Book Title: Agam 32 Devendrastava Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदंसणस्स बाल ब्रह्मचारी श्री नेमिनाथाय नमः पूज्य आनन्द-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर-गुरूभ्यो नमः आगम-३२ देवेन्द्रस्तव आगमसूत्र हिन्दी अनुवाद 28-06-068 अनुवादक एवं सम्पादक आगम दीवाकर मुनि दीपरत्नसागरजी [ M.Com. M.Ed. Ph.D. श्रुत महर्षि ] आगम हिन्दी-अनुवाद-श्रेणी पुष्प-३२ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ३२, पयन्नासूत्र-९, देवेन्द्रस्तव' आगमसूत्र-३२- "देवेन्द्रस्तव' पयन्नासूत्र-९- हिन्दी अनुवाद कहां क्या देखे? विषय क्रम विषय क्रम पृष्ठ मंगल- देवेन्द्र विषयक पृच्छा भवनपति वाणव्यंतर ४ ज्योतिष्क | ०५ । ५ वैमानिक | ईषत् प्राग्भार पृथ्वी एवं सिद्ध ७ | जिनऋद्धि और उपसंहार १९ २१ ०८ मुनि दीपरत्नसागर कृत् (देवेन्द्रस्तव)- आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 2 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ३२, पयन्नासूत्र-९, देवेन्द्रस्तव' ४५ आगम वर्गीकरण क्रम आगम का नाम सूत्र | क्रम आगम का नाम अंगसूत्र-१ पयन्नासूत्र-२ ०१ आचार ०२ सूत्रकृत् अंगसूत्र-२ २६ ०३ स्थान अंगसूत्र-३ | २५ आतुरप्रत्याख्यान | महाप्रत्याख्यान भक्तपरिज्ञा २८ | तंदुलवैचारिक संस्तारक २७ पयन्नासूत्र-३ पयन्नासूत्र-४ पयन्नासूत्र-५ ०४ समवाय अंगसूत्र-४ ०५ अंगसूत्र-५ २९ पयन्नासूत्र-६ भगवती ज्ञाताधर्मकथा ०६ । अंगसूत्र-६ पयन्नासूत्र-७ उपासकदशा अंगसूत्र-७ पयन्नासूत्र-७ अंतकृत् दशा ०९ अनुत्तरोपपातिकदशा अंगसूत्र-८ अंगसूत्र-९ ३०.१ | गच्छाचार ३०.२ चन्द्रवेध्यक ३१ | गणिविद्या देवेन्द्रस्तव वीरस्तव पयन्नासूत्र-८ पयन्नासूत्र-९ ३२ । १० प्रश्नव्याकरणदशा अंगसूत्र-१० ३३ अंगसूत्र-११ ३४ | निशीथ ११ विपाकश्रुत १२ औपपातिक पयन्नासूत्र-१० छेदसूत्र-१ छेदसूत्र-२ उपांगसूत्र-१ बृहत्कल्प व्यवहार राजप्रश्चिय उपांगसूत्र-२ छेदसूत्र-३ १४ जीवाजीवाभिगम उपागसूत्र-३ ३७ उपांगसूत्र-४ उपांगसूत्र-५ उपांगसूत्र-६ छेदसूत्र-४ छेदसूत्र-५ छेदसूत्र-६ ४० उपांगसूत्र-७ १५ प्रज्ञापना १६ सूर्यप्रज्ञप्ति १७ चन्द्रप्रज्ञप्ति | जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति १९ निरयावलिका कल्पवतंसिका २१ | पुष्पिका | पुष्पचूलिका २३ वृष्णिदशा दशाश्रुतस्कन्ध ३८ जीतकल्प ३९ महानिशीथ आवश्यक ४१.१ ओघनियुक्ति ४१.२ | पिंडनियुक्ति ४२ | दशवैकालिक ४३ उत्तराध्ययन ४४ । नन्दी मूलसूत्र-१ मूलसूत्र-२ मूलसूत्र-२ उपागसूत्र-८ उपांगसूत्र-९ उपांगसूत्र-१० उपांगसूत्र-११ उपांगसूत्र-१२ पयन्नासूत्र-१ मूलसूत्र-३ मूलसूत्र-४ चूलिकासूत्र-१ चूलिकासूत्र-२ अनुयोगद्वार | चतुःशरण मुनि दीपरत्नसागर कृत् (देवेन्द्रस्तव)- आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 3 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ३२, पयन्नासूत्र-९, देवेन्द्रस्तव' 6 10 -06 02 01 [47] 3 06 05 04 मुनि दीपरत्नसागरजी प्रकाशित साहित्य आगम साहित्य आगम साहित्य । साहित्य नाम बुक्स क्रम साहित्य नाम बुक्स मूल आगम साहित्य: 147 आगम अन्य साहित्य:-1- आगमसुत्ताणि-मूलं print [49] -1-मागम थानुयोग -2- आगमसुत्ताणि-मूल Net [45] -2-आगम संबंधी साहित्य -3-आगममञ्जूषा (मूल प्रत) [53] 1-3- ऋषिभाषित सूत्राणि 01 आगम अनुवाद साहित्य: 165 -4- आगमिय सूक्तावली -1- सामसूत्रगु४राती मनुवाई आगम साहित्य- कुल पुस्तक 516 |-2- आगमसूत्र हिन्दी अनुवाद Net: | [47] -3- Aagamsootra English Trans. | [11] -4- सामसूत्रसटी १४२।ती मनुवाई | [48] F-5- आगमसूत्र हिन्दी अनुवाद print | [12] अन्य साहित्य:| आगम विवेचन साहित्य:171 1 तत्वाभ्यास साहित्य 13 -1- आगमसूत्र सटीक [46] 2 સૂત્રાભ્યાસ સાહિત્ય1-2-आगमसूत्राणि सटीकं प्रताकार-1/ | [51] | 3 व्या8२। साहित्य-3- आगमसूत्राणि सटीकं प्रताकार-2 | [09] 4 व्याज्यान साहित्य-4- आगम चूर्णि साहित्य | [09]| 5 | निलत साहित्य 09 1-5- सवृत्तिक आगमसूत्राणि-1 [40], 6 व साहित्य 04 1-6- सवृत्तिक आगमसूत्राणि-2 [08] 7 આરાધના સાહિત્ય 1-7- सचूर्णिक आगमसुत्ताणि [08] 8 | परियय साहित्य 04 | आगम कोष साहित्य:14 9 ४न साहित्य 02 -1- आगम सद्दकोसो [04] 10 तीर्थं२ संक्षिप्त र्शन 25 -2- आगम कहाकोसो [01] 11 ही साहित्य-3-आगम-सागर-कोष: [05]| 12ीपरत्नसागरना वधुशोधनिबंध 05 -4- आगम-शब्दादि-संग्रह (प्रा-सं-गु) [04] આગમ સિવાયનું સાહિત્ય કૂલ પુસ્તક आगम अनुक्रम साहित्य:-1- माराम विषयानुभ- (भूत) 02 | |1-आगम साहित्य (कल पुस्तक) 1516 -2- आगम विषयानुक्रम (सटीक) 04 2-आगमेतर साहित्य (कुल 085 -3- आगम सूत्र-गाथा अनुक्रम 03 दीपरत्नसागरजी के कुल प्रकाशन | 601 તિન મુનિ દીપરત્નસાગરનું સાહિત્ય मुनिहीपरत्नसागरनु आगम साहित्य [हुत पुस्त8 516] तेनाल पाना [98,300] 2 भुनिटीपcनसार्नु अन्य साहित्य [ पुस्तs 85] तेनाल पाना [09,270] 3 भुमिहीपरत्नसार संलित तत्वार्थसूत्र'नी विशिष्ट DVD तनाहुत पाना [27,930] | सभारा प्राशनो ०१ + विशिष्ट DVD 5 पाना 1,35,500 मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(देवेन्द्रस्तव) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 4 03 05 85 50 09 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ३२, पयन्नासूत्र-९, देवेन्द्रस्तव' [३२] देवेन्द्रस्तव पयन्नासूत्र-९- हिन्दी अनुवाद सूत्र-१-३ त्रैलोक्य गुरु-गुण से परिपूर्ण, देव और मानव द्वारा पूजनीय, ऋषभ आदि जिनवर और अन्तिम तीर्थंकर महावीर को नमस्कार करके निश्चे आगमविद् किसी श्रावक संध्याकाल के प्रारम्भ में जिसका अहंकार जीत लिया है वैसे वर्धमानस्वामी की मनोहर स्तुति करता है । और वो स्तुति करनेवाले श्रावक की पत्नी सुख शान्ति से सामने बैठकर समभाव से दोनों हाथ जोड़कर वर्धमानस्वामी की स्तुति सुनती है। सूत्र-४ तिलक समान रत्न और सौभाग्य सूचक निशानी से अलंकृत इन्द्र की पत्नी के साथ हम भी - मान नष्ट हआ है ऐसे वर्धमानस्वामी के चरण की वंदना करते हैं। सूत्र-५ विनय से प्रणाम करने के कारण से जनके मुकुट शिथिल हो गए हैं