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दादा भगवान कथित
आहारदान
दान के प्रवाह
औषधदान
चार प्रकार के दान हैं:- एक आहारदान, दूसरा औषधदान, तीसरा ज्ञानदान और चौथा अभयदान।
भूखे मनुष्य को खिलाया, वह अन्नदान। बीमार मनुष्य को दवाई फ्री ऑफ कॉस्ट लाकर दी, वह औषधदान। लोगों को समझाकर सच्चे रास्ते पर मोड़ें और लोगों का कल्याण हो ऐसी पुस्तकें छपवानी, वह ज्ञानदान। और किसी जीव मात्र को त्रास नहीं हो, ऐसा वर्तन रखना, वह अभयदान।
-दादाश्री
अभयदान
ज्ञानदान
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दादा भगवान कथित
प्रकाशक : अजीत सी. पटेल
महाविदेह फाउन्डेशन 'दादा दर्शन', 5, ममतापार्क सोसाइटी, नवगुजरात कॉलेज के पीछे, उस्मानपुरा, अहमदाबाद - ३८००१४, गुजरात फोन - (०७९) २७५४०४०८, २७५४३९७९
All Rights reserved - Shri Deepakbhai Desai Trimandir, Simandhar City, Ahmedabad-Kalol Highway, Post - Adalaj, Dist.-Gandhinagar-382421, Gujarat, India.
दान
प्रथम संस्करण : प्रतियाँ ३०००,
फरवरी, २०१०
भाव मूल्य : 'परम विनय' और
'मैं कुछ भी जानता नहीं', यह भाव!
द्रव्य मूल्य : ५ रुपये
लेज़र कम्पोज़ : दादा भगवान फाउन्डेशन, अहमदाबाद
मूल गुजराती संकलन : डॉ. नीरूबहन अमीन
मुद्रक
हिन्दी अनुवाद : महात्मागण
: महाविदेह फाउन्डेशन (प्रिन्टिंग डिवीजन), पार्श्वनाथ चैम्बर्स, नयी रिज़र्व बैंक के पास, उस्मानपुरा, अहमदाबाद-३८००१४. फोन : (०७९) २७५४२९६४, ३०००४८२३
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दादा भगवान फाउन्डेशन के द्वारा प्रकाशित हिन्दी पुस्तकें
१. ज्ञानी पुरूष की पहचान १४. दादा भगवान कौन ? २. सर्व दुःखों से मुक्ति १५. पैसों का व्यवहार ३. कर्म का विज्ञान
१६. अंत:करण का स्वरूप ४. आत्मबोध
१७. जगत कर्ता कौन? ५. मैं कौन हूँ?
१८. त्रिमंत्र ६. वर्तमान तीर्थकर श्री सीमंधर स्वामी १९. भावना से सुधरे जन्मोजन्म ७. भूगते उसी की भूल २०. पति-पत्नी का दीव्य व्यवहार ८. एडजस्ट एवरीव्हेयर २१. माता-पिता और बच्चों का व्यवहार ९. टकराव टालिए
२२. समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य १०. हुआ सो न्याय
२३. आप्तवाणी-१ ११. चिंता
२४. मानव धर्म १२. क्रोध
२५. सेवा-परोपकार १३. प्रतिक्रमण
२६. दान
त्रिमंत्र
दादा भगवान फाउन्डेशन के द्वारा गुजराती और अंग्रेजी भाषा में भी पुस्तकें प्रकाशित हुई है। वेबसाइट www.dadabhagwan.org पर से भी आप ये सभी पुस्तकें प्राप्त कर सकते हैं। दादा भगवान फाउन्डेशन के द्वारा हर महीने हिन्दी, गुजराती तथा अंग्रेजी भाषा में "दादावाणी" मैगेज़ीन प्रकाशित होता है।
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आत्मज्ञान प्राप्ति की प्रत्यक्ष लिंक
दादा भगवान कौन ? जून १९५८ की एक संध्या का करीब छः बजे का समय, भीड़ से भरा सूरत शहर का रेल्वे स्टेशन, प्लेटफार्म नं. 3 की बेंच पर बैठे श्री अंबालाल मूलजीभाई पटेल रूपी देहमंदिर में कुदरती रूप से, अक्रम रूप में, कई जन्मों से व्यक्त होने के लिए आतुर 'दादा भगवान' पूर्ण रूप से प्रकट हुए। और कुदरत ने सर्जित किया अध्यात्म का अद्भुत आश्चर्य। एक घंटे में उनको विश्वदर्शन हुआ। 'मैं कौन? भगवान कौन? जगत् कौन चलाता है? कर्म क्या? मुक्ति क्या?' इत्यादि जगत् के सारे आध्यात्मिक प्रश्नों के संपूर्ण रहस्य प्रकट हुए। इस तरह कुदरत ने विश्व के सम्मुख एक अद्वितीय पूर्ण दर्शन प्रस्तुत किया और उसके माध्यम बने श्री अंबालाल मूलजीभाई पटेल, गुजरात के चरोतर क्षेत्र के भादरण गाँव के पाटीदार, कान्ट्रेक्ट का व्यवसाय करनेवाले, फिर भी पूर्णतया वीतराग पुरुष!
उन्हें प्राप्ति हुई, उसी प्रकार केवल दो ही घंटों में अन्य मुमुक्षु जनों को भी वे आत्मज्ञान की प्राप्ति करवाते थे, उनके अद्भुत सिद्ध हुए ज्ञानप्रयोग से। उसे अक्रम मार्ग कहा। अक्रम, अर्थात् बिना क्रम के,
और क्रम अर्थात् सीढ़ी दर सीढ़ी, क्रमानुसार ऊपर चढ़ना। अक्रम अर्थात् लिफ्ट मार्ग, शॉर्ट कट!
वे स्वयं प्रत्येक को 'दादा भगवान कौन?' का रहस्य बताते हुए कहते थे कि "यह जो आपको दिखाई देते है वे दादा भगवान नहीं है, वे तो 'ए.एम.पटेल' है। हम ज्ञानी पुरुष हैं और भीतर प्रकट हुए हैं, वे 'दादा भगवान' हैं। दादा भगवान तो चौदह लोक के नाथ हैं। वे आप में भी हैं, सभी में हैं। आपमें अव्यक्त रूप में रहे हए हैं और 'यहाँ' हमारे भीतर संपूर्ण रूप से व्यक्त हुए हैं। दादा भगवान को मैं भी नमस्कार करता हूँ।"
'व्यापार में धर्म होना चाहिए, धर्म में व्यापार नहीं', इस सिद्धांत से उन्होंने पूरा जीवन बिताया। जीवन में कभी भी उन्होंने किसी के पास से पैसा नहीं लिया बल्कि अपनी कमाई से भक्तों को यात्रा करवाते थे।
'मैं तो कुछ लोगों को अपने हाथों सिद्धि प्रदान करनेवाला हूँ। पीछे अनुगामी चाहिए कि नहीं चाहिए? पीछे लोगों को मार्ग तो चाहिए न?'
- दादाश्री परम पूज्य दादाश्री गाँव-गाँव, देश-विदेश परिभ्रमण करके मुमुक्षु जनों को सत्संग और आत्मज्ञान की प्राप्ति करवाते थे। आपश्री ने अपने जीवनकाल में ही पूज्य डॉ. नीरूबहन अमीन (नीरूमाँ) को आत्मज्ञान प्राप्त करवाने की ज्ञानसिद्धि प्रदान की थीं। दादाश्री के देहविलय पश्चात् नीरूमाँ वैसे ही ममक्षजनों को सत्संग और आत्मज्ञान की प्राप्ति, निमित्त भाव से करवा रही थी। पूज्य दीपकभाई देसाई को दादाश्री ने सत्संग करने की सिद्धि प्रदान की थी। नीरूमाँ की उपस्थिति में ही उनके आशीर्वाद से पूज्य दीपकभाई देश-विदेशों में कई जगहों पर जाकर मुमुक्षुओं को आत्मज्ञान करवा रहे थे, जो नीरूमाँ के देहविलय पश्चात् आज भी जारी है। इस आत्मज्ञानप्राप्ति के बाद हजारों मुमुक्षु संसार में रहते हुए, जिम्मेदारियाँ निभाते हुए भी मुक्त रहकर आत्मरमणता का अनुभव करते हैं।
ग्रंथ में मुद्रित वाणी मोक्षार्थी को मार्गदर्शन में अत्यंत उपयोगी सिद्ध होगी, लेकिन मोक्षप्राप्ति हेतु आत्मज्ञान प्राप्त करना ज़रूरी है। अक्रम मार्ग के द्वारा आत्मज्ञान की प्राप्ति का मार्ग आज भी खुला है। जैसे प्रज्वलित दीपक ही दूसरा दीपक प्रज्वलित कर सकता है, उसी प्रकार प्रत्यक्ष आत्मज्ञानी से आत्मज्ञान प्राप्त कर के ही स्वयं का आत्मा जागृत हो सकता है।
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संपादकीय
निवेदन आत्मविज्ञानी श्री अंबालाल मूलजीभाई पटेल, जिन्हें लोग 'दादा भगवान' के नाम से भी जानते हैं, उनके श्रीमुख से अध्यात्म तथा व्यवहार ज्ञान संबंधी जो वाणी निकली, उसको रिकॉर्ड किया गया था। उसी वाणी का संकलन तथा संपादन होकर, वह पुस्तकों के रूप में प्रकाशित हुई। प्रस्तुत पुस्तक मूल गुजराती पुस्तक का अनुवाद है।
ज्ञानी पुरुष संपूज्य दादा भगवान के श्रीमुख से अध्यात्म तथा व्यवहारज्ञान संबंधी विभिन्न विषयों पर निकली सरस्वती का अद्भुत संकलन इस पुस्तक में हुआ है, जो पाठकों के लिए वरदानरूप साबित होगा।
प्रस्तुत अनुवाद में यह विशेष ध्यान रखा गया है कि वाचक को दादाजी की ही वाणी सुनी जा रही है, ऐसा अनुभव हो। उनकी हिन्दी के बारे में उनके ही शब्द में कहें तो 'हमारी हिन्दी याने गुजराती, हिन्दी और अंग्रेजी का मिक्सचर है, लेकिन जब 'टी' (चाय) बनेगी, तब अच्छी बनेगी।'
ज्ञानी की वाणी को हिन्दी भाषा में यथार्थ रूप से अनुवादित करने का प्रयत्न किया गया है किन्तु दादाश्री के आत्मज्ञान का सही आशय, ज्यों का त्यों तो, आपको गुजराती भाषा में ही अवगत होगा। मूल गुजराती शब्द जिनका हिन्दी अनुवाद उपलब्ध नहीं है, वे इटालिक्स में लिखे गए हैं। ज्ञान की गहराई में जाना हो, ज्ञान का मर्म समझना हो, तो वह गुजराती भाषा सीखकर, मूल गुजराती ग्रंथ पढ़कर ही संभव है। फिर भी इस विषय संबंधी आपका कोई भी प्रश्न हो तो आप प्रत्यक्ष सत्संग में आकर समाधान प्राप्त कर सकते हैं।
प्रस्तुत पुस्तक में कई जगहों पर कोष्ठक में दर्शाए गए शब्द या वाक्य परम पूज्य दादाश्री द्वारा बोले गए वाक्यों को अधिक स्पष्टतापूर्वक समझाने के लिए लिखे गए हैं। दादाश्री के श्रीमुख से निकले कुछ गुजराती और अंग्रेजी शब्द ज्यों के त्यों रखे गए हैं।
अनुवाद संबंधी कमियों के लिए आपसे क्षमाप्रार्थी हैं।
पुण्य करने के अनेक रास्तों का शास्त्रों ने और धर्मगुरुओं ने वर्णन किया है। उनमें से एक है, दान। दान यानी दूसरे को अपना कुछ देकर उसे सुख देना वह। दान देने की प्रथा तो मनुष्य के जीवन में बचपन से अपनाने में आई है। और छोटा बच्चा हो. उसे भी मंदिर में ले जाते हैं, तो बाहर गरीब लोगों को पैसे दिलवाते हैं, खाने का दिलवाते हैं, मंदिर में दान की पेटी में पैसे डलवाते हैं। इस प्रकार बचपन से दान के संस्कार मिलते ही हैं। दान देते हुए अंदर की अजागृति हो तो देकर भी खोट खाते हैं, उसका सूक्ष्म निरूपण परम पूज्य दादाश्री ने किया है। दान देते हुए कौन-सी जागृति रखनी चाहिए? सबसे ऊँचा दान कौन-सा? दान किस-किस तरह से हो सकता है? उसके पीछे भावनाएँ कैसी होनी चाहिए? दान किसे देना चाहिए? वगैरह वगैरह। अनेक दान संबंधी बातें जो दादाश्री की ज्ञानवाणी द्वारा बही है वह प्रस्तुत पुस्तक में संकलित करके प्रकाशित की गई हैं। जो सुज्ञ पाठक को दान देने में उत्तम मार्गदर्शिका बनेगी।
- डॉ. नीरुबहन अमीन के जय सच्चिदानंद
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दान
दान
दान किस लिए? प्रश्नकर्ता : यह दान किस लिए किया जाता है?
दादाश्री : ऐसा है, वह खुद दान देकर कुछ लेना चाहता है। सुख देकर सुख पाना चाहता है। मोक्ष के लिए दान नहीं देता। सुख लोगों को दो तो आपको सुख मिलेगा। जो आप देते हो, वह पाओगे। इसलिए, यह तो नियम है, वह तो देने से हमें मिलता है, प्राप्ति होती है। ले लेने से फिर चला जाता है।
प्रश्नकर्ता : उपवास करना अच्छा है या कुछ दान करना अच्छा है?
रुपये देते हो, फिर भी सुख होता है, क्योंकि अच्छा काम किया। अच्छा काम करें तो सुख होता है और खराब काम करें, उस घडी द:ख होता है। उस पर से हमें पता चलता है कि कौन-सा, अच्छा और कौन-सा बुरा?
आनंद प्राप्ति के उपाय प्रश्नकर्ता : मानसिक शांति प्राप्त करने के लिए मनुष्य किसी गरीब, किसी अशक्त की सेवा करे या भगवान की भजना करे या फिर किसी को दान दे? क्या करना चाहिए?
दादाश्री : मानसिक शांति चाहिए तो अपनी चीज़ दूसरे को खिला देनी। कल आइसक्रीम का पीपा भरकर लाना और इन सबको खिलाना। उस घड़ी आनंद तुझे कितना सारा होता है, वह त मुझे कहना। उन लोगों को आइस्क्रीम खानी नहीं है। तू तेरे शांति का प्रयोग करके देख। ये कोई सर्दी में फालतू नहीं है, आइस्क्रीम खाने को। इस प्रकार त जहाँ हो वहाँ कोई जानवर हो, ये बंदर होते हैं, उन्हें चने डालें तो वे उछलकूद करते हैं। वहाँ तेरे आनंद की सीमा नहीं रहेगी। वे खाते जाएँगे और तेरे आनंद की सीमा नहीं रहेगी। इन कबूतरों को तू दाना डाले उससे पहले कबूतर ऐसे उछलकूद करने लगते हैं। और तूने डाला, तेरी खुद की वस्तु दूसरों को दी कि भीतर आनंद शुरू हो जाएगा। अभी कोई मनुष्य रास्ते में गिर गया और उसका पैर टूट गया और खून निकलता हो, वहाँ तू अपनी धोती फाड़कर ऐसे बाँधे, उस समय तुझे आनंद होगा। भले ही सौ रुपये की धोती हो, उसे फाड़कर तू बांधे, पर उस घड़ी तुझे आनंद खूब होगा।
दान, कहाँ दिया जाए? प्रश्नकर्ता : कुछ धर्मों में ऐसा कहा है कि जो कुछ कमाया हो, उसमें से कुछ प्रतिशत दान करो, पाँच-दस प्रतिशत दान करो, तो वह कैसा है?
दादाश्री : दान करना यानी, खेत में बोना। खेत में बोकर आना, फिर उसका फल मिलेगा। और उपवास करने से भीतर जागृति बढ़ेगी। लेकिन शक्ति अनुसार उपवास करने को भगवान ने कहा है।
दान का मतलब ही सुख देना दान यानी दूसरे किसी भी जीव को, मनुष्य हो या दूसरे प्राणी हों, उन्हें सुख देना, उसका नाम दान। और सबको सुख दिया इसलिए उसका 'रीएक्शन' हमें सुख ही मिलता है। सुख दो तो तुरंत ही सुख आपको घर बैठे आएगा!
आप दान देते हो, तब आपको अंदर सुख होता है। खुद के घर के
दादाश्री : धर्म में दान करने में हर्ज नहीं है, परन्तु जहाँ पर धर्म की
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दान
संस्था हो और लक्ष्मी का धर्म में सदुपयोग होता हो तो वहाँ दो। दुरुपयोग होता हो वहाँ मत दो, दूसरी जगह पर देना।
पैसा सदुपयोग में जाए, ऐसा खास ध्यान रखो। नहीं तो आपके पास पैसे अधिक होंगे, तो वे आपको अधोगति में ले जाएँगे, इसलिए उन पैसों का कहीं भी सदुपयोग कर डालो। लेकिन धर्माचार्यों को पैसे लेने नहीं
दादाश्री : लक्ष्मी तो टिके ऐसी है ही नहीं, पर उसका रास्ता बदल देना चाहिए। वो जिस रास्ते जाती है, उसका प्रवाह बदल डालना और धर्म के रास्ते पर मोड़ देना। वह जितनी सुमार्ग पर गई, उतनी खरी। भगवान आएँ, फिर लक्ष्मी टिकती है, उसके बिना लक्ष्मी टिके कैसे? भगवान हों. वहाँ क्लेश नहीं होता और अकेली लक्ष्मीजी हों तो क्लेश और झगड़े होते हैं। लोग लक्ष्मी ढेर सारी कमाते हैं, पर वह बरबाद होती है। किसी पुण्यशाली के हाथों लक्ष्मी अच्छे रास्ते खर्च होती है। लक्ष्मी अच्छे रास्ते खर्च हो, वह बहुत भारी पुण्य कहलाता है।
चाहिए।
सन् १९४२ के बाद की लक्ष्मी में कोई सार ही नहीं है। अभी लक्ष्मी यथार्थ जगह खर्च नहीं होती है। यथार्थ जगह खर्च हो, तो बहुत अच्छा कहलाए।
मोड़ो लक्ष्मी, धर्म की ओर पैसे संभालना, वह तो बहुत मुश्किल है! इससे तो कम कमाएँ वह अच्छा। यहाँ बारह महीने में दस हजार कमाए और एक हजार भगवान के यहाँ रख दें, तो उसे कोई उपाधी नहीं है। कोई लाखों दे, और यह हज़ार दे, दोनों एक जैसे, पर हज़ार भी, कुछ देने चाहिए। मेरा क्या कहना है कि कुछ न दो, ऐसा मत रखना, कम में से भी कुछ देना और अधिक हो और वह धर्म की ओर मुड़ गया, फिर अपनी जिम्मेदारी नहीं, नहीं तो जोखिम है। बहुत पीड़ा वह तो। पैसे संभालने, यानी बहुत मुश्किल। गायें, भैंसे संभालना अच्छा, खुंटे पर बाँध दी तो सुबह तक चली तो नहीं जातीं। पर पैसें सँभालना बहुत मुश्किल है। मुश्किल, उपाधी सारी...
