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श्री हर्षपुष्पामृत जैन ग्रन्थमाला ग्रन्थांक: १३८ ॥ अर्हम् ॥
श्रीमहावीर जिनेन्द्राय नमः
हाला देशोद्धारक पू. आ. श्री विजयामृतसूरिभ्यो नमः
श्री श्रढार अभिषेक विधि
( कलश ध्वजारोपण विधि, अष्टमंगलश्लोको परिकरप्रतिष्ठाविधि साथै ) संपादक: संशोधकश्च तपोमूर्ति पू. आचार्यदेव श्रीविजयकर्पू रसूरीश्वर पट्टधर हालारदेशोद्धारक पू. आ. श्री विजयामृतसूरीश्वर पट्टषर:-- पूज्याचार्यदेव श्रीविजय जिनेन्द्रसूरीश्वरः प्रकाशिका :श्री हर्षपुष्पामृत जैन ग्रंथमाला - लाखा बावल - शांतिपुरी (सौराष्ट्र )
वीर सं० २५१३
वि० सं० २०४३
: सन् १६८७ :
:
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मूल्य कलाससागरसू
श्रीमहावीर जैन
द्वितीयावृत्तिः प्रसेवा (नगर) """""""@@@;"
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॥ २ ॥
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बे शब्द
अमारी ग्रन्थमाला तरफथी साहित्य प्रकाशनमा विविधिविषयना १७० ग्रन्थो प्रगट थया छे. तेमां आ ग्रन्थ १३८ मा ग्रन्थांक तरीके प्रगट थएल छे. २०४१ मां ते छपावेल तरत खपी जतां आ बीजो आवृत्ति छपावली छे. आ आवृत्तिमां १८ अभिषेक विधि उपरांत ध्वजारोपणविधि कलशारोपणविधि अष्टमंगल श्लोको परिकर प्रतिष्टा विधि उमेर्या छे. जे आ विषयने लगता विषयो छे.
सौ भक्तिप्रेमी आत्माओ आ ग्रन्थ द्वारा जिनाभिषेकादि करवा द्वारा स्वयं निर्मल थाओ एज अभिलाषा.
लि०
मेहता मगनलाल चत्रभुज
व्यव. श्री हर्षपुष्पामृत जैन ग्रन्थमाला
ता० १-९-८७ शाक मारकेट सामे 'जामनगर ( सौराष्ट्र )
क्रमः
५
अनुक्रमः
विधि: अढार अभिषेकविधिः कलशारोपण विधि: ध्वजारोपणविभिः
अष्टमंगलश्लोकाः
जिनबिम्बपरिकर प्रतिष्ठा विधिः
पृष्ठ
१
१४
१६
२०
२२
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पृष्ठ
८
शुद्धिपत्रकम्
अशुद्धं
पंक्ति:
१०
श्रीसिसि
शुद्धम् श्री सिद्धि
मुद्रक : गौतम आर्ट प्रिंटर्स ब्यावर ( राज० )
॥ २ ॥
Page #3
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RRI
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॥ अढार अभिषेक विधि ॥ ..एक नवी कुडीमा पवित्र जल नाखवु'. तेमा वास, चंदन, पुष्प विगेरे थोडां नाखी जे जे प्रकारनु स्नात्र करवानु होय ते स्नात्रचूर्ण नाखी तेना चार कलशो भरवा. पछी जिनमुद्राथी देवसन्मुख उभा रहीने दरेक स्नात्र माटे नीचे आपेला काव्यो तेमज गीत, गान, पंचशब्द वाजिंत्रो साथे मंत्रथी अभिमंत्रित करायेला स्नात्रजलथी अढार स्नात्रो करवा ते आ प्रमाणे
पहेलु (हिरण्योदक) स्नात्र सुवर्णना चूर्णथी (सोनाना परख मिश्रित न्हवणथी) चार कलशो भरी 'नमोऽहत्' कही नीचेनो श्लोक बोलवोपवित्रतीर्थनीरेण, गन्धपुष्पादिसंयुतैः। पतज्जलं बिम्बोपरि, हिरण्यं मन्त्रपूतनम् ॥१॥ सुवर्णद्रव्यसम्पूर्णं, चूर्णं कुर्यात्सुनिर्मलम् । ततः प्रक्षालनं चाभिः, पुष्पचन्दनसंयुतैः ॥ २ ॥
"ॐ हाँ ही परम अर्हते गन्धपुष्पाक्षतधूपसम्पूर्णैः स्वर्णेन स्नापयामीति स्वाहा" ए मंत्रोचारपूर्वक स्नात्र करी विने तिलक, पुष्प, वास, धूप विगेरेथी पूजन करवु. ॥ इति प्रथमस्नात्रम् ॥ ए रीते दरेक स्नात्र वखते करता रहे।
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अढार अभिषेक विधिः।
॥२॥
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बीजु (पंचरत्न चूर्ण) स्नात्र १ मोती, २ सोनु, ३ रूपु, ४ प्रवाल अने ५ तांबु ए पंचरत्ननु चूर्ण करी उपरनी जेमज कुडीमा वास चंदन पुष्प वाला पाणीमां नाखी चार कलशा भरी 'नमोऽहत' नो पाठ कही नीचेना श्लोको अने मंत्र बोली न्हवण करवु। . यन्नामस्मरणादपि श्रुतवशाद-प्यक्षरोच्चारतो, यत्पूर्ण प्रतिमा प्रणाम-करणासंदर्शनात्स्पर्शनात् ।। भव्यानां भवपङ्क-हानिरसकृत्स्यात्तस्य किंसत्पयः, स्नात्रेणापि तथा स्वभक्तिवशतो रत्नोत्सवे तत्पुनः॥१॥ नानारत्नौघसंयुतं, सुगन्धपुष्पाभिवासितं नीरम् । पततादिचित्रचूर्णं, मन्त्राढ्य स्थापनाबिम्बे ॥२॥
