाण्डुतां वाच्यं पुनः किं हि तदीयनृणाम् ॥४१॥ कोवि(टि)स्त्रयस्त्रिंशदियं सुधाभुजां यदियलाङ्गलकचान्निषेवते । पयांस्यसेव्यन्त यदा हि मानवैस्तासां गवां तत् कुतुकं न मन्महे ॥४२।। पयोधराणां तु चतुष्टयेनोद्गिरत् पयो वीक्ष्य यदीयमूधः । वक्त्रैश्चतुर्भिः प्रथ[य]न् श्रुतिध्वनि धातेति जानन्ति बुधा हृदि स्वके ।।४३।। असमया ह्युषया सह कन्यया किल विवाहयितुं सुपयो वरम् । चतुरिका विहितेव विरञ्चिना स्तनचतुष्कमिषात् सुरभिव्रजे ॥४४॥ यत् पातुमीयुः समलोकपालकां सुधां परित्यज्य चतुःस्तमो(नो)पधेः । जानामि यत् पुंसवनं सुधाधिकं सहस्रशो यत्र विभाति(न्ति) धेनवः ॥४५॥ कनकरत्नविभूषितकूणिका, चरणयोजितनूपुरभूषणा । अपि गलस्थितमौक्तिकमालिका स्तनयुता सुमुखीव हि सुव्रता ॥४६॥
इति सप्तभिः काव्यैर्गोवर्णनम् ॥
अथ महिषीवर्णनम् - यासामतिश्यामतनुत्वचाममून्(?) पयोभृतः पीनपयोधनव्रजान् ।
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अनुसंधान - १६ • 11
निरीक्ष्य पार्श्वे सरसः समुद्रताः कारस्करा इत्यवधार्यते बुधैः ॥४७॥
क्षीराज्यदघ्नां सलिलाधिनायकाः स्वश्यामतानिर्जितषट्पदश्रियः । सद्वाव (ल?) धिघ्राणविषाणलोचनाः नित्यं महिष्यः प्रविभान्ति यत्र ताः ॥ ४८ ॥
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क्षीरक्षीरजपादनीरहविषां येषामिहार्थो भवेदानेया स्वकधाम्नि तैरियमिति प्रज्ञापनार्थं स्फुटम् । वक्षोजन(न्म)स्पृ[श]त्पयोनिधिमितान् देवः पयोजासनो यस्यां सा महिषीततिः शितितनुर्यत्राऽतिविभ्राजते ॥ ४९ ॥ यस्यां पीनमधश्चतुः परिलसद्वक्षोरुहैः संयुतं पातालात् किमथानिनीषुरुरगं क्ष्माभारभुग्नं बहिः । कृत्वाऽधो निजमाननं प्रतिदिवा दन्तैः खनन् काश्यपीं पीयूषाशन भर्तृसिन्धुर इवाऽज्ञायि प्रबुधै ( है ) र्जनैः ॥५०॥ खादत्रेव तृणाद्यसारनिचयं पाथः पिवन्नात्मना यादृक् तादृगलं परोपकृतये दक्षो महिष्युत्करः । मर्त्यानां वितरत्यमेयसुपयो यत्राभिरामे श्रिया तद्वासी ह्युपकारकृद् यदि जना (न)श्चित्रं न तन्मे भवेत् ॥५१॥ इति पञ्चभिः काव्यैर्महिषीवर्णनम् ॥
अथ श्राद्धवर्णनम् । यथा-
शिवसुखकरं सम्यक्त्वेनाश्रितं व्रतपञ्चकं प्रथममणुकं मुक्तेर्बीजं तथा च गुणत्रिकम् । भवभयभिदादक्षं शिक्षाव्रतस्य चतुष्टयं दधति सकले धर्मे दार्यं यके परमार्हताः ॥५२॥
वरत[र]मणीस्वर्णश्वेतोत्करैर्निभृताश्रया अभिनवपरिष्कारव्रातैरलङ्कृतमूर्तयः ।
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अनुसंधान - १६ • 12 मृगमदभरप्रोद्यच्चन्द्रैर्भृशं सुरभीकृतैः सितरुचिसमस्वच्छैश्चीरैविराजितविग्रहाः ॥५३॥
प्रविजितमनोजन्मानः स्वैर्मनोरमविग्रहे निखिलसुगुणैर्युक्ता मुक्तास्तमोवृजिनव्रजैः । जिनवरवचोवृन्दं शृण्वत्यजस्रमनुत्तरं परमसुधियः श्रद्धाभाजो मुखाद् व्रतिनां विभोः ॥५४॥ |
निजवितरणैर्येषां कल्पद्रुमा इव धिकृतात्रिदिवनिलयं जग्मुर्मन्ये प्रणश्य भुवस्तथा । सकलसुखदं वर्यं तुर्यव्रतं प्रतिपालयन्त्यसममहिमं यत्र श्राद्धाः सुदर्शनसाधुवत् ॥५५॥