क्यों नहीं टिकती, लक्ष्मी? प्रश्नकर्ता : मैं दस हजार रुपये महीना कमाता हूँ, पर मेरे पास लक्ष्मीजी टिकती क्यों नहीं?
दादाश्री : सन् १९४२ के बाद की लक्ष्मी टिकती नहीं है। यह लक्ष्मी है, वह पाप की लक्ष्मी है, इसलिए टिकती नहीं है। अब से दो-पाँच साल के बाद की लक्ष्मी टिकेगी। हम ज्ञानी हैं, फिर भी लक्ष्मी आती है, पर टिकती नहीं है। यह तो इन्कमटैक्स भर सकें, उतनी लक्ष्मी आए तो हो गया।
प्रश्नकर्ता : लक्ष्मी टिकती नहीं है, तो क्या करें?
सात पुश्तों तक टिके लक्ष्मी.... प्रश्नकर्ता : जैसे इन्डिया में कस्तूरभाई लालभाई की पीढ़ी है, तो वह दो, तीन, चार पीढ़ी तक पैसे चलते रहते हैं, उनके बच्चों के बच्चों तक। जब कि यहाँ अमरीका में कैसा है कि पीढ़ी होती है, पर बहुत हुआ तो छहआठ वर्ष में सब खतम हो जाता है। या तो पैसे हों तो चले जाते हैं और नहीं हों तो पैसे आ भी जाते हैं। तो उसका कारण क्या होगा?
दादाश्री : ऐसा है न, वहाँ का जो पुण्य है न, इन्डिया का पुण्य, वह पुण्य इतना चिकना होता है कि धोते रहें, फिर भी जाता नहीं और पाप भी ऐसे चिकने होते हैं कि धोते रहें, फिर भी जाते नहीं। इसलिए. वैष्णव हो या जैन हो, पर उसने पुण्य इतना मज़बूत बाँधा हुआ होता है कि धोते रहें फिर भी जाता नहीं। जैसे की पेटलाद के दातार सेठ, रमणलाल सेठ की सातसात पीढ़ियों तक सम्पन्नता रही। फावड़ों से खोद-खोदकर धन दिया करते थे लोगों को, फिर भी कभी कमी नहीं आई। उन्होंने पुण्य जबरदस्त बाँधा था, सचोट। और पाप भी ऐसे सचोटबाँधते थे, सात-सात पीढ़ी तक गरीबी
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नहीं जाती थी । अत्यंत दु:ख भुगतते हैं, अर्थात् एक्सेस भी होता है और मीडियम भी रहता है।
यहाँ अमरीका में तो उफनता भी है और फिर बैठ भी जाता है और फिर उफनता भी है। बैठ जाने के बाद, फिर से वापिस उफनता है। यहाँ देर नहीं लगती और वहाँ इन्डिया में तो बैठ जाने के बाद उफान आने में बहुत टाइम लगता है। इसलिए वहाँ तो सात-सात पीढ़ी तक चलता था। अब सब पुण्य घट गया है। क्योंकि क्या होता है? कस्तूरभाई के यहाँ जन्म कौन लेगा? तब कहें, ऐसे पुण्यवान जो उनके जैसे ही हों, वे ही वहाँ जन्म लेंगे । फिर उसके यहाँ कौन जन्मे ? वैसा ही पुण्यशाली फिर वहाँ जन्मता है। वह कस्तूरभाई का पुण्य काम नहीं करता। वह फिर दूसरा वैसा आया हो तो फिर उसका पुण्य । इसलिए कहलाती है कस्तूरभाई की पीढ़ी और आज तो ऐसे पुण्यशाली हैं ही कहाँ? अब अभी इन पिछले पच्चीस वर्षों में तो कोई खास ऐसा नहीं है।
नहीं तो गटर में बह जाएगा....
पहले तो लक्ष्मी पाँच पीढ़ी तो टिकती, तीन पीढ़ी तो टिकती थी । यह तो लक्ष्मी एक पीढ़ी भी टिकती नहीं। इस काल की लक्ष्मी कैसी है? एक पीढ़ी भी टिकती नहीं। उसकी उपस्थिति में ही आए और उसीकी उपस्थिति में चली जाए, ऐसी यह लक्ष्मी है। यह तो पापानुबंधी पुण्य की लक्ष्मी है। थोड़ी-बहुत उसमें पुण्यानुबंधी पुण्य की लक्ष्मी हो, तो आपको यहाँ आने की प्रेरणा देती है। यहाँ मिलवा देती है और आपसे यहाँ खर्च करवाती है। अच्छे मार्ग से लक्ष्मी जाए, नहीं तो सब धूल में मिल जानेवाला है। सब गटर में चला जाएगा... ये बच्चे हमारी ही लक्ष्मी भोगते हैं न और हम बच्चों से कहें कि तुमने हमारी लक्ष्मी भोगी, तब वे कहेंगे, 'आपकी कैसे? हम हमारी ही भोग रहे हैं', ऐसा कहेंगे। इसलिए, गटर में ही गया न सब !
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अतिरिक्त बहाओ धर्म के लिए...
ये तो लोकसंज्ञा से दूसरों का देखकर सीखते हैं। पर यदि ज्ञानी से पूछें न, तो वे कहें कि 'ना, यह क्यूँ ऐसे इस गड्ढे में गिरते हैं?'... इस दुःख के गड्ढे में से निकला, तब इस पैसों के गड्ढे में गिरा वापिस ?... ज्यादा हों तो डाल दे धर्म में, यहाँ से वही तेरे हिसाब में जमा होता है। और यह बैन्क का जमा नहीं होता। और अड़चन नहीं आएगी तुझे । जो धर्म के लिए देता हो, उसे अड़चन नहीं आती।
उसका प्रवाह बदलो
खरे समय पर तो एक धर्म ही आपको मदद करके खड़ा रहता है, इसलिए धर्म के प्रवाह में लक्ष्मीजी को जाने देना। केवल एक सुषमकाल में (जब तीर्थंकर भगवान हाज़िर हों) लक्ष्मी मोह करने योग्य थी। वे लक्ष्मीजी तो आई नहीं ! अभी इन सेठों को हार्ट फेल और ब्लड प्रेशर कौन करवाता है ? इस काल की लक्ष्मी ही करवाती है।
पैसों का स्वभाव कैसा है? चंचल है। इसलिए आते हैं और एक दिन वापस चले जाते हैं। इसलिए पैसे लोगों के हित के लिए खर्च करने चाहिए। जब आपका खराब उदय आया हो, तब लोगों को दिया हुआ होगा, वही आपको हैल्प करेगा। इसलिए पहले से ही समझना चाहिए। पैसों का सद्व्यय तो करना ही चाहिए न?
चारित्र्य से समझदार हुआ कि सारा संसार जीत गया। फिर भले ही सब, जो खाना हो, वह खाए-पीए और अधिक हो, तो खिला दे। दूसरा करने का है क्या?... क्या साथ ले जा पाते हैं ?... जो धन औरों के लिए खर्च किया, उतना ही धन अपना उतनी आनेवाले भव की जमा राशि | इसलिए किसी को आनेवाले जन्म की जमा पूँजी यदि इकट्ठी करनी हो तो धन औरों के लिए खर्च करना। फिर पराया जीव, उसमें कोई भी जीव, फिर वह कौआ हो और वह इतना चख भी गया होगा, तब भी आपकी जमा
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पूँजी। पर आप और आपके बच्चों ने खाया, वह सब आपकी जमा पूँजी नहीं है। वह सब गटर में गया। फिर भी गटर में जाता बंद कर नहीं सकते, क्योंकि वह तो अनिवार्य है। इसलिए कोई छुटकारा है? पर साथ-साथ समझना चाहिए कि औरों के लिए नहीं खर्च हुआ, वह सब गटर में ही जाता
मनुष्यों को न खिलाओ और आख़िर कौए को खिलाओ, चिड़ियों को खिलाओ, सबको खिलाओ तो वह परायों के लिए खर्च किया हुआ माना जाएगा। मनुष्यों की थाली की क़ीमत तो बहत बढ़ गई है न? चिडियों की थाली की क़ीमत खास नहीं है न? तब जमा भी उतना कम ही होगा न?
तो इस बवंडर का ऐसा है। लक्ष्मी को यदि रोकोगे तो नहीं आएगी। होगी उतनी भरी की भरी रहेगी। और इस ओर से जाने दोगे तो दूसरी ओर से आया करेगी। यदि रोककर रखोगे तो उतनी की उतनी रहेगी। लक्ष्मी का भी काम ऐसा ही है। अब किस रस्ते जाने देना. वह आपकी मरजी पर आधारित है कि बीवी-बच्चों के मौज-मज़े के लिए जाने देना या कीर्ति के लिए जाने देना या ज्ञानदान के लिए जाने देना या अन्नदान के लिए जाने देना? किस के लिए जाने देना वह आप पर है, पर जाने दोगे तो दूसरा आएगा। जाने नहीं दे, उसका क्या हो? जाने दें तो दूसरा नहीं आता? हाँ, आता है।
बदले हुए प्रवाह की दिशाएँ कितने प्रकार के दान हैं, यह जानते हो आप? चार प्रकार दान के हैं। देखो! एक आहारदान, दूसरा औषधदान, तीसरा ज्ञानदान और चौथा अभयदान।
मन बिगड़े हैं, इसलिए... प्रश्नकर्ता : मैं कुछ समय तक अपनी कमाई में से तीस प्रतिशत धार्मिक काम में देता था, पर वह सब रुक गया है। जो-जो देता था, वह अब दे नहीं सकता।
दादाश्री : वह तो आपको करना है, तो दो वर्ष बाद भी आएगा ही। वहाँ कोई कमी नहीं है. वहाँ तो ढेर सारा है। आपके मन बिगड़े हुए हों, तो क्या हो?
आए तो दें या दें तो आए? एक आदमी के यहाँ बंगले में बैठे थे और बवंडर आया। इसलिए दरवाजे खड़खड़-खड़खड़ होने लगे। उसने मुझसे कहा, 'यह बवंडर आया है। दरवाजे सब बंद कर दूं?' मैंने कहा, 'सब दरवाजे बंद मत करना, अंदर प्रवेश करने का एक दरवाजा खुला रख और बाहर निकलने के दरवाजे बंद कर दे, फिर अंदर हवा आए कितनी? भरी हुई खाली हो, तब हवा अंदर आए न? नहीं तो बवंडर चाहे जैसा हो अंदर आएगा नहीं।' फिर उसे अनुभव करवाया। तब मुझे कहता है, 'अब, अंदर नहीं आता।'
पहला आहारदान पहले प्रकार का जो दान है वह अन्नदान । इस दान के लिए तो ऐसा कहा है कि भाई यहाँ कोई मनुष्य हमारे घर आया हो और कहे, 'मुझे कुछ दो, मैं भूखा हूँ।' तब कहें, 'बैठ जा, यहाँ खाने। मैं तुझे परोसता हूँ', वह आहारदान । तब अक्कलवाले क्या कहते हैं? इस तगड़े को अभी खिलाओगे, फिर शाम को किस तरह खिलाओगे? तब भगवान कहते हैं, 'तू ऐसी अक्कल मत लगाना। इस व्यक्ति ने खिलाया तो वह आज का दिन तो जीएगा। कल फिर उसे जीने के लिए कोई आ मिलेगा। फिर कल का विचार हमें नहीं करना है। आपको दूसरा झैंझट नहीं करना कि कल वह क्या करेगा? वह तो कल उसे मिल जाएगा वापस। आपको इसमें चिंता नहीं करनी कि हमेशा दे पाएँगे या नहीं। आपके यहाँ आया इसलिए आप उसे दो, जो कुछ दे सको वह । आज तो जीवित रहा, बस! फिर कल उसका
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दान
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समझ में आया आपको? किस में फायदा अधिक? अन्नदान अच्छा या औषधदान?
प्रश्नकर्ता : औषधदान।
दूसरा कुछ उदय होगा, आपको फिकर करने की ज़रूरत नहीं।
प्रश्नकर्ता : अन्नदान श्रेष्ठ माना जाता है?
दादाश्री : अन्नदान अच्छा माना जाता है, पर अन्नदान कितना दे सकते हैं? कुछ सदा के लिए देते नहीं हैं न लोग। एक पहर खिला सके तो बहुत हो गया। दूसरा पहर फिर मिल आएगा। पर आज का दिन, एक पहर भी तू जीवित रहा न! अब इसमें भी लोग बचा-खचा ही देते हैं या नया बनाकर देते हैं?
प्रश्नकर्ता : बचा हुआ हो, वही देते हैं, अपनी जान छुड़ाते हैं। बच गया तो अब क्या करे?
दादाश्री: फिर भी उसका सदपयोग करते हैं, मेरे भाई। पर नया बनाकर दें, तब मैं कहूँ कि करेक्ट है। वीतरागों के यहाँ कोई कानून होगा या गप्प चलेगी?
प्रश्नकर्ता : नहीं, नहीं, गप्प होती होगी? दादाश्री : वीतरागों के यहाँ नहीं चलता, दूसरी सब जगह चलता है।
औषधदान
दादाश्री : औषधदान को आहारदान से अधिक क़ीमती माना है। क्योंकि वह दो महीने भी जीवित रखता है। मनुष्य को अधिक समय जीवित रखता है। वेदना में से थोड़ी-बहुत मुक्ति दिलवाता है।
बाकी अन्नदान और औषधदान तो हमारे यहाँ सहज ही औरतें और बच्चे सभी करते रहते हैं। वह कोई बहुत क़ीमती दान नहीं है, पर करना चाहिए। ऐसा कोई हमें मिल जाए, तब हमारे यहाँ कोई दुःखी मनुष्य आया, तो उसे जो तैयार हो वह तुरन्त दे देना।
ऊँचा ज्ञानदान फिर उससे आगे ज्ञानदान कहा है। ज्ञानदान में पुस्तकें छपवानी, लोगों को समझाकर सच्चे रास्ते पर ले जाएँ और लोगों का कल्याण हो, ऐसी पुस्तकें छपवानी आदि वह, ज्ञानदान । ज्ञानदान दें, तो अच्छी गतियों में, ऊँची गतियों में जाता है या फिर मोक्ष में भी जाता है।
इसलिए मुख्य वस्तु ज्ञानदान भगवान ने कहा है और जहाँ पैसों की जरूरत नहीं है, वहाँ अभयदान की बात कही है। जहाँ पैसों का लेन-देन है, वहाँ पर ये ज्ञानदान का कहा है और साधारण स्थिति, नरम स्थिति के लोगों को औषधदान और आहारदान, दो का कहा है।
प्रश्नकर्ता : पर पैसे बचे हों, वह उसका दान तो करे न?
दादाश्री : दान तो उत्तम है। जहाँ दुःख हो वहाँ दु:खों को कम करो और दूसरा सन्मार्ग पर खर्च करना। लोग सन्मार्ग पर जाएँ ऐसा ज्ञानदान करो। इस दुनिया में ऊँचा ज्ञानदान है। आप एक वाक्य जानो तो आपको
और दूसरा औषधदान, वह आहारदान से उत्तम माना जाता है। औषधदान से क्या होता है? साधारण स्थिति का मनुष्य हो, वह बीमार पड़ा हो और अस्पताल में जाता है। और वहाँ कोई कहे कि अरे डॉक्टर ने कहा है, पर दवाई लाने को पचास रुपये मेरे पास नहीं हैं, इसलिए दवाई किस तरह लाऊँ? तब हम कहें कि ये पचास रुपये दवाई के और दस रुपये दूसरे। या तो औषध उसे हम मुफ्त दें कहीं से लाकर । हमें पैसा खर्च करके औषध लाकर फ्री ऑफ कॉस्ट (मुफ्त) देनी। तो वह औषध ले तो बेचारा चार-छह साल जीएगा। अन्नदान की तुलना में औषधदान से अधिक फायदा है।
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प्रश्नकर्ता : हाँ, उसकी नींद में भी विक्षेप पड़ा न?
दादाश्री : हाँ, फिर वह चौंका न, तो अपना स्वभाव नहीं छोड़ेगा। फिर कभी भौंके भी सही, स्वभाव जो ठहरा। इसलिए उससे तो सोने दें, तो क्या बुरा? इससे मुहल्लेवालों को तो न भौंके।
इसलिए अभयदान, किसी जीव को किंचित् मात्र दुःख नहीं हो, ऐसे भाव पहले रखने और फिर वे प्रयोग में आते हैं। भाव किए हों तो प्रयोग में आते हैं। पर भाव ही नहीं किए हों तो? इसलिए इसे बड़ा दान कहा भगवान ने। उसमें पैसों की कोई जरूरत नहीं । ऊँचे से ऊँचा दान ही यह है, पर यह मनुष्य के बस में नहीं। लक्ष्मीवाले हों, फिर भी ऐसा कर नहीं सकते। इसलिए लक्ष्मीवालों को लक्ष्मी से (दान) पूरा कर देना चाहिए।
कितना अधिक लाभ होता है। अब वह पुस्तक लोगों के हाथ में जाए तो कितना अधिक लाभ हो!
प्रश्नकर्ता : अब ठीक से समझ में आया....