__ “ॐ हाँ ही परम अहंते मुक्तास्वर्णरौप्यप्रवालव्यम्बकपञ्चरत्नैः स्नापयामीति स्वाहा" आम दरेक स्नात्र काव्यो अने मंत्र बोलवापूर्वक ते ते स्नात्र करी तिलक, पुष्प, वास, धूप विगेरेथी पूजन करवु।
॥इति द्वितीयस्नात्रम् ॥
त्रीजु (कषाय) स्नात्र कषायचूर्णयुक्त पाणीना कलशो भरी 'नमोऽहत्' कही
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॥३॥
प्लक्षाश्वत्थोदशोक-श्रामच्छल्यादि-कल्कसंमिश्रम् । बिम्बे कषायनीरं, पततादधिवासितं जैने ॥१॥ पिप्पली पिप्पलश्चैव, शिरीषोम्बरकः पुनः। वटादिकं महाछल्ली, स्नापयामि जिनेश्वरम् ॥२॥ “ॐ हाँ ही परमअर्हते पिप्पल्यादिमहाछल्लैः स्नापयामीति स्वाहा"
॥ इति तृतीयस्नात्रम् ।। चोथु (मंगलमृतिका) स्नात्र आठ जातिनी माटीनुचूर्ण करी कलश भरवाना पाणीमा नाखी चार कलश भरवा 'नमोऽहत्' कहीपरोपकारकारी च, प्रवरः परमोज्वलः। भावना-भव्यसंयुक्तै-मृच्चूर्णेन च स्नापयेत् ॥१॥ पर्वतसरो-नदी-संगमादि-मृद्भिश्च मन्त्रपूताभिः। उदय॑ जैनबिम्ब, स्नापयाम्यधिवासना-समये ॥२॥ "ॐ हाँ ही परम अहंते नदीनगतीर्थादिमृच्चूर्णैः स्नापयामीति स्वाहा"। ॥ इति चतुर्थस्नात्रम् ॥
पांचमु (सदोषधि) स्नात्र औषधिओनु चूर्ण करी कलश भरवाना जलमा नाखवु'. 'नमोऽहत्' कहीसहदेवी शतमूली, शतावरी शंखपुष्पिका। कुमारी लक्ष्मणा चैव. स्नापयामि जिनेश्वरम
॥३॥
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अढार अभिषेक
विधिः ।
॥४॥
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सहदेव्यादिसदौषधि-वर्गेणोदत्तितस्य बिम्बस्य । गन्धतन्मिश्रं विम्बो-परिपतज्जलं हरतु दुरितानि ॥२॥
॥ इति पंचमस्नात्रम् ॥
'नमोऽर्हत' कही -
"ॐ हाँ ह्रीं परम अर्हते सहदेव्यादिसदौषधिना सह स्नापयामीति स्वाहा " छट्टु (प्रथमाष्टकवर्ग ) स्नात्र उपलोट वि० आठ वस्तुओनु चूर्ण करी कलश भरवाना जलमां नाखषु सुपवित्रमूलिकावर्ग-मर्दिते तदुदकस्य शुभधारा । बिम्बेऽधिवाससमये, यच्छतु सौख्यानि निपतन्ती ॥१॥ उपलोट- बालोद - ही वर्णी देवदारवः । ज्येष्ठी मधु ऋद्धिदुर्वा, स्नापयामि जिनेश्वरम् ||२|| “ॐ हाँ ह्रीँ परम अर्हते उपलोटाद्यष्टकवर्गेण स्नापयामीति स्वाहा " सातमु (द्वितीयाष्टकवर्ग ) स्नात्र
॥ इति षष्ठस्नात्रम् ॥
पतंजारी वि० आठ वस्तुओनु' चूर्ण करी कलश भरवाना पाणीमां नाखवु'. 'नमोऽर्हत' कही— कुष्ठाद्योषघि सन्मिश्रे तद्यु तं पतन्नीरम् । बिम्बे कृतसन्मित्रं, कमौघं हन्तु भव्यानाम् ॥ १ ॥ पतञ्जरी विदारी च, कचूरः कच्चुरी नखः । कङ्कोडी क्षीरकन्दश्च, मुसलैः स्नापयाम्यहम् ||२|| "ॐ हाँ हीँ परम अर्हते पतआर्यष्टकवर्गेण स्नापयामीति स्वाहा "
॥ इति सप्तमस्नात्रम् ॥
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॥४॥
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५॥
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श्राठमु (सर्वोषधि) स्नात्र प्रियंगु वि० ३३ औषधिोनु चूर्ण करी कलश भरवाना जलमा नाखवु'. 'नमोऽहत्' कहीप्रियगुवच्छ-कंकेली, रसालादि-तरूद्भवैः । पल्लवैः पत्रभल्लात, एलची-तजसत्फलैः ॥ १॥ विष्णुकान्ता हिमवाल-लवङ्गादिभि-रष्टभिः । मूलाष्टकस्तथाद्रव्यैः, सदोषधि-विमिश्रितैः॥ २॥ . सुगन्धद्रव्य-सन्दोहा,-मोदमत्तालि-संकुलैः। विदधेऽर्हन्महास्नात्रं, शुभ-सन्तति-सूचकम् ॥ ३॥ मेदाद्यौषधि-भेदोऽपरोऽष्टकवर्ग-सुमन्त्रपरिपूतः। निपतबिम्बस्योपरि, सिद्धिं विदधातु भव्यजने ॥४॥ "ॐ हाँ हाँ परम अर्हते पियङ्ग्यादिभिः सर्वोषधैः स्नापयामीति"
॥ इति अष्टमस्नात्रम् ।। त्यारपछी गुरु उभा थइ-परमेष्ठिमुद्रा, गरुडमुदा अने मुक्ताशुक्तिमुद्रा ए त्रण मुद्राथी जिनेश्वरनुं आह्वान करे.