उस देव के द्वारा अद्वितीय यशवाले और उपशान्त रोषवाले वर्धमानस्वामी के चरण वंदित हुए हैं। सूत्र-६ जिनके गुण द्वारा बत्तीस देवेन्द्र पूरी तरह से पराजित हुए हैं इसलिए उनके कल्याणकारी चरण का हम ध्यान करते हैं। सूत्र-७ श्रावक की पत्नी अपने प्रिय को कहती है कि इस तरह यहाँ जो बत्तीस देवेन्द्र कहलाए हैं उसके लिए मेरी जिज्ञासा का संतोष करने के लिए विशेष व्याख्या करो। सूत्र-८-१० वो बत्तीस इन्द्र कैसे हैं? कहाँ रहते हैं ? किस की कैसी दशा है ? भवन परिग्रह कितना है ? किसके कितने विमान हैं ? कितने भवन हैं ? कितने नगर हैं ? वहाँ पृथ्वी की चौड़ाई ऊंचाई कितनी है ? उस विमान का वर्ण कैसा है? आहार का जघन्य, मध्यम या उत्कृष्ट काल कितना है? श्वासोच्छ्वास, अवधिज्ञान कैसे हैं ? आदि मुझे बताओ सूत्र - ११ जिसने विनय और उपचार दूर किए हैं, हास्यरस समाप्त किया है वैसी प्रिया द्वारा पूछे गए सवाल के उत्तर में उसके पति कहते हैं कि हे सूतनु ! वो सुनो। सूत्र-१२-१३ प्रश्न के उत्तर समान श्रुतज्ञान रूपी सागर से जो बात उपलब्ध है उसमें इन्द्र की नामावली सुनो । और वीर द्वारा प्रणाम किए गए उस ज्ञान समान रत्न कि जो तारागणपंक्ति की तरह शुद्ध है उसे प्रसन्न चित्त दिल से तुम सुनो सूत्र-१४-१९ ___ हे विशाल नैनवाली सुंदरी ! रत्नप्रभा पृथ्वी में रहनेवाले तेजोलेश्या सहित बीस भवनपति देव के नाम मुझसे सुनो । असुर के दो भवनपति इन्द्र हैं । चमरेन्द्र और असुरेन्द्र । नागकुमार के दो इन्द्र हैं, धरणेन्द्र और भूतानन्द । सुपर्ण के दो इन्द्र हैं, वेणुदेव और वेणुदाली । उदधिकुमार के दो इन्द्र हैं, जलकान्त और जलप्रभ । दिशाकुमार के दो इन्द्र हैं अमितगति और अमितवाहन । वायुकुमार के दो इन्द्र हैं वेलम्ब और प्रभंजन । स्तनित कुमार के दो इन्द्र, घोष और महाघोष । विद्युतकुमार के दो इन्द्र, हरिकान्त और हरिस्सह । अग्निकुमार के दो इन्द्र मुनि दीपरत्नसागर कृत् - (देवेन्द्रस्तव) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 5 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ३२, पयन्नासूत्र-९, देवेन्द्रस्तव' हैं-अग्निशीख और अग्निमानव । सूत्र- २०-२६ ___ हे विकसित यश और विशाल नयनवाली, सुखपूर्वक भवन में बैठी हुई (सुंदरी) ! मैंने जो यह बीस इन्द्र बताए उनका भवन परिग्रह सुन । वो चमरेन्द्र वैरोचन और असुरेन्द्र महानुभव के श्रेष्ठ भवन की गिनती ६४ लाख है। वो भूतानन्द और धरण नाम के दोनों नागकुमार इन्द्र के श्रेष्ठ भवन की गिनती ५४ लाख है । हे सुंदरी ! वेणुदेव और वेणुदाली दोनों सुवर्ण इन्द्र के भवन ७२ लाख है । वैलम्ब और प्रभंजन वायुकुमार इन्द्र के श्रेष्ठ भवन की गिनती ९६ लाख है । इस तरह असुर के ६४, नागकुमार के ५४, सुवर्णकुमार के ७२, वायुकुमार के ९६ । द्विपदिशा-उदधि-विद्युत-स्तनित और अग्नि वो छ युगल के प्रत्येक के भवन ७६-७६ लाख हैं। सूत्र - २७-३१ हे लीला स्थित सुंदरी ! अब उनकी स्थिति मतलब आयु विशेष को क्रम से सुन । हे सुंदरी ! चमरेन्द्र की उत्कृष्ट आयु स्थिति एक सागरोपम है । वो ही बलि और वैरोचन इन्द्र की भी जानना। चमरेन्द्र सिवा बाकी के दक्षिण दिशा के इन्द्र की उत्कृष्ट आय-स्थिति देढ पल्योपम है । बलि के सिवा बाकी जो उत्तर दिशा स्थित इन्द्र है उसकी आयु स्थिति कुछ न्यून दो पल्योपम है । यह सब आयु-स्थिति का विवरण है। अब तू उत्तम भवनवासी देव के सुन्दर नगर का माहात्म्य भी सुन । सूत्र-३२-३८ सम्पूर्ण रत्नप्रभा पृथ्वी ११००० योजन में एक हजार योजन के अलावा भवनपति के नगर बने हैं । यह सब भवन भीतर से चतुष्कोण और बाहर से गोल हैं । आम तोर पर अति सुन्दर, रमणीय, निर्मल और व्रज रत्न के बने हैं । भवन नगर के प्राकार सोने के बने हुए हैं । श्रेष्ठ कमल की पंखड़ी पर रहा यह भवन अलग-अलग मणी से शोभायमान स्वभाव से मनोहारी दिखते हैं । लम्बे अरसे तक न मूर्जानेवाली पुष्पमाला और चन्दन से बने दरवाजे युक्त उस नगर का ऊपर का हिस्सा पताका से शोभायमान है । इसलिए वो श्रेष्ठ नगर सुन्दर है । वो श्रेष्ठ द्वार आठ योजन ऊंचे हैं उसका ऊपर का हिस्सा लाल कलश से सजाया हुआ है, ऊपर सोने के घंट बँधे हैं । इस भवन में भवनपति देव श्रेष्ठ तरुणी के गीत और वाद्य की आवाज के कारण से हमेशा सुखयुक्त और प्रमुदित रहकर पसार होनेवाले वक्त को नहीं जानते। सूत्र - ३९-४० ___ चमरेन्द्र, धरणेन्द्र, वेणुदेव, पूर्ण, जलकान्त, अमितगति, वेलम्ब, घोष, हरि और अग्निशीख । उस भवनपति इन्द्र के मणिरत्न से जड़ित स्वर्ण-स्तम्भ और रमणीय लतामंडप युक्त भवन दक्षिण दिशा की ओर होता है उत्तर दिशा और उसके आसपास बाकी के इन्द्र के भवन होते हैं । सूत्र-४१-४२ दक्षिण दिशा की ओर असुरकुमार के ३४ लाख, नागकुमार के ४४ लाख, सुवर्णकुमार के ४८ लाख और द्वीप, उदधि, विद्युत, स्तनित और अग्निकुमार के ४०-४० लाख और वायुकुमार के ५० लाख भवन होते हैं । उत्तर दिशा की ओर असुरकुमार के ३० लाख, नागकुमार के ४० लाख, सुवर्णकुमार के ३४ लाख, वायुकुमार के ४६; द्वीप, उदधि, स्तनित, अग्निकुमार के ३६-३६ लाख भवन हैं। सूत्र-४३ सभी भवनपति और वैमानिक इन्द्र की तीन पर्षदा होती है । उन सबके त्रायस्त्रिंशक, लोकपाल और सामानिक देव होते हैं और चार गुने अंगरक्षक देव होते हैं। मुनि दीपरत्नसागर कृत् ' (देवेन्द्रस्तव)" आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 6 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ३२, पयन्नासूत्र-९, देवेन्द्रस्तव' सूत्र-४४ दक्षिण दिशा के भवनपति के ६४००० और उत्तर दिशा के भवनपति के ६०००० वाणव्यंतर के ६००० और ज्योतिष इन्द्र के ४००० सामानिक देव होते हैं । सूत्र-४५ उसी तरह चमरेन्द्र और बलिन्द्र की पाँच अग्रमहिषी और बाकी के भवनपति की छह अग्रमहिषी होती है। सूत्र-४६ उसी तरह जम्बूद्वीप में दो, मानुषोत्तर पर्वत में चार, अरुण समुद्र में छ और अरुण द्वीप में आठ उस तरह से भवनपति के आवास हैं। सूत्र-४७ जिस नाम के सागर या द्वीप हैं उसी नाम के द्वीप या समुद्र में उनकी उत्पत्ति होती है। सूत्र -४८-५० ___ असुर नाग और उदधि कुमार का आवास