दादाश्री : हाँ, इसलिए जिसके पास पैसे अधिक हों, उसे ज्ञानदान मुख्यत: करना चाहिए।
अब वह ज्ञानदान कैसा होना चाहिए? लोगों को हितकारी हो ऐसा ज्ञान होना चाहिए। हाँ, डकैतों की बातें सुनने के लिए नहीं। वह तो गिराता है। वह पढ़ें तो आनंद तो होता है उसमें, पर नीचे अधोगति में जाता रहता है।
ऊँचे से ऊँचा अभयदान और चौथा अभयदान । अभयदान तो, किसी भी जीव मात्र को त्रास न हो ऐसा वर्तन रखना, वह अभयदान।
प्रश्नकर्ता : अभयदान जरा अधिक समझाइए।
दादाश्री : अभयदान यानी हमसे किसी जीव को किंचित् मात्र दुःख न हो। उसका उदाहरण देता हूँ। मैं सिनेमा देखने जाता था, छोटी उम्र में, बाईस-पच्चीस वर्ष की उम्र में। तो वापिस आऊँ तो रात के बारह-साढ़े बारह बजे होते थे। पैदल चलते हुए आता था तो जूते खड़कते थे। हम वो लोहे की नाल लगवाते थे, इसलिए खटखट होती और रात में आवाज बहुत अच्छी आती। रात को कुत्ते बेचारे सो रहे होते, वे आराम से सो रहे होते, वे ऐसे करके कान ऊँचे करते। तब हम समझ जाते कि चौंका बेचारा हमारे कारण। हम ऐसे कैसे जन्मे इस मुहल्ले में कि हमसे कुत्ते भी डर जाते हैं। इसलिए पहले से, दूर से ही जूते निकालकर हाथ में लेकर आता और चुपके से आ जाता, पर उसे चौंकने नहीं देता था। यह छोटी उम्र में हमारा प्रयोग। अपने कारण चौंका न?
यानी इन चार प्रकार के दान के अलावा अन्य किसी प्रकार का दान नहीं है, ऐसा भगवान ने कहा है। बाकी सब तो दान की बात करते हैं, वे सब कल्पनाएँ हैं। ये चार प्रकार के ही दान हैं, आहारदान, औषधदान, फिर ज्ञानदान और अभयदान। हो सके तब तक अभयदान की भावना मन में करके रखनी चाहिए।
प्रश्नकर्ता : पर अभयदान में से ये तीनों दान निकल आते हैं। इस भाव में से?
दादाश्री : नहीं, ऐसा है कि अभयदान तो उच्च मनुष्य कर सकता है। जिसके पास लक्ष्मी नहीं होगी, ऐसा साधारण मनुष्य भी यह कर सकता है। ऊँचे पुरुषों के पास लक्ष्मी हो या नहीं भी हो। यानी लक्ष्मी के साथ उनका व्यवहार नहीं, पर अभयदान तो वे अवश्य कर सकते हैं। पहले लक्ष्मीपति अभयदान करते थे, पर अभी उनसे वह नहीं हो सकता, वे कच्चे होते हैं। लक्ष्मी ही कमा लाए हैं न, वह भी लोगों को डरा-डराकर।
प्रश्नकर्ता : भयदान किया है?
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दादाश्री : नहीं, ऐसा नहीं कह सकते। ऐसा करके भी ज्ञानदान में खर्च करते हैं न ! यहाँ से ऐसे चाहे जो करके आया, पर यहाँ ज्ञानदान में खर्च करते हैं। वह उत्तम है, ऐसा भगवान ने कहा है।
ज्ञानी ही दें, 'यह' दान
तरह दान हो, तो सबसे अच्छा।
वह किस तरह दी जाए? प्रश्नकर्ता : इसलिए दानों में लक्ष्मी का सीधा वर्णन नहीं है।
दादाश्री : हाँ, सीधे देनी भी नहीं चाहिए। दो इस तरह कि ज्ञानदान के रूप में अर्थात् पुस्तकें छपवाकर दो या फिर आहार खिलाने के लिए तैयार करके दो। सीधे लक्ष्मी देने का कहीं भी कहा नहीं है।
इसलिए श्रेष्ठ दान अभयदान, दूसरे नंबर पर ज्ञानदान । अभयदान की भगवान ने भी प्रशंसा की है। पहला, कोई भी तुझसे भयभीत नहीं हो, ऐसा अभयदान दे। दूसरा ज्ञानदान, तीसरा औषधदान और चौथा आहारदान।
स्वर्ण दान
ज्ञानदान से भी श्रेष्ठ अभयदान! मगर लोग अभयदान दे नहीं सकते न! वह ज्ञानी अकेले ही अभयदान देते हैं। ज्ञानी और ज्ञानी का परिवार होता है, वे अभयदान देते हैं। ज्ञानी के फॉलोअर्स (अनुयायी) होते हैं, वे अभयदान देते हैं। किसी को भय लगे नहीं उस प्रकार रहते हैं। सामनेवाला भय रहित रहे, उस प्रकार बरतते हैं। कुत्ता भी भडके नहीं इस प्रकार उनका वर्तन होता है। क्योंकि किसी को भी दुःख दिया तो खुद के भीतर पहुँचा। सामनेवाले को दुःख दिया कि खुद के भीतर पहुँचा । इसलिए हमसे किसी भी जीव को किंचित् मात्र भय नहीं हो ऐसे रहना।
प्रश्नकर्ता : अपने धर्म में वर्णन है कि पहले तो स्वर्ण दान देते थे, वह भी लक्ष्मी ही कहलाता है न?
दादाश्री : हाँ, वह स्वर्णमुद्रा का दान था न, वह तो अमुक प्रकार के लोगों को ही दिया जाता था। वह सभी लोगों को नहीं दिया जाता था। स्वर्ण दान तो, अमुक श्रमण ब्राह्मणों को, उन सबको जिनकी बेटी की शादी अटकी हो। दूसरा, संसार चलाने के लिए वे सभी को देते थे। बाकी अन्य सबको स्वर्ण दान नहीं दिया जाता था। व्यवहार में रहे हों, श्रमण हों, उन्हें ही दिया जाना चाहिए। श्रमण यानी वे किसी से माँग नहीं सकते थे। उन दिनों बहुत अच्छे रास्ते धन खर्च होता था। यह तो अब ठीक है। भगवान के मंदिर बनते हैं न, वे भी 'ऑन' के पैसों से बनते हैं। इस युग का असर है न!
'लक्ष्मी' तीनों में आती है
प्रश्नकर्ता : तो क्या लक्ष्मीदान का स्थान ही नहीं है?
दादाश्री : लक्ष्मीदान, वह ज्ञानदान में आ गया। अभी आप पुस्तकें छपवाओ न, तो लक्ष्मी उसमें आ गई, वह ज्ञानदान।
प्रश्नकर्ता : लक्ष्मी के द्वारा ही सब होता है न? अन्नदान भी लक्ष्मी द्वारा ही दिया जाता है न?
ज्ञानी की दृष्टि से... प्रश्नकर्ता : विद्यादान, धनदान, इन सभी दानों में आपकी दृष्टि से कौन-सा दान श्रेष्ठ है? कई बार इसमें द्विधा उत्पन्न होती है।
दादाश्री : विद्यादान उत्तम माना जाता है। लक्ष्मी हो उसे विद्यादान, ज्ञानदान में लक्ष्मी देनी चाहिए। ज्ञानदान यानी पुस्तकें छपवाना या दूसरातीसरा कुछ करना। ज्ञान का प्रसार किस तरह हो? उसके लिए ही पैसे खर्च
दादाश्री : औषध देनी हो तो भी हम सौ रुपये का औषध लाकर उसे दें तब न? मतलब लक्ष्मी तो सभी में खर्च करनी ही है, पर लक्ष्मी का इस
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करने चाहिए। लक्ष्मी हो उसे और लक्ष्मी न हो उसे अभयदान का उपयोग करना चाहिए। किसी को भय नहीं हो, उस तरह हमें सँभलकर चलना चाहिए। किसी को दु:ख नहीं हो, भय नहीं हो वह अभयदान कहलाता है।
दान के बारे में लोग नाम कमाने के लिए दान देते हैं, वह योग्य नहीं है। नाम कमाने के लिए तो स्मृतिस्थंभ खडे करते हैं न! और स्तंभ किसी के रहे नहीं, और यहाँ दिया हुआ साथ में आता कब है? विद्या फैले, ज्ञान फैले ऐसा कुछ करें, तो वह अपने साथ आता है।
उपयोगी हो वह पुस्तक काम की प्रश्नकर्ता : धर्म की लाखों पुस्तकें छपती हैं, पर कोई पढ़ता नहीं है।
दादाश्री : वह ठीक है। आपकी यह बात सही है, कोई पढ़ता नहीं। यों की यों पुस्तकें पड़ी रहती हैं सब। जो पढी जाएँ, वैसी पुस्तक हो तो काम की। आपका कहना ठीक है। अभी कोई पुस्तक पढी नहीं जाती। निरी धर्म की ही पुस्तकें छपवाते रहते हैं। वे महाराज क्या कहते हैं? मेरे नाम का छपवाओ। वे महाराज अपना नाम डालते हैं। अपने दादागुरु का नाम डालते हैं। यानी, हमारे दादा ये थे, उनके दादा के दादा और उनके दादा... वहाँ तक पहुँचते हैं। लोगों को कीर्ति कमानी है। और उसके लिए धर्म की पुस्तकें छपवाते हैं। धर्म की पुस्तक ऐसी होनी चाहिए कि ज्ञान हमें काम आए। ऐसी पुस्तक हो तो लोगों को काम आएँ। ऐसी पुस्तक छपी हो वह काम की, नहीं तो यों ही भटकने का क्या अर्थ? और वह भी सब कोई पढ़ते ही नहीं। एक बार पढ़कर रख देते हैं, फिर कोई पढ़ता नहीं है। और एक बार भी कोई पूरा पढ़ता नहीं है। लोगों को काम लगे ऐसा छपवाया हो तो हमारे पैसों का सदुपयोग हो और वह भी पुण्य हो तभी न। पैसे अच्छे हों तभी छपवा सकते हैं, नहीं तो छपवा नहीं सकते। ऐसे संयोग बैठते नहीं न ! पैसे तो आएँगे और जाएँगे और क्रेडिट कभी भी डेबिट हुए बिना रहता नहीं। आपके यहाँ कैसा नियम है? क्रेडिट होता रहता है या डेबिट भी होता है?
____ दान प्रश्नकर्ता : दोनों साइड हैं। दादाश्री : यानी हमेशा क्रेडिट-डेबिट ही हुआ करता है। प्रश्नकर्ता : वही होना चाहिए।
दादाश्री : पर उसके दो रास्ते हैं । डेबिट या तो अच्छे रास्ते जाता है या तो गटर में जाता है। पर उसमें से एक रास्ते से जाता है। सारी मुम्बई का धन गटर में ही जाता हैं! सारा धन ही गटर में जाता है...
मुम्बई यानी पुण्यवानों का मेला प्रश्नकर्ता : बड़े से बड़े दान मुम्बई में ही होते हैं। लाखों-करोड़ों रुपये दान में दिए जाते हैं।
दादाश्री : हाँ, पर वे दान कीर्तिदान हैं सब और कितनी ही अच्छी वस्तएँ भी हैं। औषधदान होता है. ऐसी कई अच्छी वस्तुएँ हैं। यानी दूसरा भी बहुत है मुम्बई में।
प्रश्नकर्ता : उन सभी को लाभ मिलता है या नहीं?
दादाश्री : बहुत लाभ मिलता है। वे तो छोड़ते नहीं न वह लाभ! पर इस मुम्बई में धन कितना सारा है? इस कारण से तो, यहाँ कितने सारे होस्पिटल हैं। इस मुम्बई का धन ढेर सारा, सागर जितना धन है और वह सागर में ही जाता है।
प्रश्नकर्ता : मुम्बई में ही लक्ष्मी मिलती है, उसका क्या कारण है?
दादाश्री : मुम्बई में ही लक्ष्मी मिलती है? नियम ही ऐसा है कि मुम्बई में ऊँचे से ऊँची वस्तु खिंचकर आ पड़ती है।
प्रश्नकर्ता : वे भूमि के गुण हैं? दादाश्री : भूमि के ही तो। मुम्बई में सभी ऊँचे से ऊँची वस्तुएँ खिंच
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आती हैं। मिरची भी उच्चतम, महान पुरुष, वे भी मुम्बई में होते हैं और नीच से नीच, नालायक मनुष्य, वे भी मुम्बई में होते हैं । मुम्बई में दोनों क्वालिटियाँ होती है। यानी गाँवो में खोजने जाओ तो न मिले।
प्रश्नकर्ता : मुम्बई में समदृष्टिवाले लोग हैं न?
दादाश्री : सारा पुण्यवानों का मेला है यह। पुण्यवान लोगों का मेला है एक तरह का। और सब पुण्यवान साथ में खिंच आते हैं।
मुम्बई के लोग सब निबाह लेते हैं। वे दसरा कछ नहीं करते। और खुद के पैर पर कहीं किसी का जूता आ जाए न. तो प्लीज. प्लीज़ करते हैं। मारते नहीं हैं। प्लीज प्लीज़ करते हैं। और गाँव में तो मारें। इसलिए ये मुम्बई के लोग डेवलप कहलाते हैं।
धन चला गटर में लोगों का धन गटर में ही जा रहा है न, अच्छे रास्ते किसी पुण्यवान का ही जाता है न! धन गटर में जाता है क्या?
प्रश्नकर्ता : सब जा ही रहा है न!
दादाश्री : इस मुम्बई के गटर में तो बहुत सारा धन, जत्थेबंद धन चला गया है। निरा मोह का, मोहवाला बाजार न! तेजी से धन चला जाता है। धन ही खोटा है न! धन भी सच्चा नहीं। सच्चा धन होता है, तो सही रास्ते पर खर्च होता है।
अभी सारी दुनिया का धन गटर में जा रहा है। इन गटरों के पाइप चौड़े किए हैं, वह किस लिए कि धन को जाने के लिए स्थान चाहिए न? कमाया हुआ सब खा-पीकर, बहकर गटर में सब जाता है। एक पैसा सच्चे मार्ग पर जाता नहीं, और जो पैसे खर्चते हैं, कॉलेज में दान दिया, फलाँ दिया, वह सब इगोइज़म है। इगोइजम बिना का पैसा जाए तो वह सच्चा
कहलाता है। बाकी यह तो अहंकार को पोषण मिलता रहता है, कीर्ति मिलती रहती है आराम से। पर कीर्ति मिलने के बाद उसका फल आता है। फिर वह कीर्ति जब पलट जाए तब क्या होता है? अपकीर्ति होती है। तब उपाधी ही उपाधी हो जाती है। इसके बजाय कीर्ति की आशा ही नहीं रखनी चाहिए। कीर्ति की आशा रखें, तब अपकीर्ति आए न? जिसे कीर्ति की आशा नहीं, उसे अपकीर्ति आए ही क्यों?
अच्छे रास्ते खर्च करो पैंसे तो खाली भी हो जाएँ और घड़ी में भर भी जाएँ। अच्छे काम के लिए राह मत देखना। अच्छे काम में खर्च हो, नहीं तो गटर में तो गया लोगों का धन। मुम्बई में करोड़ो रुपये गटर में गए लोगों के, घर में खर्च किया और परायों के लिए जो खर्च नहीं किया वह सारा गटर में गया। तो अब पछताते हैं। मैं कहता हूँ कि गटर में गया, तब कहते हैं कि 'हाँ, ऐसा ही हुआ।' तब मुए! पहले से ही सावधान रहना था न? अब फिर से आए तब सावधान रहना। तब कहें, 'हाँ, फिर से अब कच्चा नहीं पढूंगा।' फिर तो आने ही वाला है न! धन तो घटता-बढता रहेगा। कभी दो वर्ष खराब जाएँ, फिर पाँच साल अच्छे आएं, ऐसा चलता रहता है। पर अच्छे रास्ते पर खर्च किया, वह तो काम आएगा न? उतना ही अपना, बाकी सब पराया।
इतना सारा कमाया, पर कहाँ गया? गटर में। धर्म के लिए दिया? तब कहेगा, वो पैसे तो मिलते ही नहीं, इकट्ठे होते ही नहीं तो हूँ किस तरह? तब धन कहाँ गया? यह तो कौन उगाता है और कौन खाता है? जो कमाता है, उसका धन नहीं। जो खर्चे उसका धन। इसलिए नये ओवरड्राफ्ट भेजे वे आपके। नहीं भेजे तो आप जानो।
दान अर्थात् बोकर काटो प्रश्नकर्ता : आत्मा और दान में कोई संबंध नहीं है तो फिर यह दान करना ज़रूरी है या नहीं?
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दादाश्री : दान यानी क्या कि देकर लो। यह जगत् प्रतिघोष स्वरूप है। इसलिए जो आप करो वैसा प्रतिघोष सुनने को मिलेगा, उसके ब्याज के साथ। इसलिए आप दो और लो। यह पिछले अवतार में दिया, अच्छे कार्य में पैसे खर्च किए थे, ऐसा कुछ किया था, उसका हमें फल मिला। अब फिर ऐसा नहीं करो तो धूलधानी हो जाएगा। हम खेत में से गेहूँ तो ले आए चार सौ मन पर भाई वह पचास मन बोने नहीं गया तो फिर ? ।
प्रश्नकर्ता तो उगेंगे नहीं।
:
दादाश्री : ऐसा है यह सब इसलिए देना। उसका प्रतिघोष होगा ही, वापस आएगा, अनेक गुना होकर। पिछले अवतार में दिया था, इसलिए तो अमरीका आ पाए, नहीं तो अमरीका आना आसान है क्या? कितने पुण्य किए हों, तब प्लेन में बैठने को मिलता है। कितने ही लोगों ने तो प्लेन देखा तक नहीं है।
लक्ष्मी वहीं वापस आती है
आपका घर पहले श्रीमंत था न ?
प्रश्नकर्ता: ऐसे सभी पूर्वकर्म के पुण्य ।
दादाश्री : कितनी अधिक लोगों को हैल्प की हो, तब लक्ष्मी हमारे यहाँ आती है, नहीं तो लक्ष्मी आए नहीं न! जिसे ले लें ऐसी इच्छा है, उसके पास लक्ष्मी नहीं आती। आए तो चली जाती है, रुकती नहीं है। जैसे-तैसे करके ले लेना है, उसके वहाँ लक्ष्मी आती नहीं। लक्ष्मी तो देने की इच्छावाले के यहाँ ही आती है। जो औरों के लिए घिसे, ठगे जाएँ, नोबिलिटी रखें, वहाँ आती है। वैसे चली गई, ऐसा लगता है, मगर आकर फिर वहीं खड़ी रहती है।
देखना ! दान रह न जाए वह तो आए, तभी दिया जाए न और कुछ नहीं हो तो मन में क्या
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सोचें, जानते हो? जब मेरे पास आएँ तब दे देने हैं। और आएँ, तब गड्डी एक ओर रख देता है। नहीं तो मनुष्य का स्वभाव कैसा है कि होता है अभी? अभी डेढ़ लाख हैं, दो लाख पूरे हों फिर दूँगा। और वैसे के वैसे वो रह जाता है। ऐसे कामों में तो आँख मींचकर दे दिया वह सोना ।
प्रश्नकर्ता: दो लाख हो जाएँ, तब खर्च करूँ, ऐसा कहनेवाला मनुष्य ऐसे करते-करते ही चला जाए तो?
