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उतना उसका बदला यहीं का यहीं मिल गया।
अर्थात् देकर उसका बदला यहीं का यहीं ही ले लिया। और जिसने गुप्त रखा, उसने बदला लेने का अगले भव पर छोड़ा। बदला मिले बगैर तो रहता ही नहीं। आप लो या न लो पर बदला तो उसका होता ही है।
नहीं लिया हो, फिर भी मेरे साथ थोड़ा समय बैठे तो बुद्धि सम्यक् हो जाती है। जिससे उसका काम आगे चलता है ! यह ज्ञान नहीं हो तब क्या दशा होगी? ऐसा यदि मनुष्य समझे तो काम का!
प्रश्नकर्ता : ज्ञान लिए बगैर तो इसका पार ही नहीं आए ऐसा है।
दादाश्री : पार ही नहीं आए ऐसा है। वह तो बात ही करने जैसी नहीं है। वह पचास हजार रुपये का दान देता हो, फिर भी आपको वापिस क्या कहता है? 'इस सेठ का दबाव है इसलिए देता हूँ, नहीं तो दूं नहीं।' खुद अकेला जाने उतना ही नहीं, पर आपको भी बताता है। फिर दूसरों को बताता है कि मैं तो ऐसा पक्का हूँ। यह देखते हो न? यह सब बाहर तो? फ़िजूल में धूलधानी हो गए। इसलिए इस सत्संग में पड़े रहे, उनका काम हो गया न! सारी दुनिया का झंझट गया न!
दान भी गुप्त रूप से प्रश्नकर्ता : आत्मार्थी के लिए तो कीर्ति अवस्तु है न?
दादाश्री : कीर्ति तो बहुत नुकसानदायक वस्तु है। आत्मा के रास्ते पर कीर्ति तो उसकी बहुत फैलती है, पर उस कीर्ति में उसे कोई इन्टरेस्ट नहीं होता। कीर्ति तो फैलेगी ही न! चमकीला हीरा हो तो देखकर हर कोई कहे न कि 'कितनी अच्छी लाईट आती है, किरणें कैसी निकलती हैं?' लोग कहते जरूर हैं, पर उसे खुद को उसमें मज़ा नहीं आता। जबकि यह संसारी संबंध की कीर्ति है, उस कीर्ति के ही भिखारी हैं। कीर्ति की भीख है उसे इसलिए लाख रुपये हाईस्कूल में देते हैं, अस्पताल में देते हैं, पर कीर्ति उसे मिल जाए तो बहुत हो गया!
फिर वे भी व्यवहार में कहते हैं कि दान गुप्त रखना। अब गुप्त रूप से कोई ही देगा। बाकी सबको कीर्ति की भूख है, इसलिए देते हैं। तब लोग भी बखान करते हैं कि भई! यह सेठ, क्या कहने, लाख रुपये का दान दिया !
अपनी-अपनी इच्छानुसार दान देना होता है। यह तो सब ठीक है, व्यवहार है। कोई दबाव करे कि आपको देने ही पडेंगे। फिर फलहार पहनाएँ, इसलिए देते हैं वे।
दान गुप्त होना चाहिए। जैसे ये मारवाड़ी लोग भगवान के पास चुपचाप डाल आते हैं न! किसी को मालूम नहीं चले तो वह उगेगा!
वह व्यवहार अच्छा कहलाता है प्रश्नकर्ता : हीराबा के बारे में आपने यह पीछे (उनके देहान्त के बाद) खर्च किया, वह व्यवहार में कैसा कहलाता है?
दादाश्री : इस संसार व्यवहार में अच्छा कहलाता है वह। प्रश्नकर्ता : हमें रहना संसार व्यवहार में ही है।
दादाश्री : इस संसार व्यवहार में सही, पर उसमें अच्छा दिखता है यह। और वह अच्छा दिखे इसलिए मैंने नहीं किया। वह तो हीराबा की इच्छा थी इसलिए मैंने किया। यह मुझे अच्छे-गलत की पड़ी नहीं होती, फिर भी गलत नहीं दिखे ऐसे रहते हैं।
प्रश्नकर्ता : वह तो आपकी बात हुई पर हमारे लिए क्या?
दादाश्री : आपको थोड़ा बरतना पड़ता है, बहुत खींचने की ज़रूरत नहीं, साधारण व्यवहार करना होगा।