कठिनकर्मवातोद्भेदप्रवीणमलं तपः
tall
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पटलमतुलं श्रद्धावन्तस्तपन्ति मुदां भरात् । दुरितकदलीकन्दच्छेदप्रधानकुठारिकां
विशदचरिता यत्र श्राद्धा भजन्ति सुभावनाम् ॥५६॥| इति पञ्चभिः काव्यैः श्राद्धवर्णनम् ॥
अथ श्राद्धीवर्णनम् -
शिरोभाल श्रोत्रम्बकमुखरदोद्यनिगरणस्फुरद्वक्षो बाहाकरकरशिखांह्निप्रभृतिषु । परिष्कारव्रातं विविधवसुकार्तस्वरकृतं - दधत्यो द्योतन्ते नलिननयना यत्र शतशः ॥५७॥
लसद्वक्षोजन्मद्वयकपटकुम्भस्थलयुता वरस्वर्ण श्रोत्राभरणयुगघण्यतिसुखमाः । कलापव्याजेनानघतनुकघण्टालिकलिता निजप्राणाधीशाङ्कुशवरवशा दीप्रदशनाः ॥५८॥ प्रवेणीलाङ्गलाः कमणरुचिरन्यासनिपुणाः । सुधाज्योतिर्वक्त्राः करटिललना भान्ति सततम् । सुसिन्दूरस्त्रे [ हो ] त्करपरिविलिप्तस्वकशिरः
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अनुसंधान-१६ . 13 प्रदेशा: सद्वस्तप्रथितमहिमा यत्र रुचिरे ।।५९॥ तथा याभिः स्वाभिर्गतिभिरनिशं सिन्धुरवण जिता एताश्चैतान् परिदधति नारीभसिचये । किमन्यच्चातुर्यं परिवदति तासां बुधजनो यकाभिः स्वर्योषाः स्वकगुणवितानैः प्रविजिताः ॥६०॥ सुकृतिसदने यस्मिन्नित्यं विभान्ति मृगीदृशोऽधिकमिभमृगीदृग्भ्यो यत् तन्न कौतुकमस्ति नः । निजकवदने दन्तश्रेणी वपुः कनकप्रभं सुकरयुगलं शुभ्रं वकं त्विमाः किल बिभ्रति ॥६१॥ वितरणगुणत्प्रो(प्रो)द्यत्पाणि वचः श्रवच्छृति(?) (श्रवणश्रुति) जिनवरगुरुश्राद्धादीनां गुणावलिकीर्तनात् । वदनममलं स्वं कुर्वन्ति क्षणादतिपावनं नलिननयनाः श्रद्धालूनां वसन्ति हि यत्र ताः ॥६२॥ सामायिकादिसमधर्मक्रियासु दक्षा श्रीमज्जिनेन्द्रपदपूजनभव्यभक्तिः । विद्योतते बहुततिः सदुपासिकानामम्बेव या शमवतां शिवसौख्यादानाम् ॥६३।।
इति सप्तभिः काव्यैः श्राद्धीवर्णनम् ॥
__ अथ श्रीजिनमन्दिरवर्णनम् । यथाअर्हद्धाम्नां पटलमसमं वीक्ष्य विध्वस्तपीडं प्रेम्णां वृन्दं सुकृतिभविनः प्राप्नुवन्ति प्रकामम् । चक्रवाता इव परिवृढं मंक्षु पाथोजिनीनां यद्वा ज्योत्स्ना प्रियसमुदया यामिनीप्राणनाथम् ॥६४॥ व्यक्तं वीथी विलसतितरां श्रीजगन्नाथधाम्नामंहो भीतं व्रजति सकलं दूरतो यां समीक्ष्य । चिन्तारत्नावलिमिव महादुर्विधत्वं नराणां यद्वा पञ्चाननततिमलं सिन्धुराणां स्मयित्वम् ।।६५।।
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अनुसंधान-१६ . 14 कुरङ्गनाभीहिमवालुकां(कानां) सत्काकतुण्डोत्तमचन्दनानाम् । सकेसराणां शुभगन्धगर्भमर्हगुणां(णानां) पटलं चकास्ति ॥६६॥ यत्र श्रेयोऽवति वरमणीमण्डलैर्मण्डितक्ष्मश्चञ्चच्चामीकरजिनवगैक:कलापश्चकास्ति । निःशेषैनश्चयमसुमतां प्रोद्दलन् दृग्गतः सन् मुक्ताजालव्रजपरिलसज्जालकश्रेणिरम्यः ||६७॥ यत्रेशानक्षितिधरसमुत्तुङ्गदेवाधिदेवावासश्रेणिः स्फुरति विहिता शिल्पिना साररत्नैः । किं कैवल्यत्रिदिवनिगमज्ञापने दीपपङ्क्तिर्यद्वा तिर्यग्-निरयकुगतिद्वाररोधार्गलेयम् ॥६८।। इति पञ्चभिः काव्यैः श्रीजिनमन्दिरवर्णनम् ।।