दादाश्री : वह चला जाए और रह भी जाए। रह जाए मगर कुछ हो सकता नहीं। जीव का स्वभाव ही ऐसा है। फिर नहीं हों तब कहेगा 'मेरे पास आएँ तो तुरंत दे देने हैं!' आएँ कि तुरंत दे देने है। अब आएँ, तब यह माया उलझा देती है।
अभी है तो किसी आदमी ने साठ हजार रुपये वापिस नहीं दिए, तब कहेगा, चलेगा अब । चलो कुछ है, अपने नसीब में नहीं थे। वहाँ छूटते हैं, पर यहाँ नहीं छूटते । मनुष्य का स्वभाव ही ऐसा है। माया उलझाती है उसे। वह तो हिम्मत करे तभी दिया जाता है। इसलिए हम ऐसा कहते हैं कि 'कुछ कर' फिर माया उलझाती नहीं है। फूल नहीं तो फूल की पंखुड़ी। वह भी एक अंगुली का आधार देने की ज़रूरत है, अपने-अपने सामर्थ्य अनुसार । बीमार मनुष्य को भी ऐसे हाथ लगाने में क्या हर्ज है?
सच्चा दानवीर
कभी भी कम न पड़े, उसका नाम लक्ष्मी फावड़े से खोद-खोदकर धर्म के लिए दिया करें, तब भी कम न पड़े उसे लक्ष्मी कहते हैं। यह तो धर्म में दें तो बारह महीने में दो दिन दिया हो, उसे लक्ष्मी कहते ही नहीं। एक दानवीर सेठ थे। अब दानवीर नाम कैसे पड़ा? उसके वहाँ सात पुश्तों से धन देते ही रहते थे। फावड़े से खोदकर ही देते थे। तो जो आया उसीको। आज फलाँ आया कि मुझे बेटी ब्याहनी है, तो उसे दिए। कोई ब्राह्मण आया उसे दिए। किसी को दो हज़ार की ज़रूरत हो तो उसे दिए। साधु-संतों के लिए,
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दान समझ सहित
जगह बनवाई थी, वहाँ सभी साधु-संतों की भोजन व्यवस्था। मतलब जबरदस्त दान चलता था, इसलिए दानवीर कहलाए। हमने यह देखा था सब। हर एक को देते रहते थे, वैसे-वैसे धन बढ़ता रहता था।
धन का स्वभाव कैसा है? यदि किसी अच्छी जगह पर दान में जाए तो बहुत अधिक बढ़ता है, ऐसा धन का स्वभाव है। और यदि जेबें काटीं तो आपके घर कुछ नहीं रहेगा। इन सभी व्यापारियों को इकट्ठा करें और हम पूछे कि भाई ! कैसा है आपको? बेन्क में दो हज़ार तो होंगे न? तब कहेंगे कि साहब, बारह महीनों में लाख रुपये आए, पर हाथ में कुछ भी नहीं है। इस पर से तो कहावत पड़ी कि चोर की माँ कोठी में मुँह डालकर रोए। कोठी में कुछ होता नहीं, फिर रोएगी ही न।
लक्ष्मी का प्रवाह दान है और जो सच्चा दानी है, वह कुदरती रूप से ही एक्सपर्ट होता है। मनुष्य को देखते ही समझ लेता है कि भाई ज़रा ऐसा लगता है। इसलिए कहेगा कि भाई बेटी के ब्याह के लिए नक़द पैसा नहीं मिलेगा, तुझे जो कुछ कपड़े-लत्ते चाहिए, दूसरा सब चाहिए, वह ले जाना। और कहे कि बेटी को यहाँ बुला ला। फिर लड़की को कपड़ेजेवर सब दे दे। सगे-संबंधियों को मिठाई अपने घर से भेज दे, ऐसे व्यवहार सब संभाल लेते हैं। पर समझ जाते हैं कि यह नंगोड़ (बेशर्म) है। नक़द हाथ में देने लायक नहीं है। यानी दान देनेवाले भी बहुत एक्सपर्ट होते हैं।
दान किसे दिया जाए? आप गरीब को पैसे दो और पता लगाओ तो उसके पास पौन लाख रुपये पड़े होंगे। क्योंकि वे लोग गरीबी के नाम पर पैसे इक्ट्ठे करते हैं। सब व्यापार ही चल रहा है। दान तो कहाँ देना है? जो लोग माँगते नहीं और अंदर दु:खी होते रहते हैं, और दब-दबकर चलते हैं, वे कोमन लोग हैं, वहाँ देने का है। उन लोगों को बहुत उलझन है, उस मध्यमवर्ग को।
एक आदमी के मन में ज्ञान हुआ। क्या ज्ञान हुआ? कि ये लोग ठंड से मर जाते होंगे। यहाँ घर में भी ठंड में रहा नहीं जाता है। अरे, हिमपात होनेवाला है और इन फुटपाथवालों का क्या होगा? ऐसा उसे ज्ञान हुआ, यह एक प्रकार का ज्ञान ही कहलाए न! ज्ञान हुआ और उसके संयोग सीधे थे। बैन्क में पैसा था, इसलिए सौ-सवा सौ कम्बल ले आया, हलकी क्वालिटी के! और सुबह चार बजे जाकर, दूसरे दिन ओढ़ाए सबको, जहाँ सो रहे थे वहाँ जाकर ओढ़ाए। फिर पाँच-सात दिन के बाद वहाँ फिर गया न, तब कम्बल-वम्बल कुछ दिखते नहीं थे। सारे नये के नये कम्बल बेचकर पैसे ले लिए उन लोगों ने।
इसलिए मैं कहता हूँ कि नहीं देने चाहिए ऐसे। ऐसे दिया जाता है क्या? उन्हें तो रविवार की बाजार में पुराने कम्बल मिलते हैं न, वे लाकर दें। उन्हें कोई बाप भी मोल ले नहीं उसके पास से। हमने उसके लिए सत्तर रुपये का बजट बनाया हो तो सत्तर का एक कम्बल लाने के बजाय, पुराने तीन मिलते हों तो तीन देना। तीन ओढ़कर सो जाना, कोई बाप भी लेनेवाला नहीं मिलेगा।
अर्थात् इस काल में दान देना हो तो बहुत सोच समझकर देना। पैसा मूलतः स्वभाव से खोटा है। दान देने के लिए भी बहुत विचार करोगे तब दान दे पाओगे, नहीं तो दान भी नहीं दे पाओगे। और पहले सच्चा रुपया था न, तब जहाँ दो वहाँ सच्चा दान ही होता था।
अभी नक़द रुपया नहीं दे सकते, आराम से कहीं से खाने की चीज़ खरीदकर बाँट देना। मिठाई लाए हों तो मिठाई बाँट देना। मिठाई का पेकेट दिया तो वे मिठाईवाले से कहेंगे आधी क़ीमत दे दे! अब इस दुनिया का क्या करें? हम आराम से चिवड़ा है, मुरमुरे हैं, सब हैं और पकौड़े लेकर उन्हें तोड़कर दे दें। ले भाई ! हर्ज क्या है? और यह दही लेता जा। किस लिए ऐसे
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तोड़कर दिए, कहेगा? उसे वहम न पडे इसलिए। दही भी ले जा। दहीबड़े बन जाएँगे तेरे लिए। अरे! पर क्या करें फिर? यह कुछ तो होना चाहिए न?
यह तो पहुँच पाएँ ऐसा नहीं है। और माँगने आए तब भी देना, हाँ। पर नक़द मत देना, वर्ना दुरुपयोग होता है इन सबका। हमारे देश में ही है यह। इस इन्डियन पज़ल को कोई सोल्व कर सकता नहीं सारे संसार में!
यह कैसे? यह क्या है? इसे सोल्व करने भेजें कि भैया हमारे यहाँ यह क्या है? ये कम्बल दान में दिए थे, वे कहाँ गए? इसकी खोज करो। तब वे कहें कि सी.आई.डी को लाओ। अरे, यह नहीं है सी.आई.डी का काम। हम तो यह बिना सी.आई.डी के ही पकड लेंगे। यह पज़ल इन्डियन पज़ल है। तुमसे सोल्व नहीं होगा। तुम्हारे देश में सी.आई.डी. से पकड़ लाते हो। हमारे देशवाले क्या करते हैं, वह हम जानते है भई ! दूसरे दिन जा व्यापारी के यहाँ।
उपयोग, वह जागृति है। हम शुभ करें, दान दें, वह दान कैसा? जागतिपूर्वक का कि लोगों का कल्याण हो। कीर्ति-नाम हमें प्राप्त नहीं हो, इसलिए गुप्त रूप से देते हैं। यह जागृतिपूर्वक कहलाता है न! वह उपयोग कहलाता है। दूसरे तो, नाम नहीं छपा हो तो दूसरी बार देते नहीं।
ऐसा है, शुभमार्ग में भी जागृति कब कहलाती है? इस भव में और परभव में लाभदायी हो, ऐसा शुभ हो, तब वह जागृति कहलाती है। वर्ना, वह दान करता हो, सेवा करता हो, पर आगे की जागृति उसे कुछ भी नहीं होती। जागृतिपूर्वक सभी क्रियाएँ करे तो अगले जन्म का हित होगा, वर्ना नींद में सब जाता है। यह दान किया वह सब नींद में गया! जागते हुए चार आने भी जाएँ तो बहुत हो गया! यह दान दें और भीतर यहाँ की कीर्ति की इच्छा हो, तो वह सब नींद में गया। पर भव के हित के लिए जो दान यहाँ दिया जाए, वह जागृत कहलाता है। हिताहित का भान अर्थात् खुद का हित किस में है और खुद का अहित किस में है और उसके अनुसार जागृति रहे वह! अगले जन्म का कुछ ठिकाना नहीं हो और यहाँ दान करता हो, उसे जागृत कैसे कहा जाए?
ऐसे अंतराय पड़ते हैं यह भाई किसी को दान दे रहे हों, वहाँ पर कोई बुद्धिमान कहे कि अरे, इसे क्यों देते हो? तब यह भाई कहेंगे 'अब देने दो न. गरीब है।' ऐसा करके दान देता है और वह गरीब ले लेता है। पर वह बुद्धिमान बोला उसका उसने अंतराय डाला। तो फिर उसे दुःख में भी कोई दाता नहीं मिलता। जहाँ खुद अंतराय डालता है, उस जगह पर ही वह अंतराय काम करता है।
इसलिए पैसों में बरकत कब आएगी? कुछ नियम होना चाहिए अथवा नीति होनी चाहिए। साधारण तो होनी चाहिए न? ज़रा काल विचित्र है। तो साधारण नीति तो होनी चाहिए न? यों ही चलता है क्या?
सब बेच खाएँ, तब बेटियाँ भी बेच खाते हैं। लक्ष्मी के लिए बेटियाँ भी बेची हैं। वहाँ तक पहुंच गए हैं अंत में ! अरे, ऐसा नहीं करते ऐसा!
दान में नकद रुपये नहीं देने चाहिए। उसे मेन्टेनेन्स के लिए हैल्प करना । व्यवसाय पर लगाना। हिंसक मनुष्य को रुपया दोगे तो वह हिंसा अधिक करेगा।
दान, लेकिन उपयोगपूर्वक पैसे खर्च हो जाएँगे, ऐसी जागृति रखनी ही नहीं चाहिए। जिस समय जो खर्च हो वह सही। इसलिए पैसे खर्च करने को कहा ताकि लोभ छूटे और बार-बार दे सकें।
प्रश्नकर्ता : वाणी से अंतराय नहीं डाले हों, पर मन से अंतराय डालें हों तो?
दादाश्री : मन से डाले हुए अंतराय अधिक असर करते हैं। वे तो
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देना चाहिए।' वह गलत है, पर अब हम विचार करते हैं कि 'यह दान करना अच्छा है। इसलिए उसके पहले का मिट जाएगा।
दान करना, लोगों पर उपकार करना, ओब्लाइजिंग नेचर रखना, लोगों की सेवा करना, इन सभी को रिलेटिव धर्म कहा है। उससे पुण्य बंधता है। और गालियाँ देने से, मारामारी करने से, लट लेने से पाप बंधता है। पुण्य और पाप जहाँ हैं, वहाँ रियल धर्म ही नहीं है। पाप-पुण्य से रहित रियल धर्म है।
दूसरे अवतार में असर करते हैं और ये वाणी से बोला हुआ इस अवतार में असर करता है। वाणी निकली कि नक़द हआ. केश हुआ। इसलिए फल भी केश आता है और मन से चित्रित किया, वह तो अगले अवतार में रुपक बनकर आएगा।
और ऐसे जाते हैं अंतराय प्रश्नकर्ता : अर्थात् इतनी जागृति रखनी चाहिए कि जरा-सा भी उलटा-सीधा विचार नहीं हो।
दादाश्री : ऐसा हो सके, ऐसा नहीं है। विचार तो ऐसे हुए बिना रहेंगे ही नहीं। उन्हें हम मिटा दें, यही अपना काम। ऐसे विचार नहीं आएँ, ऐसा हम तय करें, वह निश्चय कहलाता है। पर विचार ही नहीं आएँ, ऐसा वहाँ पर चलता नहीं। विचार तो आएँगे पर बंध पड़ने से पहले मिटा देना चाहिए। आपको विचार आया कि 'इसे दान नहीं देना चाहिए।' पर आपको ज्ञान दिया है इसलिए जागृति आएगी कि हमने बीच में अंतराय क्यों डाला? ऐसे फिर आप उसे मिटा दो। पोस्ट में खत डालने से पहले मिटा दो तो हर्ज नहीं न! पर वह तो, ज्ञान बिना कोई मिटाता नहीं न। अज्ञानी तो मिटाता ही नहीं न? उलटे हम उसे ऐसा कहें कि 'ऐसा उलटा विचार क्यों किया?' तब वह कहेगा कि ऐसा तो करना ही चाहिए था, यह आपके समझ में नहीं आएगा। इस तरह फिर ऐसे उसे दोगुना करके मोटा कर देता है। अहंकार सब पागलपन ही करता है, नुकसान करता है, उसका नाम अहंकर। खुद अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारा करे, उसका नाम अहंकार।
पाँचवाँ हिस्सा परायों के लिए प्रश्नकर्ता : अगले जन्म के पुण्य के उपार्जन के लिए इस जन्म में क्या करना चाहिए?
दादाश्री : इस जन्म में जो पैसे आएँ उसका पाँचवाँ हिस्सा भगवान के यहाँ मंदिर में डाल देना या फिर लोगों के सुख के लिए खर्च करना। इसलिए उतना तो वहाँ ओवरड्राफ्ट पहुँचा ! ये पिछले जन्म के ओवरड्राफ्ट तो भोग रहे हो। इस जन्म का पुण्य है, वह आगे आएगा फिर। अभी की कमाई आगे चलेगी।
रिवाज, भगवान के लिए ही धर्म में दान
इन मारवाड़ी लोगों के यहाँ जाता हूँ तब पूछता हूँ'धंधा कैसा चलता है?' तब कहें 'धंधा तो अच्छा चलता है।''मुनाफा वगैरा?' तब कहे 'दोचार लाख तो है।''भगवान के यहाँ देना-करना?''बीस-पच्चीस प्रतिशत डाल आते हैं वहाँ, हर साल।' उनका क्या कहना कि खेत में बोएँगे तो दाने निकलेंगे न! बोए बिना दाने किस के लेने जाऊँ? बोएँगे ही नहीं तो? इन मारवाड़ी लोगों के यहाँ यही रिवाज कि भगवान के काम में डालने हैं। ज्ञानदान, भगवान में, दूसरी-तीसरी जगह दान देना और उसमें दान नहीं, हाईस्कूल को, फलों को, उसमें नहीं। बस यही एक।
अब तो हम पश्चाताप से सब मिटा सकते हैं और मन में निश्चय कर लें कि ऐसा नहीं बोलना चाहिए। और बोला, 'उसके लिए क्षमा मांगता हूँ', तो मिट जाएगा। क्योंकि वह खत पोस्ट में गया नहीं है। उसके पहले हम परिवर्तन कर डालें कि पहले हमने मन में विचार किया था कि 'दान नहीं
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कल्याण हो जाए, परम कल्याण हो जाए, आत्यंतिक कल्याण हो जाए। पर ऐसी शक्ति नहीं होती न! ऐसे पुण्य नहीं होते!
भगवान के पास रखे न, वह सब निष्काम नहीं, सकाम है। हे भगवान, बेटे के घर एक बेटा ! मेरा बेटा पास हो जाए। घर पर बुड्ढा बाप है, उसे पक्षाघात हुआ है, वह मिट जाए। उसके लिए 'दो सौ और एक' रखता है। अब यहाँ तो कौन रखे? हमारा कोई ऐसा कारखाना है? और यहाँ ले भी कौन जो रखे?
वह भी हिंसा ही
मंदिरों में या गरीबों में प्रश्नकर्ता : हम मंदिर में गए थे न, वहाँ लोग करोड़ों रुपये पत्थरों के पीछे खर्च करते हैं। और भगवान ने कहा है कि ये जीते-जागते अंतर्यामी जो प्रत्येक जीव मात्र में विराजमान हैं। और जीवित लोगों को धमकाते हैं। उन लोगों को तड़पाते हैं और यहाँ पत्थर की मूर्तियों के पीछे करोड़ों रुपये खर्च करते हैं ऐसा क्यों?
दादाश्री : हाँ, मगर लोगों को तड़पाते हैं, वह तो उनकी नासमझी की वजह से तड़पाते हैं बेचारों को! क्रोध-मान-माया-लोभ की निर्बलता के कारण तड़पाते है न!
ऐसा है न. ये पैसे कमाने जो निकलते हैं. अब ठीक तरह से घर चले ऐसा होता है फिर भी पैसे कमाने निकलते हैं। तब हम नहीं समझें कि ये अपने क्वोटा के उपरांत अधिक क्वोटा लेने को घूम रहे हैं? जगत् में तो क्वोटा सभी का समान है। पर यह लोभी है जो अधिक क्वोटा ले जाता है। इसलिए उन अमुक लोगों के हिस्से में आता ही नहीं। अब वह भी यों ही गप्प से नहीं मिलता, वह पुण्य से मिलता है।
तब पुण्य अधिक किया, तो हमारे पास धन आया, उस धन को हम खर्च कर देते हैं वापिस । हम जानें कि यह तो जमा होने लगा। खर्च कर दिया तो डिडक्शन (कम) हो सकेगा न? पुण्य जमा तो हो ही जाता है, पर डिडक्शन करने की रीति तो जाननी चाहिए न?