अरुणवर समुद्र में होता है और उसमें ही उनकी उत्पत्ति होती है। द्वीप, दिशा, अग्नि और स्तनितकुमार का आवास अरुणवर द्वीप में होता है और उसमें ही उनकी उत्पत्ति होती है। वायुकुमार-सुवर्णकुमार इन्द्र के आवास मानुषोत्तर पर्वत पर होता है । हरि-हरिस्सह देव के आवास विद्युत्प्रभ और माल्यवंत पर्वत पर होते हैं। सूत्र-५१-६५ हे सुंदरी ! इस भवनपति देवमें जिन का बल-वीर्य पराक्रम है उस के यथाक्रम से आनुपूर्वी से वर्णन करता हूँ । असुर और असुर कन्या द्वारा जो स्वामित्व का विषय है । उसका क्षेत्र जम्बूद्वीप और चमरेन्द्र की चमरचंचा राजधानी तक है । यही स्वामित्व बलि और वैरोचन के लिए भी समझना । धरण और नागराज जम्बूद्वीप को फन द्वारा आच्छादित कर सकते हैं । उसी तरह भूतानन्द के लिए भी समझना । गरुड़ेन्द्र और वेणुदेव पंख से जम्बूद्वीप को आच्छादित कर सकते हैं । वही अतिशय वेणुदाली का भी जानना चाहिए । उस जम्बूद्वीप को वशिष्ठ अपने हाथ के तल से आच्छादीत कर सकता है । जलकान्त और जलप्रभ एक जलतरंग द्वारा जम्बूद्वीप को भर सकता है। अमितगति और अमितवाहन अपनी एक पाँव की एड़ी से पूरे जम्बूद्वीप को हिला सकता है । वेलम्ब और प्रभंजन एक वाय के गंजन से परे जम्बद्वीप को भर सकता है। हे संदरी ! घोष और महाघोष एक मेघगर्जना शब्द से जम्बूद्वीप को बेहरा बना सकता है । हरि और हरिस्सह एक विद्युत से पूरे जम्बूद्वीप को प्रकाशित कर सकता है। अग्निशीख और अग्निमानव एक अगन ज्वाला से पूरे जम्बूद्वीप को जला सकता है । हे सुंदरी ! तिर्छालोक में अनगिनत द्वीप और सागर हैं । इसमें से किसी भी एक इन्द्र अपने रूप से इस द्वीप-समुद्र को जम्बूद्वीप को बायें हाथ से छत्र की तरह धारण कर सकता है और मेरु पर्वत को भी परिश्रम बिना ग्रहण कर सकता है । किसी एक ताकतवर इन्द्र जम्बूद्वीप को छत्र और मेरु पर्वत को दंड़ बना सकता है । उन सभी इन्द्र की ताकत विशेष है। सूत्र-६६-६८ संक्षेप में इस भवनपति के भवन की स्थिति बताई अब यथाक्रम वाणव्यंतर के भवन की स्थिति सुनो। पिशाच, भूत, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, महोरग और गंधर्व वो वाणव्यंतर देव के आठ प्रकार हैं । यह वाणव्यंतर देव मैंने संक्षेप में बताए । अब एक-एक करके सोलह इन्द्र और उसकी ऋद्धि कहूँगा। सूत्र - ६९-७२ काल, महाकाल, सुरूप, प्रतिरूप, पूर्णभद्र, माणिभद्र, भीम, महाभीम, किन्नर, किंपुरुष, सत्पुरुष, महापुरुष, अतिकाय, महाकाय, गीतरति और गीतयश यह वाणव्यंतर इन्द्र हैं । और वाणव्यंतर के भेद में सन्निहित, मुनि दीपरत्नसागर कृत् ' (देवेन्द्रस्तव)" आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 7 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ३२, पयन्नासूत्र-९, देवेन्द्रस्तव' समान, धाता, विधाता, ऋषि, ऋषिपाल, ईश्वर, महेश्वर, सुवत्स, विशाल, हास, हासरति, श्वेत, महाश्वेत, पतंग, पतंगपति उन सोलह इन्द्र को जानना । सूत्र - ७३ व्यंतर देव ऊर्ध्व, अधो और तिर्यक लोक में पैदा होते हैं और निवास करते हैं। उसके भवन रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊपर के हिस्से में होते हैं। सूत्र-७४-७६ एक-एक युगल में नियमा अनगिनत श्रेष्ठ भवन हैं । वो फाँसले में अनगिनत योजनवाले हैं, जिसके विविध विविध भेद इस प्रकार हैं । वो उत्कृष्ट से जम्बूद्वीप समान, जघन्य से भरतक्षेत्र समान और मध्यम से विदेह क्षेत्र समान होते हैं । जिसमें व्यंतर देव श्रेष्ठ तरुणी के गीत और संगीत की आवाझ के कारण से नित्य सुखयुक्त और आनन्दित रहने से पसार होने वाले वक्त को नहीं जानते। सूत्र - ७७-७८ काल, सुरूप, पुन्य, भीम, किन्नर, सुपुरिष, अकायिक, गीतरती ये आठ दक्षिण में होते हैं । मणि-स्वर्ण और रत्न के स्तूप, सोने की वेदिका युक्त उनके भवन दक्षिणदिशा की ओर होते हैं और बाकी के उत्तरदिशा में होते हैं। सूत्र-७९ इस व्यंतर देव की जघन्य आयु १०००० साल है और उत्कृष्ट आयु एक पल्योपम है। सूत्र-८० इस तरह व्यंतर देव के भवन और स्थिति संक्षेपमें कहा है, अब ज्योतिष्क देव के आवास का विवरण सुन सूत्र-८१-८४ चन्द्र, सूर्य, तारागण, नक्षत्र और ग्रहगण समूह इस पाँच तरह के ज्योतिषी देव बताए हैं । अब उसकी स्थिति और गति बताऊंगा । तिर्छालोक में ज्योतिषी के अर्धकपित्थ फल के आकारवाले स्फटिक रत्नमय, रमणीय अनगिनत विमान हैं । रत्नप्रभा पृथ्वी के समभूतल हिस्से से ७९० योजन ऊंचाई पर उसका निम्न तल है और वो समभूतला पृथ्वी से सूर्य ८०० योजन ऊपर है । उसी तरह चन्द्रमा ८८० योजन ऊपर है उसी तरह ज्योतिष देव का विस्तार ११० योजन में है। सूत्र-८५ एक योजन के ६१ हिस्से किए जाए तो ६१ वे हिस्से में ५६ वे हिस्से जितना चन्द्र परिमंडल होता है। और सूर्य का आयाम विष्कम्भ ४५ हिस्से जितना होता है। सूत्र-८६ जिसमें ज्योतिषी देव श्रेष्ठ तरुणी के गीत और वाद्य की आवाझ के कारण से हमेशा सुख और प्रमोद से पसार होनेवाले काल को नहीं जानते । सूत्र-८७-९० एक योजन के ६१ हिस्से में से ५६ हिस्से विस्तारवाला चन्द्रमंडल होता है और २८ जितनी चौड़ाई होती है। ४८ भाग जितने फैलाववाला सूर्यमंडल और २४ हिस्से जितनी चौड़ाई होती है । ग्रह आधे योजन विस्तार से उससे आधे विस्तार में नक्षत्र समूह और उसके आधे विस्तार में तारासमूह होता है। उससे आधे विस्ता उसकी चौड़ाई होती है। एक योजन का आधा दो गाउ होता है । उसमें गाउ ५०० धनुष का होता है । यह ग्रहनक्षत्र समूह और मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (देवेन्द्रस्तव) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 8 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ३२, पयन्नासूत्र-९, देवेन्द्रस्तव' ताराविमान का विष्कम्भ है। सूत्र- ९१ जिसका जो आयाम विष्कम्भ है उससे आधी उसकी चौड़ाई होती है । और उससे तीन गुनी अधिक परिधि होती है ऐसा जान। सूत्र - ९२-९३ चन्द्र-सूर्य विमान का वहन १६००० देव करते हैं, ग्रह विमान का वहन ८००० देव करते हैं । नक्षत्र विमान का वहन ४००० देव करते हैं और तारा विमान का वहन २००० देव करते हैं । वो देव पूर्व में