अथोपाश्रयवर्णनम् । यथायत्कुड्यदेशेषु बहिर्गतेषु विशेषतश्चित्रितसामयोनीन् ।। अत्यद्भुतानेकपदे निरीक्ष्य बिभ्यन्ति(?) साक्षात् करिणः प्रयान्तः ॥६९।। यदीयकुड्यानि सुधाविलिप्तान्यहनिशं भान्ति सुपाण्डुराणि । विभावरीनायकमण्डलानि लवा यथा वा हिमवालुकानाम् ॥७०॥ यदीयकुड्येषु मनोरमाणां वातायनानां प्रविभान्ति वीथ्यः । वक्त्रेषु पाथोजभुवोऽम्बकानां व्योम्नः प्रदेशेषु यथा च भानाम् ॥७॥
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अनुसंधान - १६ • 15
यदीयकुड्यानि सुधातिनिर्मलान्यालोक्य विज्ञा इति जानते हृदि । एतानि तारैरिव निर्मितानि किं देवेन पाथोरुहजन्मना स्वयम् ॥७२॥ दशार्धवर्णैरुपशोभितानां
सवाससां मूल्यबहुत्वभाजाम् । चन्द्रोदया यत्र मुमुक्षुधाम्नि व्योम्नीन्द्रचापा इव विस्फुरन्ति ॥ ७३ ॥
कास्मीरजन्मोत्तमकाकतुण्डसद्गन्धधूलीहरिचन्दनानाम् । सौरभ्यलुब्धास्त्रिदशाः [गता ] गतिं वितन्वते यत्र तपस्विभिर्भृते ॥७४॥
मुक्ताफलैरालिखिताष्टमङ्गलप्रकीर्णकच्छत्रविचित्रचित्रकम् । वितानमाभाति मुनीशमूर्द्धनि व्योमेव नक्षत्रततिप्रपूरितम् ॥७५॥
स्तम्भाभिरामगुणवृक्षविराजमानः पार्श्वद्वयस्थिततृणध्वजकोटिपात्रः । चन्द्रोदयोपधिवरेण्यसिताम्बरेण
संशोभितो गुरुनियामकयोगयुक्तः ॥ ७६ ॥ विभ्राजते मुनिनिकाय्यपरार्ध्यपोतो यस्तारयत्यनुदिनं समदेहभाज: । यत्र स्फुरत्तरमनुष्य योधिनाथे संपूरिते सकलया कलयाऽब्धिपुत्र्या ॥७७॥ सुस्तम्भदम्भकमणोऽधिरोहणी
वरः कुवाटश्रवणातिशोभनः । पक्षद्वयस्थाणुवरेण्यवाता -
यनेक्षणो नीव्रनिषद्विजन्मा ॥ १७८ ॥
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- अनुसंधान-१६ . 16 अलम्बनस्थापितरश्मिगूमा मुमुक्षुधामाग्रिमसामयोनिः । शीर्षाग्रसंस्थापितकुम्भकुम्भो विभासते सारसुधातिशुभ्रः ॥७९|| अनूचानपादा नृणां पूज्यपादाः कचिद्वाचकान् पाठ्यन्त्यग्रशास्त्रम् । कचिद्वाचकाः कोविदान् पाठयन्ति कचित् कोविदाः पाठयन्ति स्वशिष्यान् ॥८०॥ कचिच्छब्दशास्त्रं कचिनामकोशः कचित्तर्कशास्त्रं कचित्तीर्थपोक्तिः । स्वयं भण्यते भाण्यते तत्त्वविद्भिः क्षमावद्भिरत्याहतस्वप्रमादैः ॥८१॥ क्वचिल्लेखयन्ति कचिद्वाचयन्ति कचिद् योजयन्ति क्वचिच्छोधयन्ति । नवीनाऽनवीनानि शास्त्राणि वाचंयमा यत्र शास्त्राब्धिमीना अमानाः ।।८२।।
इति चतुर्दशभिः काव्यरुपाश्रयवर्णनम् ॥ इत्याद्यनेकैः शुभवर्ण्यवस्तुभिः संपूरिते भूरिसुखनियां पदे । श्रीतातपादाम्बुजपूतरेणुके गुणाधिके श्रीमति तत्र पत्तने ॥८३॥
इति चतुःषष्ट्या काव्यैः पत्तनवर्णनम् ।। श्रीमत्तातक्रमकजयुगोपास्तिनिःशेषदक्षश्राद्धश्राद्धीजनसमुदयैः संभृताद्धर्मधाम्नः । सश्रीकाऽहम्मदनमणिना वासितात् स्वस्य नाम्ना सश्रीकाऽहम्मदानगरतो नामयाथार्थ्यभाजः ॥८४॥ आनन्दवृन्दसहितं विनयं प्रबहँ स्नेहेन कञ्चकितगात्रलताभिरामम् ।
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अनुसंधान - १६ • 17
सोत्कण्ठमानसमहीनमहीनभक्तिव्यक्त्यद्भुतं सबहुमानममानमानम् ॥८५॥ आवर्त्तकै रविमितैः सहितैः प्रकामं भक्त्याऽभिवन्द्य वस्वन्दनकैस्तु तातान् । संयोज्य पाणियुगलं निजभालदेशे विज्ञप्तिकां वितनुते धनहर्षशिष्यः ॥ ८६ ॥