अर्थात् लोग मंदिर आदि बनवाते हैं, ठीक करते हैं। उन्हें चाबी चाहिए। उन्हें दर्शन कहाँ करने हैं? वे जहाँ दर्शन करने जाएँ, वहाँ उन्हें शरम नहीं आए ऐसा चाहते हैं। जीवितों के साथ उन्हें शरम आती है और मूर्ति के पास तो आप कहो वैसे नाचता भी है। नाचता-कूदता है अकेला! पर जीवित के साथ उसे शरम आती है। ये (मूर्तियाँ) जीवित नहीं हैं ना और जीवित के पास नहीं कुछ हो पाता। और यदि जीवितों के पास किया तो उसका
प्रश्नकर्ता : व्यापारी मुनाफाखोरी करे, कोई उद्योगपति अथवा व्यापारी मेहनत की तुलना में कम मेहनताना दे अथवा बिना मेहनत की कोई कमाई हो, तो वह हिंसाखोरी कहलाती है?
दादाश्री : वह सारी हिंसाखोरी ही है।
प्रश्नकर्ता : अब वह फोकट की कमाई करके वह धन धर्म में खर्च करे तो वह किस प्रकार की हिंसा कहलाती है?
दादाश्री : जितना धर्मकार्य में खर्च किया, जितना त्याग कर गया, उतना कम दोष लगा। जितना कमाया था, लाख रुपये कमाया था, अब उस अस्सी हजार का दवाखाना बनवाया तो उतने रुपयों की जिम्मेवारी उसकी नहीं रही। बीस हजार की ही जिम्मेवारी रही। इसलिए वह अच्छा है, गलत नहीं है।
प्रश्नकर्ता : लोग लक्ष्मी जमा करके रखते हैं, वह हिंसा कहलाएगी या नहीं?
दादाश्री : हिंसा ही कहलाएगी। जमा करना वह हिंसा है। दूसरे लोगों के काम लगता नहीं न!
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जैसे आया, वैसे जाता है... यह तो भगवान के नाम पर, धर्म के नाम पर सब चला है !
प्रश्नकर्ता : दान करनेवाला मनुष्य तो ऐसा मानता है कि मैंने श्रद्धा से दिया है। पर जिसे खर्च करना है वह कैसे करता है, उसका हमें क्या पता चले?
दादाश्री : पर वह तो हमारे रुपये खोटे हों तो वे उलटे रास्ते जाएँगे। जितना धन खोटा उतना गलत रास्ते जाता है और अच्छा धन हो, उतना अच्छे रास्ते जाता है।
निहाई की चोरी, सूई का दान प्रश्नकर्ता : कई ऐसा कहते हैं कि दान करे तो देव बनता है, वह सही है?
और उतना तो फल मिला!
प्रश्नकर्ता : पद में एक पंक्ति है न कि 'दाणचोरी करनेवाले सूईदान से छूटने को मथें ।' तो इसमें एक जगह दाणचोरी (गलत तरीके से बहुत सारा धन कमाना) करी और दूसरी जगह दान किया, तो उसने उतना तो प्राप्त किया न? ऐसा कह सकते हैं?
दादाश्री : नहीं, प्राप्ति हुई ऐसा नहीं कहलाता। वह तो नर्क में जाने की निशानी कहलाती है। वह तो नीयतचोर है। दाणचोर ने चोरी करी और सूई का दान किया, इसके बजाय दान नहीं करता हो और सीधा रहे तो भी अच्छा। ऐसा है न कि छह महीने की जेल की सजा अच्छी। बीच में दो दिन बाग़ में ले जाएँ, उसका क्या अर्थ?
दादाश्री : दान करें, फिर भी नर्क में जाएँ, ऐसे भी हैं। क्योंकि दान किसी के दबाव में आकर करते हैं। ऐसा है न कि इस दूधमकाल में दान कर पाएँ ऐसी लक्ष्मी ही नहीं होती है। दूषमकाल में जो लक्ष्मी है, वह तो अघोर कर्तव्यवाली लक्ष्मी है। इसलिए उसका दान दें तो उलटा नुकसान होता है। पर फिर भी हम किसी दुखी मनुष्य को दें, दान करने के बदले उसकी मुश्किल दूर करने के लिए कुछ करें तो अच्छा है। दान तो नाम कमाने के लिए करते हैं, उसका क्या अर्थ? भूखा हो उसे खाना दो, कपड़े नहीं हों तो कपड़ा दो। बाकी, इस काल में दान देने को रुपये कहाँ से लाएँ? वहाँ सबसे अच्छा तो, दान-वान देने की जरूरत नहीं है। अपने विचार अच्छे करो। दान देने को धन कहाँ से लाएँ? सच्चा धन ही नहीं आया न! और सच्चा धन सरप्लस रहता ही नहीं। ये जो बड़े-बड़े दान देते हैं न, वह तो सब खाते के बाहर का, ऊपर का धन आया है, वह है। फिर भी दान जो देते हैं, उनके लिए गलत नहीं है। क्योंकि गलत रास्ते लिया और अच्छे रास्ते दिया, फिर भी बीच में पाप से मुक्त तो हुआ! खेत में बीज बोया गया, इसलिए उगा
यह तो क्या कहना चाहते हैं कि यह सब काला बाजार, दाणचोरी सब किया और बाद में पचास हजार का दान देकर अपना खुद का नाम खराब न दिखे, खुद का नाम न बिगड़े, इसलिए यह दान देते हैं। इसे सूई का दान कहते हैं।
प्रश्नकर्ता : मतलब सात्विक तो आज ऐसे नहीं हैं न?
दादाश्री : संपूर्ण सात्विक की तो आशा रख सकते ही नहीं न! पर यह तो किस के लिए है कि जो बड़े लोग करोड़ों रुपये कमाते हैं और इस
ओर एक लाख रुपये दान में देते हैं। वह किस लिए? नाम खराब नहीं हो इसलिए। इस काल में ही ऐसा सूई का दान चलता है। यह बहुत समझने जैसा है। दूसरे लोग दान देते हैं, उनमें अमुक गृहस्थ होते हैं। साधारण स्थिति के होते हैं। वे लोग दान दें उसमें हर्ज नहीं। यह तो, सूई का दान देकर खुद का नाम बिगड़ने नहीं देते। अपना नाम ढंकने के लिए कपड़े बदल डालते हैं ! सिर्फ दिखावा करने के लिए ऐसे दान देते हैं!
अभी तो धनदान देते हैं या ले लेते हैं? और दान जो होते हैं, वे तो
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'मीसा के' (दाणचोरी के)।
वह धन पुण्य बाँधे प्रश्नकर्ता : दो नंबर के रुपयों का दान दे, तो वह नहीं चलेगा?
दादाश्री : दो नंबर का दान नहीं चलेगा। पर फिर भी कोई मनुष्य भूखों मर रहा हो और दो नंबर का दान दें तो उसे खाने के लिए चलेगा न ! दो नंबर में अमक नियम से परेशानी आती है, पर दूसरी तरह हर्ज नहीं होता। वह धन होटलवाले को दें तो वह लेगा कि नहीं लेगा?
प्रश्नकर्ता : ले लेगा। दादाश्री : हाँ, वह व्यवहार शुरू ही हो जाता है।
प्रश्नकर्ता : धर्म में दो नंबर का पैसा है, वह खर्च होता है अभी के जमाने में, तो उससे लोगों को पुण्योपार्जन होता है क्या?
सरकारी टेक्स जो है, वह लोगों को भारी पड़ जाता है कि आप हमारी धारणा से अधिक लगाते हैं, इसलिए ये लोग छिपाते हैं।
प्रश्नकर्ता : कुछ प्राप्त करने की अपेक्षा से जो दान करते हैं, उसकी भी शास्त्रों में मनाही नहीं है? उसकी निंदा नहीं की है?
दादाश्री : वह अपेक्षा न रखें तो उत्तम है। अपेक्षा रखते हैं, वह दान निर्मूल हो गया, सत्वहीन हो गया कहलाता है। मैं तो कहता हूँ कि पाँच ही रुपये दो पर अपेक्षा बिना दो।
वह है केमोफ्लेज जैसा प्रश्नकर्ता : दो नंबर के जो पैसे हैं, वे जहाँ जाएँ, वहाँ गड़बड़ होती है या नहीं?
दादाश्री: पूरी हैल्प नहीं करते। हमारे यहाँ भी आते हैं, पर वे कितने? दस-पंद्रह प्रतिशत, पर अधिक नहीं आते।
प्रश्नकर्ता : धर्म में हैल्प नहीं करते? जहाँ जाएँ वहाँ हैल्प नहीं होती उतनी?
दादाश्री : हैल्प नहीं करते। वैसे दिखने में हैल्प करते हैं, पर फिर अस्त होते देर नहीं लगती। वे सब वॉर क्वॉलिटी के स्ट्रक्चर । वॉर क्वॉलिटी के स्ट्रक्चर बँधे सभी ! आपने देखे हैं न! वे सभी केमोफ्लेज (स्वांग) हैं। मन में क्या खुश होना केमफ्लेज से?
श्रेष्ठी-शेट्टी-सेठ-शठ पहले के काल में, उस वक्त दानवीर होते थे। दानवीर तो मनवचन-काया की एकता हो, तब दानवीर पैदा होते हैं और उन्हें भगवान ने श्रेष्ठी कहा था। उस श्रेष्ठी को अभी मद्रास में शेट्टी कहते हैं। अपभ्रंश होतेहोते श्रेष्ठी में से 'शेट्टी' हो गया है वहाँ पर । वह हमारे यहाँ अपभ्रंश होते
दादाश्री : अवश्य होता है न! उसने त्याग किया न उतना! अपने पास आए हुए का त्याग किया न ! पर उसमें हेतु के अनुसार फिर वह पुण्य ऐसा हो जाता है हेतुवाला! ये पैसे दिए, वह एक ही वस्तु नहीं देखी जाती। पैसों का त्याग किया वह निर्विवाद है। बाकी पैसा कहाँ से आया? हेतु क्या? यह सभी प्लस-माइनस होते-होते जो बाकी रहेगा वह उसका। उसका हेतु क्या है कि सरकार ले जाएगी, उसके बजाय इसमें डाल दो न!
निरपेक्ष लूटाओ प्रश्नकर्ता : ऑन के पैसे भले ही खर्च होते हों, फिर भी धर्म की ध्वजा लग जाती है कि धर्म के नाम पर खर्चे ।
दादाश्री : हाँ, पर धर्म के नाम पर खर्चे तो अच्छा है। पर ऑन के नाम से करते हैं। क्योंकि 'ऑन' बड़ा गुनाह नहीं है। 'ऑन' यानी क्या कि
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होते 'शेठ' (सेठ) हो गया है।
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एक मिल के सेठ के यहाँ मैं सेक्रेटरी से बात कर रहा था। | मैंने पूछा कि 'शेठ कब आनेवाले हैं? दूसरे गाँव गए हैं वे?' वह कहता है, 'चार-पाँच दिन लगेंगे।' फिर मुझे कहता है, 'ज़रा मेरी बात सुनिए।' मैंने कहा, 'हाँ, भई ।' तो वह कहता है, 'ऊपर की मात्रा निकाल देने जैसे हैं।' मैंने उसे समझाया कि 'अभी तू तनख्वाह खाता है, तब तक मत बोलना।' बाकी मात्रा निकाल दें तो क्या रह गया शेष ?
प्रश्नकर्ता: 'शठ' रहा।
दादाश्री : फिर भी हम बोल नहीं सकते! ऐसी दशा हुई है। कैसे जगडुशा आदि सब सेठ हुए थे। वे सेठ कहलाते थे।
जैसा भाव, वैसा फल
कईयों को दान नहीं देना हो, मन में नहीं देना हो और वाणी से कहें, मुझे देना है और वर्तन में रखें और दें। पर मन में नहीं देना हो, इसलिए फल नहीं मिलता।
प्रश्नकर्ता: दादाजी, वह क्यों होता है ऐसा?
दादाश्री : एक मनुष्य मन में देता है, उसके पास साधन नहीं उतना और वाणी से बोलता है कि मुझे देना है, पर दिया नहीं जाता। उसका फल •अगले जन्म में मिलता है। क्योंकि वह देने के समान है। भगवान ने स्वीकार किया। आधा लाभ तो हो गया।
मंदिर में जाकर एक मनुष्य ने एक ही रुपया रखा और दूसरे सेठ ने एक हज़ार के नोट अंदर दान में दिए, यह देखकर अपने मन में हुआ कि अरे, मेरे पास होते तो मैं भी देता । वह वहाँ आपका जमा होता है। नहीं है, इसलिए आपसे नहीं दिया जाता। यहाँ तो दिया उसकी क़ीमत नहीं है, भाव की क़ीमत है। वीतरागों का साइन्स है।
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और देनेवाला हो, उसका कब कितना गुना हो जाए। पर वह कैसा ? मन से देना है, वाणी से देना है, वर्तन से देना है, तो उसका फल तो इस दुनिया में क्या न कहें, वह पूछो ! अभी तो सभी कहेंगे, फलाँ भाई के कारण मुझे देना पड़ा, नहीं तो मैं नहीं देता। फलाँ साहिब ने दबाव डाला इसलिए मुझे देना पड़ा। इसलिए वहाँ पर जमा भी वैसा ही होता है, हं। वह तो हमारा मन से, राज़ी - खुशी से दिया हुआ काम का। ऐसा करते हैं लोग क्या ? किसी के दबाव से देते हैं?
प्रश्नकर्ता: हाँ, हाँ।
दादाश्री : अरे, कितने तो रौब जमाने के लिए देते हैं। नाम, खुद की आबरू बढ़ाने के लिए। मन में भीतर ऐसा होता, जाने दो न देने जैसा नहीं है, पर हमारा नाम बुरा दिखेगा, तब ऐसा फल मिलता है। जैसा यह सब चित्रित करते हैं, वैसा फल मिलता है और एक मनुष्य के पास नहीं हो और 'मेरे पास होता तो मैं देता' ऐसा कहे तो कैसा फल मिले?
स्थूल कर्म : सूक्ष्म कर्म
एक सेठ ने पचास हज़ार रुपये दान में दिए। इस पर उनके मित्र ने उनसे पूछा, 'इतने सारे रुपये दे दिए ?' तब सेठ बोले, 'मैं तो एक पैसा भी दूँ वैसा नहीं हूँ। यह तो इस मेयर के दबाव के कारण देने पड़े।' अब इसका फल वहाँ क्या मिलेगा? पचास हज़ार का दान किया वह स्थूल कर्म, तो उसका फल सेठ को यहीं का यहीं मिल जाएगा, लोग वाह-वाह करेंगे, कीर्ति गाएँगे और सेठ ने भीतर सूक्ष्म कर्म में क्या चार्ज किया? तब कहे, 'एक पैसा भी दूँ वैसा नहीं हूँ' उसका फल अगले भव में मिलेगा। तो अगले भव में सेठ पैसा भी दान में दे नहीं सकेंगे। अब ऐसी बारीक बात किसे समझ में आए ?
वहीं दूसरा कोई गरीब हो, उसके पास भी वे ही लोग गए हों दान लेने, तब वह गरीब मनुष्य क्या कहता है कि 'मेरे पास तो अभी पाँच ही
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रुपये हैं। ये सारे ले लीजिए। पर अभी यदि मेरे पास पाँच लाख होते तो वे सारे के सारे दे देता!' ऐसा दिल से कहता है। अब इसने पाँच ही रुपये दिए, वह डिस्चार्ज में कर्मफल आया। पर भीतर सूक्ष्म में क्या चार्ज किया? पाँच लाख रुपये देने का। इसलिए अगले भव में पाँच लाख दे पाएगा, डिस्चार्ज होगा तब।
एक मनुष्य दान दिया करता हो, धर्म की भक्ति किया करता हो, मंदिरों में पैसे देता हो, दूसरे सारा दिन धर्म किया करता हो, उसे जगत् के लोग क्या कहते हैं कि यह धर्मिष्ठ है। अब उस आदमी के भीतर क्या विचार होते हैं कि कैसे इकट्ठा करूँ और कैसे भोग लँ! भीतर में तो उसे बिना हक़ की लक्ष्मी हड़प लेने की इच्छा बहुत होती है। बिना हक़ के विषय भोग लेने को ही तैयार होता है।
इसलिए भगवान उसका एक पैसा भी जमा करते नहीं। इसका क्या कारण? कारण यह कि वे सब स्थूल कर्म हैं और उन स्थूल कर्मों का फल यहीं का यहीं मिल जाता है। लोग इन स्थूल कर्मों को ही अगले भव के कर्म मानते हैं। पर उसका फल तो यहीं का यहीं मिल जाता है। और सूक्ष्म कर्म कि जो अंदर बंध रहा है, जिसका लोगों को पता ही नहीं है। उसका फल अगले भव में मिलता है।
आज किसी आदमी ने चोरी की, वह चोरी स्थूल कर्म है। उसका फल इस भव में ही मिल जाता है। जैसे कि उसे अपयश मिलता है। पुलिसवाला मारे, वह सब फल उसे यहीं का यहीं मिल ही जानेवाला
दादाश्री : हमें लक्ष्मी धर्म के रास्ते खर्च करनी है, ऐसा चार्ज किया हो तो अधिक मिलेगी।
प्रश्नकर्ता : पर ऐसे, मन से भाव किया करे कि मुझे लक्ष्मी मिले, तो अगले भव में, ऐसे भाव किए, वह 'चार्ज' किया तो उसे कुदरत लक्ष्मी नहीं देगी?
दादाश्री : नहीं, नहीं, उससे लक्ष्मी नहीं मिलती। यह लक्ष्मी मिलने के जो भाव करते हैं न, उससे लक्ष्मी मिल रही हो तो भी नहीं मिलेगी। उलटे अंतराय पड़ेगा। लक्ष्मी याद करने से नहीं मिलती, वह तो पुण्य करने से मिलती है।
__'चार्ज' यानी पुण्य का चार्ज करे, तो लक्ष्मी मिलती है। वह भी अकेली लक्ष्मी नहीं मिलती। पुण्य के चार्ज में जिसकी इच्छा हो कि मुझे लक्ष्मी की बहुत ज़रूरत है, तो उसे लक्ष्मी मिलेगी। कोई कहे, मैं तो केवल धर्म ही चाहता हूँ, तो धर्म अकेला प्राप्त होगा और पैसे नहीं भी हों। अर्थात् उस पुण्य का फिर हमने टेन्डर भरा होता है कि ऐसा मझे चाहिए। वह मिलने में पुण्य खर्च होता है। कोई कहेगा, 'मुझे बंगले चाहिए, मोटरें चाहिए, यह चाहिए, वह चाहिए।' तब पुण्य उसमें खर्च हो जाएगा। धर्म में कुछ नहीं रहेगा। और कोई कहेगा, 'मुझे धर्म ही चाहिए, मोटरें नहीं चाहिए, मुझे तो इतने दो रुम होंगे तो भी चलेगा, पर धर्म ही अधिक चाहिए।' तब उसे धर्म अधिक होता है। और दूसरा सब कम होता है। इसलिए वह पुण्य का खुद के हिसाब से फिर टेन्डर भरता है।
ऐसी नीयत? वहाँ दान फ़िजूल
लक्ष्मी के लिए चार्जिंग । प्रश्नकर्ता : सभी लोग लक्ष्मी के पीछे बहुत दौड़ते हैं। इसलिए उसका चार्ज अधिक होगा न? तो उसे अगले भव में लक्ष्मी अधिक मिलनी चाहिए न?
