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[२१] श्री पुष्पिका(उपांग) सूत्रम्
नमो नमो निम्मलदंसणस्स
पूज्य श्रीआनंद-क्षमा-ललित- सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः
“पुष्पिका” मूलं एवं वृत्तिः
[मूलं एवं चन्द्रसूरि- विरचिता वृत्तिः]
[आद्य संपादकः - पूज्य अनुयोगाचार्य श्री दानविजयजी गणि म. सा. ]
(किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह )
पुनः संकलनकर्ता→ मुनि दीपरत्नसागर
15/01/2015, गुरुवार, २०७१ पौष कृष्ण १०
(M.Com., M.Ed., Ph.D.)
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मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [२१] उपांग सूत्र- [१०] “पुष्पिका" मूल एवं चन्द्रसूरि विरचिता वृत्तिः
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आगम
(२१)
प्रत
सूत्रांक
[-]
दीप
अनुक्रम -
अध्ययनं [-]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....
Jan Education intimational
"पुष्पिका" उपांगसूत्र - १० ( मूलं + वृत्तिः)
पुष्पिका उपाङ्गसूत्रस्य मूल “टाइटल पेज"
-
मूलं [-]
..आगमसूत्र [२१], उपांग सूत्र [१०] "पुष्पिका" मूलं एवं चन्द्रसूरि विरचिता वृत्तिः
...........
-
ओरिपरचितवृति
श्री पृथ्विकाम्
न्यायाम्भोनिधिश्रीमद्विजयानन्दसुरिपुरन्दर शिष्य महोपाध्यायश्रीमदूबीर विजय शिष्यरत्न- अनुयोगाचार्य्यश्रीमहानविजयगणिभिः संशोधितम्
रु. ५०१) श्रेष्टि हरखचंद सोमचंद ह. नेमचंदभाइ मु० सुरत एतस्य धाद्धस्य द्रव्यसाहाय्येन
प्रकाशवित्री श्रीभागमोदपसमितिः
इदं पुस्तकं अमदावाद ( राजनगर ) मध्ये शाह वेणीचंद सूरचंद श्री आगमोदय समिति सेक्रटरी इत्यनेन युनियनप्रीन्टिंगप्रेसमध्ये टंकशालायां शाह मोहनलालचीमन लालद्वाराप्रकाशितम् । पण्यं रु०-१२० प्रतय: ७५० विक्रम संवत् १९७८. सन १९२२.
वीरसंवत् २४४८,
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मूलाङ्का: ६+२
पुष्पिका-उपाङ्ग सूत्रस्य विषयानुक्रम
दीप-अनुक्रमा: ११
मुलांक:
अध्ययन
पृष्ठांक:
मूलांक:
अध्ययनं
| पृष्ठांक:
। मूलांक:
अध्ययनं
पृष्ठांक:
००४
००८
०१९
०११
।
[७-१०] दत्त,शिव आदि
०३४
००४
[१] चन्द्रः
२] सूर्य: [३] शुक्रः
०००
००९
।
[४]बहुपुत्रिका [५]पूर्णभद्रः [६]माणिभद्रः
०३३
cole
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [२१], उपांग सूत्र - [१०] “पुष्पिका" मूलं एवं चन्द्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ।
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[पुष्पिका' - मूलं एवं वृत्ति:] इस प्रकाशन की विकास-गाथा यह प्रत सबसे पहले "निरयावलिका' के नामसे सन १९२ २ (विक्रम संवत १९७८) में आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित हुई, इस के संपादकमहोदय थे पूज्य अनुयोगाचार्य श्री दानविजयजी गणि महाराज साहेब | इसमे 'निरयावलिका,कल्पवतंसिका,पुष्पिका,पुष्पचुलिका,वृष्णिदशा' पांच उपांग थे.
इसी प्रत को फिर से दुसरे पूज्यश्रीओने अपने-अपने नामसे भी छपवाई, जिसमे उन्होंने खुदने तो कुछ नहीं किया, मगर इसी प्रत को ऑफसेट करवा के, अपना एवं अपनी प्रकाशन संस्था का नाम छाप दिया. जिसमे किसीने पूज्यपाद् सागरानंदसूरिजी के नाम को आगे रखा, और अपनी वफादारी दिखाई, तो किसीने स्वयं को ही इस पुरे कार्य का कर्ता बता दिया और संपादकपूज्यश्री तथा प्रकाशक का नाम ही मिटा दिया |
* हमारा ये प्रयास क्यों? * आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५-आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है, किन्तु लोगो की पूर्वाचार्य) पूज्य श्री के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने इसी प्रत को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसमे बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी, ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर अध्ययन और मूलसूत्र के क्रमांक लिख दिए, ताँकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा अध्ययन एवं सूत्र चल रहे है उसका सरलता से ज्ञान हो शके, बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके | हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढ़ते हुए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रो के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस [-] दिए है और जहां गाथा है वहाँ ||-|| ऐसी दो लाइन खींची है या फिर गाथा शब्द लिख दिया है |
हमने एक अनक्रमणिका भी बनायी है, जिसमे प्रत्येक अध्ययन आदि लिख दिये है और साथमें इस सम्पादन के पृष्ठांक भी दे दिए है, जिससे अभ्यासक व्यक्ति अपने चहिते अध्ययन या विषय तक आसानी से पहुँच शकता है | अनेक पृष्ठ के नीचे विशिष्ठ फूटनोट भी लिखी है, जहां उस पृष्ठ पर चल रहे ख़ास विषयवस्तु की, मूल प्रतमें रही हुई कोई-कोई मुद्रण-भूल की या क्रमांकन-भूल सम्बन्धी जानकारी प्राप्त होती है |
अभी तो ये jain_e_library.org का 'इंटरनेट पब्लिकेशन' है, क्योंकि विश्वभरमें अनेक लोगो तक पहुँचने का यहीं सरल, सस्ता और आधुनिक रास्ता है, आगे जाकर ईसि को मुद्रण करवाने की हमारी मनीषा है।
......मुनि दीपरत्नसागर.....
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [२१], उपांग सूत्र - [१०] "पुष्पिका" मूलं एवं चन्द्रसूरि-विरचिता वृत्ति:
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आगम
(२१)
प्रत
सूत्रांक
[-]
दीप
अनुक्रम
[1-3]
निरया - ॥२१॥
“पुष्पिका” - उपांगसूत्र-१० ( मूलं + वृत्ति:)
-
अध्ययनं [१]
मूलं [१-३]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [२१], उपांग सूत्र - [१०] "पुष्पिका" मूलं एवं चन्द्रसूरि - विरचिता वृत्तिः
अ० १
पुल्फिया ३
जति णं भंते! समणं भगवया जाव संपत्तेणं उरंगाणं दोवस्त्र कप्पवडिसियाणं अयमट्टे पनन्ते तच्चस्स णं भेते aree उगाणं पुफियाणं के अट्ठे पणते ? एवं खलु जंबू ! समगेणं जाव संपत्तेर्ण उबंगाणं तच्चस्स वग्गस्स पुष्फियाणं दस अझयणा पन्ना, तं जहा " चंदे सूरे सुके, बहुपुत्तिय पुन्नमाणिभद्दे य । दत्ते सिवे बलेया, अणाढिए चैव बोधदे ॥ १ ॥ " ज णं भंते समगणं जाव संपत्तेणं पुफियाणं दस अज्झयणा पन्नत्ता, पढमस्स णं भंते ! अञ्झयणस्स पुष्फियाणं समणं जाव संपत्तेणं के अद्वे पत्ते ? एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं २ रायगिहे नाम नगरे, गुणसिलए चेइए, सेणिए राया, 'तेणं कालेणं २ सामी समोसढे, परिसा निग्गया । तेणं कालेणं २ चंदे जोइसिंदे जोइसराया चंदडिसए विमाने सभाए हम्मार चंदंसि सीहासणंसि चहिं सामाणियसाहस्सीहिं जाव विहरति । इमं च णं केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं विउलेणं ओहिणा आभोरमाणे २ पासति, पासित्ता समणं भगवं महावीरं जहा सूरियामे आभिओगं देवं सद्दाविता जाव सुरिंदाभिगमणजोगं करेत्ता तमाणचियं पञ्चपिणंति । सूरा घंटा, जाव विजवणा, नवरं ( जाणविमाण ) जोयणसहस्स विच्छिन्नं अथ तृतीयवर्गोऽपि दशाध्ययनात्मकः 'निक्खेवज' ति निगमनवाक्यं यथा एवं खलु जंबू समणेणं भगवया महावीरेणं आइगरेणं इत्यादि जाव सिद्धिगइनामधेयं ठाणं संपाविडकामेणं तत्यवग्गे वग्ग ( पढमअज्झ ) यणस्स पुल्फियाfreाणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते' एवमुत्तरेष्वप्यध्ययनेषु सूरशुक्रबहुपुत्रिकादिषु निगमनं वाच्यं तत्तदभिलापेन । 'केवलकप्पं ति केवल:- परिपूर्णः स चासौ कल्पश्च केवलकल्पः स्वकार्यकरणसमर्थः केवलकल्पः तं स्वगुणेन संपूर्णमित्यर्थः ।
For Parent
अध्ययनं-१- 'चन्द्र' आरभ्यते [मूलसूत्र १-३]
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169) *०**-46 400% 169) 490% (69) *
वलिका.
॥२२॥
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आगम
(२१)
“पुष्पिका” - उपांगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) अध्ययनं [१] --
------ मूलं [१-३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [२१], उपांग सूत्र - [१०] "पुष्पिका" मूलं एवं चन्द्रसूरि-विरचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्राक
दीप
अद्धतेवद्विजोयणसमूसियं महिंदज्झतो पणुवीसं जोयणमूसितो सेसे जहा मूरियाभस्स जाव आगतो नहविहो तहेव पडिगतो। भंते चि भगवं गोयमे समणं भगवं भते पुच्छा कूडागारसालासरीरं अणुपविट्ठा पुदभवो एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं २ सावत्थी नाम नयरी होत्या, कोहए चेहए, वत्थ णं सावत्थीए नयरीए अंगती नाम गाहावती होत्था, अड़े जाव अपरिभूते । तते णं से अंगती गाहावती सावत्थीए नयरीए बहूणं नगरनिगम० जहा आणंदो । तेणं कालेणं २ पासे ण अरहा पुरिसादाणीए आदिकरे जहा महावीरो नवुस्सेहे सोलसेहिं समणसाहस्सीहिं अद्वतीसा जाव कोढते समोसडे, परिसा निग्गया । तते णं से अंगती गाहावतो इसीसे कहाए लद्धट्टे समाणे हवे जहा कत्तिओ सेट्ठी तहा निग्गच्छति
डागारसालाविट्ठतो' ति कस्मिचितुल्सये कस्मिभिन्नगरे बहिर्भागप्रदेशे महती देशिकलोकवसनयोग्या शाला-गृहविशेषः समस्ति । तत्रोत्सवे रममाणस्य लोकस्य मेघवृष्टिभषितुमारब्धा, ततस्तद्भयेन त्रस्तबहुजनस्तस्यां शालायां प्रविष्टः, एवमयमपि देवविरचितो लोकः प्रचुरः स्वकार्य नाट्यकरणं तत्संढत्यानन्तरं स्वकीयं देवशरीरमेवानुप्रविष्टः इत्ययं शालादृष्टान्तार्थः । 'अड़े जाव' त्ति अड़े दित्ते वित्त विच्छिन्नविउलभवणसयणासणजाणवाहणाइन्ने बहुधणबहुजायरूवे आ. ओगपओगसंपउत्ते विच्छट्टियपउरभत्तपाणे बहुदासीदासगोमहिसगवेलगप्पभूए इति यावच्छब्दसंगृहीतम् ।' जहा आणंदो' ति उपासकदशाङ्गोक्तः श्रावक आनन्दनामा, स च यहूणं ईसरतलबरमाडंबियको९बियनगरनिगमसेट्ठिसत्थवाहाणं बहुसु कजेसु य कारणेसु य मंतेसु य कुटुंबेसु य निचिठपसु य वबहारेसु य आपुच्छणिज्जे पडिपुच्छणिजे सब्धकजाबट्टावए सयस्स वि य ण कुटुंबस्स मेढीभूए होत्था । 'पुरिसादाणीय ' ति पुरुरादीयते पुरुषादानीयः । नवहस्तोछूयः-नवहस्तोच्चः। अहतीसाए अज्जियासहस्सेहिं संपरिवुडे इति यावत्करणात् दृश्यम् । हतुट्ठचित्तमाणदिए इत्यादि वाच्यम् ।
अनुक्रम [१-३]
合管之以本字本身帶文本字整
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आगम
(२१)
“पुष्पिका” - उपांगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) अध्ययनं [१] ---
------ मूलं [१-३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [२१], उपांग सूत्र - [१०] "पुष्पिका" मूलं एवं चन्द्रसूरि-विरचिता वृत्ति:
बलिका
निरया॥२२॥
जाव पाजुवासति, धम्म सोचा निसम्म जे नवरं वाणुप्पिया ! जेट्टपुत्तं कुटुंबे ठावेमि । तते णं अहं देवाणुप्पियाणं जाव पञ्चयामि, जहा गंगदत्तो तहा पचतिते जाव गुत्तर्वभयारी । तते ण से अंगती अणगारे पासस्स अरहतो तहारूबाणं थेराणं अंतिए सामाइयमाझ्याई एकारस अंगाई अहिज्जति २ बहहिं च उत्थ जाब भायमाणो बहूई वासाई सामनपरियागं पाउणति २ अद्धमासियाए सलेहणाए तीसं भत्ताई अणसणाए छेदिता विराहियसामन्ने कालमासे कालं किच्चा चंदबटिसए विमाणे उबवाते सभाते देवसयणिज्जसिं देवदूसंतरिए चंदे जोइसिंदत्ताए उववन्ने । तते णं से चंदे जोइसिदे जोइसिराया अहुणोवन्ने
I
है
अनुक्रम [१-३]
देवाणुप्पियाणं अतिए पव्वयामि । यथा गङ्गदनो भगवत्यङ्गोक्तः, स हि किंपाकफलोषमं मुणिय विसयसोक्खं जलबुडबुयसमार्ण कुसम्गबिंदुचंचलं जीविय च नाऊणमधुर्व चइता हिरण्ण विपुलधणकणगरयणमणिमोत्तियसंखसिलप्पयालरसरयणमाइयं विच्छडइत्ता दाणं दाइयाणं परिभाइत्ता आगाराओ अणगारियं पब्वइओ जहा तहा अंगई वि गिहनायगो परिश्चइय सव्वं पवइओ जाओ य पंचसमिओ तिगुत्तो अममो अकिंचणो गुतिदिओ गुत्त बंभयारी इत्येवं याषच्छरदात् दृश्यम् । चउत्थछट्ठहमदसमदुवालसमासद्धमासखवणेहि अप्पाणं भावेमाणे बहूई बासाई सामनपरियागं पाउणइ । 'विराहियसामग्ने' त्ति श्रामण्य-व्रत, तहिराधना चात्र न मूलगुणविषया, किं ठूत्तरगुणविषया, उत्तरगुणाभ पिण्डविशुद्धचादयः, तत्र कदा. चित् द्विचत्वारिंशदोषविशुद्धाहारस्य प्रहणं न कृतं कारणं विनाऽपि, बालग्लानादिकारणेऽशुद्धमपि गृहन्न दोषवानिति, पिण्डस्याशुद्धतादौ विराधितश्रमणता ईयादिसमित्यादिशोधनेऽनादरः कृतः, अभिप्रहाश्च गृहीताः कदाचिद्भमा भवन्तीति शुण्ठचादिसन्निधिपरिभोगमङ्गशालनपादक्षालनादि च कृतबानित्यादिप्रकारेण सम्यगपालने व्रतविराधनेति, सा च नालोचिता गुरुसमीपे हत्यनालोचितातिचारो मृत्वा कृतानशनोऽपि ज्योतिकेन्द्र चन्द्ररूपतयोत्पन्नः ।
TH॥२२॥
JAINER
a tornada .