नभस्तः प्रणश्यन्ति यत्रातिदूरे समग्र ग्रहाणां गणा हीनभासः । प्रतापप्रकर्षस्पृशो रत्नगर्भाविभोविद्विषां पंक्तयो चाखिलानाम् ॥८७॥
ज्योतिर्नष्टं तारकाणां वरिष्टं यत्रोद्रच्छद्धर्मरश्मिप्रभावात् । अर्णोयोगाद्दर्पणानां यथा वा
मन्त्रोच्चाराद् वा यथा दृश्रुतीनाम् ॥८८॥ यियासवः सन्ति सुधाशनाध्वनो यस्मिन् समागच्छति तारकोत्कराः । द्विजा यथा स्यात् कि [ल] विस्रसागमे समीरवृन्दाच्च कुशाग्रबिन्दवः ||८९ ॥
निरीक्ष्य यं सन्तमसव्रजा ययुः प्रणश्य दूरे जननीलरोचिषः । क्षणाद् यथा दृग्श्रवणं प्लवङ्गमाः पाटच्चरा वा दृढदुर्गपालकम् ॥९०॥ अनेकपौधा विषमाननं यथा कुम्भीनसा वा विनतातनूभवम् । मितम्पचा मार्गणमापतन्तं त्रिकालविद्वत्कमघप्रकर्षाः ॥ ९१ ॥
इति प्रातर्वर्णनम् ॥
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अनुसंधान-१६ . 18 सुविस्मिताम्भोजभरे स्वकस्वकादुत्थाय नीडात् प्रचलद् द्विजव्रजे । द्विजातिजातेन सुपठ्यमानऋगादिवेदे प्रसरत्प्रकाशे ।।९२॥ प्रणष्टपाटच्चरचक्रवाले विधीयमानाऽसमधर्मवृ(कृ)त्ये । मुक्तप्रमीले समजन्तुजातैर्जाते प्रभाते किल तत्र पूते ॥१३॥
इति प्रातर्वर्णनम् ॥ यदीयकान्तेः पुरत: सुधीभिनिरीक्ष्यते शीतमयूख एषः । प्रभाविहीनः किल पाडु(ण्डु)रच्छदच्छविर्न कस्यापि दृशोः प्रमोदकृत् ॥९४|| कवलयति कलापं तामसं यः करौघैभजति विकचभावं यं निरीक्ष्याऽब्जपंक्तिः । भवति जलतिनेमी येन तेजस्विनीयं स्पृहयति हदि यस्मै सन्ततिर्मानवानाम् ।।९५॥ व्रजति निखिलजाड्यं क्षीणभावं च यस्माद् विषयहयरथाङ्गैः स्यन्दनो यस्य नित्यम् । अनिमिषपथपारं प्राप्तवान् श्रोणिसूतः प्रविलसति हि यस्मिन् प्रग्रहाणां सहस्रम् ॥९६|| बुधपरिवृढकाष्ठाभामिनीभव्यभालस्थलतिलकसमाभेऽम्भोजिनीप्राणनाथे । उदयमियति विश्वोद्योतके दीप्रभानौ प्रमुदितसमचक्रद्वन्द्वचित्तेऽतिवित्ते ॥९७||
इति रविवर्णनम् ॥
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अनुसंधान-१६ . 19 अभिगतनवतत्त्वैर्लब्धधर्मस्वरूपैनिजतनुजितकामैस्तातभक्तौ सुधीभिः । परमसुकृतलीनैराहतैश्च प्रवीणमतिनलिनमुखीभिः संभृतायां सभायाम् ॥९८।। श्रीमानतुङ्गाभिधरसूरिकुञ्जरैविनिर्मिता या शुचिशीलभावना । रविप्रभाचार्यकृतां तदीयवृत्ति पवित्रामथ वाचयामि ॥९९|| वाचंयमानां च तपस्विनीनां प्रारब्धशास्त्राध्ययनं सुखेन । तथा च योगोद्वहनं मनोरममित्यादिकृत्यं सुकृतस्य जायते ॥१००।। सद्धर्मभूवल्लभवासमन्दिरे समग्रपङ्के चिकिलाहेश्वरे । भव्याङ्गभृत्कैरवशीतरोचिषि प्राप्ते क्रमाद् वार्षिकपुण्यपर्वणि ॥१०॥ समीप्सितार्था]वलिपूर्तिकल्पद्रुमोपमानं शुचिकल्पसूत्रम् । प्रभावनापूर्वमपूर्वभावतो नवक्षणैर्भूरिमहैरवाचयम् ।।१०२॥ लब्धानि तातैर्वसुधापुरन्दरात् त्रिनेत्रपुत्राम्बक(१२)सम्मितान्यलम् । दिनानि यावत् पटहः प्रघोषितः समग्रजीवाभयदानहेतवे ॥१०३।। ओजस्विमन्यूत्करसामयोनि व्यापाद्यते स्मार्हतपञ्चवक्त्रैः । उक्ता अमारिप्रविधायकास्तथाप्यहो ! यशः पुण्यभरैरवाप्यते ॥१०४||