सिंह, दक्षिण में महाकाय हाथी, पश्चिम में बैल और उत्तर में घोड़े के रूप में वहन करते हैं । सूत्र- ९४ ___ चन्द्र-सूर्य, ग्रह-नक्षत्र और तारे एक-एक से तेज गति से चलते हैं। सूत्र-९५ चन्द्र की गति सब से कम, तारों की गति सब से तेज है। इस प्रकार ज्योतिष्क देव की गति विशेष जानना सूत्र- ९६ ऋद्धि में तारे, नक्षत्र, ग्रह, सूर्य, चन्द्र एक एक से ज्यादा ऋद्धिवान् जानना । सूत्र- ९७ सबके भीतर अभिजित नक्षत्र है, सबसे बाहर मूल नक्षत्र। ऊपर स्वाति नक्षत्र है और नीचे भरणी नक्षत्र है सूत्र-९८ निश्चय से चन्द्र सूर्य के बीच सभी ग्रह-नक्षत्र होते हैं। चन्द्र और सूर्य के बराबर नीचे और ऊपर तारे होते हैं सूत्र- ९९-१०० तारों का परस्पर जघन्य अन्तर ५०० धनुष और उत्कृष्ट फाँसला ४००० धनुष (दो गाउ) होता है । व्यवधान की अपेक्षा से तारों का फाँसला जघन्य २६६ योजन और उत्कृष्ट से १२२४२ योजन है। सूत्र-१०१ इस चन्द्रयोग की ६७ खंडित अहोरात्रि, ९ मुहर्त और २७ कला होती है। सूत्र - १०२-१०४ शतभिषा, भरणी, आर्द्रा, आश्लेषा, स्वाति और ज्येष्ठा यह छ नक्षत्र १५ मुहूर्त संयोगवाले हैं । तीनों उत्तरा नक्षत्र और पुनर्वसु, रोहिणी, विशाखा यह छ नक्षत्र चन्द्रमा के साथ ४५ मुहूर्त का संयोग करते हैं । बाकी पंद्रह नक्षत्र चन्द्रमा के साथ ३० महर्त का संयोग करते हैं इस तरह चन्द्रमा के साथ नक्षत्र का योग जानना। सूत्र-१०५-१०८ अभिजित नक्षत्र सूर्य के साथ चार अहोरात्रि और छ मुहूर्त एक साथ गमन करते हैं । शतभिषा, भरणी, आर्द्रा, आश्लेषा, स्वाति और ज्येष्ठा यह छ नक्षत्र छ अहोरात्रि और २१ मुहूर्त तक सूर्य के साथ भ्रमण करते हैं । तीन उत्तरा नक्षत्र और पुनर्वसु, रोहिणी और विशाखा यह छ नक्षत्र २० अहोरात्रि और तीन मुहूर्त तक सूर्य के साथ भ्रमण करते हैं । बाकी के १५ नक्षत्र १३ अहोरात्रि और १२ मुहूर्त सूर्य के साथ भ्रमण करते हैं। सूत्र-१०९-११२ दो चन्द्र, दो सूर्य, ५६ नक्षत्र, १७६ ग्रह वो सभी जम्बूद्वीप में विचरण करते हैं । १३३९५० कोड़ाकोड़ी तारागण जम्बूद्वीप में होते हैं । लवण समुद्र में ४ चन्द्र, ४ सूर्य, ११२ नक्षत्र और ३५२ ग्रह भ्रमण करते हैं और २६७९०० कोड़ाकोड़ी तारागण हैं। मुनि दीपरत्नसागर कृत् ' (देवेन्द्रस्तव)" आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 9 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ३२, पयन्नासूत्र-९, देवेन्द्रस्तव' सूत्र - ११३-११७ घातकी खंड में १२ चन्द्र, १२ सूर्य, ३३६ नक्षत्र, १०५६ ग्रह और ८०३७०० कोड़ाकोड़ी तारागण होते हैं । कालोदधि समुद्र में तेजस्वी किरण से युक्त ४२ चन्द्र, ४२ सूर्य, ११७६ नक्षत्र, ३६९६ ग्रह और २८१२९५० कोड़ाकोड़ी तारागण होते हैं। सूत्र - ११८-१२३ पुष्करवरद्वीप में १४४ चन्द्र, १४४ सूर्य, ४०३२ नक्षत्र, १२६३२ ग्रह, ९६४४४०० कोड़ाकोड़ी तारागण विचरण करते हैं । अर्धपुष्करवरद्वीप में ७२ चन्द्र, ७२ सूर्य, ६३३६ महाग्रह, २०१६ नक्षत्र और ४८२२२०० कोड़ाकोड़ी तारागण हैं। सूत्र - १२४-१२६ समस्त मानवलोक को १३२ चन्द्र, १३२ सूर्य, ११६१६ महाग्रह, ३६९६ नक्षत्र और ८८४०७०० कोड़ाकोड़ी तारागण प्रकाशित करते हैं। सूत्र-१२७ संक्षेप में मानवलोक में यह नक्षत्र समूह कहा है । मानवलोक की बाहर जिनेन्द्र द्वारा असंख्य तारे बताएं हैं सूत्र- १२८ इस तरह मानवलोक में जो सूर्य आदि ग्रह बताएं हैं वो कदम्ब वृक्ष के फूल की समान विचरण करते हैं । सूत्र - १२९ इस तरह मानवलोक में सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र बताएं हैं जिसके नाम और गोत्र सामान्य बुद्धिवाले मानव नहीं कह सकते। सूत्र-१३०-१३५ मानवलोक में चन्द्र और सूर्य की ६६ पीटक है और एक पीटक में दो चन्द्र और सूर्य हैं । नक्षत्र आदि की ६६ पीटक और एक पीटक में ५६ नक्षत्र हैं । महाग्रह ११६ है । इसी तरह मानवलोक में चन्द्र-सूर्य की ४-४ पंक्ति है। हर एक पंक्ति में ६६ चन्द्र, ६६ सूर्य है । नक्षत्र की ५६ पंक्ति है और हर एक पंक्ति में ६६-६६ नक्षत्र है । ग्रह की ७६ पंक्ति होती है हरएक में ६६-६६ ग्रह होते हैं। सूत्र-१३६ चन्द्र, सूर्य और ग्रह समूह अनवरित रूप से उस मेरु पर्वत की परिक्रमा करते हुए सभी मेरु पर्वत की मंडलाकार प्रदक्षिणा करते हैं। सूत्र-१३७ उसी तरह नक्षत्र और ग्रह के नित्य मंडल भी जानने वो भी मेरु पर्वत की परिक्रमा मंडल के आकार से करते हैं। सूत्र - १३८ चन्द्र और सूर्य की गति ऊपर नीचे नहीं होती लेकिन अभ्यंतर-बाह्य तिरछी और मंडलाकार होती है। सूत्र-१३९ चन्द्र, सूर्य, नक्षत्र आदि ज्योतिष्क के परिभ्रमण विशेष द्वारा मानव से सुख और दुःख की गति होती है। सूत्र - १४० यह ज्योतिष्क देव निकट हो तो तापमान नियम से बढ़ता है और दूर हो तो तापमान कम होता है । मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (देवेन्द्रस्तव) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 10 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ३२, पयन्नासूत्र-९, देवेन्द्रस्तव' सूत्र-१४१ उसका ताप क्षेत्र कलम्बुक पुष्प संस्थान समान होता है और चन्द्र-सूर्य का तापक्षेत्र भीतर में संकुचित और बाहर से विस्तृत होता है। सूत्र-१४२ किस कारण से चन्द्रमा बढ़ता है और किस कारण से चन्द्रमा क्षीण होता है ? या किस कारण से चन्द्र की ज्योत्सना और कालिमा होती है ? सूत्र-१४३ राहु का काला विमान हमेशा चन्द्रमा के साथ चार अंगुल नीचे गमन करते हैं । सूत्र-१४४ शुक्लपक्ष में चन्द्र का ६२-६२ हिस्सा राहु से अनावृत्त होकर हररोज बढ़ता है और कृष्ण पक्ष में उतने ही वक्त में राहु से आवृत्त होकर कम होता है । सूत्र-१४५ चन्द्रमा के पंद्रह हिस्से क्रमिक राहु के पंद्रह हिस्सों से अनावृत्त होते जाते हैं और फिर आवृत्त होते जाते हैं। सूत्र-१४६ उस कारण से चन्द्रमा वृद्धि को और ह्रास को पाते हैं । उसी कारण से ज्योत्सना और कालिमा आते हैं। सूत्र - १४७, १४८ मानवलोक में पैदा होनेवाले और संचरण करनेवाले चन्द्र, सूर्य, ग्रह-समूह आदि पाँच तरह के ज्योतिष्क देव होते हैं। मानवलोक बाहर जो चन्द्र, सूर्य, ग्रह, तारे