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आगम
(२१)
“पुष्पिका” - उपांगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) अध्ययनं [१] -
----- मूलं [१-३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [२१], उपांग सूत्र - [१०] "पुष्पिका" मूलं एवं चन्द्रसूरि-विरचिता वृत्ति:
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प्रत
सुत्राक
*2016
अ०२
दीप
समाणे पंचविहाए पजत्तीए पज्जतीभावं गच्छइ, तं जहा-आहारपज्जत्तीए, सरीरपज्जत्तीए, इंदियपज्जत्तीए, सासोसासपजचीए, भासा(मण)पज्जत्तीए। चंदस्स णं भैते ! जोइसिंदस्स जोइसरन्नो केवइयं कालं ठिती पन्नता ? गोयमा ! पलिओवर्म बाससयसहस्समब्भहियं । एवं खलु गोयमा ! चंदस्स जाव जोतिसरनो सा दिवा देविड़ी। चंदे ण भंते ! जोइसिंदे जोइसिराया वाओ देवलोगाओ आउक्खएणं चइचा कहिं गच्छिहिति २१ गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्जिहिति । एवं खलु जंबू समणेण० निक्खेवओ ॥१॥ .जइ णं भंते ! समगेणं भगवया जाब पुफियाणं पढमस्स अज्झयणस्स जाव अयमहे पन्नते, दोच्चस्स णं भंते ! अज्झयणस्स पुफियाणं समणेणं भगवता जाव संपत्तेणं के अहे पन्नते? एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं २ रायगिहे नाम, गुणसिलए चेइए, सेणिए राया, समोसरणं, जहा चंदो तहा सूरोऽवि आगओ जाव नट्टविहिं उपदसित्ता पडिगती । पुत्भवपुच्छा, सावत्थी नगरी, सुपतिढे नाम गाहावई होत्या, अड़े, जहेब अंगती जाब विहरति, पासो समोसढो, जहा अंगती तहेव पवइए, तहेव विराहियसामने जाव महाविदेहे वासे सिज्झहिति जाब अत०, खलु जंबू ! समणेणं० निक्खेवओ ॥२॥ .जहण भंते ! समणेणं भगवता जाव संपत्तणे उक्खेवतो भाणियहो, रायगिहे नगरे, गुणसिलए चेइए, सेणिए राया, 'निक्षेवओ' त्ति निगमनं, तश्च प्रागुपदर्शितम् ॥ तचे अज्झयणे शुक्रवक्तव्यताऽभिधीयते- उक्वेषओ' त्ति उत्क्षेपःप्रारम्भवाक्य, यथा-जहण भते! समणे] जाप संपत्तेणं दोच्चस्स अज्झयणस्त पुफियाणं अयमढे पन्नत्ते, तशस्स अन्झ यणस्स भंते ! पुफियाणं समोण जाव संपत्तण के बढे पन्नत्ते ! पर्व खलु जंबू ! तेणं कालेज २ रायगिहे नयरे इत्यादि ।
अनुक्रम [१-३]
अ०३
JAIMERCa
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itram.org
| अध्ययनं-१- 'चन्द्र' आरभ्यते [मूलसूत्र १-३]
अध्ययनं-२- 'सूर्य' आरब्धं एवं परिसमाप्तं [मूलसूत्र ४]
अध्ययन-३- 'शक' आरभ्यते [मूलसूत्र ५-७]
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आगम
(२१)
प्रत
सूत्रांक
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दीप
अनुक्रम [4-6]
निरया
॥२३॥
उपांगसूत्र-१० (मूलं+वृत्तिः)
अध्ययनं [२३]
मूलं [४,५-७]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...... ..आगमसूत्र [२१], उपांग सूत्र [१०] "पुष्पिका" मूलं एवं चन्द्रसूरि विरचिता वृत्तिः
* 160) 480% 469) *0% 469) *#000 469/
“पुष्पिका”
-
सामी समोसढे, परिसा निग्गया । तेणं कालेणं २ सुके महग्गहे सुकवर्डिसए विमाणे मुकंसि सीहासणंसि चउहिं सामाणिसाहसीहिं जब चंदो तब आगओ, नट्टविहिं उवदंसित्ता परिगतो, भंते त्ति कूडागारसाला । पुवभवपुच्छा । एवं खलु गोयमा ! ते काले २ वाणारसी नाम नयरी होत्या । तत्थ णं वाणारसीए नयरीए सोमिले नाम माहणे परिवसति, अडे जाव अपरिभूते रिउचेय जाव सुपरिनिट्टिते । पासे० समोसढे । परिसा पज्जुवासति । तए णं तस्स सोमिलस्स माहणस्स इमीसे कहाए लद्धट्ठस्स समाणस्स इमे एतारूबे अज्झत्थिए एवं पासे अरहा पुरिसादाणीए पुवाणुपुर्वि जाव अंबसालवणे विहरति । तं गच्छामि णं पासस्स अरहतो अंतिए पाउन्भवामि । इमाई च णं एयाख्वाईं अट्ठाई हेऊई । 'तहेबागओ ति रायगिहे सामिसमीवे । 'रिउब्वेय जाव' इति ऋग्वेदयजुर्वेद सामवेदाथर्वणवेदानाम् इतिहासपञ्चमानाम् इतिहास:- पुराणं, निर्घण्टपष्ठानां निर्घण्टो नामकोशः, साङ्गोपाङ्गानाम् अङ्गानि - शिक्षादीनि उपाङ्गानि तदुकप्रपञ्चनपराः प्रबन्धाः सरहस्यानाम् - पेदम्पर्ययुक्तानां धारकः प्रवर्तकः वारकः-अशुद्धपाठ निषेधकः पारगः-पारगामि पढवित, पटितन्त्रविशारदः षष्टितन्त्रं कापिलीवशास्त्रं षडङ्गवेदकत्वमेव व्यनक्ति, सङ्ख्याने गणितस्कन्धे शिक्षा कल्पेशिक्षायामक्षरस्वरूपनिरूपके शास्त्रे कल्पे तथाविधसमाचारप्रतिपाद के व्याकरणे- शब्दलक्षणे छन्दसि गद्यपद्यवचन लक्षणनिरुक्तप्रतिपादके ज्योतिषामयने ज्योतिःशास्त्रे अन्येषु च ब्राह्मणकेषु शास्त्रेषु सुपरिनिष्ठितः सोमिलनामा ब्राह्मणः स पार्श्वजिनागमं श्रुत्वा कुतूहलवशाज्जिनसमीपं गतः सन् 'इमाई च णं' इति इमान् एतट्र्पान् 'अट्ठाई' ति अर्थान् अर्थ्यमानत्वादधिगम्यमानत्वादित्यर्थः । ' हेऊई' ति हेतून अन्तर्षतिन्यास्तदीयज्ञानसंपदो गमकान, पसिणाई' ति यात्रायापनीयादीन् प्रश्नान् पृच्छयमानत्वात्, 'कारणारं ' ति कारणानि विवक्षितार्थनिश्चयजनकानि व्याकरणानि प्रत्युत्तरतया व्याक्रियमाणत्वादेषामिति, 'पुच्छिस्सामि त्ति प्रश्नयिष्ये इति कृत्वा
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众亨 众中 非本营养众品
बलिका.
॥२३॥
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आगम
“पुष्पिका” - उपांगसूत्र-१० (मूलं+वृत्तिः )
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अध्ययनं [२,३]
----- मूलं [४,५-७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [२१], उपांग सूत्र - [१०] "पुष्पिका" मूलं एवं चन्द्रसूरि-विरचिता वृत्ति:
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जहापण्णचीए । सोमिलो निम्गतो खंडियविहुणो जाव एवं वयासि-जचा ते भंते ! जबणिजं चं ते ! पुच्छा सरिसवया मासा कुलत्था एगे भवं जाव संबुद्ध सावगधम्म पडिबज्जिचा पडिगते । तते णं पासे णं अरहा अण्णया कदायि चाणारनिर्गतः। खंडियविहुणो 'त्ति छात्ररहितः, गत्वा च भगवत्समीप एवमषादीत्-'जत्ता ते भंते! जबणिज्जं च ते!' इति प्रमः, तथा सरिसवया मासा कुलत्था पते भोजएण एगे भवं दुवे भवं इति च एतेषां च यात्रादिपदानामागमिकगम्भीरार्थत्वेन भगबति तदर्थपरिज्ञानमसंभावयताऽपभाजनार्थ प्रश्नः कृत इति सरिसषय'त्ति एकत्र सहशवयसः अन्यत्र सर्वपा:-सिद्धार्थकाः, 'मास ' त्ति एकत्र माषो-दशार्धगुञ्जामानः सुवर्णादिविषयः अन्यत्र भाषो-धान्यविशेषः उडद इति लोके रूढः, 'कुलस्थ' त्ति एकत्र कुले तिष्ठन्ति इति कुलस्याः, अन्यत्र कुलस्था-धान्यविशेषः। सरिसषयादिपदप्रश्नच च्छलग्रहणेनोपहासार्थ कृतः इति, 'पगे भवं' ति एको भवान् इत्येकत्वाभ्युपगमे आत्मनः कृते भगवता श्रोत्रादिविज्ञानानामवयवानां चात्मनोऽनेकश उपलब्ध्या एकत्वं दूषविध्यामीति बुद्धचा पर्यनुयोगो द्विजेन कृतः यावच्छब्दात् ' दुषे भवं ' ति गृह्यते नौ भवान् इति च द्वित्वाभ्युपगमेऽहमेकत्व विशिष्टस्यार्थस्य द्वित्वविरोधेन बित्वं दूषयिष्यामीति बुद्धचा पर्यनुयोगी विहितः । अत्र भगवान् स्थाद्वादपक्ष निखिल दोषगोचरातिकान्तमवलम्व्योत्तरमदायि (मदित)-पकोऽप्यह, कथं ! द्रव्यार्थतया जीवद्रव्यस्यैकत्वात् न तु प्रदेशार्थतया (प्रदेशार्थतया) बनेकत्वात् , ममेत्यवादीनामेकत्वोपलंभो न बाधकः, शानदर्शनार्थतया कदाचित् द्वित्वमपि म विरुद्धमित्यत उक्तं द्वाषप्यई, कि चैकस्यापि स्वभावभेदेनानेकधात्वं दृश्यते, तथाहि-पको हि देवदत्तादि पुरुष एकदैव तत्तदपेक्षया पितृत्व पुत्रत्वभ्रातृव्यत्यमातुलत्वभागिनेयत्वादीननेकान स्वभावान भते । 'तहा अक्खप अब्धए निच्चे अवट्टिए आय' ति यथा जीवद्रव्यस्यैकत्वादेकस्तथा प्रदेशार्थतयाऽसल्येयप्रदेशतामाश्रित्याक्षयः, सर्वथा प्रदेशानां क्षयाभावात्, तथाऽव्ययः कियतामपि व्ययत्वाभावात् , असङ्ख्येयप्रदेशता हिन कदाचनाप्यपैति, अतो व्यवस्थितत्वान्नित्यताऽभ्युपगमेऽपि न कश्चिद्दोषः, इत्येवं भगवताऽभिहिते तेनापृष्टेऽप्यात्मस्वरूपे तद्वोधार्य, व्यवच्छिन्नसंशयःसंजातसम्यक्त्वः 'दुवालसविई सावगधर्म पडिजित्ता
अनुक्रम [५-७]
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आगम
(२१)
“पुष्पिका” - उपांगसूत्र-१० (मूलं+वृत्तिः) अध्ययनं [२,३]
------ मूलं [४,५-७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [२१], उपांग सूत्र - [१०] "पुष्पिका" मूलं एवं चन्द्रसूरि-विरचिता वृत्ति:
निरया
॥२४॥
प्रत
सुत्राक
दीप
सीओ नगरीओ अंबसालवणातो चेइयाओ पडिनिक्खमति २ बहिया जणवयविहार विहरति । तते णं से सोमिले माहणे | अण्णदाकदायि असाहुदंसणेण य अपज्जुवासणताए य मिच्छत्तपज्जवेहि परिवमाणेहिं २ सम्मत्तपज्जवेहि परिहायमा