आह्वान करवानो मंत्र-“ॐ नमोऽहत्परमेश्वराय, त्रैलोक्यगताय अष्टदिक्कुमारीपरिपूजिताय, देवेन्द्रमहिताय, दिव्यशरीराय, त्रैलोक्यपरिपूजिताय आगच्छ आगच्छ स्वाहा"
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॥५
॥
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अढार अभिषेक विधिः।
॥६॥
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नवमु (पंचगव्य अथवा पंचामृत) स्नात्र पंचामृतनो कलश भरी 'नमोऽहत्' कही.
जिनबिम्बोपरि निपतत् , घृतदधि-दुग्धादि-द्रव्यपरिपूतम् ।
दर्भोदक-सन्मित्रं, पंचगव्यं हरतु दुरितानि ॥ १ ॥ वरपुष्प-चन्दनैश्च, मधुरैः कृतनिःस्वनैः । दधिदुग्ध-घृतमित्रैः, स्नापयामि जिनेश्वरम् ॥ २ ॥ "ॐ हाँ ह्रीं परमअर्हते पञ्चामृतेन स्नापयामीति स्वाहा"
॥ इति नवमस्नात्रम् ॥ __दशमु (सुगंधौषधि) स्नात्र - अंबर वि. सुगंधी वस्तुओनुचूर्ण करी कलश भरवाना जलमा नाखg. 'नमोऽहंत' कहीसर्वविघ्न-प्रशमनं, जिनस्नात्र-समुद्भवम् । वन्दे सम्पूर्णपुण्यानां, सुगन्धैः स्नापयेजिनम् ॥ १॥ सकलौषधि-संयुक्त्या, सुग-न्ध्या घर्षितं सुगतिहेतोः। स्नपयामि जैनबिम्ब, मन्त्रित-तन्नीरनिवहेन॥२॥
"ॐ हाँ ही परम अर्हते अम्बरउशीरादिसुगन्धद्रव्यैः स्नापयामीति स्वाहा" ॥इति दशमस्नात्रम् ॥
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॥६॥
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॥७॥
अगीयार# (पुष्प) स्नात्र सेवंत्रा चमेली मोगरा गुलाब जुई ए जातना फुलो कलश भरवाना पाणीमा नाखवा. 'नमोऽर्हत्' कही. अधिवासितं सुमन्त्रः, सुमनः किञ्जल्कराजितं तोयम् ।
तीर्थजलादि-सुपृक्तं, कलशान्मुक्त पततु बिम्बे ॥ १ ॥ सुगन्ध-परिपुष्पौघे-स्तीर्थोदकेन संयुतैः। भावना-भव्यसन्दोहैः, स्नापयामि जिनेश्वरम् ॥ २ ॥ "ॐ हाँ ह्रीं परम अर्हते पुष्पौधैः स्नापयामीति म्वाहा"
॥ इति एकादशस्नात्रम् ॥ . बारमु (गन्ध) स्नात्र १ केसर २ कपूर ३ कस्तूरी ४ अगर ५ चंदन ए घसी जलमां नाखी 'नमोऽहत्' कहीगन्धाङ्गस्नानिकया, सन्मृष्टं तदुदकस्य धाराभिः। स्नपयामि जैनबिम्ब, कर्मोधच्छित्तये शिवदम् ॥१॥ कुंकुमादिकरिश्च, मृगमदेन संयुतः। अगरश्चन्दनमित्रैः, स्नापयामि जिनेश्वरम् ॥ २ ॥ .. "ॐ हाँ ही परम अहते गन्धेन स्नापयामीति स्वाहा"।
।। इति द्वादशं स्नात्रम् ॥
॥७
॥
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अढार
अभिषेक
विधिः ।
||८||
तेरमु ं (वास) स्नात्र
१ चंदन २ केशर अने ३ कपूरतु चूर्ण करी कलश भरवाना जलमां नाखं. 'नमोऽर्हत्' कही - हृद्य-राह्लादकरैः, स्पृहणीयै-र्मन्त्रसंस्कृतै- जैनम् । स्नपयामि सुगतिहेतो - वसैरधिवासितं बिम्बम् ॥ १॥ शिशिर कर-कराभैश्चन्दनैश्चन्द्र मिश्रः - बहुल-परिमलौघैः प्रीणितं प्राणगन्धैः । विनमदमर - मौलिः प्रोक्त- रत्नांशु-जालैः, जिनपति-वरशृङ्ग स्नापयेद्भावभक्त्या ॥ २ ॥ “ॐ ह्रीँ ह्रीँ ँ परम अर्हते सुगन्धवासचूर्णैः स्नापयामीति स्वाहा "
॥ इति त्रयोदशं स्नात्रम् ॥
चौदमु ं (चन्दनदुग्ध) स्नात्र चंदनने दुधना कलशमां नाखी 'नमोऽर्हत' कही - शीतलसरस-सुगन्धि-र्मनोमतश्चन्दन-दुमसमुत्थः । चन्दनकल्कः सजलो, मन्त्रयुतः पततु जिनबिम्बे ॥ १ ॥ क्षीरेणाक्षत-मन्मथस्य च महत् श्रीसिसि - कान्तापतेः, सर्वज्ञस्य शरच्छशाङ्क-विशद- ज्योत्स्ना - रसस्पर्द्धिना । कुर्मः सर्वसमृद्धयस्त्रिजगदानन्दप्रदं भूयसा स्नानं सदिकसत्कुशेशयपद - न्यासस्य शस्याकृतेः ||२|| “ॐ ह्रीँ ह्रीँ परम अर्हते चीरचन्दनाभ्यां स्नापयामीति स्वाहा " ॥ इति चतुर्दशस्नात्रम् ॥
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॥९॥
पंदरमु (केशर साकर) स्नात्र केशर अने साकरने जलमां नाखी कलश भरी 'नमोऽहत्' कही
काश्मीरज सुविलिप्त, बिम्वं तच्छिरसि धारयाभिनवम् ।
