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आगम सूत्र ३२, पयन्नासूत्र-९, देवेन्द्रस्तव' सूत्र - २८७
जघन्य अवगाहना १ हाथ प्रमाण और आठ अंगुल से कुछ अधिक है। सूत्र - २८८
अन्तिम भव के शरीर के तीन हिस्सों में से एक हिस्सा न्यून त दो तृतीयांश प्रमाण सिद्ध की अवगाहना कही है। सूत्र - २८९
जरा और मरण से विमुक्त अनन्त सिद्ध होते हैं । वे सभी लोकान्त को छूते हुए एक दूसरे की अवगाहना करते हैं। सूत्र - २९०
अशरीर सघन आत्मप्रदेशवाले अनाकार दर्शन और साकार ज्ञान में अप्रमत्त सिद्ध का लक्षण है । सूत्र-२९१
सिद्ध आत्मा अपने प्रदेश से अनन्त सिद्ध को छूता है । देश प्रदेश से सिद्ध भी असंख्यात गुना है। सूत्र - २९२
केवलज्ञान में उपयोगवाले सिद्ध सभी द्रव्य के हर एक गुण और हर एक पर्याय को जानते हैं । अनन्त केवल दृष्टि से सब देखते हैं। सूत्र- २९३
ज्ञान और दर्शन दोनों उपयोग में सभी केवली को एक समय एक उपयोग होता है । दोनों उपयोग एक साथ नहीं होता। सूत्र- २९४
देवगण समूह के समस्त काल के समस्त सुख को अनन्त गुने किए जाए और पुनः अनन्त वर्ग से वर्गित किया जाए तो भी मुक्ति के सुख की तुलना नहीं हो सकती। सूत्र - २९५
मुक्ति प्राप्त सिद्ध को जो अव्याबाध सुख है वो सुख मानव या समस्त देव को भी नहीं होता। सूत्र - २९६
सिद्ध के समस्त सुख-राशि को समस्त काल से गुना करके उसका अनन्त वर्गमूल नीकालने से प्राप्त अंक समस्त आकाश में समा नहीं सकता। सूत्र- २९७
जिस तरह किसी म्लेच्छ कई तरह के नगर गुण को जानता हो तो भी अपनी बोली में अप्राप्त उपमा द्वारा नहीं कह सकता। सूत्र - २९८
__ उस तरह सिद्ध का सुख अनुपम है । उसकी कोई उपमा नहीं है तो भी कुछ विशेषण द्वारा उसकी समानता कहूँगा । वो सुन - सूत्र-२९९-३००
कोई पुरुष सबसे उत्कृष्ट भोजन करके भूख-प्यास से मुक्त हो जाए जैसे कि अमृत से तृप्त हुआ हो । उस तरह से समस्त काल में तृप्त, अतुल, शाश्वत और अव्याबाध निर्वाण सुख पाकर सिद्ध सुखी रहते हैं।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् ' (देवेन्द्रस्तव)" आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद"
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