और नक्षत्र हैं उसकी गति भी नहीं और संचरण भी नहीं होता इसलिए उसे स्थिर ज्योतिष्क जानना । सूत्र - १४९-१५० यह चन्द्र-सूर्य जम्बूद्वीप में दो-दो, लवण समुद्र में चार-चार, धातकीखंड में बारह-बारह होते हैं । यानि कि जम्बूद्वीप में दुगुने, लवणसमुद्र में चार गुने और धातकीखंड में बारह गुने होते हैं । सूत्र - १५१ घातकी खंड के आगे के क्षेत्र में मतलब द्वीप समूह में सूर्य-चन्द्र की गिनती उसके पूर्व द्वीप समूह की गिनती से तीन तीन गुना करके और उसमें पूर्व के चन्द्र और सूर्य की गिनती बढ़ाकर मानना चाहिए । (जैसे कि कालोदधि समुद्र में ४२-४२ चन्द्र-सूर्य विचरण करते हैं, वो इस तरह पूर्व के लवणसमुद्र में १२-१२ हैं तो उसके तीन गुने यानि ३६ और उसमें पूर्व के जम्बूद्वीप दो और लवण समुद्र के चार चन्द्र सूर्य शामील करने से ४२ चन्द्र सूर्य होते हैं, इस तरह से आगे-आगे की गिनती होती है। सूत्र-१५२ यदि तू द्वीप समुद्र में नक्षत्र, ग्रह, तारों की गिनती जानने की ईच्छा रखती हो तो एक चन्द्र परिवार की गिनती से दुगुने करने से वो द्वीप समुद्र के नक्षत्र, ग्रह और तारों की गिनती जान सकती है। सूत्र - १५३ मानुषोत्तर पर्वत के बाहर चन्द्र और सूर्य अव्यवस्थित हैं, वहाँ चन्द्रमा अभिजित नक्षत्र के योगवाला और सूर्य पुष्य नक्षत्र के योगवाला होता है। मुनि दीपरत्नसागर कृत् ' (देवेन्द्रस्तव)" आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 11 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ३२, पयन्नासूत्र-९, देवेन्द्रस्तव' सूत्र-१५४ सूर्य से चन्द्र और चन्द्र से सूर्य का अन्तर ५० हजार योजन से कम नहीं होता। सूत्र - १५५ चन्द्र का चन्द्र से और सूर्य का सूर्य से १ लाख योजन होता है । सूत्र - १५६ चन्द्रमा से सूर्य अंतरित है और प्रदीप्त सूर्य से चन्द्रमा अंतरीत है। वे अनेक वर्ण के किरणवाला है। सूत्र-१५७ एक चन्द्र परिवार के ८८ ग्रह और २८ नक्षत्र होते हैं । सूत्र-१५८ ६६९७५ कोड़ाकोड़ी तारागण होता है। सूत्र - १५९-१६० सूर्य देव की आयुदशा १ हजार वर्ष पल्योपम और चन्द्र देव की आयु दशा १ लाख वर्ष पल्योपम से अधिक, ग्रह की १पल्योपम, नक्षत्र की आधा पल्योपम और तारों की १/४ पल्योपम कहा है। सूत्र - १६१ ज्योतिष्क देव की जघन्यदशा पल्योपम का आठवा भाग और उत्कृष्ट स्थिति साधिक एक लाख पल्योपम वर्ष कही है। सूत्र-१६२ मैंने भवनपति, बाणव्यंतर और ज्योतिष्क देव की दशा कही है। अब महान ऋद्धिवाले १२ कल्पपति इन्द्र का विवरण करूँगा। सूत्र-१६३ पहले सौधर्मपति, दूसरे ईशानपति, तीसरे सनतकुमार, चौथे महिन्द्र । सूत्र - १६४ पाँचवे ब्रह्म, छठे लांतक, सातवे महाशुक्र, आठवे सहस्रार । सूत्र - १६५ नौवें आणत, दशवे प्राणत, ग्यारहवे आरण और बारवें अच्युत इन्द्र होते हैं। सूत्र-१६६ इस तरह से यह बारह कल्पपति इन्द्र कल्प के स्वामी कहलाए उनके अलावा देव को आज्ञा देनेवाला दूसरा कोई नहीं है। सूत्र - १६७ इस कल्पवासी के ऊपर जो देवगण है वो स्वशासित भावना से पैदा होते हैं । क्योंकि ग्रैवेयक में दास भाव या स्वामी भाव से उत्पत्ति मुमकीन नहीं है। सूत्र - १६८ जो सम्यकदर्शन से पतित है लेकिन श्रमणवेश धारी हैं उस की उत्पत्ति उत्कृष्ट रूपमें ग्रैवेयक तक होती है सूत्र - १६९ यहाँ सौधर्म कल्पपति शक्र महानुभव के ३२ लाख विमान हैं। मुनि दीपरत्नसागर कृत् ' (देवेन्द्रस्तव)" आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 12 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ३२, पयन्नासूत्र-९, देवेन्द्रस्तव' सूत्र - १७० ईशानेन्द्र के २८ लाख, सनत्कुमार के १२ लाख । सूत्र - १७१ माहेन्द्र में ८ लाख, ब्रह्मलोक में ४ लाख । सूत्र-१७२ लांतक में ५० हजार, महाशुक्र में ४० हजार सहस्रार में छ हजार । सूत्र-१७३ आणत-प्राणत में ४००, आरण अच्युण में ३०० विमान कहा है। सूत्र - १७४-१७८ इस तरह से हे सुंदरी ! जिस कल्प में जितने विमान कहे हैं उस कल्पपति की दशा विशेष से सुन । शुक्र महानुभाग की दो सागरोपम, ईशानेन्द्र की साधिक दो सागरोपम, सनत्कुमारेन्द्र की सात सागरोपम । माहेन्द्र की साधिक सात सागरोपम, ब्रह्मलोकेन्द्र की दश सागरोपम, लांतकेन्द्र की १४ सागरोपम, महाशुक्रेन्द्र की १७ सागरोपम । सहस्रारेन्द्र की १५ सागरोपम, आनत कल्पे १९ और प्राणत कल्पे २० सागरोपम । आरण कल्पे २१ सागरोपम और अच्युत कल्पे २२ सागरोपम आयु दशा जानना। सूत्र-१७९ इस तरह कल्पपति के कल्प में आयु दशा कही अब अनुत्तर और ग्रैवेयक विमान के विभागों को सुनो। सूत्र - १८०-१८२ अधो-मध्यम-ऊर्ध्व तीन ग्रैवेयक हैं और हर एक के तीन प्रकार है । इस तरह से ग्रैवेयक नौ है । सुदर्शन, अमोघ, सुप्रबुद्ध, यशोधर, वत्स, सुवत्स, सुमनस, सोमनस और प्रियदर्शन । । नीचे के ग्रैवेयक में १११, मध्यम ग्रैवेयक में १०७ ऊपर के ग्रैवेयक में १०० और अनुत्तरोपपातिक में पाँच विमान बताएं हैं। सूत्र-१८३ हे नमितांगि! सबसे नीचेवाले ग्रैवेयक देव की आयु २३ सागरोपम है, बाकी ऊपर के आठ में क्रमिक १-१ सागरोपम आयु दशा बढ़ती जाती है। सूत्र - १८४-१८६ विजय वैजयन्त-जयन्त अपराजित ये चार क्रमिक । पूर्व-दक्षिण-पश्चिम-उत्तर में स्थित है । मध्य में सर्वार्थ सिद्ध नाम का पाँचवा विमान है । इन सभी विमान की स्थिति ३३ सागरोपम कही है । सर्वार्थसिद्ध में अजघन्योत्कृष्ट ३३ सागरोपम कही है। सूत्र - १८७-१८८ नीचे-ऊपर के दो-दो कल्पयुगल अर्थात् यह आठ विमान अर्ध चन्द्राकार हैं और मध्य के चार कल्प पूर्ण चंद्राकार हैं । ग्रैवेयक देव के विमान तीन-तीन पंक्ति में है । अनुत्तर विमान हुल्लक-पुष्प के आकार के होते हैं। सूत्र-१८९ सौधर्म और ईशान इन दोनों कल्प में देव-विमान धनोदधि पर प्रतिष्ठित हैं । सनत्कुमार, माहेन्द्र और ब्रह्म उन तीन कल्प में वायु के ऊपर प्रतिष्ठित है और लांतक, महाशुक्र और सहस्रार ये तीन घनोदधि, घनवात दोनों के आधार पर प्रतिष्ठित है। मुनि दीपरत्नसागर कृत् ' (देवेन्द्रस्तव)" आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 13 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ३२, पयन्नासूत्र-९, देवेन्द्रस्तव' सूत्र - १९० इस के ऊपर सभी विमान आकाशान्तर प्रतिष्ठित है। इस तरह ऊर्ध्वलोक के विमान की आधारविधि बताई सूत्र - १९१-१९२ भवनपति और व्यंतर देव में कृष्ण, नील, कापोत और तेजोलेश्या होती है । ज्योतिष्क, सौधर्म और ईशान देव में तेजोलेश्या होती है । सनत्कुमार, माहेन्द्र और ब्रह्मलोक में पद्मलेश्या होते हैं । उनके ऊपर के देव में शुक्ल लेश्या होती है। सूत्र-१९३ सौधर्म और ईशान दो कल्पवाले देव का वर्ण तपे हए सोने जैसा, सनत्कुमार, माहेन्द्र और ब्रह्मलोक के देव का वर्ण पद्म जैसा श्वेत और उसके ऊपर के देव का वर्ण शुक्ल होता है । सूत्र-१९४-१९६ भवनपति, वाणव्यंतर और ज्योतिष्क देव की ऊंचाई सात हाथ जितनी होती है । हे सुंदरी ! अब ऊपर के कल्पपति देव की ऊंचाई सुन । सौधर्म और ईशान की सात हाथ प्रमाण-उसके ऊपर के दो-दो कल्प समान होते हैं और एक-एक हाथ प्रमाण नाप कम होता जाता है । ग्रैवेयक के दो हाथ प्रमाण और अनुत्तर विमानवासी की ऊंचाई एक हाथ प्रमाण होती है। सूत्र-१९७ एक कल्प से दूसरे कल्प के देव की स्थिति एक सागरोपम से अधिक होती है और उसकी ऊंचाई उससे ११ भाग कम होती है। सूत्र - १९८ विमान की ऊंचाई और उसकी पृथ्वी की चौड़ाई उन दोनों का प्रमाण ३२०० योजन होता है। सूत्र - १९९-२०२ भवनपति, वाणव्यंतर और ज्योतिष्क देव की कामक्रीड़ा शारीरिक होती है । हे सुंदरी ! अब तू कल्पपति की कामक्रीड़ा विधि सुन । सौधर्म और ईशान कल्प में जो देव हैं उसकी कामक्रीड़ा शारीरिक होती है । सनत्कुमार और माहेन्द्र की स्पर्श के द्वारा होती है । ब्रह्म और लांतक के देव की चक्षु द्वारा होती है । महाशुक्र और सहस्रार देव की कामक्रीड़ा श्रोत्र (कान) द्वारा होती है । आणतप्राणत, आरण, अच्युत कल्प के देव की मन से होती है, और इसके ऊपर के देव की कामक्रीड़ा नहीं होती। सूत्र - २०३ गोशीर्ष, अगरु, केतकी के पान, पुन्नाग के फूल, बकुल की सुवास, चंपक और कमल की खुशबू और तगर आदि की खुशबू देवता में होती है। सूत्र - २०४ यह गन्धविधि संक्षेप में उपमा द्वारा कही है । देवता नजर से स्थिर और स्पर्श की अपेक्षा में सुकुमार होते सूत्र - २०५-२०७ ऊर्ध्वलोक में विमान की गिनती ८४९७०२३ है । उसमें पुष्प आकृतिवाले ८४८९१५४ हैं । श्रेणीबद्ध विमान ७८७४ हैं । बाकी के विमान पुष्पकर्णिका आकृतिवाले हैं। मुनि दीपरत्नसागर कृत् - (देवेन्द्रस्तव). आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 14 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ३२, पयन्नासूत्र-९, देवेन्द्रस्तव' सूत्र - २०८ विमान की पंक्ति का अंतर निश्चय से असंख्यात योजन और पुष्पकर्णिका आकृतिवाले विमान का अन्तर संख्यात-संख्यात योजन बताया है। सूत्र-२०९ आवलिका प्रविष्ट विमान गोल, त्रिपाई और चतुष्कोण होते हैं । जबकि पुष्पकर्णिका की संरचना अनेक आकार की होती है। सूत्र - २१० गोल विमान कंकणाकृति जैसे, त्रिपाई शींगोड़े जैसे और चतुष्कोण पासा के आकार के होते हैं । सूत्र-२११ प्रथम वृत्त विमान, बाद में त्रीकोन, बाद में चतुरस्र फिर ईसी क्रम से विमान होते हैं । सूत्र - २१२ विमान की पंक्ति वर्तुलाकार पर वर्तुलाकार, त्रिपाई पर त्रिपाई, चतुष्कोण पर चतुष्कोण होता है। सूत्र - २१३ सभी विमान का अवलम्बन रस्सी की तरह ऊपर से नीचे एक कोने से दूसरे तक समान होते हैं। सूत्र - २१४ सभी वर्तुलाकार विमान प्राकार से घिरे हुए और चतुष्कोण विमान चारों दिशा में वेदिकायुक्त बताए हैं। सूत्र - २१५ जहाँ वर्तुलाकार विमान होते हैं वहाँ त्रिपाई विमान की वेदिका होती है । बाकी के पाँच हिस्से में प्राकार होता है। सूत्र - २१६ सभी वर्तुलाकार विमान एक द्वारवाले होते हैं । त्रिपाई विमान तीन और चतुष्कोण विमान में चार दरवाजे होते हैं। यह वर्णन कल्पपति के विमान का जानना । सूत्र-२१७ भवनपति देव के ७ करोड ७२ लाख भवन होते हैं । यह भवन का संक्षिप्त कथन कहा। सूत्र - २१८ तिmलोक में पैदा होनेवाले वाणव्यंतर देव के असंख्यात भवन होते हैं । उससे संख्यात गुने अधिक ज्योतिषी देव के होते हैं। सूत्र - २१९ विमानवासी देव अल्प हैं । उससे व्यंतर देव असंख्यात गुने हैं । उससे संख्यात गुने अधिक ज्योतिष्क देव होते हैं। सूत्र-२२० सौधर्म देवलोक में देवीओं के अलग विमान की गिनती छ लाख होती है । और ईशान कल्प में चार लाख होती है। सूत्र - २२१ पाँच तरह के अनुत्तर देव गति, जाति और दृष्टि की अपेक्षा से श्रेष्ठ है और अनुपम विषयसुख वाले हैं। मुनि दीपरत्नसागर कृत् ' (देवेन्द्रस्तव)" आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 15 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ३२, पयन्नासूत्र-९, देवेन्द्रस्तव' सूत्र-२२२ जिस तरह सर्वश्रेष्ठ गन्ध, रूप और शब्द होते हैं उसी तरह सचित्त पुद्गल के भी सर्वश्रेष्ठ रस, स्पर्श और गन्ध इस देव के होते हैं। सूत्र-२२३ जैसे भँवरा फैली हुई कली, फैली हुई कमलरज और श्रेष्ठ कुसुम की मकरंद का सुख से पान करता है। (उसी तरह यह देव पौदगलिक विषय सेवन करते हैं ।) सूत्र - २२४ हे सुंदरी ! यह देव श्रेष्ठ कमल जैसे श्वेत वर्णवाले एक ही उद्भव स्थान में निवास करनेवाले और वो उद्भव स्थान से विमुक्त होकर सुख का अहसास करते हैं । सूत्र - २२५-२२७ हे सुंदरी ! अनुत्तर विमानवासी देव को ३३ हजार साल पूरे होने पर आहार की ईच्छा होती है । मध्यवर्ती आयु धारण करनेवाले देव को १६५०० साल पूरे होने पर आहार ग्रहण होता है । जो देव १० हजार साल की आयु धारण करते हैं उनका आहार एक-एक दिन के अन्तर से होता है। सूत्र - २२८-२३० हे सुंदरी ! एक साल साड़े चार महिने अनुत्तरवासी देव के श्वासोच्छ्वास होते हैं । मध्यम आयु देव को आठ मास और साड़े सात दिन के बाद श्वासोच्छ्वास होते हैं । जघन्य आयु को धारण करनेवाले देव का श्वासोच्छ् वास सात स्तोक में पूर्ण होता है। सूत्र-२३१ देव को जितने सागरोपम की जिनकी दशा उतने ही दिन साँस होती है। सूत्र- २३२ ____ और उतने ही हजार साल पर उन्हें आहार की ईच्छा होती है । इस तरह आहार और श्वासोच्छ्वास का मैंने