सन्मन्त्र-युक्तयाशुचि-जेनं स्नपयामि सिध्ध्यर्थम् ॥ १॥ वाचः स्फार-विचार-सारमपरैः स्यादाद-शुद्धामृत-स्यन्दिन्या परमार्हतः कथमपि प्राप्यं न सिद्धात्मनः। मुक्तिश्री-रसिकस्य यस्य सुरस-स्नात्रेण किं तस्य च,श्रीपादवय-भक्ति-भावितधिया कुर्मः प्रभोस्तत्पुनः॥२॥ "ॐ हाँ ही परम अर्हते काश्मीरजशर्कराभ्यां स्नापयामीति स्वाहा"
॥ इति पश्चदशस्नात्रम् ॥ चंद्र-सूर्यनु दर्शन करावाय एटले यिोने आरोसो देखाडवो ।
सोलमु (तीर्थोदक) स्नात्र गंगा आदि एकसो आठ तीर्थोनां पाणी नाखी, 'नमोऽहत्' कहीजलधि-नदी-द्रहकुण्डेषु, यानि-तीर्थोदकानिशुद्धानि। तैमन्त्र-संस्कृतैरिह, बिम्बस्नपयामि सिद्ध्यर्थम् ॥१॥
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अढार अभिषेक विधिः।
॥१०॥
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नाकनदी-नदविहितः, पयोभिरम्भोज-रेणुभिः सुभगैः। श्रीमजिनेन्द्रपादौ, समर्चयेत्सर्व-शान्त्यर्थम् ॥२॥ "ॐ हाँ ही हहै हौं हः परम अहंते तीर्थोदकेन स्नापयामीति स्वाहा" ॥ इति षोडशस्नात्रम् ॥
__ सत्तरमु (कपूर) स्नात्र कपूर कलशमा नाखी 'नमोऽहंत कही
शशिकर-तुषारधवला, उज्ज्वलगन्धा सुतीर्थ-जलमिश्रा । करोदकधारा, सुमन्त्रपूता पततु जिनबिम्बे ॥१॥ कनक-करकनाली-मुक्तधाराभिरद्भिः, मिलित-निखिलगन्धैः केलि-कपरभाभिः।'
अखिल-भुवन-शान्तिं शान्तिधारां जिनेन्द-क्रम-सरसिज-पीठे स्नापयेद्वीतरागान ॥२॥ “ॐ हाँ ह्रीं हैहाँ हा परम अर्हते कारेण स्नापयामीति स्वाहा" .. ॥ इति सप्तदशस्नात्रम् ॥
अढारमु (केशर-चंदन-पुष्प) स्नात्र केशर, चंदन अने फुल पाणीमा नाखी 'नमोऽहत्' कही- ..
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॥१०॥
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॥११॥
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रभ्यं घनसार-पङ्कज-रजो-निःप्रीणितैः पुष्करः, शीतैः शीतकरावदात-रुचिभिः काश्मीर-सन्मिश्रितैः। श्रीखण्ड-प्रसवाचलैश्च मधुरैः नित्यं लभेष्टैर्वरैः, सौरभ्योदक-संख्य-सार्व-चरण-दन्द यजे भावतः॥१॥ ___ॐ हाँ ही इहैहौं हः परम अर्हते केशरचन्दनाभ्यां स्नापयामीति स्वाहा"
॥ इति अष्टादशस्नात्रम् ॥ ए मंत्र बोली स्नात्र करी, तिलक आदिकथी पूजन करी, पुष्पांजलि लइ नीचेनो श्लोक बोलवोनानासुगन्ध-पुष्पौधरञ्जिता चश्चरीक-कृतनादा। धूपामोद-विमिश्रा, पततात्पुष्पाअलि-विम्बे ॥१॥
__पछी “ॐ ह्रां ह्रीं ह. पुष्पाञ्जलिभिरर्चयामीति स्वाहा" ए मंत बोली पुष्पांजलिथी पूजन करवू. .. पछी अष्टप्रकारी पूजा करी आरती, मंगलदीवो, शांतिकलश करवो. छल्ले अविधि आशातना मिच्छामि दुक्कडं करवु
॥ इति अढार अभिषेक विधि ॥
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॥११॥
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-अढार स्मात्रमांनी खास खास औषधिओनी यादी--
अढार विधिः ।
॥१२॥
(३) कषाय चर्णः-१ पीपर २ पीपली ३ शिरिष ४ उंबर ५ वड ६चंपक ७ अशोक ८ माघ्र ९जंबु १० बकुल ११ अर्जुन १२ पाटल १३ बीली १४ दाडम १५ केसहा १६ नारिंग.
(४) मंगलमत्तिकाः-१ हाथीना दांतनी २ बलदना शिंगडानी ३ पर्वतनी ४ उहीनी ५ नवीना काठानी ६ नदी| मोना संगमनी ७ सरोवरनी तीर्थनी.
(५) सदोषधिः-१ सहदेवी २ सतावरी ३ कुंआर ४ वालो ५ मोटी नानी रिंगणी ६ मोरशिखा ७ अंकोल ८ शंखावली ९ लक्ष्मणा १० आजोकाजो ११ थोर १२ तुलसी १३ मरबो १४ कुंभी १५ गली १६ सरपंखो १७ राजहंसी १८ पीठवणी १९ शालवणी २० गंधनोली २१ महानीली.
(६) अष्टकवर्ग १ लो:-१ उपलोट २ बच ३ लोद्र ४हीरवणीनां मूल ५ देवदार ६ जेठीमघ ७ ८ ऋद्धिबृद्धि
(७) अष्टकवर्ग २ जोः-१ पतंजारी २ विवारिकंद ३कचरो ४ कपूरकाचली ५ नखला ६ कंकोडी ७ खीरकंद ८ मुसली-काली (घोली).