हिं मिच्छत् च पडिवो । तते णं तस्स सोमिलस्स माहणस्स अण्णदा कदायि पुनरत्तावरत्तकालसमयसि कुटुंबजागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूचे अन्झथिए जाच समुप्पज्जित्या-एवं खलु अहं वाणारसीए नयरीए सोमिले नाम माहणे अचंतमाहणकुलप्पमए । तते णं मए वयाई चिण्णाई वेदा य अहीया दारा आहूया पुत्ता जणिता इडीओ संमाणीओ पसुवधा कया जन्ना जेट्ठा दक्षिणा दिना अतिही पूजिता अग्गीहया जया निक्खित्ता, सेयं खलु मम इदाणि कल्लं जाव 19 जलते वाणारसीए नयरीए बहिया वहये अंबारामारोबाचित्तए, पर्व माउलिंगा बिल्ला कविट्ठा चिचा पुप्फारामारोवावित्तए, एवं संपहेति संपेहिता कलं जाव जलते बाणारसीए नयरीए बहिया अंबारामे य जाच पुप्फाराम य रोवावेति । तते णं सटाणमुवगओ सोमिलमाहणी' असाहुदंसणेणं । ति असाधवः-कुदर्शनिनो भागवततापसादयः तदर्शनेन साधूनां च-सुधमणानामदर्शनेन तत्र तेषां देशान्तरविहरणेनादर्शनतः, अत पषापर्युपासनतस्तदभाषात, अतो मिथ्यात्वपुदलास्तस्य प्रवर्धमानतां गताः सम्यक्त्वपुद्गलाश्चापचीयमानास्त पवैभिः कारणैमिथ्यात्वं गतः, तदुक्तम्-" माभेया पुथ्योगाहसंसग्गीप य अभिनिवेसेणं चउहा खलु मिच्छत्तं, साहूर्णऽदसणेणहवा ॥१॥" अतो अत्र असाहुदसणेणं इत्युक्तम् । 'अस्थिप जाव' ति आध्यात्मिकः-आत्मविषयः चिन्तितः-स्मरणरूपः प्रार्थितः-लधुमाशंसितः मनोगतो-मनस्येव वर्तते,यो न बहिः प्रकाशितः सहाल्पो-विकल्पः समत्पन्न:-प्रादुर्भतः, तमेषाह-एथमित्यादि वयाई चिण्णाई' व्रतामिनियमास्ते च शौचसंतोषतपःस्वाध्यायादीनां प्रणिधानानि वेदाध्ययनादि कृतं च, ततो ममेवानी लौकिकधर्मस्थानाचरणयाउरामारोपणं कर्तुं श्रेयः तेन वृक्षारोपणमिति, अत पवाह-अंबारामे य' इत्यादि।
अनुक्रम [५-७]
॥२४॥
~ 10~
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आगम
(२१)
प्रत
सूत्रांक
[-]
दीप
अनुक्रम [4-6]
उपांगसूत्र-१० (मूलं+वृत्तिः)
अध्ययनं [२, ३]
मूलं [४,५-७]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...... ..आगमसूत्र [२१], उपांग सूत्र [१०] "पुष्पिका" मूलं एवं चन्द्रसूरि विरचिता वृत्तिः
“पुष्पिका”
-
बहवे अंबारामा य जाव पुप्फारामा य अणुपुवेणं सारविखज्जमाणा संगोविज्जमाणा संवड़िज्जमाणा आरामा जाता किन्हा किन्हाभासा जाव रम्मा महामेहनिकुरंबभूता पत्तिया पुष्फिया फलिया हरियगरेरिज्जमाणसिरिया अतीव २ उबसोमेमाणा २ चिति । तते णं तस्स सोमिलस्स मोहणस्स अण्णदा कदायि पुवरत्तावरतकालसम्यंसि कुटुंबजागरियं जागर माणस अमेय अथिए जव समुप्पज्जित्था एवं खलु अहं वाणारसीए जयरीए सोमिले नाम माहणे अचंतमाहण कुलप्प सूते, तते र्ण मए वयाई चिण्णाई जाव जूवा णिक्खित्ता, तते णं मए वाणारसीए नयरीए बहिया बहवे अंबारामा जाव पुप्फारामा य रोवाविया, तं सेयं खलु ममं इदाणि कल्लं जाव जलते सुबहु लोहकडाहकच्छुतंवियं तावसमंड घडाविता बिउल असणं पाणखाइमै साइमं मित्तनाइ० आमंतित्तातं मित्तनाइणियग० बिउलेणं असण जाव सम्माणिता तस्सेव मित्त जाव जेठपुत्तं कुटुंबे ढावेता तं मित्तनाइ जाव आपुच्छित्ता सुबहु लोहकडाहकच्छु वियतावस भंडगं गहाय जे इमे गंगाकुला वाणपत्या तासा भवति, तँ जहा - होत्तिया पोतिया कोत्तिया जंनती सड़ती घालती हुंवउट्ठा दंतुक्खलिया उम्मज्जगा संमज्जगा कलं पापभयाप रयणीप जलते सूरिप इत्यादि वाच्यम्। "मित्तनाइनियगसंबंधिपरियणं पि य आमंतिता विउलेणं असणपाणखाइमसाइमेणं भोयाविता सम्माणिता " इति अत्र मित्राणि सुहृदः ज्ञातयः समानजातयः निजक :पितृव्यादयः संबन्धिनः श्वशुरपुत्रादयः परिजनो दासीदासादिः तमामंत्र्य विपुलेन भोजनादिना भोजयित्वा सत्कारयिfor eaादिभिः संमानयित्वा गुणोत्कीर्तनतः ज्येष्ठपुत्रं कुटुम्बे स्थापयित्वाऽधिपतित्वेन गृहीत लोहटाद्वायुपक रणः । 'वाणपत्य' सि बने भवा वानी प्रस्थानं प्रस्था अवस्थितिः वानी प्रस्था येषां ते वानप्रस्थाः अथवा ' ब्रह्मचारी गृहस्थाच, वानप्रस्थो पतिस्तथा । ' इति चत्वारो लोकप्रतीता आश्रमाः पतेषां च तृतीयाश्रमवर्तिनो वानप्रस्थाः, 'होत्ति य' चि अनितृकाः, 'पोतिय'त्ति वस्त्रधारिणः, कोत्तिया जन्नई सड़ई घालई हुंबडट्ठा दंतुक्खलिया उम्मज्जगा सम्मजगा
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आगम
(२१)
“पुष्पिका” - उपांगसूत्र-१० (मूलं+वृत्तिः) अध्य यनं [२,३] ----------
------ मूलं [४,५-७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [२१], उपांग सूत्र - [१०] "पुष्पिका" मूलं एवं चन्द्रसूरि-विरचिता वृत्ति:
मिरया
॥२५॥
निमज्जना संपक्खालमा दक्षिणकूला उत्तरकूला संखषमा कूलधमा मियलुद्धया हत्यिसावसा उईडा दिसापोक्खिणो वकवासिणो बिलवासिणो जलवासिणों रुक्खमूलिया अंधुभक्खिणो वायुभक्खिणो सेवालभक्खिणो मूलाहारा कंदाहारा तयाहारा पत्ताहारा पुप्फाहारा फलाहारा बीयाहारा परिसडियकंदमूलतयपत्तपुष्फफलाहारा जलाभिसेपकविणगायभूता आधावणाहिं निमजगा संपक्खालगा दक्षिणकूलमा उत्तरकूलगा संखधमा कूलधमा मियलुख़या हत्थिताक्सा उबंडगा दिसापोक्खिणो वक्तवासिणो पिलवासिणो जलवासिणो रुक्खमूलिया अंबुभक्खिणो वायुभक्खिणो सेवालभक्खिणो मूलाहारा कंदाहारा तयाहारा पत्ताहारा पुष्फाहारा फलाहारा बीयाहारा परिसडिवकंदमूलतयपत्तपुष्फफलाहारा जलाभिसेयकठिणगाय आयाघणेहि पंचग्गीतावेहिं इनालसोल्लिये कंदुसोल्लियं तत्र 'कोत्तिय' त्ति भूमिशायिनः, 'जन्नइ' त्ति यज्ञयाजिनः, 'सा' त्ति श्राद्धाः 'घालइ ति गृहीतभाण्डाः, 'हुँबउह' त्ति हुंडिकाधमणाः, 'दंतुक्खलिय' ति फलभोजिन: 'उम्मजग' ति उन्मजनमात्रेण ये स्नान्ति 'सम्मजग' त्ति उन्मजनस्यैवासकृत्करणेन ये स्नान्ति, 'निमज्जग' त्ति स्नानार्थ ये निमन्ना पच क्षणं तिष्ठन्ति, 'संपक्सालगा' ति मृत्तिकावर्षणपूर्वक ये क्षालयन्ति, 'दक्षिणकलग' ति बैगङ्गादक्षिणकूल पष पस्तव्यम्, 'उत्तरकूलग' त्ति उक्तविपरीताः, 'संखधम' त्ति शङ्ख मात्वा.ये जेमम्ति यवन्यः कोऽपि नागच्छति, 'कूलधभग' त्ति ये कुले स्थित्वा शब्द कृत्वा भुञ्जते, 'मियलुद्धय' ति प्रतीता पध, 'हत्थितावस' ति ये हस्तिनं मारयित्वा तेनैव बहुकाल भोजमतो यापयन्ति, 'उदंडग त्ति ऊस्वकृतदण्डा ये संचरन्ति, "दिसापोक्षिणों ति उदकेन दिशः प्रोक्ष्य ये फलपुष्पादि समुच्चिन्वन्ति, 'वकपासिणो ति वल्कलवाससः, 'बिलवासिणो' ति व्यक्तम्, पाठान्तरे वेलवासिणों त्ति समुद्रवेलावासिनः, 'जलवासिगों प्ति ये जलनिषण्णा पवासते, शेषाः प्रतीताः नवरं, 'जलाभिसेयकढिणगाय' ति ये स्नात्वा न भुञ्जते स्नात्वा स्नात्वा पाण्डुरीभूतगावा इति वृद्धाः कचित् ‘जलाभिसेयफढिणगायभूय' ति श्यते तत्र जलाभिषेककठिनगात्रभूताः प्राप्ता ये ते तथा,
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अनुक्रम [५-७]
1॥२६॥
FOOParanMSPrese-UMOnly
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आगम
“पुष्पिका” - उपांगसूत्र-१० (मूलं+वृत्तिः )
(२१)
अध्ययनं [२,३]
----- मूलं [४,५-७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [२१], उपांग सूत्र - [१०] "पुष्पिका" मूलं एवं चन्द्रसूरि-विरचिता वृत्ति:
SOD
पंचग्गीतावेहिं इंगालसोल्लिय कैदुसोलिय पिव अप्पाण करेमाणा विहरति । सत्य ण जे ते दिसापोक्खिया तायसा तेसि अतिए दिसापोक्खियत्ताए पचहत्तए पदयिते विय णं समाणे इमै एयावं अभिमाह अभिगिन्हिस्सामि-कापति मे जावज्जीवाए छटुं छटे में अणिक्खित्तेणं दिसाचकवा लेणं तवोकम्मेणे उई चाहातो पगिझिय २ मुराभिमुहस्स आतावणभूमीए आतावेमाणस्स विहरत्तए ति कटु एवं संपेहेइ २ कलं जाव जलते सुबहुं लोह जाव दिसापोक्खियतावसत्ताए पवइए २ वि य णं समाणे इमं एयारूवं अभिग्गरं जाव अभिगिन्हित्ता पढम छटुक्खमण उपसंपज्जित्ता विहरति । तते ण सोमिले माहणे रिसी पदमछट्टक्खमणपारणसि आयावणभूमीए पचोरुति २ बागलवत्यनियत्थे जेणेव सए उडए तेणेव उवा०२ किंदिणसंकाइयं गेहति २ पुरच्छिमं दिसिं पुक्खेति, पुरच्छिमाए दिसाए सोमे महाराया पत्याणे पत्थिय अभिरक्खउ सोमिलमाइणरिसिं अभि०२ जाणि य तत्य कंदाणि य मूलाणि य तयाणि य पत्ताणि य पुष्पाणि य. 'इंगालसोल्लिय' ति अङ्गारैरिव पक्वम्, 'कंदुसोल्लिय' ति कन्दुपक्वमिवेति । 'दिसाचकवालपणं तपोकम्मेण ति एकत्र पारणके पूर्वस्यां दिशि यानि फलादीनि तान्याहृत्य भुक्के, द्वितीये तु दक्षिणस्यामित्येवं दिक्चक्रवाप्लेन तत्र तपःकर्मणि पारणककरणं तत्तपःकर्म दिकचक्रवालमुच्यतेतेन तपःकर्मणेति । 'वागलपत्थनियत्थे' त्ति वल्कलं-बल्कः तस्येदं वाल्कलं तवं निवसितं येन स वाल्कलषखनिवसितः। 'उडए ' त्ति उटजः-तापसाश्रमगृहम् । 'किढिण' ति वंशमयस्तापसभाजनविशेषः ततश्च तयोः सांकायिक-मारोबहनयन्त्र किढिणसांकायिकम् । 'महाराय' त्ति लोकपालः । 'पत्थाणे पत्थिय' ति प्रस्थाने परलोकसाधनमार्गे प्रस्थित-प्रवृत्तं फलाचाहरणार्थ, गमने या प्रवृत्तम् । सोमिलविजऋषिम् ।
कविण .
अनुक्रम [५-७]
JAMERIJune
Fit
~ 13~
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आगम
(२१)
प्रत
सूत्रांक
[-]
दीप
अनुक्रम
[4-6]
निरया
॥२६॥
“पुष्पिका” - उपांगसूत्र-१० ( मूलं + वृत्तिः )
-
अध्ययनं [२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....