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अनुसंधान-१६ . 20 श्रंद्धालुभिर्भीमगुणैः स्मयोल्लद्वको(?)निवृत्तो मृदुतासिधारया । उक्ता अमारिप्रविधायकास्तथाप्यहो ! यशः पुण्यभरैरवाप्यते ॥१०५।। माया भुजङ्गी निहता प्रबहश्राद्धैः प्रकामं समदुःखकी । उक्ता अमारिप्रविधायकास्तथाप्यहो ! यशः पुण्यभरैरवाप्यते ॥१०६।। श्रद्धालुनागैः प्रहताश्च लोभप्लवङ्गमाः फालकृतिप्रबुद्धाः । उक्ता अमाप्रिविधायकास्तथाप्यहो ! यशः पुण्यभरैरवाप्यते ॥१०७॥ षड्न्यूनषड्वंर्गतदर्धकोष्र्टीमिताष्टंपञ्चायुपवासवृन्दम् । विधाय भव्यैर्दुरितं निराकृतं स्वदेहतो मन्दिरतो यथा रजः ॥१०८॥ स्नात्राणि चैकाधिकसप्तवर्गमितानि जातानि जिनेन्द्रधाम्नि । विघ्नौघवारांनिधिपानकुम्भोद्भवप्रकाशानि मनोरमाणि ॥१०९|| समारण-स्वान्तगुणैर्मितास्तताजिनार्हणाः श्राद्धवराः प्रचक्रिरे । अभीष्टमुक्त्यब्जमुखीवशक्रिया भवाब्धिमज्जज्जनताबहित्रकम् ।।११०॥ सद्याचकानां गुणवाचकानामर्हद्गुरूणां गुणमन्दिराणाम्। द्युम्नानि भूयांसि मनोमतानि मुदा ददुः श्राद्धावराः प्रकामम् ॥१११॥
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अनुसंधान-१६ .21 साधर्मिकाणामशनानि(दि)वस्तुभिविधाय भक्ति परमार्हता मुदा । द्युम्नं स्वकं जन्म निकेतनं तथा पवित्रयामासुरनेकभङ्गिभिः ।।११२।। समग्रतीर्थेश्वरमन्दिरेषु त्रिकालविद्-बिम्बनमस्क्रियार्थम् । पञ्चारवोद्घोषणपूर्वकं शिशुजंगाम सङ्केन युतः प्रमोदभाक् ॥११३॥ इत्याद्यनेकं शुभपर्वपुण्यकृत्यं हि निर्विघ्नतया बभूव । अकब्बरक्ष्मापतिदत्तमानश्रीतातनामस्मरणप्रसादात् ॥११४||
अथ श्रीगुरुवर्णनम् ॥ विस्फुर्जविजशुक्तिजोऽरुणरदाच्छादोपधिप्रस्फुरद्रक्ताङ्कोऽम्बकमीनभासुरतरः पूर्णोऽशुपाथश्चयैः । लक्ष्मी-श्रीपतिसेवितः प्रतिदिनं सद्भारतीवीचिभिगर्जिध्वानमहो सृजन् विजयतां यद्वक्त्रदुग्धोदधिः ॥११५॥ अत्यन्ताग्ररदावलीभि(नि?)भघटीमालाभिरामः सदा चक्षुषूर्वहयामलः प्रविलसद्माणप्रणालीश्रितः । भालोद्भूतविशालपावनलसल्लेखासुकुल्याधरः सप्तक्षेत्रसुसेचनाय विधिना वक्त्रारघट्टोऽघटि ॥१६॥ नासावंशविराजिनी श्रुतिलतापत्रावलीपूरितां दन्ताच्छादसुपल्लवां द्विजशुमां भ्रूभङ्गिभृङ्गावलीम् । दृग्द्वन्द्वस्तबकां युतां घृणिजलै रन्तुं हि भाग्यप्रियो यस्य स्फारमुखप्रसूनलतिकावार्टी व्यघात् पद्मभुः(भूः) ॥११७|| नासाकूपकभासुरं श्रुतियुगारित्रं सुवक्त्राम्बरव्याजप्रोच्छ्रितशुभ्रचीवरधरं रेखात्रिकाद् रश्मिभृत् ।
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अनुसंधान-१६ . 22 प्रोद्यद्वक्त्रबहित्रकं दृढतरं बाभात्यसाधारणं दष्ट्वैतद्वितरन्ति मानवगणाः संसारवारांनिधिम् ॥११८।। स्वामिंस्त्वद्वदनं विराजतितरां क्ष्मापालचूडामणिस्तन्मूर्ध्यातपवारणं हि भवितुं भालस्थलं त्वीहते । विस्फूर्जद्विजधोरणी सुमतति सासु दण्डायते दृग्वालव्यजनद्वयं च सुभटा: कान्तिव्रजा लक्षशः ॥