(८) सवौषधि:-१ प्रियंगु २हलदर ३बच ४ सचा ५वालो ६ मोथ ७ अतिकली ८ मुरमांसी जटामांसी १० उपलोट ११ एलची १२. लवंग १३ तज १४ तमालपत्र १५ नागकेसर १६ जायफल १७ जावंत्री १८ कंकोल १९ सेलारस २० चंदन २१ अगर २२ पत्रज २३ छड २४ नखला २५ घउंला २६ कचुरो २७ विरहाली २८ छडोली २६ मरचकंकोल ३० वरषारो ३१ आसंधि ३२ बडीऔषधि ३३ सहस्त्रमूली.
(१०) सुगंधौषधिः-१अंबर २ वालो ३ उपलोट ४ कुष्ट ५ देवदारु ६ मुरमांसी ७ वास ८ चंदन ९ अगर १० कस्तूरी ११ कपूर १२ एलची १३ लवंग १४ जायकल १५ जावंत्री १६ गोरोचन १७ केसर.
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॥१२॥
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नं. १ जिन मुद्रा
नं.२ परमेष्ठि मुद्रा
नं.३ गरुड मुद्रा
नं. ४ मुक्ताशुक्ति मुद्रा
॥१३॥
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१. चत्तारि अंगुलाई, पुरओ उणाई जत्थ पच्छिमओ । पायाणं उस्सग्गो, एसा पुण होइ जिणमुद्दा ॥ २. उत्तानहस्तद्वयेन वेणीबन्धं विधायाङ्गुष्ठाभ्यां कनिष्ठे, तर्जनीभ्यां मध्यमे संगृह्य अनामिके समी
कुर्यादिति परमेष्ठिमुद्रा ।। .., ३. आत्मनोऽभिमुख-दक्षिणहस्तकनिष्ठिकया वामकनिष्ठिको संगृह्याधःपरावत्तितहस्ताभ्यां गरुडमुद्रा ।। ४. मुत्तासुत्तिमुद्दा-जत्थ समा दोवि गब्भिया हत्था । ते पुण निलाडदेसे, लग्गा अन्ने अलग्गत्ति ।।
।।१३।।
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अढार अभिषेक विधिः।
8 कलशारोपणविधिः
॥१४॥
॥ अथ कलशारोपणविधिः॥ तत्र भूमिशुद्धिः गन्धोदकपुष्पादिसत्कारः, आदित एव कलशाधः पञ्चरत्नक-सुवर्ण-रूप्य-मुक्ता-प्रवाल-लोहकुम्भकारमृत्तिकासहितं न्यसनीयम् । पवित्रस्थानाज्जलानयनं प्रतिमास्नात्रं नन्द्यावर्तपूजनं शान्तिबलिः सोदक-सवौंपधिवर्तनं स्त्रीमिः (४) स्नात्रकाराभिमन्त्रणं सकलीकरणं शुचिविद्यारोपणं चैत्यवंदनं शान्तिनाथादिकायोत्सर्गः । श्रुत १ शान्ति २ शासन ३ क्षेत्र ४ समस्तवेया० ५ नमुत्थुणं स्तवन लघुशान्ति जयवीयरायः कलशे कुसुमाञ्जलिक्षेपः । तदनन्तरमाचायण मध्यागुलीद्वयोर्वीकरणेन तर्जनीमुद्रा रौद्रदृष्टया देया। तदनु वामकरे जलं गृहीत्वा कलशः आच्छोटनीयः । तिलकं पूजनं च। मुद्गरमुद्रादर्शनम् ।। .. "ॐ ही श्वी सर्वोपद्रवं रक्ष रक्ष स्वाहा ।" चक्षुरक्षाकलशस्य सप्तधान्यकप्रक्षेपः हिरण्यकलशचतुष्टयस्नान, सौषधिस्नानं, मूलिकास्नानं, गन्धोदक-वासोदक-चन्दनोदक-कुकुमोदक, कर्पूरकुसुमजलकलशस्नानं पञ्चरत्न-सिद्धार्थकसमेतग्रन्थिन्धः । वामकरधृतकलशस्य दक्षिणकरेण चन्दनेन सर्वाङ्गमालिप्य पुष्पसमेतमदनफलऋद्धियुतारोपणम् । कलशपश्चाङ्गस्पर्शः, धूपदानं, कङ्कणबन्धः, बीमिः प्रोखणं, सुरभि-परमेष्ठि-गरुड-अञ्जलि-गणधर-मुद्रादर्शनम् , झरिमन्त्रेण वारत्रयाधिवासनम् ।
१४॥
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॥१५॥
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"ॐ स्थावरे तिष्ठ तिष्ठ स्वाहा" वस्त्रेणाच्छादनं, जम्बीरादिफलोहलिबलेनिक्षेपः । तदुपरि सप्तधान्यकस्य च आरात्रिकावतारणं चैत्यवन्दनम् । स्तुतित्रिकानन्तरम् सिद्धा. अधिवासनादेव्याः कायोत्सर्गः। चतुर्विंशतिस्तवचिन्ता । तस्याः स्तुतिः पातालमन्तरिक्ष, भुवनं वा या समाश्रिता नित्यम् । साऽत्राऽवतरतु जैने, कलशेऽधिवासनादेवी॥
(आर्या) शा. १ ० २ समस्तवै० ३। तदनन्तरं नमु० तः जयवीयरायान्तं तदनु शान्तिबलिं क्षिप्त्वा शक्रस्तवेन चैत्यवन्दनं शान्तिभणनं प्रतिष्ठादेवताकायोत्सर्गः चतुर्विश० । यदधिष्ठिता० प्रतिष्ठास्तुतिदानम् । अक्षताञ्जलिभृतलोकसमेतेन मङ्गलगाथापाठः कार्यः। नमोऽर्हत सिद्धा. जह सिद्धाण पइट्ठा, तिलोयचूडामणिमि सिद्धिपए। आचंदररियं तह, होउ इमा सुपइत्ति ॥१॥ (आर्या) जह सग्गस्स पट्टा, समत्थलोयस्स मज्झयारंमि। , , , ,
॥२॥ (G) जह मेरुस्स पइट्ठा,' 'दीवसमुदाण मज्झयामि ।
" " " " " ॥३॥ (..)