मूलं [४,५-७]
..आगमसूत्र [२१], उपांग सूत्र [१०] " पुष्पिका" मूलं एवं चन्द्रसूरि विरचिता वृत्तिः
|
फलाणि यबीयाणि य हरियाणि ताणि अणुजाणड चि कट्टु पुरच्छिमं दिसं पसरति २ जाणि य तत्थ कंदाणि य जाब हरियाणि य ताई गेण्हति किठिणसंकाइयं भरेति २ दब्मे य कुसे य पत्तामोरं च समिहा कट्टाणि य गेण्डति २ जेणेव सर उडतेव उवा० २ किठिणसंकाइयां वेति २ वेदि बट्टेति २ उबलेवणसंमज्जणं करेति २ दम्भकलस हत्यगते जेणेव गंगा महानदी तेणेव उवा० २ गंगं महानदीं ओगाहति २ जलमज्जणं करेति २ जलकि करेति २ जलाभिसेयं करेति २ आयंते चोक्खे परमसुभृए देवपिडकयकज्जे दग्भकलसहत्थगते गंगातो महानदीओ पच्चुत्तरति जेणेव सते उडए तेव बा० २ दब्भेय कुसे य बालुयाए य वेदिं रपति २ सरयं करेति २ अरणि करेति २ सरएणं अरणि महेति २ अगि पाडेति २ अरिंग संधुकेति २ समिहा कट्टाणि पक्खिवति २ अरिंग उज्जालेति २" अग्गिस्स दाहिणे पासे सगाई समादहे । " 'दब्भे य' ति समूलान् 'कुंसे य' दर्भानेव निर्मूलान् । 'पतामोडं च ' ति तरुशाखामोटितपत्राणि । 'समिहाड ति, समिधः काष्ठिकाः, वेई बड़ेह' ति वैदिकां देवार्चनस्थानं वर्धनी बहुकारिका तां प्रयुक्ते इति वर्धयति प्रमार्जयतीत्यर्थः । 'उवलेवणसमजणं' तु (ति) जलेन संमार्जनं वा शोधनम् । 'दग्भकलसहत्थगए' त्ति दर्भाच कलशका इस्ते गता यस्य स तथा, 'eorseer rcear' ति क्वचित्पाठः तत्र दर्भेण सहगतो यः कलशकः स हस्तगतो यस्य स तथा 'जलमजणं' ति जलेन बहिः शुद्धिमानम् । 'जलकीड' ति देहशुद्धावपि जलेनाभिरतिम् । 'जलाभिसेयं' ति जलक्षालनम्। 'आयंते' ति जलस्पर्शात् ' चोक्खे' ति अशुचित्रव्यापगमात् किमुकं भवति ? 'परमसुरभूप 'ति । देवेपिडकयकज्जे 'ति देवानां पितॄणां च कृतं कार्य जलाअलिदानं येन स तथा । 'सरपणं अरणिं मदेह' त्ति शरकेण निर्मन्थकाष्ठेन अरणि-निर्मन्थनीयकाएं मध्नाति -घर्षयति । अfree दाहिणे इत्यादि सार्धश्लोकः तथथाशब्दवर्ज, तत्र च 'वत्तंगाई समादद्दे' ति सप्ताङ्गानि समादधाति सन्निधापयति
देवयपियकज्जेति प्र०
For Pale Only
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आगम
(२१)
प्रत
सूत्रांक [-]
दीप
अनुक्रम [4-6]
Main Educat
“पुष्पिका” - उपांगसूत्र- १० ( मूलं + वृत्तिः)
-
अध्ययनं [२३]
मूलं [४,५-७]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [२१], उपांग सूत्र - [१०] "पुष्पिका" मूलं एवं चन्द्रसूरि - विरचिता वृत्तिः
4525048 469) 4804846) 25000 (69) +
जहा“सकथं वकलं ठाणं सिज्झ भंडं कमंडलुं । दंडदा तप्पाणं अह ताई समादहे ॥" मधुणाय घरण य तंदुलेहि य अरिंग हुई, चरुं साधेति २ बलि वइस्सदेव करेति २ अतिहिपूर्यं करेति २ तओ पच्छा अपना आहारं आहारेति । तते णं सोमिले माहणरिसी दोचं छट्टखमणपारणगंसि तं चैव सर्व्वं भाणियहं जाब आहारं आहारेति, नवरं इमं नाणतं - दाहिणाए दिसाए जमे महाराया पत्याणे पत्थियं अभिरखखउ सोमिलं माहणरिसिं जाणि य तत्व कंदाणि य जाव अणुजाण सि कट्टु दाहिणं दिसिं पसरति । एवं पञ्चत्थिमे णं वरुणे महाराया जाव पञ्चत्थिमं दिसिं पसरति । उत्तरे णं वेसमणे महाराया जाब उत्तरं दिसिं पसति । पुञ्चदिसागमेणं चत्तारि वि दिसाओ भाणियवाओ जान आहारं आहारेति । तते णं तस्स सोमिलमाणरिसिस्स अष्णया कयायि पुढश्चावरत्तकालसमयंसि अणिच जागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूये अज्झत्थिए जान समुपजित्था एवं खलु अहं वाणारसीए नगरीए सोमिले नाम माहणरिसी अचंतमाहणकुल पसूर, तते णं मए बयाई चि • जाव जूवा निक्खित्ता । तते णं मम बाणारसीए जाव पुप्फारामा य जाव रोविता । तते णं मए सुबहुलोह जाव घाषित्ता जाव पुत्तं ठावित्ता जाव जेट्टपुत्तं आपुच्छित्ता सुबहुलोह जाब गहाय मुंडे जाव पद्मइए वि य णं समाजे छ छट्ठेणं सकर्थ १ वल्कले २ स्थानं ३ शय्याभाण्डे ४ कमण्डलुं ५ दण्डदा ६ तथात्मानमिति ७ । तत्र सकथं तत्समयप्रसिद्ध उपकरणविशेषः, स्थानं ज्योतिःस्थानम् पात्रस्थानं वा, शय्याभाण्डं शय्योपकरणं, कमण्डलुः कुण्डिका, दण्डदारु-दण्डकः, आत्मा प्रतीतः । ' चरुं सादेति त्ति चरुः-भाजनविशेषः तत्र पच्यमानं द्रव्यमपि चरुरेव तं वरं वलिमित्यर्थः साधयतिरन्धयति । ‘बर्लि यइस्सदेवं करेइ 'सि बलिना वैश्वानरं पूजयतीत्यर्थः। 'अतिहिपूर्यं करे 'त्ति अतिथेः-आगन्तुकस्य पूजां करोतीति 'जाव गंदा' कटुच्यतंवियभायणं गहाय दिसापोक्खियतावसत्तप पञ्वय जितेऽपि षष्ठादितपः करणेन दिशः प्रे५ वेयं प्र० २ प्रमजितत्वेऽपि प्र०
For ProPate Une on
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आगम
(२१)
“पुष्पिका” - उपांगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) अध्ययनं [२,३]
----- मूलं [४,५-७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [२१], उपांग सूत्र - [१०] "पुष्पिका" मूलं एवं चन्द्रसूरि-विरचिता वृत्ति:
बलिका.
निरया॥२७॥
जाव विहरति । त सेयं खलु मम इयाणि कल्लं पादु जाव जलते वहवे तावसे दिट्ठा भट्टे य पुवसंगतिए य परियायसंगतिए अ आपुच्छित्ता आसमसंसियाणि य बहूई सत्तसयाई अणुमाणइत्ता वागलवत्यनियत्थस्स कढिणसंकाइयगहितसभंडोवकरणस्स कमुद्दार मुई बंधित्ता उत्तरदिसाए उत्तराभिमुहस्स महपत्याण पत्यावेइत्तए एवं संपेहेति २ कलं जाव जलने बहवे तावसे य दिवा भट्ठे य पुत्वसंगतिते यतं चेव जाव कट्टमुद्दाए मुहं बंधति, बंधित्ता अयमेतारुवं अभिग्गई अभिगिम्हति जत्थेवणं अम्हं जलसि वा एवं थलंसि वा दुग्गंसि वा निन्नंसि वा पञ्चतंसि वा विसमंसि वा गड्डाए वा दरीए वा पक्खलिज्ज वापवडिज वा नो खलु मे कापति पच्चुट्टित्तए चिकट अयमेयारूवं अभिग्गई अभिगिण्हति, उत्तराए दिसाए उत्तराभिमुह पत्थाणं (महपत्याण) पत्थिर से सोमिले माहणरिसी पुवावरण्हकालसमयसि जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागते, असोगवरपायवस्स अहे कढिणसंकाइयं ठवेति २ वेदि बड़ेइ २ उवलेवणसंमजणं करेति २ दब्भकलसहत्थगते जेणेव गंगा महानई जहा सिवो जाव गंगातो महानईओ पच्चुत्तरइ, जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवा०२ दब्भेहि य कुसेहि य बालुयाए वेदि रतेति, रतित्ता सरगं करेति २ क्षितत्वादिविधि च कृत्वा पारणादिकमाचरितवान् । इदानीं च इदं मम श्रेयः कर्तु, तदेवाह ‘जाव जलते ' सूरिए दृष्टान आभाषितान आपृच्छच, बहूनि सत्वशतानि समनुमान्य संभाष्य, गृहीतनिजभाण्डोपकरणस्योत्तरदिगभिमुखं गन्तुं मम युज्यते इति संप्रेक्ष्यते चेतसि । 'कट्ठमुद्दाए मुह बंधइत्ता' यथा का; काष्ठमयः पुत्तलको न भाषते पर्व सोऽपि मौनावलम्बी जातः यद्वा मुखरन्ध्राच्छादक काष्ठखण्डमुभयपार्श्वच्छिद्रबयप्रेषितदवरकान्वितं मुखबन्धन काठमुद्रा तया मुखं बध्नाति । जलस्थलादोनि सुगमानि, पतेषु स्थानेषु स्खलितस्थ प्रतिपतितस्य था न तत उत्थातुं मम कल्पते।महाप्रस्थानं पदं ति मरणकालभावि कर्तुं ततः प्रस्थितः-कर्तुमारब्धः । 'पुवावरण्ह कालसमयंसि' ति पानात्यापराहकालसमय:-दिनस्य चतुर्थप्रहरलक्षणः ।
अनुक्रम [५-७]
॥२७॥
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[4-6]
“पुष्पिका” - उपांगसूत्र-१० ( मूलं + वृत्तिः )
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अध्ययनं [२३]
मूलं [४,५-७]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... ..आगमसूत्र [२१], उपांग सूत्र [१०] " पुष्पिका" मूलं एवं चन्द्रसूरि विरचिता वृत्तिः
469)-45086-46)
जाब बलिं वइस्सदेवं करेति २ कट्टमुद्दाए मुहं बंधति तुसिणीए संचिट्ठति । तते णं तस्स सोमिलमाहणरिसिस्स पुचरत्तावरतकालसमयसि एगे देवे अंतिय पाउन्भूते । तते ण से देवे सोमिलं माहणं एवं क्यासि-हं भो सोमिलमाहणा ! पञ्चइया दुपइतं ते । तते णं से सोमिले तस्स देवस्स दोचं पि तच पि एयमहं नो आदाति नो परिजागड़ जात्र तुसिणीए संचिति । तते गं से देवे सोमिलेणं माहणरिसिणा अणाढाइज्जमाणे जामेव दिसि पाउब्भूते तामेव जाव पडिगते । तते से सोमिले कलंजाब जलते बागलवत्थनियत्ये कढिणसँकाइयं गहियग्गिोत्तभंडोवकरणे कट्टमुद्दाए मुहं बंधति २ उत्तराभिमुहे संपत्थिते । तते णं से सोमिले वितियदिवसम्मि पुवावरण्यकालसमयंसि जेणेव सत्तिवन्ने अहे कठिणसंकाइयं वेति २ वेति बड़ेवि २ जहा असोगबरपायवे जाव अरिंग हुणति, कट्ठमुद्दाए मुहं बंधत, तुसिणीए संचिद्वति । तते णं तस्स सोमिलस्स पुरता वरत्तकालसमर्थसि एगे देवे अंतिर्थ पाउन्भूए । तते णं से देवे अंतलि खपडिवन्ने जहा असोगवरपायवे जाव पडिगते । तते णं से सोमिले कल्ले जाव जलते बागलवत्य नियत्थे कठिणसंकाइयं गेहति २ कट्टमुद्दाए मुद्दे बंधति २ उत्तर दिसाए उत्तराभिमु संपत्थिते । तते णं से सोमिले ततियदिवसम्मि पुवावरण्हकालसमयंसि जेणेव असोगवर पायवे वा २ असोगवरपायवस्स अहे कठिणसंकाइयं वेति, वेतिं वड़ेति जाब गंग महानई पच्चुत्तरति २ जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवा० २ बेतिं रएति २ कट्टमुद्दाए मुहं बंधति २ तुसिणीए संचिद्वति । तते णं तरस सोमिलस्स पुरचावतकाले एगे देवे अंतियं पाउ० तं चैव भगति जाव पडिगते । तते णं से सोमिले जाव जलते वागलवत्थनियत्थे 'पुव्वरस्तावरतकालसमयंसि ' त्ति पूर्वरात्र-रात्रेः पूर्वभागः, अपररात्रो - रात्रेः पश्चिमभागः तल्लक्षणो यः कालसमय:- कालरूपसमयः स तथा तत्र रात्रिमध्यान्हे (मध्यरात्रे) इत्यर्थः । अन्तिकं समीपं प्रादुर्भूतः । इत अदूर्ध्वं सर्व निगदसिद्धं जाव
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आगम
(२१)
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अनुक्रम [4-6]
निरया॥२८॥
“पुष्पिका” - उपांगसूत्र-१० ( मूलं + वृत्तिः )
-
अध्ययनं [२३]
मूलं [४,५-७]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...... ..आगमसूत्र [२१], उपांग सूत्र [१०] " पुष्पिका" मूलं एवं चन्द्रसूरि विरचिता वृत्तिः