तब यह वीतराग विज्ञान आपको कितना मुक्त करे ऐसा सुंदर है। सोचने पर नहीं लगता? कितना संदर है! यदि समझे तो. 'ज्ञानी परुष' के पास से समझ ले और बुद्धि अपनी सम्यक करवा ले तो काम चले ऐसा है। व्यवहार में लोग भी मेरे पास बुद्धि अपनी सम्यक् करवा लें, भले ही ज्ञान
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उतना उसका बदला यहीं का यहीं मिल गया।
अर्थात् देकर उसका बदला यहीं का यहीं ही ले लिया। और जिसने गुप्त रखा, उसने बदला लेने का अगले भव पर छोड़ा। बदला मिले बगैर तो रहता ही नहीं। आप लो या न लो पर बदला तो उसका होता ही है।
नहीं लिया हो, फिर भी मेरे साथ थोड़ा समय बैठे तो बुद्धि सम्यक् हो जाती है। जिससे उसका काम आगे चलता है ! यह ज्ञान नहीं हो तब क्या दशा होगी? ऐसा यदि मनुष्य समझे तो काम का!
प्रश्नकर्ता : ज्ञान लिए बगैर तो इसका पार ही नहीं आए ऐसा है।
दादाश्री : पार ही नहीं आए ऐसा है। वह तो बात ही करने जैसी नहीं है। वह पचास हजार रुपये का दान देता हो, फिर भी आपको वापिस क्या कहता है? 'इस सेठ का दबाव है इसलिए देता हूँ, नहीं तो दूं नहीं।' खुद अकेला जाने उतना ही नहीं, पर आपको भी बताता है। फिर दूसरों को बताता है कि मैं तो ऐसा पक्का हूँ। यह देखते हो न? यह सब बाहर तो? फ़िजूल में धूलधानी हो गए। इसलिए इस सत्संग में पड़े रहे, उनका काम हो गया न! सारी दुनिया का झंझट गया न!
दान भी गुप्त रूप से प्रश्नकर्ता : आत्मार्थी के लिए तो कीर्ति अवस्तु है न?
दादाश्री : कीर्ति तो बहुत नुकसानदायक वस्तु है। आत्मा के रास्ते पर कीर्ति तो उसकी बहुत फैलती है, पर उस कीर्ति में उसे कोई इन्टरेस्ट नहीं होता। कीर्ति तो फैलेगी ही न! चमकीला हीरा हो तो देखकर हर कोई कहे न कि 'कितनी अच्छी लाईट आती है, किरणें कैसी निकलती हैं?' लोग कहते जरूर हैं, पर उसे खुद को उसमें मज़ा नहीं आता। जबकि यह संसारी संबंध की कीर्ति है, उस कीर्ति के ही भिखारी हैं। कीर्ति की भीख है उसे इसलिए लाख रुपये हाईस्कूल में देते हैं, अस्पताल में देते हैं, पर कीर्ति उसे मिल जाए तो बहुत हो गया!
फिर वे भी व्यवहार में कहते हैं कि दान गुप्त रखना। अब गुप्त रूप से कोई ही देगा। बाकी सबको कीर्ति की भूख है, इसलिए देते हैं। तब लोग भी बखान करते हैं कि भई! यह सेठ, क्या कहने, लाख रुपये का दान दिया !
अपनी-अपनी इच्छानुसार दान देना होता है। यह तो सब ठीक है, व्यवहार है। कोई दबाव करे कि आपको देने ही पडेंगे। फिर फलहार पहनाएँ, इसलिए देते हैं वे।
दान गुप्त होना चाहिए। जैसे ये मारवाड़ी लोग भगवान के पास चुपचाप डाल आते हैं न! किसी को मालूम नहीं चले तो वह उगेगा!
वह व्यवहार अच्छा कहलाता है प्रश्नकर्ता : हीराबा के बारे में आपने यह पीछे (उनके देहान्त के बाद) खर्च किया, वह व्यवहार में कैसा कहलाता है?
दादाश्री : इस संसार व्यवहार में अच्छा कहलाता है वह। प्रश्नकर्ता : हमें रहना संसार व्यवहार में ही है।
दादाश्री : इस संसार व्यवहार में सही, पर उसमें अच्छा दिखता है यह। और वह अच्छा दिखे इसलिए मैंने नहीं किया। वह तो हीराबा की इच्छा थी इसलिए मैंने किया। यह मुझे अच्छे-गलत की पड़ी नहीं होती, फिर भी गलत नहीं दिखे ऐसे रहते हैं।
प्रश्नकर्ता : वह तो आपकी बात हुई पर हमारे लिए क्या?
दादाश्री : आपको थोड़ा बरतना पड़ता है, बहुत खींचने की ज़रूरत नहीं, साधारण व्यवहार करना होगा।
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वाह-वाह में पुण्य खर्च हो जाता है प्रश्नकर्ता : यह आप कहते हैं वैसा नियम हो, तब तो हीराबा के लिए खर्च किया इसलिए आपको पुण्य मिलेगा?
दादाश्री : मुझे क्या मिलेगा? हमें लेना-देना नहीं है। मुझे तो कुछ लेना-देना ही नहीं न! इसमें पुण्य बँधेगा नहीं, यह तो पुण्य खर्च हो जाता है। वाह-वाह हो जाती है।
अथवा कोई खराब कर जाए तो, 'मुए ने देखो न बिगाड़ दिया सब' कहेंगे। अर्थात यहीं का यहीं हिसाब हो जाता है। हाईस्कूल बनवाया था, तो यहीं का यहीं ही वाह-वाह हो गई। वहाँ मिले नहीं।
प्रश्नकर्ता : स्कूल तो बच्चों के लिए बनवाया। वे लोग पढ़े-लिखे, सद्विचार उत्पन्न हुए।
बनावट करके लोगों को उलटे रास्ते चढ़ाते हैं, उसके निमित्त से ! उसे खाना नहीं हो और हम खाएँ तो क्या गलत है? सारा नियम सहित है संसार पूरा?
वहाँ खिलें आत्मशक्तियाँ बाकी, साथ में वह आनेवाला है? यह साथ आता नहीं। यहीं तुरन्त उसकी क़ीमत मिल जाती है, वाह-वाह तुरन्त मिल जाती है। और आत्मा के लिए जो रखा हो, वह साथ आता है।
प्रश्नकर्ता : साथ क्या आनेवाला, कहा!
दादाश्री : साथ में तो हम वह देते हैं, वहाँ आत्मा के लिए, उससे आत्मा की शक्ति एकदम खिल जाती है। वह हमारे साथ आया।
प्रश्नकर्ता : और यहाँ तो जो खर्च किया, वह तो वाह-वाह करते हैं वही मिलता है न?
दादाश्री : मिल गया। वाह-वाह मिल गई।
दादाश्री : वह अलग बात है। पर आपकी वाह-वाह हुई, तो हो गया, खर्च हो गया।
किसी के निमित्त से किसी को मिलता है?
'वाह-वाह' का भोजन
प्रश्नकर्ता : वाह-वाह तो जिसके लिए खर्च किया, उसे जाएगी न कि आपको। आप जिसके लिए जो कार्य करते हो, उसका फल उसे मिलता है। जिसके लिए हम जो पुण्य करते हैं वह उसे मिलता है। हमें नहीं मिलता।
दादाश्री : हम करें और उसे मिले? ऐसा सुना है, किसी दिन? प्रश्नकर्ता : उसके निमित्त से हम करते हैं न?
दादाश्री : उसके निमित्त से हम करते हैं? उसके निमित्त से हम खाते हों तो क्या हर्ज? ना, ना, वह सब इसमें अंतर नहीं है। यह तो सारी
प्रश्नकर्ता : मैं जो दान करता हूँ उसमें मेरा भाव धर्म के लिए, अच्छे काम के लिए होता है। उसमें लोग वाह-वाह करें तो वह सारा उड़ नहीं जाएगा?
दादाश्री : इसमें बड़ी रकम खर्च हुई, वह जाहिर हो जाती है और उसकी वाह-वाह होती है। और ऐसी रकम भी दान में जाती है कि जो कोई जानता नहीं और वाह-वाह करता नहीं। इसलिए उसका लाभ रहेगा! हमें उस माथापच्ची में पड़ने जैसा नहीं है। हमारे मन में ऐसा भाव नहीं है कि लोग 'परोसें'! इतना ही भाव होना चाहिए। जगत् तो महावीर की भी वाहवाह करता था ! पर उसे वे खुद स्वीकारते नहीं थे न! इन दादा की भी लोग
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वाह-वाह करते थे! पर उसे वे 'खुद' स्वीकार करते नहीं न! और ये भूखे लोग तो तुरन्त स्वीकार लेते हैं। दान का पता चले बिना रहता नहीं न! लोग तो वाह-वाह किए बगैर रहेंगे नहीं, पर खुद उसे स्वीकार नहीं करे तो फिर क्या हर्ज है? स्वीकार करे तो रोग पैठे न? जो वाह-वाह स्वीकारता नहीं उसे कुछ भी होता नहीं। वाह-वाह खुद स्वीकारता नहीं है। इसलिए उसे कोई नुकसान नहीं होता और बखान करता है, उसे पुण्य बंधता है। सत्कार्य की अनुमोदना का पुण्य बंधता है। अर्थात् ऐसा सब अंदरूनी तौर पर है। ये तो सब कुदरत के नियम हैं।
जो बखान करे उसे वह कल्याणकारी होता है। फिर जो सने उसके मन में अच्छे भाव के बीज पड़ते हैं कि 'यह भी करने योग्य है। हम तो ऐसा जानते ही नहीं थे!'
प्रश्नकर्ता : हम अच्छा कार्य तन, मन और धन से कर रहे होते हैं, पर कोई हमारा बुरा ही बोले, अपमान करे तो उसका क्या करें?
दादाश्री : हाँ, पर मैं क्या कहना चाहता हूँ कि यह स्वभाव, प्रकृति जाती नहीं न! तब फिर मैंने पता लगाया। वैसे लोग मुझे कहते थे कि 'बहुत नोबल हो आप!' मैंने कहा, 'यह कैसे नोबल?' यहाँ पर कंजूसी करते हैं। फिर ढूँढा तो मुझे पता चला कि मेरी वाह-वाह करे, वहाँ लाख रुपये खर्च डालता था, नहीं तो रुपया भी नहीं देता था। वह स्वभाव बिलकुल कंजूस नहीं था, पर वाह-वाह न करे, वहाँ धर्म हो या चाहे जो हो, पर वहाँ दे नहीं पाता था। और वाह-वाह किया कि सब कमाई लुटा देता था। उधार करके भी। अब वाह-वाह कितने दिन? तीन दिन । फिर कुछ भी नहीं। तीन दिन तक चिल्लाएँ ज़रा, फिर बंद हो जाता है।।
देखो न, मुझे याद आता है। सौ देने के, वहाँ पचहत्तर वापस लूँ। मुझे आज भी दिखता है, अब भी। वह ऑफिस दिखाई देता है। पर मैंने कहा, 'ऐसा ढंग!' ये लोगों के कितने बड़े मन होते हैं ! मैं अपने ढंग को समझ गया था। ढंग सारे। यों बड़ा मन भी था। पर वाह-वाह, गुदगुदी करनेवाला चाहिए। गुदगुदी की कि चल पड़ा।
प्रश्नकर्ता : दादाजी, वह जीव का स्वभाव है? दादाश्री : हाँ, वह प्रकृति, सारी प्रकृति है।
और ये पक्के, वे (बनिए) बैठे हैं न, वे पक्के । वे वाह-वाह से ठगे नहीं जाते। वे तो सोचें कि आगे जमा होता है या यहीं का यहीं रहता है? वह वाह-वाहवाला तो यहीं भुना लिया, उसका फल तो ले लिया मैंने, चख लिया मैंने। और ये तो वाह-वाह नहीं खोजते, वहाँ फल खोजते हैं वे।
ओवरड्राफ्ट, बड़े पक्के, विचारशील लोग न! हमारे एक से ज्यादा विचारशील। हम क्षत्रिय लोगों का तो एक वार और दो टुकड़े। सारे तीर्थंकर क्षत्रिय ही थे। साधु खुद कहते हैं, 'हम तीर्थंकर नहीं हो सकते। क्योंकि हम साध हो जाएँ तो अधिक त्याग करके भी एकाध गिन्नी रहने देते हैं अंदर ! किसी दिन अड़चन पड़े तो?' वह उनकी मूल ग्रंथि और आप तुरंत देते हो। प्रोमिस टु
दादाश्री : जो अपमान कर रहा है, वह भयंकर पाप बाँध रहा है। अब इसमें हमारा कर्म धुल जाता है और अपमान करनेवाला तो निमित्त बना।
वाह-वाह की प्रीति
अरे, मैं तो अपना स्वभाव नाप लेता था! मैं अगास जाता था। उस समय कॉन्ट्रेक्ट का व्यवसाय था। अब सौ रुपये की कछ कमी नहीं थी. उन दिनों पैसों की क़ीमत बहुत थी। पैसों की कमी नहीं थी, फिर भी मैं अगास जाऊँ, तब वहाँ रुपये लिखवा देता। तब सौ रुपये का नोट निकालकर कहता कि 'लो, पच्चीस ले लो और पचहत्तर वापस दो।' अब पचहत्तर वापस नहीं लिए होते तो चलता। पर मन कंजूस और भिखारी, इसलिए पचहत्तर वापस लेता था।
प्रश्नकर्ता : दादाजी, आप तब भी कितना सूक्ष्म देखते थे?
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दीवारें तख्तीवाली करी हों, तो क्या हो? फिर भी लोग कहते हैं कि मेरी तख्ती लगवाना! लोगों को तख्तियाँ ही पसंद हैं न!
लक्ष्मी दी और तख्ती ली प्रश्नकर्ता : कितने ही लोग समझे बिना ही देते हैं तो अर्थ ही नहीं उसका?
दादाश्री : नहीं, समझे बिना नहीं देते। वे तो बहुत पक्के, वे तो खुद के हित का ही करते हैं।
पे यानी सब प्रोमिस ही! दूसरा आता ही नहीं न! समझ नहीं अंदर। 'थिंकर' (विचारक) ही नहीं। पर छुटकारा जल्दी उन्हें मिलता है।
प्रश्नकर्ता : छुटकारा जल्दी मिलता है !
दादाश्री : हाँ, वे लोग मोक्ष में जाते हैं। केवलज्ञान होता है। पर तीर्थंकर तो ये क्षत्रिय ही होते हैं। वे लोग सभी कबूल करते हैं मेरे पास, हम क्षत्रिय कहलाते हैं। हमें ऐसा नहीं आता है। बहुत गहन है यह। और ये तो विचारशील प्रजा! सभी सोच-विचारकर, प्रत्येक चीज़ में विचारकर काम करते हैं। और हमें (क्षत्रियों को) पछतावे का पार नहीं। उन्हें पछतावा कम आता है।
....पर तख्ती में नष्ट हो गया! कोई धर्म में लाख रुपये दान देता है और तख़ली लगवाता है और कोई मनुष्य एक रुपया ही धर्म में दे, पर गुप्त रूप से दे, तो ये गुप्त रूप से दिया उसकी बहुत क़ीमत है, फिर भले ही उसने एक ही रुपया क्यों न दिया हो।
और यह तख्ती लगवाई वह तो 'बेलेन्स शीट' परी हो गई। सौ का नोट आपने मुझे दिया और मैंने आपको छुट्टा दिया। उसमें मुझे लेने का नहीं रहा और आपको देने का नहीं रहा! आपने धर्म में दान देकर खुद की तख़्ती लगवाई, इसलिए फिर लेना-देना कुछ रहा नहीं न! क्योंकि जो धर्म में दान दिया उसका बदला उसमें तख्ती लगवाकर ले लिया। और जिसने एक ही रुपया प्राईवेट में दिया होगा, उसका लेन-देन हुआ नहीं, इसलिए उसका बेलेन्स बाकी रहा।
हम मंदिरों में और सब जगह घूमे हैं। वहाँ कुछ जगहों पर पूरी दीवारें तख्तियों और तख्तियों से भरी होती हैं ! उन तख्तियों का वेल्युशन (क़ीमत) कितना? अर्थात् कीर्ति हेतु के लिए! और जहाँ कीर्ति हेतु ढेरों हो, वहाँ मनुष्य देखता भी नहीं है, कि इसमें क्या पढना? सारे मंदिर में एक ही तख्ती हो तो पढ़ने के लिए फुरसत होगी, पर यह तो ढेरों, सारी की सारी
प्रश्नकर्ता : धर्म का समझे बिना, नाम के लिए देते हैं। तख्ती लगवाने के लिए देते हैं।
दादाश्री : वह नाम तो, अभी यह नाम का हो गया ! पहले तो नाम का नहीं था। यह तो अभी बेचने लगे हैं नाम भी, इस कलयुग के कारण। बाकी पहले नाम-वाम था ही नहीं। वे देते ही रहते थे निरंतर। इसलिए भगवान उन्हें क्या कहते थे? श्रेष्ठी कहते थे और अभी वे सेठ कहलाते हैं।
शुभ भाव करे जाओ
प्रश्नकर्ता : एक तरफ अंदर भाव होता है कि मुझे दान में सबकुछ दे देना है, पर रुपक में वह भी नहीं होता है।
दादाश्री : वह दिया जाता नहीं न! देना कोई आसान है? दान करना तो कठिन वस्तु है ! फिर भी भाव करना चाहिए। धन अच्छे रास्ते देना, वह हमारी सत्ता की बात नहीं है। भाव कर सकते हैं, पर दे नहीं सकते और भाव का फल अगले जन्म में मिलता है। दान तो ये लटू (मनुष्य) किस प्रकार दें? और अगर देते हैं, वह 'व्यवस्थित' दिलवाता है, इसलिए देते हैं। 'व्यवस्थित' करवाता है, इसलिए मनुष्य दान देता है। और 'व्यवस्थित' नहीं करवाता, इसलिए मनुष्य दान नहीं देता। वीतराग' को दान लेने का या देने
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का मोह नहीं होता। वे तो 'शुद्ध उपयोगी' होते हैं!