११९।। वृत्तस्तारतरद्विजोडुसहितो बाभाति वक्त्रोल्लसज्जम्बूद्वीप इहाग्रनक्रदिविषद्भूमीधरानुत्तरः । दृग्द्वन्द्वाऽमलपुष्पदन्तकलितोऽलीकाऽमृतांधस्सरिद्युक्तोऽन्तःस्थरसज्ञकाविषधराधीशेन विभ्राजितः ॥१२०॥ पूज्य ! त्वन्मुखभूधवप्रसृमरप्रोद्यत्तरः प्रग्रहव्याजानेकजिताहवोद्भटभटवातात् प्रणश्य क्षणात् । शङ्केऽहं परिवेषसालमतुलं प्रावीविशच्चन्द्रमाः निर्यात्येष ततः परं नहि कदाप्याश्चर्यकृत् तत् सताम् ॥१२१।। स्पर्धाऽकारि मुधा मया गुरुलसद्वक्त्राम्बुजेन स्वयं तेनाऽयं दुरितेन दुर्गतिगतौ दुःखीभविष्याम्यहम् । निश्चित्येति हृदि स्वके दरभरात पाथोरुहं कम्पते स्पर्धा नो महता समं गुणकरी दोषाय सा केवलम् ॥१२२।। शीतादेः सहनात्ययस्य पिकजं नाप्नोत् त्वदीयाननौपम्यं तज्जनितादसातनिवहान्तित्यक्षु तस्मादसून् । जग्रा[हात्मपलाशकैतवकरे क्ष्वेडं द्विरेफच्छलाज्जानन्तीति कुशाग्रतीक्ष्णमतयो ये सन्त्यनन्तातले ॥१२३॥ त्व[व]क्त्रेण समं तयागणपते ! स्पर्धां व्यधाद् भूयसी पद्यं तद्भवदुःकृतक्षयकृते सत्पात्रपाणौ वरे । सत्पारिप्लवपुष्पभुक्ततिमिषात् क्षाली गृहीत्वाभिधां तच्छंशोजपतीव कोविदवरा इत्येव संविद्रते ॥१२४।। उत्पेदेऽनिमिषापगापयसि किं पाथोरुहं विज्ञ हे ! जानीषे, शृणुताप्लवाय, स पुनः कस्मै वद प्राज्ञराट् ! |
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अनुसंधान - १६ 23
उच्छेदाय मलस्य, कुत्कुत इह, त्वं कौतुकं चेच्छृणु प्रस्फुर्जद्गुरुवक्त्रनेत्रपरमस्पर्द्धा भरात् प्राकृतात् ॥१२५॥ श्वेताम्भोरुहि (ह) संगतानतिशितीन् संवीक्ष्य पुष्पव्रता (जा) न् निश्चिन्वन्ति हि मानसे निजनिजे मेधाविनोऽनारतम् । येन [नाऽकारि? ] समं मुखेन सुगुरो: स्पर्धाभरः प्रोच्चकैस्तस्माल्लेगुरमुष्य दुःकृतचयाः किं मूर्तिमन्तोऽभितः ॥ १२६॥ त्वं जानासि सखे ! कुतः सितरुचिः संक्षीयते ? नो, अहं जाने मित्र !, वद त्वमेव, रुचिशो [ ऽद: ? ] श्रूयतां सोऽवदत् । बाहुल्याद् वृजिनस्य, तच्च भण भोः ! कस्मान्मुधा स्पर्धनात् तत् केनास्ति, मुखेन, स ( क )स्य स पुनः श्रीमत्कमाजन्मनः ॥ १२७।। सद्वृत्तः सकलः सित: स्वजनुषः पद्मासगर्भः स्वयं यद् ग्रस्त विधुंतुदेन हिमरुक् तद्यौक्तिकं मन्महे । संहर्षं चक्रवान् मुखेन सुगुरोः साकं यतोऽयं कुधीस्यात् किं वद् कोविदप्रतिवचस्तज्जन्मनः पापकात् ॥१२८॥
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पात्यन्ते हिमवालुकाकणगणे कृष्णानि यत् पञ्चषट् तद् दृष्ट्वा विमृशन्ति पण्डितजना एवं स्वके मानसे । त्वद्वक्त्रस्य गुरो ! लसत्परिमलस्पर्धोद्भवात् पातकात् लोहोद्भूतघनप्रहारनिचयान् स प्राप्तवान् चा (बा) लिशः ॥ १२९ ॥ मा गर्व कुरु पूर्णताविषयकं राकेयशीतद्युते ! यत् त्वत्तोऽप्यधिकोऽस्ति मद्गुरुमुखस्फाराऽमृतप्रगहः । आधिक्यं कथमित्यवैहि स दिवा रात्रौ च धामाग्रिमः पूर्णोऽक्षीणतनुर्विधुन्तुदमुखी ग्रासः कलङ्कोज्झितः ॥१३०॥ यद्रात्रौ स्वकरप्रसारणघ(घ) र ( ? ) स्तत् किं शशिन् ! याचितुं तत् किं ब्रूहि सखे ! यदस्ति कुतुकं तच्छूयतां कोविदाः । अत्यन्ताधिकरोचिषो गुरुमुखादभ्यर्थये प्रग्रहाऽनङ्कस्याक्रियतां यकैर्बत मया तान् दापयन्तु क्षणात् ॥१३१॥ कार्यं ते कथमस्ति हे हिमरुचि (चे) !, जानीत यूयं न किं ? नो नो, दुःखभरात् स एव भवतः कस्क: ?, शृणुध्वं च तम् ।