कठिणकायं जान मुद्दाए मुहं बंधति २ उत्तरार दिसाए उत्तराए संपत्थिए । तते गं से सोमिले चउत्यदिवसपुद्दाबरहकालसमयंसि जेणेव वडपायवे तेगेव उवागते वडपायवरस अहे किढिणं संवेति २ येई वज्रेति उबलेवणसमजणं करेति जात्र मुद्दा मुहं बंधत, तुसिणीए संचिट्ठति । तते णं तरस सोमिलरस पुद्दरत्तावरत्तकाले एगे देवे अंतियं पाउ० तं चैव भणति जाव पडिगते । तते णं से सोमिले जाव जलते बागलवत्थनियत्थे किढिणसंकायियं जाव कट्टमुद्दाए मुहं धति, उत्तराए उत्तराभिमुद्दे संपत्थिते । तते णं से सोमिले पंचमदिवसग्मि पुद्दावर हकालसमयंसि जेणेव उंबरपायवे उंबरपावस आहे किडणसंकायं वेति, वेई वट्टेति जाव कडमुद्दाए मुहं बंधति जाव तुसिणीए संचिद्वति । तते णं तस्स सोमिलपाहणस्स पुवरत्तावरत्तकाले एगे देवे जाव एवं क्यासि-हं भो सोमिला ! पछइया दुष्पवइयं ते पढमं भणति तहेब सिणी संचित, देवो दो पि तचं पि वदति सोमिला ! पहइया दुप्पदइयं ते । तए णं से सोमिले तेण देवेण दोचं पि तच पि एवं वृत्ते समाणे तं देवं एवं क्यासि कहणं देवाणुपिया ! मम दुष्पदइतं ? । तते णं से देवे सोमिलं माहणं एवं वयासि एवं खलु देवाणुप्पिया ! तुमं पासस्त अरहओ पुरिसादाणियत्स अंतियं पंचाणुहए सत्त मिखावए दुवालसविहे सावगधम्मे पडिवले, तर णं तव अन्नदा कदाइ पुचरत्त० कुटुंब० जाव पुढचिंतितं देवो उच्चारेति जाव जेगेव असोगवरपायथे तेव उवा० २ कठिणसंकाइये जाव तुसिणीए संचिसि । तते णं पुरसावरत्तकाले तव अंतियं पाउन्भवामि ई भो सोमिला ! पवइया दुप्पवतियं ते तह चैव देवो नियवयणं भणति जाव पंचमदिवसम्मि पुखावर कालसमयंसि जेणेव उंबरवरपायवे तेजेव उवागते किढिणसंकाइयं दवेहि वेदिं बडृति उवलेवणं संमज्जणं करेति २ कडमुद्दा मुहं बंधत, बंधा
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॥२८॥
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आगम
“पुष्पिका” - उपांगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:)
(२१)
अध्ययनं [२,३]
----- मूलं [४,५-७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [२१], उपांग सूत्र - [१०] "पुष्पिका" मूलं एवं चन्द्रसूरि-विरचिता वृत्ति:
तुसणीए संचिसि, तं एवं खलु देवाणुपिया ! तव दुष्पञ्चयितं । तते णं से सोमिले तं देवं वयासि-(कहाणं देवाणुप्पिया ! मम मुप्पचइत ? तते णं से देवे सोमिल एवं चयासि)-जइ णं तुम देवाणुपिया ! इयाणि पुवपडिवण्णाई पंच अणुबयाई सयमेव उपसंपज्जित्ता णं विहरसि, तो गं तुज्झ इदाणि सुपञ्चइयं भविजा । तते णं से देवे सोमिलं वंदति नमंसति २ जामेव दिसि पाउन्भूते जाव पडिगते । तते ण सोमिले माहणरिसी तेणं देवेणं एवं वुत्ते समाणे पुवपडियन्नाई पंच अणुवयाई सयमेव उपसंपजित्ता णं विहरति । तते णं से सोमिले बहूहिं चउत्थछट्टहमजावमासद्धमासखमणेहिं विचित्तेहिं तवोवहाणेहि अप्पाणं भावमाणे बहूई वासाई समणोबासगपरियागं पाउणति २ अद्धमासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसेति २ तीसं भत्ताई अणसणाए छेदेति २ त्ता तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिकंते विराहियसम्म कालमासे कालं किच्चा मुकवर्डिसए विमाणे उववातसभाए देवसयणिज्जसि जाब तोगाहणाए सुकमहम्महत्ताए उवचन्ने । तते णं से सुक्के महग्गहे अहुगोववन्ने समाणे जाव भासामणपज्जचीए । एवं खलु गोयमा ! मुकेणं महम्गहेणं सा दिवा जाव अभिसमन्नागर एग पलिओवमठिती । सुकेणं भंते महम्गहे ततो देवलोगाओ आउक्खए कहिं ग०१ गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहिति । एवं खलु जंबू ! समगेण निक्खेवओ॥३॥
बहुपुत्तिकाज्झयणं ४-जइ ण भंते उक्खेवओएवं खलु जंबू तेणं कालेणं २ रायगिहे नाम नगरे, गुणसिलए चेइए, सेणिए राया, सामी समोसडे, परिसा निग्गया । तेणं कालेणं २ बहुपुत्तिया देवी सोहम्मे कप्पे बहुपुत्तिए विमाणे सभाए सुहम्माए निक्वेवओ त्ति । नवरं विराधितसम्यक्त्वः । अनालोचिताप्रतिक्रान्तः । शुक्रग्रहदेवतया उत्पन्नः ॥
बहुपुत्तियाध्ययने ' उक्खेवओ' ति उत्क्षेपः-प्रारम्भवाक्य, यथा-जइ णं भंते समणेणं सिद्धिगइनामधेयं ठाणं संपाघिउकामेणं सच घग्गरस पुफियाण तयज्झयणस्स अयमढे पन्नत्ते, चउत्थस्सणे अज्झयणस्त पुल्फियाण के अड्डे पण्णते?
अनुक्रम [५-७]
अ०४
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| अध्ययन-३- 'शक' परिसमाप्त
अध्ययनं-४ 'बहुपुत्रिका' आरभ्यते [मूलसूत्र ८]
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आगम
“पुष्पिका” - उपांगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) अध्ययनं [४]
------- मूलं [८]
(२१)
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [२१], उपांग सूत्र - [१०] "पुष्पिका" मूलं एवं चन्द्रसूरि-विरचिता वृत्ति:
निरया॥२९॥
किका.
बहनियंसि सीहासणंसि चाहिं सामाणियसाहस्सीहिं चरहिं महत्तरियाहिं जहा मुरियामे जाव भुंजमाणी विहरइ, इमं चणं केवलकप्प जंबुद्दीवं दीवं विउलेणे ओहिणा आभोएमाणी२ पासति २ समणं भगवं महावीरं जहा मुस्यिाभो जाव णमंसित्ता सीहासणवरंसि पुरच्छाभिमुहा सभिसन्ना। आभियोगा जहा भूरियाभस्स, सूसराघंटा, आलिओगियं देवं सद्दावेइ, जाणविमाण जोयणसहस्सविच्छिण्ण, जाणविमाणवण्णओ, जाव उत्तरिल्लेणं निजाणमग्गेणं जोयणसाहस्सिरहिं विग्गहेहि आगता जहा मूरियामे, धम्मकहा सम्मत्ता । तते णं सा बहुपुतिया देवी दाहिण भुर्य पसारेइ वेवकुमाराणं अट्टसर्य, देवकूमारियाण य वामाओ भयाओ१०८ तयाणतरं पण बहवे दारगा य दारियाओ य डिभए य डिभियाओ य विउदइ, नविहिं जहा मरियाभो उपदसित्ता पडिगते । भंते ति भयवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसति कूडागारसाला बहुषुत्तियाए णं भते देवीए सा दिवा
देविड़ी पुच्छा जाप अभिसमण्णागता । एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं २ बाणारसी नाम नगरी, अंबसालवणे चेहए। तत्थ का वाणारसीए नगरीए भद्दे नाम सत्यवाहे होत्या, अड्डे अपरिभूते । तस्स णं भहस्स य सुभद्दा नाम भारिया सुकुमाला वंशा
एतस्स 'दिव्या देषिड़ी पुच्छ' त्ति, किण्हं लद्धा-केन हेतुनोपार्जिता? किण्णा पत्ता-केन रेतना प्राता साना प्राप्तिमुपगता? किण्णा भिसमण्णागय ' त्ति प्राप्ताऽपि सती केन हेतुनाऽऽभिमुख्येन सांगत्येन च उपार्जनस्य च पश्याडोग्यतामुपगतेति? पर्व पृष्टे सत्याह-पवं खलु' इत्यादि । वाणारस्यां भवनामा सार्थवाहोऽमूत् । 'अड़े' इत्यादि अडे दित्ते वित्त विच्छिण्णविउलभवणसयणासणजाणवाहणाइण्णे बहुधणजाइआययणआभोगपओगसंपउत्ते विच्छडियपउरभत्तपाणे बहुदासीदासगोमहिसगवेलकप्पभूप बहुजणस्स अपरिमूप, सुगमान्येतानि, नवरं आढधः-प्रवचा परिपूर्णः, हप्तः-दर्पवान, वित्तो-पिण्यातः । भद्रसार्थवाहस्य भार्या सुभद्रा सुकुमाला | विंझ' ति अपत्यफलापेक्षया निष्फला,
अनुक्रम
1॥२९॥
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आगम
(२१)
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Jan Educat
“पुष्पिका” उपांगसूत्र-१० (मूलं+वृत्तिः)
अध्ययनं [४]
मूलं [८]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...... ..आगमसूत्र [२१], उपांग सूत्र [१०] " पुष्पिका" मूलं एवं चन्द्रसूरि विरचिता वृत्तिः
-
अवियाउरी जाणुको परमाता याविहोत्या । तते णं तीसे सुभद्दाए सत्यवाहीए अन्नया कयाइ पुवरत्तावरचकाले कुटुंबजागरियं इमेयारूवे जाव संकप्पे समुप्पज्जित्था एवं खलु अहं भद्देणं सत्यबाहेणं सद्धिं बिउलाई भोगभोगाई भुजमाणी विहरामि, नो चेवणं अहं दार वा दारियं वा पयामि तं धन्नाओ ताओ अग्मगाओ जाव मुलद्धे णंतासि अम्मगाणं मणुयजम्मजीवितफले, जासि मन्ने नियकुच्छ संभूयगाई थणदुद्धलदगाई महुरसमुल्लावगाणि मंजुल (मम्मण) पर्जपिताणि थणमूलकक्खदेस भागं अभिसरमाणगाणि पहयंति, पुणो य कोमलकम लोवमेहिं हत्येहिं गिण्हिऊणं उच्छंगनिवेसियाणि देवि, समुल्लावर सुमुहुरे पुणो पुणो मम्मण (मंजुल) 'अविधाउरि त्ति प्रसवानन्तरमपत्यमरणेनापि फलतो बन्ध्या भवति अत उच्यते-अवियाउरि ति अधिजननशीलाऽपत्यानाम्, अत एवाह-जानु कूर्पराणामेव माता-जननी जानुकूर्परमाता, पतान्येव शरीरांशभूतानि तस्याः स्तनौ स्पृशन्ति नापत्यमित्यर्थः, अथवा जानु कूर्पराण्येव मात्रा परप्राणादिसाहाय्यसमर्थः उत्सङ्गनिवेशनीयो वा परिकरो यस्याः न पुत्रलक्षणः स जानुकर्षरमात्रः । ' इमे यारुवे 'ति इवैवं दृश्यं “ अयमेयारूचे अज्झत्थिए चितर पत्थिय मणोगप संकप्पे समुप्पजित्था " तत्रायम् पतद्रूपः आध्यात्मिकः - आत्माश्रितः चिन्तितः स्मरणरूपः मनोगतो- मनोविकाररूपः संकल्पो-विकल्पः समुत्पन्नः । 'धन्नाओ ताओ' इत्यादि धन्या-धनमर्हन्ति लप्स्यन्ते वा यास्ता धन्याः इति यासामित्यपेक्षया, अम्बाः स्त्रियः पुण्याः पवित्राः कृतपुण्याः-कृतसुकृताः कृतार्थाः-कृतप्रयोजनाः कृतलक्षणाः सफलीकृतलक्षणाः। ' सुलद्धे णं तासि अम्मगाणं मणुयजम्मजीवियफले' सुलब्धं च तासां मनुजजन्म जीवितफलं च 'जाति' ति यासां मन्ये इति वितर्कांर्थो निपातः । निजकुक्षिसंभूतानि डिम्भरूपाणीत्यर्थः । स्तनदुग्धे लुब्धानि यानि तानि तथा । मधुराः समुल्लापा येषां तानि तथा । मन्मनम्-अव्यक्तमीपलितं प्रजल्पितं येषां तानि तथा । स्तनमूलात् कक्षादेशभागमभिसरन्ति मुग्धकानि-अव्यक्तविज्ञानानि भवन्ति । पण्डयंति- दुग्धं पिवन्ति । graft कोमलकायां हस्ताभ्यां गृहीत्वा उत्सङ्गे निवेशितानि सन्ति । ददति समुल्लापकान, पुनः पुनः मञ्जुल
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आगम
(२१)
“पुष्पिका” - उपांगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) अध्ययनं [४]
------- मूलं [८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [२१], उपांग सूत्र - [१०] "पुष्पिका" मूलं एवं चन्द्रसूरि-विरचिता वृत्ति:
निरया
पलिका
पणिए अहंणं अधण्णा अपुण्णा अकयपुण्णा एत्तो एगमवि न पत्ता ओहय० जाव शियाइ । तेणें कालेण २ मुवतातोण अजातो इरियासमितातो भासा समितातोएसणासमितातो आयाणभंडमचनिक्खेवणासमितातो उच्चारपासवणखेलजल्लसिंघाणपारिहावणासमियांतो मणगुचीओ वयगुत्तीओ कायगुत्तोओ गुनिंदियाओ गुत्तवंभयारिणीओ बहुस्सुयाआ बहुपरियारातो पुछाणुपुचि चरमाणीओ गामाणुगाम दुइज्जमाणीओ जेणेव वाणारसी नगरी तेणेव उवागयाता, उवागच्छित्ता अहापदिस्वं जग्गई२ संजमेणं तवसा विहरति । तते णं तासि मुवयाण अजाणं एगे संचाइए वाणारसोनगरीए उच्चनीयमज्झिमाई कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडमाणे भहस्स सत्यवाहस्स गिई अणुपविह। तते ण सुभद्दा सत्यवाहोतातो अज्जातो एजमाणीओ पासतिर हट्ठ० खिषामेव आसणाओ अमुढेति २ सत्तट्ठपयाई अणुगच्छइ २ वैदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसिचा विउलेण असणपाणखाइमसाइमेणं पडिलाभित्ता एवं वयासि-एवं खलु अहं अज्जाओ! भद्देणं सत्यवाहेणं सद्धिं विउलाई भोगभोगाई मुंजमाणी विहरामि, प्रभणितान मञ्जुलं-मधुरं प्रभणित-भणतिर्येषु ते तथा तान्, इह सुमधुरानित्यभिधाय यन्मजलप्रभणितानित्युक्तं तत्पुनरुकमपि न दुष्टं संभ्रमाणितत्वावस्येति । 'पत्तो' ति विभक्तिपरिणामादेषाम्-उक्तविशेषणवतां ढिम्भानां मध्यादेकतरमपिअन्यतरविशेषणमपि डिम्भं न प्राप्ता इत्युपहतमनःसङ्कल्पा भूमिगतदृष्टिका करतलपर्यस्तितमुखी ध्यायति । अथानन्तरं यसंपन्नं तदाह-'तेर्ण कालेण'मित्यादि । गृहेषु समुदान-भिक्षाटनं गृहसमुदानं भैक्ष, तनिमित्तमटनम् । साध्वीसंघाटको भद्रसार्थवाहगृहमनुप्रविष्टः । तद्भार्या चेतसि चिन्तितवती (एवं वयासि) यथा-विपुलान-समृद्वान भोगान् भोगभोगान्-अतिशयवतः शब्दादीन उपभुनाना विहरामि-तिष्ठामि
. बहुपरियातो प्र.