॥१५॥
-१. आरतिश्लोक:-दुष्टमुरासुररचितं, जरैःकृतं, दृष्टिदोषजं विघ्नम् । तद् गच्छत्वतिदूरं, भविककृतारात्रिकविघाने ।। (आर्या).
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अढार अभिषेक विधिः ।
ध्वजारोपण विधिः
॥१६॥
जह जंबुस्स - पइट्ठा, - जंबुद्दिवाण मज्झयारंमि । आचंदसूरियं तह, होउ इमा सुपट्टत्ति ॥४॥ (आर्या) जह लवणस्स पइट्ठा, समत्थउदहीण मज्झयारमि। " " " " " ॥५॥ () पुष्पाञ्जलि प्रक्षेपः । धर्म देशना ॥
॥ अथ ध्वजारोपणविधिः ॥ भूमिशुद्धिः, गन्धोदकपुष्पादिसत्कारः । अमारिघोषणम् । संघाह्वानम् । दिकपालस्थापनम् । वेदिकाविरचनम् । नन्द्यावर्तलेखनम् । ततः सूरिः कंकणमुद्रिकाहस्तः सदशवस्त्रपरिधानः सकलीकरणं शुचिविद्यां चारोपयति । स्नपनकारानभिमन्त्रयेत् । अभिमन्त्रितदिशाबलिप्रक्षेपणं धूपसहितं सोदकं क्रियते । “ॐ ही क्ष्वी सर्वोपद्रवं रक्ष रक्ष स्वाहा" इति बल्यभिमन्त्रणम् । दिक्पालाहानम्-ॐ इन्द्राय सायुधाय सवाहनाय सपरिजनाय ध्वजारोपणे आगच्छ आगच्छ स्वाहा । एवं-ॐ अग्नये-ॐ यमाय-ॐ नैऋतये-ॐ वरुणाय-ॐ वायवे-ॐ कुबेराय-ॐ ईशानायॐ ब्रह्मणे-ॐ नागाय-आगच्छ आगच्छ स्वाहा । शान्तिबलिपूर्वकं विधिना मूलप्रतिमास्नानम् । तदनु चैत्यवन्द संघसहितेन (नंदीना देववंदन करवा स्तवन लघुशांति) गुरुणा कार्यम् । 'वंशे-अभिनवसुगंधिविकसित' कुसुमाञ्जलिक्षेपः, तिलकं पूजनं च । हिरण्यकलशादिस्नानानि पूर्ववत् । १. चार खूणे चार नव नव इंचनी वेदिकाओ करवो. ..
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॥१६॥
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॥१७॥
कनक-पञ्चरत्न-कषाय मृत्तिका-मूलिका-अष्टवर्ग-सौषधि-गन्ध-वास-चन्दन-कुडकुम
तीर्थोदक-कप्पूर (तत इक्षरस-घृतवधिदुग्ध)-स्नानम् ।
शस्य चर्चनम् । पुष्पारोपणम् । लग्नसमये सदशवस्त्रेणाच्छादनम् । ४ मुद्रान्यासः । चतुःस्त्रीप्रोखणकम् । ध्वजाधिवासनं वासधूपादिप्रदानतः। ॐ श्री ठ:'-ध्वजावंशस्याभिमन्त्रणम् इत्यधिवासना । जवारक-फलोहलिबलिढौकनम् । * आरात्रिकावतारणम् । अधिकृतजिनस्तुत्या चैत्यवन्दनम् । स्तुतित्रिकानन्तरं शान्तिनाथकायोत्सर्गः पश्चात् श्रुतदे० १, शान्तिदे० २, शासनदे० ३, अम्बिकादे० ४, क्षेत्रदे० ५, अधिवासनादे० ६, कायोत्सर्गः चतुर्विंशतिस्तवचिन्तनं तस्या एव स्तुतिः-'पातालमन्तरिक्षं, भवनं वा०' समस्तवैयावृत्य करकायोत्सर्गः । स्तुतिदानम् । उपविश्य शक्रस्तवपाठः। शान्तिस्तवादिभणनम् । बलिसप्तधान्यफलोहलिवासपुष्पधूपादिवासनम् । ध्वजस्य चैत्यपाश्र्वेण प्रदक्षिणाकरणम् । शिखरे पुष्पाञ्जलिः । कलशस्नानम् । वजागृहे मर्कटिकारूपे पञ्चरत्ननिक्षेपः । इष्टांशे ध्वजानिक्षेपः । ॐ श्री ठः' अनेन रिमन्त्रेण वासक्षेपः। इति * प्रतिष्ठा । फलोहलि-सप्तधान्यबलि-मोरिंडकमोदकादिवस्तूनां प्रक्षेपणम् । महाध्वजस्य ऋजुगत्या प्रतिमाया दक्षिणकरे बन्धनम् । प्रवचनमुद्रया सूरिणा धर्मx चक्रमुद्राथी दंडने सर्व जग्याए स्पर्श करवो. अने सुरभि-परमेष्टि-गरुड-अंजलि अने गणधरमुद्रा देखाडवी। +७-२१ के १०८ बार मन्त्र भणवो श्लोक कलशप्रतिष्ठामां जूओ. प्रतिष्ठामन्त्र:-'वीरे वीरे जयवीरे' सात बार ।
॥१७॥
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अढार अभिषेक विधिः।
ध्वजदंड मंत्र-मापयंत्र
॥१८॥
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देशना कार्या । संघदानम् । अष्टाटिकापूजा विषमदिने ३, ५, ७, जिनबलिं प्रक्षिप्य चैत्यवन्दनं विधायः शान्तिनाथादिकायोत्सर्गान् कृत्वा महाध्वजस्य छोटनम् । संघादिपूजाकरणं यथाशक्त्या ॥
॥ इति ध्वजारोपणविधिः समाप्तः ॥
. ॥ध्वजादंड शिखर अने धजानो मंत्र॥ ॐही श्री ग्ल्यू क्षम्ल्यू हम्ल्यू क्ली३ औं क्रौं अरिहंत-शिखर-दंड-ध्वजेषुवासिदेवदेवीनां संघस्य च शांति पुष्टिं तुष्टिं ऋद्धिं वृद्धिं कुरु कुरु स्वाहा ।।
॥ध्वजा तथा दंडनु माप विगेरे मंत्र ॥ (१) रेखाए देरासर जेटलुलाबुहोय, तेटलो ध्वजादंड लांबो करवो. घुमटना प्रमाणनो दंड लांबो चाली शके. (२) गभारा करता शिखर बे इंच रेखाए मोटुहोय तेथी ध्वजादंड गभाराना पद करतां बेइंच मोटो करवो. (३) मंदिरनी उंचाईना त्रीजा भागे ध्वजादंड लांबो करबो. (४) ध्वजादंड जेटलो लांबो होय तेना पहेला गजे० ॥ अंगुल अने बाकीना गजे० ॥ अंगुल व्यास लेवो. (५) ध्वजादंडनी लंबाईना छट्ठा मागे पाटलीनी लंबाई करवी. (६) लंबाईनी अडधी पहोलाई करवी, अने पहोलाईथी अडधी जाडाई करवी..