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अनुसंधान - १६ • 24
वक्त्रेन्दुजितवांश्च मां भुवि रुचा श्रीमद्गुरोर्व्योम्न्यलं स्वर्भाणोस्तु बिभोमि शम्भुशिरसि प्रोत्सप्पिकण्ठेोरगात् ॥१३२॥
श्रीमदच्चन्द्रगणाधिपाग्रवदनस्फूर्जत्कियज्ज्योतिषां
स्तेयं कर्तुमिव प्रसारयति नक्तं [ भो ! नूनं ?] शशी स्वान् करान् । तद् बुध्वा परिवेषचारसदनेऽक्षैप्सीद्विधिस्तं ततः प्रारभ्येति निरीक्ष्य कोऽपि कुरुतां नो स्तेयभावं कदा ॥१३३॥
घृष्ट ग्रावणि ते तनूर्मलयजार्चिष्मत्प्रवेशोऽजनि
स्पष्टं हे वरकाकतुण्ड ! नितरां यन्मर्दनं ते शशिन् ! | तत् कस्मात् ? शृणु सादरं गुरुमुखश्वासाधिकस्पर्धनात् तच्छ्रुत्वा स्म जहत्यशेषमपि तत् सातार्थिनस्ते पुरः ॥१३४॥ भो मुक्ताफलचक्रवाल ! भवता यन्मग्नमम्भोनिधौ यद्वेधादिमहाव्यथां च सहसे तद्बीजमज्ञासिषम् । तत् किं ? ब्रूहि शृणु त्वया किल पुरा स्पर्धा मुधा निर्ममेऽत्यन्तं शुभ्रतरैर्द्विजैश्च सुगरोर्निर्ग्रन्थचूडामणेः ॥ १३५ ॥
रक्ताङ्क ! चयत्वमे.... ती धन्योऽसि येन त्वया कृत्वा रक्तरदच्छदः शमिविभोर्व्यावर्ण्यते शिक्षितैः । तत्पुण्यादिव लब्धवानसि सखे ! सौभाग्यभङ्गी ता (त) था त्वत्पा[द?][ग्रह]णोद्यताः कजदृशः सन्तीह सर्वा यथा ॥ १३६ ॥
त्वं जानासि हि नैव मन्दिरमणे ! यद्वारुणः पञ्जरे
स्पष्टं कष्टभरे पपान निबिडे कस्मादघा... त् । शुश्रूषा भवतोऽस्ति चेच्छृणु तदा श्रीमद्गुरोर्नासिका
स्पर्धा मुग्धतया व्यधायि भवता तां विद्धि तत्कारणम् ॥१३७॥ आत्मीयकीर्तिपरिपूरितदिग्विभागा
ये सन्ति भूमिवलये भुवनावतंसाः । श्रीमानकब्बरधराधिपतिर्निरीक्ष्य
यान् मोदमाप तरणीनिव चक्रवाकः ॥ १३८ ॥
स्वात्मा तपश्चरणचारुगुणप्रकर्षेयैर्निर्धृतः सरिदधीश इवाग्ररत्नैः ।
THY
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अनुसंधान - १६ • 25
नन्तुं जनाश्च सकलाः स्पृहयन्ति येभ्यो बहिर्मुखा इव मुदा जगदीश्वरेभ्यः ॥१३९॥ दूरे व्रजन्ति जगतां दुरितानि येभ्यः पाथोजिनीपरिवृढेभ्य इवांस्त्रकाराः । येषां निपीय वचनामृतसङ्गभाज: संप्राप्नुवन्ति विबुधत्वमहो ! अनेके || १४०|| येषु ध्रुवं नहि गुणान् प्रतिवक्तुमीशः कोऽपि स्वबुद्धिपरितर्जितफल्गुनीज: । किं वारिधिष्विव मणीन् मरुतां पथेषु ज्योतींषि वा गणयितुं क्षमते हि कश्चित् ? ॥१४९॥ तैस्तातपादैर्गुणवर्धमानैः पयोदनादैर्निहताभिमानैः । नश्यद्विषादैर्नरनम्यमानैः पयोजपादैः सितपत्रियानैः ॥ १४२ ॥ अभीष्टदानर्भु (द्यु)तरूपमानै स्सदा युतैश्चारुगुणैरमानैः । तमस्तमोवासरकृत्समानै र्यशोवितानैर्व्वतवत्प्रधानैः ॥ १४३ ॥ स्वमूर्तिमत्पाटवसत्परिच्छद - प्रबर्हनैरुज्यसमाधिसूचकः । तथाविधोदन्तविशेषगर्भितः प्रसद्य लेखस्त्वरितं प्रसाद्यताम् ॥१४४॥ जगच्चक्षुषं वा रथाङ्गाभिधाना यथा स्तोककाः संमदाद्वारिवाहम् । चकोराः सुधाज्योतिषं संस्मरन्ति तथा संस्मरामो भवद्भव्यलेखम् ॥ १४५ ।। यथाऽहर्मुखे वेदगर्भाः स्ववेदं विनेया यथा स्वं गुरुं भूरिभक्त्या । रस (सा)लक्षमाजं यथा काकपुष्टास्तथा संस्मरामो भवद्भव्यलेखम् ॥१४६॥ यथा लब्धवर्णाः स्वकं शास्त्रवृन्दं यथाऽनेकपाः सल्लकीशाखिखण्डम् । यथा मानसं मानसौकःकलापास्तथा संस्मरामो भवद्भव्यलेखम् ॥ १४७॥ भूमीतलावनतमौलिविराजितस्य श्रीतातपादगुणसंस्मृतितत्परस्य । तातैः सदा निजविनेयकणस्य कामं स्वज्ञानगोचरतया प्रणतिर्विधेया ॥ १४८ ॥ अथाऽत्रत्य श्राद्धनामानि ॥
अत्रत्यानघसंघधूर्वहसमः श्रीआब्दिके पर्वणि प्रत्यब्दं समसंघभक्तिकरणप्रावीण्यलब्धोदयः ।
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अनुसंधान - १६ • 26
वक्षस्कारिकसूरजी: प्रणमति श्रीतातपादाम्बुजं
लत्पुत्रा वर भाणजीर्वृषमतिः सद्भोजजी: कान्हजीः ॥ १४९ ॥ सम्यग् बुद्धिर्दानवान् राउलाह
स्तस्य भ्राता वर्धमानाभिधानः । साहा वासाः सच्चतुर्थाभिधानः श्रीमत्तातान् वन्दते भूरिभक्त्या ||१५०||
लाडकासुजयमल्ल-नानजी
नामकाश्च वृषकृत्यतत्पराः । ब्रह्मपालकसुधर्मदासकस्तत्सहोदरसगालनामवान् ॥१५१॥
सामायिकादिनिपुणो वरुआभिधानो देवाच्च चंद इति गलकनामधेयः । सद्देवचन्द्र-वृषकारि समर्थसंज्ञौ
याभ्यां हि पत्तनपुरे प्रणताश्च ताताः ॥१५२॥ दोसी हीरा भाणिआ भोजिआहा दोसी मूलानामकः पुंजिआह्नः । अत्रागत्यैतेऽधुना धर्मकृत्यं कुर्वन्ति द्राक् सादरं धर्मदक्षाः || १५३ ॥
देवाभिधानस्तनुजस्तदीयः
श्रीपालनामा नमति स्म तातान् । अर्हत्सपर्यानिपुणः सधूआ
श्रीचंदनामा च तदङ्गजन्मा ||१५४||
परीक्षको वासनामधेय
स्तत्सोदरः सद्बधुआभिधानः । लषाभिधानश्च चतुर्थनामा मुमुक्षु-सेवानिपुणः सदैव ॥ १५५ ॥ मानाङ्गजन्मसहितो लषमाभिधानः सद्वानरस्तदनुजन्मसुवीरजीकः ।
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________________ अनुसंधान-१६ . 27 दोसी लषाभिध-जसा-जयमल्लसंज्ञास्तुर्यस्तथा जयतमाल इति प्रसिद्धः // 156 / / गोईनामा संघवी भाउकाह्वस्तेजःपालो भोटुकः श्रीपतिश्च / हांसानामश्राद्धहर्षाभिधानी वीराह्वानो ब्रह्मविद् ब्रह्मचारी // 157 / / सत्संघराज-विमलाभिध-लालजीकाः कीकाभिधश्च पटुको वरमेघनामा / श्राद्धस्तथा च जगमालवरेण्यनामा तत्सोदरो जयतमाल इति प्रसिद्धः // 158 / / दोसी बचाभिध-तनूजमकाभिधानो दोसी छनाभिध बदाभिध सीचकाह्वाः / सोथाभिधान-जयताभिध-वर्धमाना वेला-गलाह्व-जयवंत-सुहीरजीकाः // 159 / / कीकाहानो वच्छराजाभिधानो तेजःपालो वस्तपालाभिधानः / साहा देवा काढुआ काह्निआह्व देवाच्चन्द्रो वीरचन्द्राभिधानः // 160 // विद्यापुरीयः शवजीश्च वाघजीस्तौ तातपादौ नमातः सु] भावतः / श्रीमल्लसंज्ञश्च वरेण्यराउलआसाभिधानो वरवीरदासः // 161 // विमला गरुआ जयचंद धना विमला कमला ... जसाः / धनुआ वनुआभिधभूपतयः सहसात्करणो जयवंत इह // 162|| इति श्राद्धनामानि / / प्रतिरत्र पूर्णा / लेखस्तु अत्रैव स्थगित: स्यादिति कल्प्यते //