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आगम
“पुष्पिका” - उपांगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) अध्ययनं [४]
------- मूलं [८]
(२१)
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [२१], उपांग सूत्र - [१०] "पुष्पिका" मूलं एवं चन्द्रसूरि-विरचिता वृत्ति:
नो चेवण अहं दारगंवादारियं वा पयामि, तं धन्नाओ ण ताओ अम्मगाोजाव एत्तीएगमवि न पत्ता, तंतुम्मे अजाओ!हणा
यातो बहपढियातो बहूणि गामागरनगर जाव सण्णिवेसाई आहिंडह, बहूर्ण राईसरतलबर जाव सत्यवाहप्पमितीण गिहाई अणुLII पविसह, अस्थि से केति कहि चि विज्जापओएवा मंतप्पओए वा वमण वा विरेयणं वा बत्थिकम्म वा ओसहे वा भेसज्जे वा उवळढे
जेणं अहं दारगंवा दारियं वा पयाएजा? सते ण ताओ अजाओ सुभई सत्यवाहि एवं वयासी-अम्हे णं देवाणुप्पिए! समणीओ निग्गंधीओ इरियासमियाओ जाव गुत्तभचारीओ, नो खल्लु कप्पति अम्हं एयमट्ट कण्णेहिं विणिसामित्तए, किमंग प्रण उदिसित्तए वा समायरित्तए वा अम्हे ण देवाणुप्पिए! णवरं तब विचित्तं केवलिपण्णतं धम्म परिकहेमी। तते णं सुभदा सत्यबाही तासि अज्जाण अंतिए धम्म सोचा निसम्म हट्टतुट्टा तातो अज्जातो तिखुत्तो वंदति नमसति एवं वदासी-सदहामिण अज्जाभो। निमगंध पावयणं पत्तियामि रोएमिणं अज्जाओ निर्गयीओ! एवमेयं तहमेयं अवितहमेयं जाव सावगधम्म पडिबज्जए। केवल तथापि डिम्भादिकं न प्रजन्ये-न जनितवती अई, केवलं ता पथ खियो धन्या यासां पुत्रादि संघचत इति खेदपरायणा 'पति' (हवते)। तवत्रायें यूयं किमपि जानीभवे न चेति ? यद्विषये परिज्ञानं संभाषयति तदेव विधामन्त्रप्रयोगादिक वक्तमाह । फेवलिप्राप्तधर्मध-" जीवश्य सशधयणं, परधणपरिवजणं सुसीलं च । खंती पैचिदियनिम्गहो य धम्मस्स मूलाई ॥१॥"
याचिकः । परमेय ' ति पषमेतदिति साध्वीवचने प्रत्या (त्यया) विष्करणम् । एतदेष स्फुटयति-तहमेय भंते!' तथैवतपथा भगवत्यः प्रतिपादयन्ति यदेतयं वदथ तथैवैतत् । अवितहमेय ' ति सत्यमेतदित्यर्थः । ' असंविधमेय' ति संदेवयजिंतमेतत् । एतान्येकार्थान्यत्यादरप्रदर्शनायोकानि सत्योऽयमयों बघूयं वदथ इत्युक्त्वा बदरसे-वाग्भिः स्तौति, मस्यति कावेन प्रर्णमति, वित्ता नमसिता सावगधम्म परिवजा देवगुरुधर्मप्रतिपत्ति कुरुते।
वाग्मिन प्र. २ नमस्पति र प्र० प्रणमति च । amination
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निरया - ॥३१॥
“पुष्पिका” - उपांगसूत्र- १० ( मूलं + वृत्तिः)
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अध्ययनं [४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......
14900*%* 459) *00 169) **202*409
मूलं [८]
..आगमसूत्र [२१], उपांग सूत्र [१०] " पुष्पिका" मूलं एवं चन्द्रसूरि विरचिता वृत्तिः
अहासुरं देवा ! मा परिबंध । तते णं सा सुभद्दा सत्य० तासि अज्जाणं अंतिए जान पडिवज्जति २ तातो अज्जातो वंदइ नमस पडिविसज्जति । तते णं सुभद्दा सत्थ० समणोवासिया जाया जाव विहरति । तते णं तीसे सुभद्दाए समणोवासियाए अण्णदा कदायि पुवरत० कुटुंब० अयमेया० जाव समुप्पज्जित्था एवं खलु अहं [स] भद्देणं सत्थ० बिउलाई भोगभोगाई जाब बिहरामि, नो चेवणं अहं दारगं वा २, तं सेयं खलु मर्म कल्लं पा० जाब जलते भद्दस्स आपुच्छित्ता सुबयाणं अजाणं अंतिए अज्जा भविता अगाराओ जाव पवइत्तए, एवं संपेहेति २ ता कल्ले जेणेव भद्दे सत्यवाहे तेणेव उवागते, करतल० एवं बयासीएवं खलु अहं देवाप्पिया ! तुम्मेहिं सद्धिं बहूई वासाई बिउलाई भोग जाव विहरामि, नो चेव णं दारगं वा दारियं वा पयामि, तं इच्छामि णं देवाणुपिया ! तुमेहिं अणुष्णाया समाणी मुतयाणं अजाणं जाव पचइत्तए । तते णं से भद्दे सत्यवाहे सुभ सत्य एवं वदासी मा णं तुमं देवाणुपिया ! इदाणिं मुंडा जाव पवयाहि, भुंजाहि ताव देवाशुप्पिए! मए सद्धिं farलाई भोगभोगाई, ततो पच्छा त्तभोई सुवयाणं अजाणं जाव पञ्चयाहि । तते णं सुभद्दा सत्य० भद्दस्स एयम नो आढाति नो परिजाणति दुच्चं पि तच्च पि भद्दा सत्य० एवं वदासी-इच्छामि णं देवाणुपिया ! तुम्मेहिं अब्भणुष्णाया समाणी जाब पद्मइत्तए । तते णं से भद्दे स० जाहे नो संचाति बहूहिं आघवणाहि य एवं पद्मवणाहि य सण्णवणा० त्रिष्णवणाहि य
यथासुखं देवानुप्रिये ! अत्रार्थे मा प्रतिबन्धं प्रतिघातरूपं प्रमादं मा कृथाः । ' आघवणाहि यत्ति आख्यापनाभिश्च सामान्यतः प्रतिपादनेः । पण्णवणादि यत्ति प्रज्ञापनाभिव- विशेषतः कथनै: । 'सण्णवणाहिय' त्ति संज्ञापनाभिश्वसंवोधनाभिः । ' विन्नषणादि य' त्ति विज्ञापनाभिध-विज्ञप्तिकाभिः सप्रणयप्रार्थनः । चकाराः समुचयार्थाः ।
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वळिका.
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“पुष्पिका” - उपांगसूत्र-१० (मूलं+वृत्तिः ) अध्ययनं [४]
------- मूलं [८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [२१], उपांग सूत्र - [१०] "पुष्पिका" मूलं एवं चन्द्रसूरि-विरचिता वृत्ति:
आघवित्तए वा जाब विष्णवित्तए वा ताहे अकामते चेव सुभद्दाए निक्खमणं अणुमण्णित्या । तते णं से भद्दे स० विउलं असणं ४ उपक्खडावेति, मित्तनाति ततो पच्छा भोयणवेलाए जाव मित्तनाति० सकारेति सम्माति, सुभई सत्थ० ण्हायं जाव पायच्छित्तं सबालंकारविभूसियं पुरिस सहरसवाहिणि सीयं दुरुहेति । ततो सा मुभद्दा सत्थ० मित्तनाइ जाव संबंधिसंपरिबुडा सचिड्डीए जाव रखेणं वाणारसोनगरोए मज्झं मझेणं जेणेव सुबयाणं अजाणं उवस्सए तेणेव उवा०२ पुरिससहस्सवाहिणि सीय ठवेति, सुभई स थबाहिं सीयातो पचोरुहेति । तते णं भद्दे सत्यवाहे सुभई सत्यवाहिं पुरतो काउं जेणेव मुच्चया अजा तेणेव उवा २ सुझ्याओ अजाओ वंदति नमंसति २ एवं बदासीएवं खलु देवाणुप्पिया सुभद्दा सत्यवाही में भारिया इट्टा केता जाव मा ण वातिता पिचिया सिभिया सन्निवातिया विविहा रोयातका फुसंतु, एस देवापिया! संसारभउबिग्गा भीया जम्मणमरणाणं, देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडा भवित्ता जाव पवयाति, तं एवं अहं देवाणुपियाणं सीसिणिभिक्खं दलयामि, पडिच्छंतु ण देवाणुप्पिया ! सीसिणीभिक्खै । अहामुहं देवाणुपिया ! मा पदिय । तते ण सा सुभद्दा स० मुवयाहि अजाहिं एवं युत्ता समाणी हट्ठा २ सयमेव आभरणमल्लालंकारं ओमुयइ २ सयमेव पंचमुट्टियं लोयं करेति २ जेणेव सुब्बयातो अजाओ तेणेव उवा २ सुव्वयाओं 'आधवित्तए 'त्ति आख्यातुं वा प्रज्ञापयितुं वा संज्ञापयितुं वा विज्ञापयितुं धा न शक्नोतीति प्रकमः सुभद्रा भायों व्रतग्रहणानिषेधयितुं 'ताहे' इति तदा 'अकामए चेष' अनिच्छन्नेव सार्थवाहो निष्क्रमण-ब्रतग्रहणोत्सवं अनुमनितवान् (अनुमतवान्) इति । किंबहुना ? मुंडा भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइति । इत उर्व सुगमम् ।
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“पुष्पिका” - उपांगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) अध्ययनं [४]
------- मूलं [८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [२१], उपांग सूत्र - [१०] "पुष्पिका" मूलं एवं चन्द्रसूरि-विरचिता वृत्ति:
॥३२॥
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अज्जाओ तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणेणं बंदइ नमसइ २ एवं बदासी-आलित्ते ण भंते । नहा देवाणंदा तहा पञ्चइता जाव अज्जा जाया जाव गुत्तभयारिणी । तते णं सा सुभद्दा अजा अन्नदा कदायि बहुजणस्स चेटरूवे समुच्छित्ता जाव अज्झोपवण्णा अभंगणं च उच्चट्टणं च फासुयपाणं च अलत्तगं च कंकणाणि य अंजणं च वण्णगं च चुण्णगं च खेल्लगाणि य खज्जल्लगाणि य खीरं च पुष्पाणि य गवसति, गवेसित्ता बहुजणस्स दारए वा दारिया वा २ कुमारे य कुमारियाते य २ डिभए य डिभियाओ य अप्पेगतियाओ अभंगेति, अप्पेगइयाओ उन्बट्टेति, एवं अप्पे० फामुयपाणएणं व्हावेति, अप्पे पाए स्यति, अप्पे० उढे रयति, अप्पे० अच्छीणि अंजेति, अप्पे० उमए करेति, अप्पे० तिलए करेवि, अप्पे० दिगिदलए करेति अप्पे० पंतियाओ करति अप्पे० छिज्जाई करेति अप्पेगइया वनएणं समालभइ अप्पे० चुन्नएण समालभइ अप्पे० खेल्लणगाई दलयति अप्पे० खज्जलगाई दलयति अप्पे०खीरभोयणं झुंजायेति अप्पे० पुप्फाई ओमुयइ अप्पे० पादेसु ठवेति अप्पे० जंघामु करेइ एवं ऊरूमु उच्छंगे कडीए पिट्टे उरसि खंघे सीसे अ करतलपुडेणं गहाय हलउलेमाणी २ आगयमाणी २ परिहायमाणी २ पुत्तपिवासं च धूयपिवासं च नत्तुयपिवासं च नत्तिपिवासं च पक्षणुम्भवमाणी विहरति । तते थे तातो मुवयातो अज्जाओ मुभई अज्ज एवं बयासी-अम्हे ण देवाणुप्पिए! समणीओ निग्गयीओ इरियासमियातो जाव गुत्तभचा रिणीओ नो खलु अम्हंकापति जातककम्म करिसए, तुर्मचणं देवाणु बहुजणस्स चेडरूयेसु मुच्छिया जाव अज्झोववण्णा अभंगणे जाव नचिपिवास वा पचणुभवमाणी विहरसि, तंणे तुम देवाणुप्पिया एयस्स ठाणस्स आलोएहि जाव पच्छित्तं पडिवजाहि । तते ण सा सुभदा अज्जा मुक्खयाण अजाणं एवमर्ट्स नो आढाति नो परिजाणति, अणादायमाणी अपरि
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“पुष्पिका” - उपांगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) अध्ययनं [४]
------- मूलं [८]
(२१)
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [२१], उपांग सूत्र - [१०] "पुष्पिका" मूलं एवं चन्द्रसूरि-विरचिता वृत्ति:
जाणमाणी विहरति । तते णं तातो समणीओ निगंधीओ सुभई अनं ही लेंसि निदंति विसति गरहति अभिक्खणं २ एयमट्ट निवारेति । तते गं तीसे मुभहाए अन्नाए समणीहि निगंथी हि हीलिजमाणीए जाव अभिक्खण २ एयम8 निवारिजमाणीए अयमेयारूवे अज्झस्थिए जाव समुपज्जित्था-जया अहं अगारवासं बसामि तया णं अह अप्पवसा, जप्पभिई च णं अहं मुंडा भवित्ता आगाराओ अणगारिय पवइत्ता तप्पभिई च णं अहं परबसा, पुदि च समणीओ निगंधीओ आटेंति परिजाणेति, इयाणि नो आदाति नो परिजाणति, तं सेयं खलु मे कल्लं जाच जलते मुबयाणं अज्जाण अंतियाो पटिनिक्खमित्ता पाडियक स्वरसय उपसंपज्जिता विहरित्तए, एवं संपेहेति २ का जाप जलते मुबयाण अज्जाणं अंतियातो पडिनिक्खमेति २ पाठियकं उबस्सयं उपसंपज्जिता णं विहरति । तते णं सा सुभद्दा अज्जा अज्जाहि अणोहट्टिया अणिवारिता सम्छंदमती बरजजरस चेटरूम मुच्छिता जाव अम्भंगण च जाव नचिपिवासं च पञ्चणुभवमाणी विहरति । तते णं सामु ६ अजा पासस्था पासस्थविहारी एवं ओसप्णा० कुसीला. संसत्ता संसत्तविहारी अहाच्छंदा
अहाच्छंद विहारी बहई वासाई सामनपरियागं पाउणति २ अद्धमासियाए सैलेहणाए अत्ताणं तोस भत्ताई २ अणसणे | छेदित्तार तस्स ठाणस्स अ णालोइयप्पटिकवा कालमासे कालं कि.चा सोहम्मे कप्पे बहुपुत्तियाविमाणे उखवायसभाए देवसयणिज्जंसि देवदूसंतरिया अंगुल स्स असंखेज्जभागमेचाए ओगाहणाए बहुपुत्तियदेवित्ताए उघवष्णा, तेणे सा बहुपुत्तिया देवी 'जाय पाडियकं उबस्सय ति सुन्नताबिकोपाथ यात् पृथक् विभिन्न मुपाश्रयं प्रतिपय विचरति-आस्ते । अजाहि अणोह
ट्टिय' ति यो बलाद्वस्तादौ गृहीत्वा प्रवर्तमान निवारयति सोऽपघट्टिकः तदभावादनपट्टिका, अनिवारिता-निषेधकरहिIMI ता, अतएव स्वच्छन्दमतिका । ज्ञानादीनां पाश्चे तिष्ठतीति पार्श्वस्था इत्यादि सुप्रतीतम् ।
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“पुष्पिका” - उपांगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) अध्ययनं [४]
------- मूलं [८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [२१], उपांग सूत्र - [१०] "पुष्पिका" मूलं एवं चन्द्रसूरि-विरचिता वृत्ति:
निरया
बलिका.