वर्णन किया, हे सुंदरी ! अब जल्द उनके सूक्ष्म अन्तर को मैं क्रमश: बताऊंगा। सूत्र - २३३ हे सुंदरी ! इस देव का जो विषय जितनी अवधि का होता है उसको मैं आनुपूर्वी क्रम से वर्णन करूँगा। सूत्र - २३४ सौधर्म और ईशान देव नीचे एक नरक तक, सनतकुमार और महिन्द्र दूसरे नरक तक, ब्रह्म और लांतक तीसरे नरक तक शुक्र और सहस्रार चौथी नरक तक। सूत्र-२३५ आनत से अच्युत तक के देवों को पाँचवे नरक तक। सूत्र - २३६ अधस्तन और मध्यवर्ती ग्रैवेयक देवों को छठी नरक तक, उपरितन ग्रैवेयकों को सातवी नरक तक और पाँच अनुत्तरवासी सम्पूर्ण लोकनाड़ी को अवधिज्ञान से देखते हैं । सूत्र-२३७ आधा सागरोपम से कम आयुवाले देव अवधिज्ञान से तिर्छा संख्यात योजन-उससे अधिक पच्चीस सागरोपम वाले भी जघन्य से संख्यात योजन देखते हैं। मुनि दीपरत्नसागर कृत् ' (देवेन्द्रस्तव)" आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 16 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ३२, पयन्नासूत्र-९, देवेन्द्रस्तव' सूत्र - २३८ उससे ज्यादा आयुवाले देव तिर्छा असंख्यात द्वीप-समुद्र तक जानते हैं । ऊपर सभी अपने कल्प की ऊंचाई तक जानते हैं। सूत्र - २३९ अबाह्य अर्थात् जन्म से अवधिज्ञान वाले नारकी देव, तीर्थंकर पूर्णता से देखते हैं और बाकी अवधिज्ञानी देश से देखते हैं। सूत्र- २४० मैंने संक्षेप में यह अवधिज्ञानी विषयक वर्णन किया । अब विमान का रंग, चौडाई और ऊंचाई बताऊंगा। सूत्र- २४१ ___ सौधर्म और ईशान कल्प में पृथ्वी की चौड़ाई २७०० योजन है और वो रत्न से चित्रित जैसी है। सूत्र - २४२ सुन्दर मणी की वेदिका से युक्त, वैडुर्यमणि के स्तूप से युक्त, रत्नमय हार और अलंकार युक्त ऐसे कई प्रासाद इस विमान में होते हैं। सूत्र- २४३ उसमें जो कृष्ण विमान है वो स्वभाव से अंजन धातु समान एवं मेघ और काक समान वर्णवाले होते हैं। जिसमें देवता बसते हैं। सूत्र - २४४ जो हरे रंग के विमान हैं वो स्वभाव से मेदक धातु समान और मोर की गरदन समान वर्णवाले हैं जिसमें देवता बसते हैं। सूत्र - २४५ जो दीपशिखा के रंगवाले विमान हैं वो जासूद पुष्प, सूर्य जैसे और हिंगुल धातु के समान वर्णवाले हैं उसमें देवता बसते हैं। सूत्र-२४६ उसमें जो कोरंटक धातु समान रंगवाले विमान हैं वो खीले हुए फूल की कर्णिका समान और हल्दी जैसे पीले रंग के हैं जिसमें देवता बसते हैं । सूत्र - २४७ यह देवता कभी न मुरझानेवाले हारवाले, निर्मल देहवाले, गन्धदार श्वासोच्छ्वास वाले अव्यवस्थित वयवाले, स्वयं प्रकाशमान और अनिमिष आँखवाले होते हैं। सूत्र-२४८ वे सभी देवता ७२ कला में पंड़ित होते हैं । भवसंक्रमण प्रक्रिया में उसका प्रतिपात होता है ऐसा जानना । सूत्र - २४९ शुभ कर्म के उदयवाले उन देव का शरीर स्वाभाविक तो आभूषण रहित होता है । लेकिन वो अपनी ईच्छा के मुताबिक विकुर्वित आभूषण धारण करते हैं । सूत्र-२५० सौधर्म ईशान के यह देव माहात्म्य, वर्ण, अवगाहना, परिमाण और आयु मर्यादा आदि दशा विशेष में हमेशा गोल सरसव समान एकरूप होता है। मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (देवेन्द्रस्तव) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 17 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ३२, पयन्नासूत्र-९, देवेन्द्रस्तव' सूत्र - २५१-२५२ ___ इस कल्प में हरे, पीले, लाल, श्वेत और काले वर्णवाले पाँचसौ ऊंचे प्रासाद शोभायमान हैं । वहाँ सेंकड़ों मणि जड़ित कई तरह के आसन, शय्या, सुशोभित विस्तृत वस्त्र रत्नमय हार और अलंकार होते हैं। सूत्र - २५३ सनत्कुमार और माहेन्द्र कल्प में पृथ्वी की चौड़ाई २६०० योजन है । वो पृथ्वी रत्न से चित्रित है । सूत्र - २५४-२५५ वहाँ हरे, पीले, लाल, श्वेत और काले ऐसे ६०० ऊंचे प्रासाद शोभायमान हैं । सेंकड़ों मणिजड़ित, कई तरह के आसन-शय्या, सुशोभित विस्तृतवस्त्र, रत्नमय हार और अलंकार होते हैं। सूत्र-२५६-२५७ ब्रह्म और लांतक कल्प में पृथ्वी की चौड़ाई २४०० योजन है जो पृथ्वी रत्न से चित्रित होती है । सुन्दर मणि और वेदिका, वैडूर्य मणि की स्तुपिका, रत्नमय हार और अलंकार युक्त कईं तरह के प्रासाद इस विमान में होते हैं। सूत्र - २५८ वहाँ लाल, पीले और श्वेत वर्णवाले ७०० ऊंचे प्रासाद शोभायमान हैं। सूत्र-२५९-२६० शुक्र और सहस्रार कल्प में पृथ्वी की चौड़ाई २४०० योजन होती है वो पृथ्वी रत्न से चित्रित होती है । सुन्दर मणि और वेदिका, वैडुर्य मणि की स्तुपिका, रत्नमय हार और अलंकार युक्त ऐसे कई तरह के प्रासाद होते हैं। सूत्र-२६१ पीले और श्वेत वर्णवाले ५०० ऊंचे प्रासाद शोभायमान हैं। सूत्र - २६२ वहाँ सेंकड़ों मणिजड़ित कईं तरह के आसन, शय्या, सुशोभित विस्तृत वस्त्र, रत्नमय माला और अलंकार होते हैं। सूत्र - २६३-२६५ आणत-प्राणत कल्प में पृथ्वी की मोटाई २३०० योजन होती है । वो पृथ्वी रत्न से चित्रित होती है । सुन्दर मणि की वेदिका, वैडुर्य मणि की स्तुपिका, रत्नमय हार और अलंकार युक्त कईं तरह के वहाँ प्रासाद हैं । और शंख और हिम जैसे श्वेत वर्णवाले ९०० ऊंचे प्रासाद से शोभायमान हैं। सूत्र- २६६ ग्रैवेयक विमानों में पृथ्वी की मोटाई २२०० योजन होती है। सूत्र- २६७ उस विमान में सुन्दर मणिमय वेदिका, वैडूर्य मणि की स्तुपिका और रत्नमय अलंकार होते हैं । सूत्र - २६८ वहाँ शंख और हीम जैसे श्वेत वर्णवाले १००० ऊंचे प्रासाद शोभायमान हैं। सूत्र - २६९-२७२ पाँच अनुत्तर विमान में २१०० योजन पृथ्वी की चौड़ाई होती हो वो पृथ्वी रत्न से चित्रित है । सुन्दर मणि की वेदिका, वैडूर्य मणि की स्तुपिका, रत्नमय हार और अलंकार युक्त कई तरह के प्रासाद वहाँ हैं। और शंख और मुनि दीपरत्नसागर कृत् - (देवेन्द्रस्तव). आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 18 Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ३२, पयन्नासूत्र-९, देवेन्द्रस्तव' हिम जैसे श्वेत वर्णवाले ११०० ऊंचे प्रासाद शोभायमान हैं | सेंकड़ों मणिजड़ित कई तरह के आसन, शय्या, सुशोभित विस्तृत वस्त्र, रत्नमय हार और अलंकार होते हैं । सूत्र-२७३-२७४ सर्वार्थसिद्ध विमान के सबसे