दान देते समय 'मैं दान देता हूँ' ऐसा भाव होता है। उस समय पुण्य के परमाणु खिंचते हैं और बुरा काम करते समय पाप के परमाणु खिंचते हैं। वे फिर फल देते समय शाता फल देते हैं अथवा अशाता फल देते हैं। जब तक अज्ञानी हों, तब तक फल भुगतते हैं, सुख-दुःख भुगतते हैं। जब कि ज्ञानी उसे भोगते नहीं, 'जाना' करते हैं।
लक्ष्मी का सदुपयोग किस में? प्रश्नकर्ता : पर मानो कि किसी के पुण्य कर्म से उसके पास लाखों रुपये हो जाएँ, तो उसे गरीबों में बाँट देना या फिर खुद ही उपयोग करना?
दादाश्री : नहीं, वे पैसे घर के लोगों को दु:ख नहीं हो, उस तरह खर्च करने चाहिए। घर के लोगों से पूछना कि 'भैया, तुम्हें अड़चन नहीं है न?' तब वे कहें, 'नहीं, नहीं है।' तो वह लिमिट उसकी, पैसे खर्च करने की। इसलिए फिर हमें उसके अनुसार करना चाहिए।
प्रश्नकर्ता : सन्मार्ग पर तो खर्च करना है न?
दादाश्री : फिर, बाकी सारे सन्मार्ग पर ही खर्च करने चाहिए। घर में खर्च होंगे, वे सारे गटर में ही जाएँगे। और अन्यत्र जो खर्च होंगे, वे आपके खुद के लिए ही सेफसाईड हो गई। हाँ, यहाँ से साथ में ले जाए नहीं जाते, पर दूसरे रास्ते सेफसाईड की जा सकती है।
प्रश्नकर्ता : पर वैसे तो वह साथ में ही ले गए, जैसा कहलाता है न?
दादाश्री : हाँ, साथ में ले जाने जैसा ही, अपनी सेफसाईडवाला। यानी किसी भी राह दूसरों को कुछ भी सुख मिले, उसके लिए खर्च करने चाहिए। वह सब आपकी सेफसाईड है।
प्रश्नकर्ता : लक्ष्मी का सदुपयोग किसे कहते हैं?
दादाश्री : लोगों के उपयोग के लिए या भगवान के लिए खर्ची, वह सदुपयोग कहलाता है।
हमारी भी भावना सदा रही मेरे पास लक्ष्मी होती तो मैं लक्ष्मी भी देता. पर ऐसी कछ लक्ष्मी मेरे पास अभी आई नहीं और आए तो अभी भी देने के लिए तैयार हूँ। क्या मुझे कुछ साथ ले जाना है सब? पर कुछ दो सभी को! फिर भी जगत् को लक्ष्मी देने के बजाय, किस प्रकार इस संसार में सभी सुखी हों, जीवन कैसे जीया जाए, ऐसा मार्ग दिखलाओ। लक्ष्मी तो दस हज़ार दें न तो दूसरे दिन वह नौकरी बंद कर देगा, इसलिए नहीं देते लक्ष्मी। इस प्रकार लक्ष्मी देना गुनाह है। मनुष्य को आलसी बना देता है। इसलिए बाप को बेटे के लिए लक्ष्मी अधिक नहीं देनी चाहिए, वर्ना बेटा शराबी हो जाएगा। मनुष्य को चैन मिला कि बस, दूसरे उलटे रास्ते लग जाता है।
बच्चों को देना या दान करना? प्रश्नकर्ता : पुण्य के उदय से ज़रूरत से ज्यादा लक्ष्मी की प्राप्ति हो तो?
दादाश्री : तो खर्च कर देनी चाहिए। संतानों के लिए अधिक रखनी नहीं चाहिए। उन्हें पढ़ाना-लिखाना, सब कम्प्लीट करके, उन्हें सर्विस पर लगा दिया, तो फिर वे काम पर लग गए। इसलिए बहुत रखनी नहीं चाहिए। थोड़ा बैन्क में, किसी जगह पर रख छोड़ना, दस-बीस हजार, तो कभी मुश्किल में पड़ा हो तो उसे दे देना। उसे बताना नहीं कि, भाई मैंने रख छोड़े हैं। हाँ, नहीं तो मुश्किल में नहीं आते हों तो भी खड़ी कर देंगे।
एक व्यक्ति ने मुझसे प्रश्न किया कि 'बच्चों को कुछ नहीं देना चाहिए?' मैंने कहा, 'संतानों को देना चाहिए। हमारे बाप ने हमें जो दिया हो वह सभी देना चाहिए। बीच का जो माल है, वह अपना। उसे हम चाहे
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जहाँ धर्म के लिए दान में खर्च कर दें।'
प्रश्नकर्ता : हमारे वकीलों के कानून में भी ऐसा है कि पैतृक संपत्ति है, उसे संतानों को देनी ही पड़ेगी और स्वोपार्जित है, उसका बाप को जो करना हो वो करे।
दादाश्री : हाँ, जो करना हो वो करे। अपने हाथों ही कर लेना चाहिए! अपना मार्ग क्या कहता है कि तेरा खुद का माल हो, वह माल तू अलग करके खर्च कर, तो वह तेरे साथ आएगा। क्योंकि यह ज्ञान लेने के बाद अभी एक-दो अवतार बाकी रहे हैं, इसलिए साथ में चाहिए न? यात्रा में, दूसरे गाँव में जाते हैं तो थोड़े पराठे ले जाते हैं, तो यह नहीं चाहिए सब?
प्रश्नकर्ता : अधिक तो कब कहलाता है? ट्रस्टी की तरह रहें तो?
दादाश्री : ट्रस्टी की तरह रहना उत्तम है। पर ऐसे नहीं रहा जा सकता। सभी से नहीं रहा जा सकता। वह भी संपूर्ण ट्रस्टी की तरह नहीं रह सकते। ट्रस्टी अर्थात् तो ज्ञाता-दृष्टा हुआ। पर ट्रस्टी की तरह संपूर्ण नहीं रहा जाता। पर भाव ऐसा हो न तो थोड़ा-बहुत रह सकते हैं।
और बच्चों को तो कितना देना होता है? हमारे फादर ने दिया हो उतना, कुछ नहीं दिया हो तो भी हमें कुछ न कुछ देना चाहिए।
बेटे शराबी बनते हैं, बहुत वैभव हो तो? प्रश्नकर्ता : हाँ बनते हैं। बेटे शराबी न बनें उतना तो देना चाहिए? दादाश्री : उतना ही देना चाहिए। प्रश्नकर्ता : अधिक वैभव दें तो वैसा हो जाता है।
दादाश्री : हाँ, वह हमेशा उसका मोक्ष बिगाड़ेगा। हमेशा तरीके से ही अच्छा ! बच्चों को अधिक देना वह गुनाह है। यह तो फ़ॉरेनवाले सभी समझते हैं ! कितने समझदार हैं ! इन्हें तो सात पीढ़ियों तक का लोभ ! मेरी
सातवीं पीढ़ी के मेरे बच्चे के वहाँ ऐसा हो। कितने लोभी हैं ये लोग? बेटे को हमें कमाता-धमाता कर देना चाहिए, वह हमारा फ़र्ज और बेटियों को हमें ब्याह देना चाहिए। बेटियों को कुछ देना चाहिए। आजकल बेटियों को हिस्सा दिलवाते हैं न हिस्सेदार की तरह? ब्याहने में खर्च होता है न? फिर ऊपर से थोड़ा बहुत दें। उसे गहने दिए, वह देते ही हैं न! पर खद का तो खुद ही खर्च करना चाहिए।
प्रश्नकर्ता : बच्चों को पारिवारिक व्यवसाय सौंपना और कर्ज देना चाहिए न?
दादाश्री : हमारे पास मिलियन डॉलर हों या आधा मिलियन डॉलर हों, फिर भी बेटा जिस मकान में रहता हो, वह बेटे को देना। उसके बाद एक काम शुरू करके देना, उसे पसंद हो वह । कौन-सा काम उसे पसंद है, वह पूछकर जो काम उसे ठीक लगे, वह करवा देना और पच्चीस-तीस हज़ार बैन्क से ले देना, लोन पर। तो भरता रहेगा अपने आप। और थोड़ेबहुत अपने को दे देने चाहिए। उसे चाहिए उसमें से आधी रकम हमें देनी
और आधी बैन्क से ताकि लोन भरता रहे। यानी धक्का लगानेवाला चाहिए उसे। जिससे शराब नहीं पीए। फिर बेटा कहे कि 'इस वर्ष मुझसे लॉन भरा नहीं जाएगा।' तब कहें कि मैं ला देता हूँ तुझे पाँच हजार, पर लौटा देने हैं जल्दी। यानी पाँच हजार ला देने के। फिर हम उन पाँच हजार की याद दिलाएँ, 'वे जल्दी दे देने हैं, ऐसा कहा है। ऐसे याद दिलाएँ तो बेटा कहे, 'आप किच-किच मत करना अभी।' इसलिए हमें समझ जाना चाहिए। 'बहुत अच्छा है वह।' इसलिए फिर से लेने ही नहीं आएगा न! हमें हर्ज नहीं है, 'किच-किच करते हो' ऐसा कहे उसका, पर लेने आएगा नहीं न!
अर्थात् हमारी सेफसाईड हमें रखनी है और फिर गलत नहीं दिखते, बेटे के सामने । बेटा कहेगा, 'पिताजी तो अच्छे हैं, पर मेरा स्वभाव टेढ़ा है। मैंने उलटा कहा इसलिए। बाकी पिताजी तो बहुत अच्छे हैं।' मतलब भाग निकलना है, इस संसार में से।
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आदर्श विल
गटर में...
बेटी को अमुक प्रमाण में देना। बेटे को देना, पर अमुक प्रमाण में। बाकी आधी पूँजी तो अपने पास ही रहने देनी । अर्थात् प्राईवेट ! जाहिर नहीं करी हो वैसी। दूसरा सब जाहिर करना और कहना कि हम दो जनों को जीवित रहने तक चाहिए न?
अर्थात् हमें तरीके से समझदारी के साथ काम करना है।
प्रश्नकर्ता : पर मनुष्य मर जाए, उसके बाद का विल कैसा होना चाहिए?
दादाश्री: ना, मरने के बाद तो जो है न हमारे पास. ढाई लाख रुपये बचे हैं, वे तो अपनी हाजरी में ही, मरने तक रहने ही नहीं देने। हो सके तो
ओवरड्राफ्ट निकलवा लेना। अस्पताल के, ज्ञानदान के, सभी ओवरड्राफ्ट निकलवा लेना और फिर बचे वह बच्चों को देना। वह बचाना भी सही थोड़ा। वह लालच उनकी है न, उस लालच के लिए पचास हजार रखना। फिर दूसरे दो लाख का ओवरड्राफ्ट निकलवा लेना, अगले भव हम क्या करेंगे? यह सभी पिछले अवतार के ओवरड्राफ्ट अभी खर्च करते हो, तो इस अवतार में ओवरड्राफ्ट नहीं निकलवाना पडेगा? हाँ, किसी को हमने दिए नहीं ये। यह लोगों के हित के लिए, लोक कल्याण के लिए खर्च किए, वह है तो ओवरड्राफ्ट कहलाता है। बेटों को देकर तो पछताए हैं। ऐसे पछताए थे न वास्तव में! बेटे का हित कैसे करना, यह हमें समझना चाहिए। इसलिए मेरे पास आकर बातचीत कर लेनी चाहिए।
इसलिए मैं कहता हूँ कि धूल में जाए, उसके बजाय किसी अच्छे रास्ते जाए, ऐसा कुछ करो। साथ में काम आएगा और वहाँ तो जाते समय चार नारियल बँधवाएँगे न ! और उसमें भी बेटा क्या कहेगा, 'जरा सस्तेवाले पानी बिना के देना न!' आपके पास यदि ज्यादा हों, तो अच्छे रास्ते पैसे खर्च करना, लोगों के सुख के लिए खर्च करना। उतने ही आपके, बाकी
यह तो ऐसा सब नहीं बोलना चाहिए, फिर भी कहते हैं हम!
और ऐसे हिसाब चुक जाते हैं प्रश्नकर्ता : एक मनुष्य को हमने पाँचसौ रुपये दिए और रुपये वह लौटा नहीं सका। और दूसरा, हमने पाँच सौ रुपयों का दान दिया। इन दोनों में क्या अंतर है?
दादाश्री : यह दान दिया वह अलग वस्तु है। उसमें जो दान लेता है, वह कर्जदार नहीं होता। आपके दान का बदला आपको दूसरी तरह से मिलता है। दान लेनेवाला मनुष्य, वह बदला नहीं देता है। जब कि उसमें तो आप जिसके पास पैसे माँगते हो, उसके द्वारा ही आपको दिलवाना पड़ता है। फिर आख़िर दहेज के रूप में भी वह रुपये देगा। हमारे में नहीं कहते कि लड़का है गरीब परिवार का, पर परिवार खानदानी है, इसलिए पचास हजार उसे दहेज में दो! यह काहे का दहेज देते हैं? यह तो जो बकाया है, वही चुकाते हैं। अर्थात् ऐसा हिसाब है सारा । एक तो बेटी देते हैं और रुपये भी देते हैं। इसलिए, ऐसे सारा हिसाब चुक जाता है।
विश्वसनीय कहनेवाला कोई पाँच हजार डॉलर आपके हाथ से छीन ले जाए तो क्या करोगे? प्रश्नकर्ता : ऐसे कई छिन गए हैं। सारी मिल्कियतें भी चली गई हैं। दादाश्री : तो क्या करते हो? मन में कुछ होता नहीं है? प्रश्नकर्ता : कुछ नहीं।
दादाश्री : उतना अच्छा, तब तो समझदार हो। छिन जाने के लिए ही आता है। यहाँ नहीं पैठेगा तो वहाँ पैठ जाएगा। इसलिए अच्छी जगह पैठा
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देना। वर्ना अन्य जगह तो पैठ ही जानेवाला है। धन का स्वभाव ही ऐसा है, इसलिए अच्छे रास्ते नहीं गया तो उलटे रास्ते जाएगा। अच्छे रास्ते कम गया और उलटे रास्ते ज्यादा गया।
प्रश्नकर्ता : अच्छा रास्ता बताइए। मालूम किस तरह चले कि रास्ता अच्छा है या खराब?
दादाश्री : अच्छा रास्ता तो वैसे... हम एक पैसा लेते नहीं हैं। मैं अपने घर के कपड़े पहनता हूँ। इस देह का मैं मालिक नहीं ! छब्बीस वर्ष से इस देह का मैं मालिक नहीं। इस वाणी का मैं मालिक नहीं। अब आपको जब कुछ विश्वास आया, मुझ पर थोड़ा विश्वास बैठा, इसलिए मैं आपको कहता हूँ कि भई, अमुक जगह आप पैसा डालो तो अच्छे रास्ते खर्च होंगे। आपको मुझ पर थोड़ा विश्वास आया इसलिए मैं आपसे कहूँ तो हर्ज है?
प्रश्नकर्ता : ना।
कि 'मैं फिर से दूँ दादाजी?' तो मैं कहूँ, ना, भई ! तू तेरा धंधा किए जा। अब एक बार दिया उसने! यहाँ फिर से देने की ज़रूरत नहीं। हो तो शक्ति अनुसार डालो! वज़न दस रतल उठा सकते हो तो आठ रतल उठाओ, अट्ठारह रतल मत उठाओ। दुःखी होने के लिए नहीं करना है। पर सरप्लस धन उलटे रास्ते न जाए, इसलिए यह रास्ता दिखाते हैं। ये नहीं तो, लोभ में
और लोभ में ही चित्त रहा करेगा, भटकता रहेगा! इसलिए ज्ञानी पुरुष दिखाते हैं कि अमुक जगह डालना।
धन डालो सीमंधर स्वामी के मंदिर में अधिक धन हो तो सीमंधर स्वामी के मंदिर में देने जैसा है, दूसरा एक भी स्थान नहीं है। और कम धन हो तो महात्माओं को भोजन कराने के जैसा दूसरा कुछ भी नहीं! और उससे भी कम धन हो तो किसी दःखी को देना। और वह भी नक़द नहीं, खाना-पीना आदि पहुँचाकर! कम धन में भी दान करना हो तो पुसाएगा या नहीं पुसाएगा?
पहचानो सीमंधर स्वामी को अपने यहाँ पर आपने सीमंधर स्वामी का नाम तो सुना है न? वे वर्तमान तीर्थकर हैं, महाविदेह क्षेत्र में! उनकी उपस्थिति है आज।
सीमंधर स्वामी की उम्र कितनी? साठ-सत्तर साल की होगी? पौने दो लाख साल की उम्र है ! अभी सवा लाख वर्ष जीनेवाले हैं! यह उनके साथ तार, संबंध जोड़ देता हूँ। क्योंकि वहाँ जाना है। अभी एक अवतार शेष रहेगा। यहाँ से सीधा मोक्ष होनेवाला नहीं है। अभी एक अवतार शेष रहेगा। उनके पास बैठना है, इसलिए संबंध जोड़ देता हूँ।
और ये भगवान सारे वर्ल्ड का कल्याण करेंगे। सारे वर्ल्ड का कल्याण होगा! सारे वर्ल्ड का कल्याण होगा निमित्त से। क्योंकि वे जीवित हैं। गए हुए हों न, वे कुछ कर नहीं सकते। केवल पुण्य बंधता है।
दादाश्री : वही अच्छा रास्ता है। दूसरा कौन-सा? कहनेवाला विश्वसनीय होना चाहिए। विश्वसनीय! जिसका कमिशन नहीं हो, जरा-सा भी! एक पाई भी उसमें कमिशन नहीं हो, तब वह विश्वसनीय कहलाता है! ऐसा हमें दिखानेवाले मिले नहीं हैं। हमें तो जिसमें और तिसमें कमीशन... (जाए ऐसा दिखानेवाले मिले!)