॥३३॥
प्रत
सूत्राक
अहुणोपयनमित्ता समाणी पंचविहाए पज्जचीए जाव भासामणपज्जतीए । एवं खलु गोयमा ! बहुपुत्तियाए देवीए सा दिवा देविट्टी जाव अभिसमण्णागता।से केणटेणं भंते ! एवं वुचइ बहुपुत्तिया देवी २१ गोयमा । बहुपुत्तिया ण देवी णं जाहे जाहे सकस देविंदस्स देवरण्णो उवत्वाणियणं करेइ ताहे २ वहवे दारए य दारियाए य डिभए य डिभियातो य विउदइ २ जेणेव सके देविदे देवराया तेणेव उवा०२ सकस्स देविंदस्स देवरण्णो दिवं देविड़ि दिवं देवज्जुई दिवं देवाणुभाग उवदंसेति, से तेणटेण गोयमा ! एवं वुचति बहपुत्तिया देवी२। बहुपुत्तियाण भंते ! देवीणं केवइयं कालं ठितिं पण्णता ? गोयमा ! चत्तारि पलिओचमाई ठिई पण्णता । बहुपुत्तिया ण भंते ! देवी तातो देवलोगाओ आउक्खएणं ठितिक्खएणं भबक्खएणं अणंतरं चयं चइता कहि मच्छिहिति ? कहिं उबवज्जिहिति ! गोयमा ! इहेब जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे विज्झगिरिपायमले विमेलसनियेसे माहणकुलसि दारियत्ताए पञ्चायाहिति । तते ण तीसे दारियाए अम्मापियरो एकारसमे दिवसे वितिकते जावबारसेहि दिवसेहिं वितिकतेहि अयमेयारूवं नामधिज्ज़ करेंति-होऊण अम्ई इमीसे दारियाए नामधिज्न सोमा। तते णं सोमा उम्मुकपालभावा विण्णतपरिणयमेता जोवणगमणुपत्ता रूपेण य जोधणेण य लावणेण य उकिहा उकिट्टसरीराजाव भविस्सति । तते णं तं सोमं दारियं अम्मापियरो उम्मुक्बालभावं विष्णयपरिणयमिते जोवणगमणुप्पत्ता पटिकुविएणं मुकेणं 'उवत्थाणिय करे' तिउपस्थान-प्रत्यासत्तिगमनं तत्र प्रेक्षणककरणाय यदाविधत्ते । दिवं देषिदि ' ति देवद्धिः-परिवारादिसंपत्, देवधुति:-शरीराभरणादीनां दीप्तियोगः, देषानुभाग:-अद्भुतक्रियशरीरादिशक्तियोगः, तदेतत्सर्वं दर्शयति-1 'विनयपरिणयमेत्त' ति विज्ञका परिणतमात्रीपभोगेषु अत एव यौवनोद्गममनुप्राप्ता | 'रूवेण य' त्ति रूपम्-आकृतिः यौवनं-तारुण्य लावण्यं चेह स्पृहणीयता, चकारात् गुणग्रहः गुणाच मृदुत्वौदार्यादयः, पतेरुत्कृष्टा-उत्कर्षवती शेषस्त्रीभ्यः, अत एष उत्कृष्टमनोहरशरीरा चापि भविष्यति । 'विनयपरिणयमितं पडिकुधिपणं सुफेण 'ति प्रतिकूजित-प्रतिभाषितं
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በያዘ
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“पुष्पिका” उपांगसूत्र-१० (मूलं+वृत्तिः)
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अध्ययनं [४]
मूलं [८]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [२१], उपांग सूत्र - [१०] "पुष्पिका" मूलं एवं चन्द्रसूरि - विरचिता वृत्तिः
परुिवर्ण नियगस्स भायणिज्जस्स रह्कूटयस्स भारियार दलयिस्सति । सा णं तस्स भारिया भविस्सति इट्ठा कंता जाव भंडकरंडगसमाणा तिलकेला इव सुसंगोविआ वेलपेला (डा) इव सुसंपरिहिता रयणकरंडगतो विब मुसारक्खया सुसंगविता माणंसीयं जाव विविहा रोयातंका फुसंतु । तते णं सा सोमा माहणी रहकूडेणं सद्धिं विउलाई भोगभोगाई गुंजमाणी संच्छरे २ जुयलगं पयायपाणी सोलसेहिं संबच्छरेहिं बत्तीसं दारगरूये पयाति । तते णं सा सोमा माहणी तेहिं हहिं दारगेहि य दारियाहि य कुमारएहि य कुमारियाहि य डिंभएहि य डिंभियाहि य अप्पेगइएहि उत्ताणसेज्जरहि य अप्पेगइएहि य यणियाएहि य अप्पेगइएहि पीहगपाएहिं अप्पे० परंगणएहि अप्येगइएहिं परकममाणेहिं अप्पेगइएहिं पक्खोलणएहिं अप्पे० थणं मग्गमाणेहिं अप्पे० खीरं मग्गमाणेहिं अप्पे० खिल्लणयं मग्गमाणेहिं अप्पेगइएहिं खज्जगं मग्गमाणेहिं अप्पे क्रूरं मग्नमाणेहिं पाणियं मग्गमाणेहिं हसमाणेहिं रूसमाणेहिं अकोसमाणेहिं अस्समाणेहिं हणमाणेहिं हम्पमाणेहिं यत् शुक्ल द्रव्यं तेन कृत्वा प्रभूतमपि वाञ्छितं देयद्रव्यं दच्या प्रभूताभरणाविभूषितं कृत्वाऽनुकूलेम विनयेन प्रियभाषणतया भययोग्येयमित्यादिना 'इट्ठा' वल्लभा, 'कंता' कमनीयत्वात्, 'पिया' सदा प्रेमविषयत्वात्, 'मगुण्णा' सुन्दरत्वात, एवं संमया अणुमया इत्यादि दृश्यम् । आभरणकरण्डकसमानोपादेयत्वादिना । तैलकेला सौराष्ट्रप्रसिद्धी मृन्मयस्तैलस्य भाजनविशेषः, स च भङ्गभयालोटनभयाच सुष्ठु संगोप्यते एवं साऽपि तथोच्यते । 'चेलपेडा इवे 'ति वखमञ्जूषेवेत्यर्थः । 'रयणकरंडग' इति इन्द्रनीलादिरत्नाभयः सुसंरक्षितः सुसंगोपितच क्रियते 'जुयलगं दारकदारिकादिरूपं प्रजनितबती । पुत्रकैः पुत्रिकाभिश्च वर्षदशकादिप्रमाणतः कुमारकुमारिकादिव्यपदेशभावत्वं डिम्भडिम्भिकाच लघुतरतया प्रोच्यन्ते । अप्येके केचन 'परंगणेहिं ति नृत्यद्भिः । परकममाणेहिं 'ति उल्लयद्भिः । पक्खोलणपछि ति प्रस्वलद्भिः । सद्भिः रुष्यद्भिः,
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“पुष्पिका” - उपांगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) अध्ययनं [४]
------- मूलं [८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [२१], उपांग सूत्र - [१०] "पुष्पिका" मूलं एवं चन्द्रसूरि-विरचिता वृत्ति:
निरया
॥३४॥
विप्पलायमाणेहिं अणुगम्ममाणेहिं रोवमाणे हिं कंदमाणेहिं विलबमाणेहिं कूबमाणेहिं उक्तवमाणेहिं निदायमाणेहिं पलवमाणेहिं देहमाणेहि बममाणेहिं छेरमाणेहि सुत्तमाणेहि मुत्तपुरी समियमुलिचोवलित्ता मइलवसणपुर (दुम्बला) जाब अइसुबीभच्छा परमदुग्गंधा नो संचाएइ रहकू डेण सद्धि विउलाई भोगभोगाई जमाणी वितरित्तए । तते ण से सोमाए माहणीए अप्णया कयाइ पुवरत्तावरतकाल समयंसि कुद्दु जागरियं जागरमाणीए अयमेयारवे जाव समुष्पज्जित्था-एवं खलु अहं इमेहि वहूहिं दारगेहि य जाब डिभियाहि य अपंगइएहि उत्ताणसेज एहि य जाव अगइएहि मुत्तमाणेहि दुजाएहि दुजम्मएहिं इयविपहयभग्गेहि एगप्पहारपढिए हिंजेण मुत्तपुरीसबमियमुलितोवलित्ता जाव परमदुरिभगंधा नो संचाएमि रट्टकूडेण सद्धिं जाव मुंजमाणी विहरिचए । तं धन्नाओ ण ताओ अरमयाओ जाच जीवियफले जाओणं बंझाओ अवियाउरीओजाणुकोप्परमायाओ सुरभिमुगंधगंधियाओ विउलाई माणुरसगाइ भोगभोगाई झुंजमाणीओ विहरति, अहं णं अधना अपुण्णा अकयपुष्णा नो संचाएमिरकटेण सद्धि विउ लाई जाब विहरिचए । देणं कासेण२ सुखयाओ नाम अजाओ इरियासमियामो जाव बहुपरिचाराओ पुचाणुपुर्वि जेणेव विमेले सनिई से अहापटिरूवं ओगई जाव विहरति । तते गं तासि सुचयाण अजाण एगे संघाडए विभेले सन्निवेसे उच्चनीय जाव अरमाणे रट्टकूट रस गिह अणुपबिट्टे । सते ण सा सोमा माइणी ताओ अज्जाओ एजमाणीओ 'उक्कृवमाणेहि ति बृहन्छन्दः पाकुर्वद्भिः। 'पुब्बड़ (बुम्बल)' ति दुर्बला । 'पुज्वरत्तावरत्तकालसमयसि ' त्ति पूर्वरात्रश्वासावपररात्रभेति पूर्वराषापररात्रः स एव कालसमयः कालविशेषस्तस्मिन् रात्रेः पश्चिमे भाग इत्यर्थः । अयमेतद्वपः आध्यात्मिकः-आत्माश्रितः, चिन्तितः-स्मरणरूपः, प्रार्थितः-अभिलाषरूपः मनोविकाररूपः संकल्पो-विकल्पः समुत्पन्नः।
1 दवमाणेहिं अ, हममाणेहिं क, हदमाणेहिं. च । २ भुतमाणेहिं. प्र.