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॥ १९ ॥
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(७) गाला एकी करवा अने बंगडी बेकी राखवी. आ सर्व मान मध्यम समजवु जो श्रेष्ठ मान करवु होय तो ते माननो दशमो भाग वधारवाथी थाय अने दशमो भाग घटाडवाथी कनिष्ठ मान थाय. आ सर्व मानथी . साल अलग जाणवु .
(८) कपडानी ध्वजा दंड प्रमाणे लांबी करवी अने पहोलाई लंबाईना आठमा भागे करवी.
(६) पताका तथा पताकडी विगेरे देशाचार प्रमाणे करवी. शास्त्रीय रीत नथी.
(१०) घुमटना आमलशालानी पहोलाईथी त्रण गणो घुमटनो ध्वजादंड लांवो करवो.
(११) वरसगांठ वखते नवी ध्वजा उपर अगर शरुआतमां ध्वजा उपर चोत्रीसो यंत्र जमणी बाजु लखवो.
चोत्रीसो यंत्र
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॥ १९ ॥
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अढार अभिषेक विधिः।
अष्ट- । मङ्गल श्लोकाः
॥ २० ॥
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॥ध्वजा-दंड तथा कलश प्रतिष्ठाना सामाननी यादी ॥ औषधिओ, पाघडी, सोनानो कलश, कलश नं. ४, तीर्थजल, गुलाबीखेस, दश दिक्पालनो, पाटलो, पोखणां, कंकू, कपूर, मीढल, मरडासींग, फुल, पान, सोपारी, चोखा, वासक्षेप, फल, नैवेद्य, वाकला शेर १।, जवारा, कसुबी वस्त्र, आंसली रूपानी, रु.३१),पैसा ५१),
रोगने दूर करनार अप्रसिद्ध पण जे कोइ औषध पृथ्वीतलमा मले तेने करियाणा तरीके गणी शकाय छे.
एटला ज माटे करियाणां अनेक प्रकारनां बताववामां आव्यां छे. छतां तेमाथी लाभालाभनी दृष्टिए योग्य लागे ते लेवां, बीजां छोडी पण देवा, नवा बीजां पण रोगहर लेवां, एम दरेक जातनी छुट छे.
॥अष्टमङ्गलश्लोकाः॥ • मङ्गलं श्रीमदर्हन्तो, मङ्गलं जिनशासनम् । मङ्गलं सकलसो, मङ्गलं पूजका अमी ॥१॥ (अनु.)
स्वस्ति भूगगननागविष्टपे-धूदितं जिनवरोदयेक्षणात् ।
स्वस्तिकं तदनुमानतो जिन-स्याग्रतो बुधजनैर्विलिख्यते ॥२॥ (रथोद्धता) अन्तःपरमज्ञानं, यद् भाति जिनाधिनाथहृदयस्य। तच्छीवत्सव्याजात्, प्रकटीभूतं बहिर्वन्दे ॥३॥ (आर्या).