ऊंचे स्तूप के अन्त में बारह योजन पर ईषत् प्राग्भारा पृथ्वी होती है । उसे निर्मल जलकण हिम, गाय का दूध, समुद्र के झाग जैसे उज्ज्वल वर्णवाली और उल्टे किए गए छत्र के आकार से स्थिर कहा है। सूत्र- २७५-२७६ वो ४५ लाख योजन लम्बी-चौड़ी और उससे तीन गुने से कुछ ज्यादा परिधि होती है वैसा जानना । यह परिधि १४२३०२४९ है। सूत्र - २७७-२७८ वो पृथ्वी बीच में ८ योजन चौड़ी और कम होते होते मक्खी के पंख की तरह पतली होती जाती है । शंख, श्वेत रत्न और अर्जुन सुवर्ण समान वर्णवाली उल्टे छत्र के आकार वाली है। सूत्र - २७९ सिद्ध शिला पर एक योजन के बाद लोक का अन्त होता है । उस एक योजन के ऊपर के सोलहवे हिस्से में सिद्ध स्थान अवस्थित है। सूत्र-२८० वहाँ वो सिद्ध निश्चय से वेदना रहित, ममता रहित, आसक्ति रहित और शरीर रहित घनीभूत आत्मप्रदेश से निर्मित आकारवाले होते हैं। सूत्र-२८१ सिद्ध कहाँ अटकते हैं ? कहाँ प्रतिष्ठित होते हैं ? शरीर का कहाँ त्याग करते हैं ? और फिर कहाँ जाकर सिद्ध होते हैं? सूत्र- २८२ सिद्ध भगवंत अलोक के पास रुकते हैं, लोकाग्र में प्रतिष्ठित होते हैं यहाँ शरीर को छोड़ते हैं और वहाँ जाकर सिद्ध होते हैं। सूत्र - २८३ शरीर छोड़ देते वक्त अंतिम वक्त पर जो संस्थान हो, उसी संस्थान को ही आत्म प्रदेश घनीभूत होकर वे सिद्ध अवस्था पाते हैं। सूत्र- २८४ अन्तिम भव में शरीर का जो दीर्घ या ह्रस्व प्रमाण होता है । उसका एक तृतीयांश हिस्सा कम होकर सिद्ध की अवगाहना होती है। सूत्र- २८५ सिद्ध की उत्कृष्ट अवगाहना ३३३ धनुष से कुछ ज्यादा होती है वैसा समज । सूत्र - २८६ सिद्ध की मध्यम अवगाहना ४ हाथ पूर्ण के ऊपर दो तृतीयांश हस्त प्रमाण कहा है। रत्नी यानि एक हाथ प्रमाण जिसमें कोश में देढ फूट प्रमाण कहा है। मुनि दीपरत्नसागर कृत् ' (देवेन्द्रस्तव)" आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 19 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ३२, पयन्नासूत्र-९, देवेन्द्रस्तव' सूत्र - २८७ जघन्य अवगाहना १ हाथ प्रमाण और आठ अंगुल से कुछ अधिक है। सूत्र - २८८ अन्तिम भव के शरीर के तीन हिस्सों में से एक हिस्सा न्यून त दो तृतीयांश प्रमाण सिद्ध की अवगाहना कही है। सूत्र - २८९ जरा और मरण से विमुक्त अनन्त सिद्ध होते हैं । वे सभी लोकान्त को छूते हुए एक दूसरे की अवगाहना करते हैं। सूत्र - २९० अशरीर सघन आत्मप्रदेशवाले अनाकार दर्शन और साकार ज्ञान में अप्रमत्त सिद्ध का लक्षण है । सूत्र-२९१ सिद्ध आत्मा अपने प्रदेश से अनन्त सिद्ध को छूता है । देश प्रदेश से सिद्ध भी असंख्यात गुना है। सूत्र - २९२ केवलज्ञान में उपयोगवाले सिद्ध सभी द्रव्य के हर एक गुण और हर एक पर्याय को जानते हैं । अनन्त केवल दृष्टि से सब देखते हैं। सूत्र- २९३ ज्ञान और दर्शन दोनों उपयोग में सभी केवली को एक समय एक उपयोग होता है । दोनों उपयोग एक साथ नहीं होता। सूत्र- २९४ देवगण समूह के समस्त काल के समस्त सुख को अनन्त गुने किए जाए और पुनः अनन्त वर्ग से वर्गित किया जाए तो भी मुक्ति के सुख की तुलना नहीं हो सकती। सूत्र - २९५ मुक्ति प्राप्त सिद्ध को जो अव्याबाध सुख है वो सुख मानव या समस्त देव को भी नहीं होता। सूत्र - २९६ सिद्ध के समस्त सुख-राशि को समस्त काल से गुना करके उसका अनन्त वर्गमूल नीकालने से प्राप्त अंक समस्त आकाश में समा नहीं सकता। सूत्र- २९७ जिस तरह किसी म्लेच्छ कई तरह के नगर गुण को जानता हो तो भी अपनी बोली में अप्राप्त उपमा द्वारा नहीं कह सकता। सूत्र - २९८ __ उस तरह सिद्ध का सुख अनुपम है । उसकी कोई उपमा नहीं है तो भी कुछ विशेषण द्वारा उसकी समानता कहूँगा । वो सुन - सूत्र-२९९-३०० कोई पुरुष सबसे उत्कृष्ट भोजन करके भूख-प्यास से मुक्त हो जाए जैसे कि अमृत से तृप्त हुआ हो । उस तरह से समस्त काल में तृप्त, अतुल, शाश्वत और अव्याबाध निर्वाण सुख पाकर सिद्ध सुखी रहते हैं। मुनि दीपरत्नसागर कृत् ' (देवेन्द्रस्तव)" आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 20 Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ३२, पयन्नासूत्र-९, देवेन्द्रस्तव' सूत्र-३०१ ___ वो सिद्ध हैं । बुद्ध हैं । पारगत हैं, परम्परागत हैं । कर्मरूपी कवच से उन्मुक्त, अजर, अमर और असंग हैं। सूत्र-३०२ जिन्होंने सभी दुःख दूर कर दिए हैं । जाति, जन्म, जरा, मरण के बन्धन से मुक्त, शाश्वत और अव्याबाध सुख का हमेशा अहसास करते हैं। सूत्र-३०३ समग्र देव की और उसके समग्र काल की जो ऋद्धि है उसका अनन्त गुना करे तो भी जिनेश्वर परमात्मा की ऋद्धि के अनन्तानन्त भाग के समान भी न हो। सूत्र-३०४ सम्पूर्ण वैभव और ऋद्धि युक्त भवनपति, वाणव्यंतर, ज्योतिष्क और विमानवासी देव भी अरहंतो को वंदन करनेवाले होते हैं। सूत्र-३०५ भवनपति, वाणव्यंतर, विमानवासी देव और ऋषि पालित अपनी-अपनी बुद्धि से जिनेश्वर परमात्मा की महिमा का वर्णन करते हैं। सूत्र-३०६ वीर और इन्द्र की स्तुति के कर्ता जिसमें खुद सभी इन्द्र की और जिनेन्द्र की स्तुति कीर्तन किया वो। सूत्र - ३०७ सूरो, असुरो, गुरु और सिद्धों (मुजे) सिद्धि प्रदान करो। सूत्र - ३०८ इस तरह भवनपति, वाणव्यंतर, ज्योतिष्क और विमानवासी देव निकाय देव की स्तुति (कथन) समग्र रूप से समाप्त हुआ। ३२ देवेन्द्रस्तव-प्रकिर्णक सूत्र-९ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् ' (देवेन्द्रस्तव)" आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 21 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र 32, पयन्नासूत्र-९, देवेन्द्रस्तव' नमो नमो निम्मलदंसणस्स પૂજ્યપાદ્ શ્રી આનંદ-ક્ષમા-લલિત-સુશીલ-સુધર્મસાગર ગુરૂભ્યો નમ: 32 देवेन्द्रस्तव आगमसूत्र हिन्दी अनुवाद [अनुवादक एवं संपादक] आगम दीवाकर मुनि दीपरत्नसागरजी ' [ M.Com. M.Ed. Ph.D. श्रुत महर्षि ] वेबसाएe:- (1) (2) deepratnasagar.in भेला भेड्रेस:- jainmunideepratnasagar@gmail.com मोना 09825967397 मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (देवेन्द्रस्तव) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 22