प्रश्नकर्ता : दादाजी, हमें रास्ता बताते रहना।
दादाश्री : जहाँ कुछ भी कमीशन है, वहाँ गलत रास्ते पर पैसा जाता है। अब तक तो इस संघ के चार आने भी खर्च नहीं हुए हैं, किसी कारकून या उसके नाम पर। सभी अपने घर के पैसों से काम कर लेते हैं, ऐसा यह संघ, पवित्र संघ! इसलिए सच्चा रास्ता यह है। जब डालने हों, तब डालना और वह भी आपके पास हों तब, नहीं हों तो डालना मत । अब ये भाई कहें
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अनन्य भक्ति, वहाँ दिया जाता है हमें मोक्ष में जाना है, वहाँ मोक्ष में जा पाएँ उतना पुण्य चाहिए। यहाँ आप सीमंधर स्वामी का जितना करोगे, वह सब आपका आ गया। बहुत हो गया। उसमें ऐसा नहीं कि यह कम है। उसमें तो आपने जो (देने के लिए) धारणा की हो, वह सब करो। तो सब हो गया। फिर इससे अधिक करने की जरूरत नहीं। फिर अस्पताल बनवाएँ या और कुछ बनवाएँ, वह सब अलग रास्ते पर जाता है।
ये हैं जीते-जागते देव लक्ष्मी के सदुपयोग का सबसे सच्चा रास्ता कौन-सा है अभी? तब कहें, 'बाहर दान देना वह? कॉलेज में पैसे देने वह?' तब कहें. नहीं! अपने इन महात्माओं को चाय-पानी, नाश्ता करवाओ। उन्हें संतोष देना, वह सबसे अच्छा रास्ता। ऐसे महात्मा वर्ल्ड में मिलेंगे नहीं। वहाँ सतयुग ही दिखता है और सभी आएँ हो तो आपका किस प्रकार भला हो, यही सारे दिन भावना।
पैसे नहीं हों न, तो उसके वहाँ भोजन करो, रहो, वह सब अपना ही है। आमने-सामने पारस्पारिक है। जिसके पास सरप्लस है, वह खर्ची । और अधिक हों तो मनुष्य मात्र को सुखी करो, वह अच्छा है और उससे भी आगे, जीव मात्र के सुख के लिए खर्च करो।
बाकी स्कूलों में दो, कॉलेजों में दो, उससे नाम होगा, पर सच्चा यह है। ये महात्मा बिलकुल सच्चे हैं, उसकी गारंटी देता हूँ, भले कैसे भी होंगे। पैसे कम होंगे, फिर भी उनकी नीयत साफ़, भावना भी बहुत सुंदर है। प्रकृति तो अलग-अलग होती ही हैं। ये महात्मा तो जीते-जागते देव हैं। आत्मा भीतर प्रकट हो चुका है। एक क्षण भी आत्मा को भूलते नहीं। वहाँ आत्मा प्रकट हुआ है, वहाँ भगवान हैं।
प्रश्नकर्ता : लोगों को भोजन कराएँ वह फलता नहीं?
दादाश्री : वह फलता है न। पर यहीं के यहीं वाह-वाह होती है. उतना ही। उसका फल यहीं का यहीं मिल जाता है। और वह वहाँ मिलता है, वाह-वाह नहीं होती, वह वहाँ मिलता है।
प्रश्नकर्ता : अर्थात् साथ ले जाना, ऐसा न?
दादाश्री : वह साथ ले जाने का। यह आपने दस दिए वे साथ ले जाएँगे और वाह-वाह हुई तो खर्च हो गया।
प्रश्नकर्ता : तो कल से सबको भोजन करवाना बंद कर देना पड़ेगा।
दादाश्री: भोजन करवाना, वह तो आपके लिए अनिवार्य ही है। अनिवार्य से तो किए बिना छुटकारा ही नहीं होता।
यह तो ऐसा है न, इन महात्माओं को भोजन करवाना, और बाहर के लोगों को खिलाना, वह अलग चीज़ है। वह वाह-वाह का कार्य है। यहाँ कोई वाह-वाह कहने नहीं आए हैं। ये महात्मा तो! वर्ल्ड में कोई ऐसे पुरुष नहीं मिलनेवाले, या ऐसे ब्राह्मण नहीं मिलनेवाले, कि ऐसे हों, कि जिन्हें कुछ भी आपका लेने की इच्छा नहीं, कोई भी दृष्टिफेर ही नहीं इन महात्माओं को। ये महात्मा कैसे हैं, जो किसी भी प्रकार का लाभ उठाने में नहीं पड़े हैं, तब ऐसे महात्मा कहाँ से होंगे? यह तो संसार सारा स्वार्थवाला, ये महात्मा तो करेक्ट (सही) लोग। ऐसे लोग ही नहीं होते न. इस दनिया में होंगे ही नहीं न!
ऐसी इच्छा ही नहीं होती कि यह डॉक्टर मेरे काम के हैं। ऐसा उनके मन में विचार भी नहीं आता और अन्य लोग तो डॉक्टर आए कि तुरन्त सोचते हैं कि किसी दिन काम आएँगे। तो क्या मुए, केवल दवाई खाने के लिए? स्वस्थ है, फिर भी दवाई खाने दौड़ता है?
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हैं।' मैंने जलदी करने का मना किया उस भाई को।
यानी ऐसे भले आदमी हों न जिन्हें दान देने का समझ में नहीं आता हो, और वह भी पूछे तो उसे बताते हैं। हमें पता है कि यह भोला है। उसे समझ में नहीं आता है तो उसे बताते हैं। बाकी समझदार को तो हमें कहने की जरूरत ही नहीं न! नहीं तो उसे दु:ख होगा। और दुःख हो ऐसा हमें चाहिए नहीं। यहाँ पैसों की ज़रूरत ही नहीं है। सरप्लस हो तब ही देना, क्योंकि ज्ञानदान जैसा कोई दान ही नहीं है जगत् में!
क्योंकि ये ज्ञान की किताबें कोई पढ़े, तो उसमें कितना सारा परिवर्तन हो जाए। इसलिए हों तो देना, नहीं हों, तो अपने यहाँ कोई जरूरत ही नहीं है वहाँ पर!
ये महात्मा क्या हैं, वह मेरे यदि शब्द समझे न, तो वे भगवान जैसे हैं, पर इन महात्माओं को पता नहीं। यह उन्हें चाय-पानी पिलाएँगे, खिलाएँगे, भोजन करवाएँगे, वह सबसे बड़ा यज्ञ कहलाता है। प्रथम कोटि का यज्ञ । चूड़ियाँ बेचकर भोजन कराएँगे न तो भी बहुत अच्छा ! चूड़ियाँ शांति नहीं देंगी। महात्माओं के साथ बैठें तो दानत खोरी नहीं होती। इसलिए इन महात्माओं को तो जितना खिलाया जाए उतना खिलाते रहना। चाय पीलाओगे तो भी बहुत हो गया।
ऐसी समझ देनी पड़ती है एक आदमी मुझ से सलाह पूछ रहा था कि मुझे देना है तो किस प्रकार दूँ? तब मैंने सोचा, इसे पैसे देने की समझ नहीं है। मैंने कहा, 'तेरे पास पैसे हैं?' उसने कहा, 'हाँ' तब मैंने बताया कि 'इस प्रकार देना।' मैं जानूँ कि यह आदमी दिल का बहुत साफ़ है और भोले दिल का है। उसे सच्ची समझ दो।
बात कुछ ऐसी थी कि हम एक सज्जन के यहाँ गए थे। उसने एक आदमी मुझे छोड़ने के लिए भेजा। केवल छोड़ने के लिए ही। उसने डॉक्टर से कहा कि दादाजी को गाड़ी में छोड़ने आप मत जाना, मैं छोड़ आऊँगा।' इस तरह छोड़ने के लिए आए और उसमें बातचीत हुई। वह आदमी मुझसे सलाह माँग रहे थे कि 'मुझे पैसे देने हैं तो कहाँ पर देने, कैसे देने?'"बंगला बनवाया है, तब पैसे तो कमाए होंगे?' फिर तब बोले, 'बंगला बनवाया, सिनेमा थियेटर बनवाया। अभी सवा लाख रुपये तो मेरे गाँव में दान में दिए हैं।' तब मैंने कहा कि 'अधिक कमाए हों, तो एकाध आप्तवाणी छपवा देना।' तुरन्त ही उसने कहा, 'आपके कहने की देर है, यह तो मुझे मालूम ही नहीं था। मुझे कोई समझाता ही नहीं है।' फिर कहता है, 'इस महीने में तुरंत ही छपवा दूंगा।' फिर जाकर पूछने लगा कि कितना खर्च होगा? तब कहा कि 'बीस हज़ार होंगे।' तुरंत ही कहता है कि 'इतनी पुस्तकें मुझे छपवा देनी
सरप्लस का ही दान प्रश्नकर्ता : सरप्लस किसे कहते हैं?
दादाश्री : सरप्लस तो आज आप दो और कल चिंता हो ऐसा खड़ा हो, वह नहीं कहलाता। अभी छह महीनों तक हमें उपाधी होनेवाली नहीं है, ऐसा हमें लगे तो काम करना, नहीं तो करना मत।
जब कि यह काम करोगे तो आपको उपाधी नहीं देखनी पडेगी। ये काम तो अपने आप ही पूर्ण हो जाता है। यह तो भगवान का काम है। जोजो करता है, उनका यों का यों ही बराबर हो जाता है। पर फिर भी मुझे आपको चेतावनी देनी चाहिए। मुझे किस लिए ऐसा कहना चाहिए कि बिना सोचे समझे करना? बिना सोचे-समझे कद पडो ऐसा मैं किस लिए करने को कहूँ? मैं तो आपके हित के लिए चेतावनी देता हूँ कि 'पिछले अवतार में आपने दिया था, इसलिए यह मिलता है अभी, और आज दोगे तो फिर से मिलेगा। यह तो आपका ही ओवरड्राफ्ट है। मुझे कुछ लेना-देना ही नहीं। मैं तो आपसे अच्छी जगह डलवाता हूँ, इतना ही है। पिछले अवतार में
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दिया था, वह इस अवतार में लेते हैं। क्या सभी में अक्ल नहीं है? तब कहे, 'अक्ल से नहीं दिए, ऊपर से ही है! आपने बैन्क में ओवरड्राफ्ट क्रेडिट करवाया होगा तो आपके हाथ में चेक आएगा।' इसलिए बुद्धि अच्छी हो न तो फिर से जोईन्ट हो जाता है सब।
लेते हुए भी कितनी बारीक समझ यहाँ सिर्फ जो पुस्तकें छपती हैं वही और इतना विश्वास जरूर है कि इन पुस्तकों के पैसे आ मिलेंगे, अपने आप ही। उसके लिए निमित्त हैं पीछे । वे सब आ मिलते हैं। उन्हें कुछ कहना या भीख माँगनी पड़ती नहीं। किसी के पास से माँगे तो उसे दु:ख होगा। तब कहेंगे इतने सारे?'इतने सारे' कहा कि उसके साथ उसे दु:ख होता है। ऐसा हमें निश्चित हो गया न? और किसी को दुःख हुआ मतलब हमारा धर्म रहा नहीं। इसलिए थोड़ा-सा भी अपने से माँगा नहीं जा सकता। वह खुद राज़ी-खुशी से कहता हो तो अपने से लिए जाएँ। वह खुद ज्ञानदान को समझे तो ही ले सकते हैं। इसलिए जिसनेजिसने दिए हैं न, वे खुद ज्ञानदान को समझकर देते हैं। अपने आप ही देते हैं। अभी तक माँगा नहीं है।
यहाँ पुस्तक छपवाई हो न, तो हमारे पैसे शोभा देंगे और पुण्य हो तभी मेल बैठता है। पैसे अच्छे हों तो ही छपवा पाएंगे। नहीं तो छपवाई जाती नहीं है और वह मेल खाता नहीं न!
स्पर्धा नहीं होती यहाँ और स्पर्धा में वह बोलने की ज़रूरत नहीं है। यह स्पर्धा के लाईनवाला नहीं कि यहाँ बोली लगाई कि ये इन्होंने घी इतना बोला और ये इतना बोले ! वीतरागों के वहाँ ऐसी स्पर्धा होती नहीं। पर यह तो दूषमकाल में पैठ गया है ऐसा। दूषमकाल के लक्षण सारे। स्पर्धा करना, वह तो भयंकर रोग है। मनुष्य होड़ लगाते हैं। अपने यहाँ कोई ऐसा लक्षण नहीं होता। यहाँ पैसों की याचना नहीं होती।
दादाजी के हृदय की बात इतने सारे खत आते हैं कि हम किस तरह सँभाले यही मुश्किल है। इसलिए अब अन्य लोग छपवा लेंगे। अपन तो यह फ्री ऑफ कोस्ट देते हैं, पहली बार, फर्स्ट टाईम। बाद में लोग अपने आप छपवा लेंगे। यह तो अपना यह ज्ञान खड़ा हुआ हैं न वह लुप्त न हो जाए, इसलिए छपवा देना है। और कोई न कोई मिल आता है, अपने आप ही हाँ करता है। हमारे यहाँ अनिवार्य, जैसी वस्तु नहीं है। हमारे यहाँ 'लॉ' नहीं है। 'नो लॉ वही लॉ।'
प्रिय को छोड़ दो तो समाधि समाधि कब आएगी? संसार में जिस पर अतिशय स्नेह है, उसे खुला छोड़ देने में आए तब। संसार में किस पर अतिशय प्रेम है? लक्ष्मीजी के ऊपर । इसलिए उसे खुला छोड़ दो। तब कहतें हैं कि छोड़ देते हैं, तब अधिक और अधिक आने लगी। तब मैंने कहा कि 'अधिक आए तो अधिक जाने देना।' प्रिय वस्तु को छोड़ दें तो समाधि होती है।
ऐसा है मोक्षमार्ग ये भाई लुटा देते थे। फिर मुझे पूछ रहे थे कि क्या मोक्ष का मार्ग है? मैंने कहा, 'यही मोक्ष का मार्ग है, इससे अलग मोक्ष का मार्ग कैसा होता है फिर? अपने पास हो उसे लुटा देना मोक्ष के लिए। उसका नाम मोक्षमार्ग।
आख़िर तो आग में झोंकना है न? आख़िर में तो आग देते हैं. किसी को भी दिए बगैर रहना पड़ता है? आपको कैसा लगता है?
जो पास है, उसे लुटा देना और वह भी अच्छे कामों के लिए, मोक्ष के लिए या मोक्षार्थियों, जिज्ञासुओं के लिए अथवा ज्ञानदान के लिए लुटा देना, वह मोक्ष का ही मार्ग।
- जय सच्चिदानंद
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________________ शुद्धात्मा के प्रति प्रार्थना (प्रतिदिन एक बार बोलें) हे अंतर्यामी परमात्मा ! आप प्रत्येक जीवमात्र में विराजमान हो, वैसे ही मुझ में भी विराजमान हो। आपका स्वरूप ही मेरा स्वरूप है। मेरा स्वरूप शुद्धात्मा है। हे शुद्धात्मा भगवान ! मैं आपको अभेद भाव से अत्यंत भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ। अज्ञानतावश मैंने जो जो ** दोष किये हैं, उन सभी दोषों को आपके समक्ष जाहिर करता हूँ। उनका हृदयपूर्वक बहुत पश्चाताप करता हूँ और आपसे क्षमा याचना करता हूँ। हे प्रभु ! मझे क्षमा करो, क्षमा करो, क्षमा करो और फिर से ऐसे दोष नहीं करे, ऐसी आप मुझे शक्ति दो, शक्ति दो, शक्ति दो। हे शुद्धात्मा भगवान ! आप ऐसी कृपा करो कि हमें भेदभाव छूट जाये और अभेद स्वरूप प्राप्त हो। हम आप में अभेद स्वरूप से तन्मयाकार रहें। ** जो जो दोष हुए हों, वे मन में जाहिर करें। प्रतिक्रमण विधि प्रत्यक्ष दादा भगवान की साक्षी में, देहधारी (जिसके प्रति दोष हुआ हो, उस व्यक्ति का नाम) के मन-वचन-काया के योग, भावकर्मद्रव्यकर्म-नोकर्म से भिन्न ऐसे हे शुद्धात्मा भगवान, आपकी साक्षी में, आज दिन तक मुझसे जो जो ** दोष हए हैं, उसके लिए क्षमा माँगता हूँ। हृदयपूर्वक बहुत पश्चाताप करता हूँ। मझे क्षमा करें। और फिर से ऐसे दोष कभी भी नहीं करूँ, ऐसा दृढ़ निश्चय करता हूँ। उसके लिए मुझे परम शक्ति दीजिए, शक्ति दीजिए, शक्ति दीजिए। * क्रोध-मान-माया-लोभ, विषय-विकार, कषाय आदि से किसी को भी दुःख पहुँचाया हो, उस दोषो को मन में याद करें। प्राप्तिस्थान दादा भगवान परिवार अडालज : त्रिमंदिर संकुल, सीमंधर सिटी, अहमदाबाद-कलोल हाईवे, पोस्ट : अडालज, जिला : गांधीनगर, गुजरात - 382421. फोन : (079) 39830100, email : info@dadabhagwan.org अहमदाबाद : दादा दर्शन, 5, ममतापार्क सोसाइटी, नवगुजरात कॉलेज के पीछे, उस्मानपुरा, अहमदाबाद-३८००१४. फोन : (079)27540408, 27543979 राजकोट : त्रिमंदिर, अहमदाबाद-राजकोट हाईवे, तरघड़िया चोकड़ी, पोस्ट : मालियासण, जिला : राजकोट. फोन : 9924343478 भुज : त्रिमंदिर, हिल गार्डन के पीछे, सहयोगनगर के पास, एयरपोर्ट रोड, भुज (कच्छ), गुजरात. संपर्क : 02832 236666 मुंबई : 9323528901 पुणे : 9822037740 वड़ोदरा : (0265)2414142 बेंगलूर: 9341948509 कोलकता : 033-32933885 U.S.A. : Dada Bhagwan Vignan Institue : Dr. Bachu Amin, 100, SW Redbud Lane, Topeka, Kansas 66606. Tel : 785-271-0869, E-mail: bamin @cox.net Dr. Shirish Patel, 2659, Raven Circle, Corona, CA 92882, Tel. : 951-734-4715, E-mail : shirishpatel@sbcglobal.net U.K. : Dada Centre, 236, Kingsbury Road, (Above Kingsbury Printers), Kingsbury, London, NW9 OBH, Tel. : 07956476253, E-mail: dadabhagwan_uk@yahoo.com Canada : Dinesh Patel, 4, Halesia Drive, Etobicock, Toronto, M9W6B7. Tel. : 4166753543 E-mail: ashadinsha@yahoo.ca Canada : +1416-675-3543 Australia : +61421127947 Dubai : +971506754832 Singapore: +6581129229 Website : www.dadabhagwan.org, www.dadashri.org