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॥२०॥
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॥ २१ ॥
विश्वत्रये च स्वकुले जिनेशो, व्याख्यायते श्रीकलशायमानः । अतोत्र पूर्ण कलशं लिखित्वा, जिनार्चनाकर्म कृतार्थयामः ॥४॥ (उपजाति) जिनेन्द्रपादैः परिपूज्यपुष्ट-रतिप्रभाव-रतिसन्निकृष्टम् । भद्रासनं भदकरं जिनेन्द्र-पुरो लिखेन्मङ्गल-सत्प्रयोगम् ॥५॥ (') त्वत्सेवकानां जिननाथ ! दित्तु, सर्वासु सर्वे निधयः स्फुरन्ति । अतश्चतुर्धा नवकोणनन्या-वर्तः सतां वर्तयतां सुखानि ॥६॥ (') पुण्यं यशःसमुदयः प्रभुता महत्वं, सौभाग्य-श्री-विनय-शर्म-मनोरथाश्च । वर्धन्त एव जिननायक ! ते प्रसादात्-तवर्धमान-युग-संपुट-मादधामः ॥णा (वसन्त) त्वद्वध्य-पञ्चशरकेतन-भावक्लृप्तं, कतु मुधा भुवननाथ ! निजापराधम् । सेवां तनोति पुरतस्तक मीनयुग्मं, श्राद्धैः पुरो विलिखितं निरुजाऽऽङ्गयुक्त्या ॥८॥ (")
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॥२१॥
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अढार अभिषेक विधिः ।
जिना परिकर प्रतिष्ठा विधि।
॥२२॥
आत्माऽऽलोकविधौ जिनोऽपि सकल-स्तीघ्र तपो दुश्चरं, दानं ब्रह्म परोपकारणं, कुर्वन परिस्फूर्जति।। सोऽयं यत्र सुखेन राजति स वै, तीर्थाधिपस्याग्रतो, निमेयः परमार्थवृत्तिविदुरैः, संज्ञानिभिर्दर्पणः ॥६॥ (शादूर्ल)
॥अथ जिनबिम्ब-परिकर-प्रतिष्ठाविधिः॥ यदि जिनबिम्बेन सह परिकरो भवति तदा जिनबिम्बप्रतिष्ठायामेव वासक्षेपमात्रेण परिकरप्रतिष्ठा पूर्यते । प्रथमभूते परिकरे पृथक्प्रतिष्ठा विधीयते । ।
परिकराकारो यथा-विम्बाधो गजसिंहकीचरूपाङ्कितं सिंहासनं पार्श्वयोश्चधमरौ तयोहिश्चाञ्जलिकरौ मस्तकोपरि क्रमोपरिस्थं छत्रत्रयं तत्पावयोरुभयोः काश्चनकलशाकितशुण्डाग्रं श्वेतगजद्वयं गजोपरि झञ्झरवायकरा: पुरुषाः तद्प्रयोः मालाकारौ शिखरे शाखेवीयाः तदुपरि कलशः, मतान्तरे-सिंहासनमध्यभागे हरिणद्वयतोरणाङ्कितं धर्मचक्र' तत्पार्श्वयोरुभय : ग्रहमृतयः एवं निष्पन्ने परिकरे विम्वप्रतिष्ठोचिते लग्ने-भूमिशुद्धिकरणं, अमारिघोषणं, सङ्घाहानम् ,
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॥२३॥
बृहत्स्नात्रविधिना जिनस्नात्रं, लघुपश्चवलयनन्द्यावर्तस्थापनम् , तत्पूजनम् , कलशप्रतिष्ठावत् । ततः परिकरे सप्तधान्यपूर्वकं वर्धापनं अङ्गुलीद्वयोवीकरणेन रौद्रदृष्टया वामहस्तचुलुकेन जलाच्छोटनम् , अक्षतघृतपात्रदानम् , ततः ॐ ह्रीं श्री जयन्तु जिनोपासका सकला भवन्तु स्वाहा" इति मन्त्रेण परिकरस्य गंधाक्षतपुष्पधूपरीपनैवेद्यः पूजनं सदशवस्त्रेणाच्छादनं ततश्च तिसृभिः स्तुतिमिश्चैत्यवन्दनं ततः शान्ति-श्रुत-क्षेत्र-मवन-शासन-वैयावृत्यकर-प्रतिष्ठादेवताकायोत्सर्गस्तुतयः पूर्ववद ततः सम्प्राप्तायां लग्नवेलायां बादशभिर्मुद्राभिः सूरिमन्त्रेण वासममिमन्त्र्य सर्वजनं दूरतः कृत्वा एमिर्मन्त्रैर्वासक्षेपं विदध्यात् मन्त्री यथा-
... “ॐ ह्रीं श्रीं अप्रतिचक्रे धर्मचक्राय नमः" इति धर्मचक्रे वासक्षेपत्रिः। "ॐ घृणि च द्रा ऐंछौं ठाठःक्षां क्षी सर्वग्रहेभ्यो नमः" इति ग्रहेषु वासक्षेपस्त्रिः। “ॐ ह्रीं श्रीं आधारशक्तिकमलासनाय नमः" इति सिंहासने पासक्षेपत्रिः। "हीं श्रीं अद्भकेभ्यो नमः" इति चामरकरद्वये वासक्षेपत्रिः। "ॐ ह्रीं विमलवाहनाय नमः" इति गजदये वासक्षेपास्त्रः। "ॐपुष्करेभ्यो नमः" इति मालाद्वये वासक्षपत्रिः "ॐ श्रीशाधराय नमः" इति शाकघरे वासक्षेपत्रिः। "पूर्णकलशाय नमः" इति कलशे वासक्षेपखिः।
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॥२३॥
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________________ जिनबिंब अढार अभिषेक विधिः। परिकर ततोऽनेकफलनैवेद्यढौकनम् , पुनर्जिनस्नानं बृहस्त्नात्रविधिना, ततश्चैत्यवन्दनम् / प्रतिष्ठादेवताविसर्जनकायोत्सर्गः। चतुर्विंशतिस्तवचिन्तनं भणनं च नन्द्यावविसर्जनं पूर्ववत् / अष्टाझिकामहोत्सवः / सङ्घपूजनं / दीनमार्गणपोपणं / जलपट्टप्रतिष्ठायां तु जलपट्टोपरि बहनन्द्यावर्तस्थापनम् / तत्पूर्ववत् जलपट्टवीरस्नात्रं पञ्चरत्ननिक्षेपः वासमन्त्रेण वासनिक्षेपः। नन्द्यावर्चविसर्जनम् / इति जलप्रतिष्ठा / तोरणप्रतिष्ठायां तु बृहत्स्नात्रविधिना जिनस्नात्रं मुकुटमन्त्रेण तोरणे द्वादशमुद्रामिमन्त्रितवासक्षेपः / मन्त्रो यथा-"ॐ अ आई उ ऊ ऋऋ इत्यादि हकारपर्यन्त नमो जिनसुरपतिमुकुटकोटिसंघट्टितपवाय इति तोरणे समालोकय समालोकय स्वाहा" प्रतिष्ठाविधिः // 24 // ॥इति तोरणप्रतिष्ठा / इति प्रतिष्ठाधिकारे परिकरप्रतिष्ठाविधिः सम्पूर्णः / / ज 4 . M For Personal & Prise Us On Jain Education in ainelibrary.org