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“पुष्पिका” - उपांगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) अध्ययनं [४]
------- मूलं [4] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [२१], उपांग सूत्र - [१०] "पुष्पिका" मूलं एवं चन्द्रसूरि-विरचिता वृत्ति:
पासति २ हव० खिप्पामेव आसणाओ अब्भुट्टेति २ सन्तट्टपयाई अणुगच्छति २ बंदइ, नमसद, विउलेणं असण ४ पडिलाभित्ता एवं बयासी-एवं खलु अहं अजाओ रहकूडेणं सद्धि विउलाई जाव संबच्छरे २ जुगलं पयामि, सोलसहि संवच्छरेहिं यत्तीस दारगरूवे पयाया, तते णं अहं तेहिं बहहिं दारएहि य जाब डिभियाहि य अपेगतिएहिं उत्ताणसिज्जएहि जाब मुत्तमाणेहि दुखावेहिं जाव नो संचाएमि विहरत्तए, तमिच्छाणि णं अजाओ तुम्हं अंतिए धम्म निसामित्तए । तते ण तातो अज्जातो सोमाते माहणीए विचित्र जाब केवलिपण्णचं धम्म परिकहेति । तते णं सा सोमा माहणी तासि अजाणं अतिए धम्म सोचा निसम्म हट्ट जाब हियया तातो अज्जाओ वंदइ नसइ २त्ता एवं बयासी-सहामि णं अज्जाओ! निम्न पावयणं जाव अब्भुट्टेमि ण अज्जातो निर्णय पावयणं एवमेय अज्जातो जाब से जय तुम्भे वयह जे नवरं अज्जातो! रहकूडं आपुच्छामि । तते णं अहं देवाणुप्पियाणं अतिए मुंडा जाव पवयामि । अहामुहं देवाणुप्पिए ! मा पडिबंधं । तते ण सा सोमा माहणी तातो अज्जातो वैदइ नमसइ २ ता पडिविसज्जेति । तते ण सा सोमा माहणो जेणेव रट्टकूडे तेणेव उवागता करतल एवं वयासी-पर्व खलु मए देवाणुप्पिया ! अज्जाणं अंतिए धम्मे निसंते से वि य णं धम्मे इच्छिते जाव अभिरुचिते, तने गं अहं देवाणुप्पिया ! तुम्मेहिं अब्भणुन्नाया मुखयाणं अज्जाणं जाच पञ्चइत्तए । तते णं से रहकूडे सोमं माहणि एवं क्यासी-मा णं तुम देवाणुप्पिए ! इदाणि मुंडा भवित्ता जाव पचयाहि, अजाहि ताव देवाणुप्पिए ! मए सद्धिं विउलाई भोगभोगाई, ततो पछा भुक्तभोई मुबयाणं अज्जाणं अंतिए मंशा जाव पत्याहि । तते णं सा सोमा माहणी रहकडस्स एयम पडिमुणे ति । तते णं सा सोमा माहणी व्हाया जाव सरीरा चेडियाचफयालपरिकिष्णा साओ गि-- हामी पटिनिक्खमति २ विभेलं संनिस मज्झे माझेण जेणेव मुख्याणं अजाणं उबस्सए तेणेव उवा०२ सुबयाओ अज्जाओ
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“पुष्पिका” - उपांगसूत्र- १० ( मूलं + वृत्तिः)
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अध्ययनं [४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....
अध्ययनं ४ 'बहुपुत्रिका' परिसमाप्तं
मूलं [८]
..आगमसूत्र [२१], उपांग सूत्र [१०] " पुष्पिका" मूलं एवं चन्द्रसूरि विरचिता वृत्तिः
बँदइ नर्मसइ पज्जुवासड़ । तते णं ताओ सुधयाओ अज्जाओ सोमाए माहणीए विचित्तं केवलिपण्णत्तं धम्मं परिकहेति जहा जीवा बीति । तते सा सोमा माहणी मुबयाणं अज्जाणं अंतिए जाव दुवालसविहं सावगधम्मं पडिवज्जइ २ मुद्दयाओ अज्जाओ वंदनस २ चा जामेव दिसिं पाउम्भूआ तामेव दिसं पडिगता । तते णं सा सोमा माहणी समणोवासिया जाया अभिगत जाव अप्पाणं भावेमाणी विहरति । तते णं ताओ मुदयाओ अज्जाओ अण्णदा कदाइ विभेलाओ संनिवेसाओ पटिनिक्रखमेति, बहिया जणवयविहारं विहरति । तते णं ताओ मुखयाओ अज्जाओ अणदा कदापि पृवाणु० जाव विहरति । ते णं सा सोमा माहणी इमीसे कहाए लट्ठा समाणी हट्टा पहाया वहेब निग्गया जाव वैदइ नमसइ २ धम्मं सोचा जाव नवरं कूटं आपुच्छामि तते गं पदयामि । अहासु । तते णं सा सोमा माहणी सुवयं अजं बंदर नमसइ २ सुखयाणं अंतिया पनि २ जेणेव सए गिहे जेणेव रट्ठकूडे तेणेव उवा० २ करतलपरिगह० तहेव आपुच्छर जाव पञ्चइचए। अहामु देवाणुप्पिए! मा पडिबंधं । तते णं रडकडे विउलं असणं तहेव जाव पुवभवे सुभद्दा जाव अज्जा जावा, हरियासमिता जाव गुप्त्तभयारीणी । तते णं सा सोमा अज्जा सुवयाणं अज्जाणं अंतिए सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिज्जइ २ बहूहिं छम (दसम) दुबालस जाव भावेमाणी बहूई वासाई सामणपरियागं पाउणति २ मासियाए संलेहणाए सहिं मत्चाई असणार छेदित्ता आलोइयपडिकंता समाहिपत्ता कालमासे कालं किचा सकस देविंदस्स देवर णो सामाणियदेवत्ताए उववज्जिहिति, तत्थ अत्येगइयाणं देवाणं दोसागरोवमाई ठिई पष्णता, तत्थ णं सोमस्स वि देवस्स दोसागरोवमाई दिई पण्णत्ता से णं भंते सोमे देवे ततो देवलोगाओ आउवखरणं जाय चयं चत्ता कहिं गच्छहिति ? कहिं उववज्जिहिति ? गोयमा ! महाविदेहे वासे जाव अंतं काहिति । एवं खलु जंबू ! समणेण जाव संपत्तेणं अयमट्टे पण्णत्ते ॥ ४ ॥
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वलिका.
॥३५॥
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आगम
(२१)
“पुष्पिका” - उपांगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:) अध्ययनं [५,६] --
------ मूलं [९,१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [२१], उपांग सूत्र - [१०] "पुष्पिका" मूलं एवं चन्द्रसूरि-विरचिता वृत्ति:
प्रत
सुत्राक
अ०५
.जहणं भंते ! समणेणं भगवया उवखेवओ एवं खलु जैबू ! तेणं कालेणं २ रायगिहे नाम नगरे, गुणसिलए चेहए, सेणिए राया, सामी समोसरिते, परिसा निग्गया, तेणं कालेणं २ पुण्णभद्दे देवे सोहम्मे कप्पे पुण्णभद्दे विमाणे सभाए मुहम्माए पुण्णभईसि सीहासणंसि चउहि सामाणियसाहस्सीहिं जहा सूरियाभो जाव बत्तीसतिविहे नट्टविहिं उपदंसित्ता जामेव दिसि पाउन्भूते तामेव दिसिं पडिगते कूदागारसाला पुचभवपुच्छा एवं गोयमा ! तेणे कालेणं २ इहेब जंयुहीवे दीवे भारहे चासे मणि वझ्या नार्म नगरी होत्था रिद्ध, दो, ताराइणे येइए, तस्य णं मणिवइयाए नगरीए पुण्णभद्दे नाम गाहावई परिवसति अड़े। तेणं कालेणं २ थेरा भगवंतो जातिसंपण्णा जाव जीवियासमरणभयविष्पमुक्का बहुस्सुया बहुपरियारा पुवाणुपुर्वि जाच समोसदा, परिसा निम्गया। तते णं से पुष्णभद्दे गाहाचई इमीसे कहाए लातु समाणे ४ जाव पण्णत्तीए गंगदत्ते तहेब निग्गच्छई जाव निवखंतो जाव गुत्तभचारी। तते णं से पुण्णभद्दे अणगारे भगवंताणं अंतिए सामाइयमादियाई एकारस अंगाई अहिज्जइ २ बहुहिं चउत्थछट्टम जाव भाविता बहई वासाई सामण्णपरियागं पाउणति २ मासियाए संलेहणाए सहि भनाई अणसणाए टेदिचा आलोइयपडिकंते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे पुण्णभद्दे विमाणे उववातसभाते देवसयणिजंसि जाव भासामणपज्जत्तीए । एवं खलु गोयमा । पुष्णभरणं देवेणं सा दिवा देविड़ी जाव अभिसमप्णागता । पुष्णभहस्स णं भंते ! देवस्स केवइयं कालं ठिई पण्णता ? गोयमा ! दोसागरोचमाई
ठिई पण्णता । पुणभहणं भंते ! देवे तातो देवलोगातो जाव कहिं गच्छिहिति ? कहिं उववजिहिति ? गोयमा ! महाविदेडे AL बासे सिज्झिहिति जाच अंतं काहिति ! एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवता जाव संपत्तेणं निवखेरओ॥५॥ अ०६.जाणे भंते ! समणेणं भगवया जाव सपत्तेणं उक्खेवओ एवं खलु अंबू ! तेणे कालेणं २ रायगिहे नगरे, गुणसिलए
*
दीप
अनुक्रम
Marattrarporg
अध्ययनं-५- 'पूर्णभद्र' आरब्धं एवं परिसमाप्तं [मलसूत्र ९]
अध्ययनं-६- 'माणिभद्र' आरभ्यते [मूलसूत्र १०]
~33~
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आगम
“पुष्पिका” - उपांगसूत्र-१० (मूलं+वृत्ति:)
(२१)
अध्ययनं [५,६]
------ मूलं [९,१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [२१], उपांग सूत्र - [१०] "पुष्पिका" मूलं एवं चन्द्रसूरि-विरचिता वृत्ति:
प्रत
निरया
Iवकिका चेइए, सेणिए राया, सामी समोसरिते । तेणं कालेणं २ माणिभद्दे देवे सभाए मुहम्माए माणिभइंसि सीहासणंसि चरहिं ॥३६॥
सामाणियसाहस्सीहिं जहा पुण्णभदो तहेब आगमणं, नट्टविही, पुत्वभवपुच्छा, मणिबई नगरी, माणिभद्दे गाहावई थेराणं अंतिए पछज्जा एक्कारस अंगाई अहिज्जति, बहई पासाई परियातो मासिया सलेहणा सट्टि भनाई माणिभद्दे विमाणे उब
वातो, दोसागरोवपाई ठिई, महाविदेहे वासे सिझिहिति । एवं खलु जंबू ! निक्खेवभो ॥६॥ अ०७-१० एवं दत्ते ७ सिये ८ चले ९ अणाढिते १० सो जहा पुष्णभद्दे देवे । सन्वेसि दोसागरोबमाई ठिती । चिमाणा देवसरिसूत्र-११ | सनामा । पुवभवे दत्ते चंदणाणामए, सिवे महिलाए, बलो हत्थिणपुरे नगरे, अणाढिते कार्कदिते, चेइयाई जहा संगहणीए॥
॥ततिओ वग्गो सम्मत्तो॥
सूत्राक
दीप अनुक्रम [१०]
इड ग्रन्थे प्रथमवों दशाध्ययनात्मको निरयाव लियाख्यनामकः। द्वितीयवर्गों दशाध्ययनात्मकः, तत्र च कल्पावर्तसिका इत्याख्या अध्ययनानाम् । तृतीयवाँऽपि दशाध्ययनात्मकः, पुष्पिकाशब्दाभिधेयानि च तान्यध्ययनानि, तत्राचे चन्द्रज्योतिकेन्द्रबक्तव्यता १। द्वितीयाध्ययने सूर्यचक्तव्यता २ तृतीये शुक्रमहाग्रहवक्तव्यता ३१चतुर्थाध्ययने बहुपुत्रिकादेवीवक्तव्यता। पश्चमेऽध्ययने पूर्णभद्रवक्तव्यतापाषष्ठे माणिभद्रदेववक्तव्यता६ सप्तमे प्राग्भविकचन्दनानगर्यो दसनामकदेवस्य हिसागरोपमस्थितिकस्य वक्तव्यता ७ । अष्टमे शिवगृहपति (तेः) मिथिलावास्तव्यस्य देवत्वेनोत्पन्नस्य द्विसागरोपमस्थितिकस्य वक्तव्यता ८ नवमे हस्तिनापुरवास्तव्यस्य विसागरोपमायुष्कत्तयोत्पन्नस्य देवस्य बलनामकस्य वक्तव्यता ९ दशमाध्ययने ऽणाढियगृहपतेः काफन्दीनगरीवास्तव्यस्य हिसागरोपमायुष्कतयोत्पन्नस्य देवस्य बक्तव्यता १० । इति तृतीयवर्गाध्ययनानि ॥३॥
| अध्ययन-६- 'माणिभद्र' परिसमाप्तं
अध्ययनानि ७-१० दत्त, शिव आदि आरब्धानि एवं परिसमाप्तानि
मुनिश्री दीपरत्नसागरेण पुन: संपादित: (आगमसूत्र २१)
“पृष्पिका" परिसमाप्त:
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________________ नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः 21 पज्य अनयोगाचार्य श्रीदानविजयजी गणि संशोधित: संपादितश्चा “पुष्पिका-उपांगसूत्र” [मूलं एवं चन्द्रसूरि-विरचिता वृत्तिः] | (किंचित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित: "पुष्पिका” मूलं एवं वृत्ति:” नामेण परिसमाप्त: Remember it's a Net Publications of 'jain_e_library's' ~35~