Book Title: Yogkalpalata
Author(s): Girish Parmanand Kapadia
Publisher: Shrutbhuvan Sansodhan Kendra

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Page 83
________________ ७० योगकल्पलता निराकारस्वरूपोऽहं सर्वदेति विभावनात्। स्वप्रकाशो नमस्कार! ध्याने सम्प्राप्यते मया।।३६।। हे! नमस्कार! मैं सदा निराकार हूँ ऐसा ज्ञान होने से आपके ध्यान में अपना (आत्म) प्रकाश मिलता है।।३६।। शुद्धबुद्धस्वभावोऽहं परमेष्ठिसमः सदा। सञ्चिन्त्येति नमस्कार! निर्विकल्पे स्थितिर्मम।।३७।। हे! नमस्कार मैं शुद्ध और बुद्ध स्वभाववाला हूँ, अतः परमेष्ठी के समान हूँ, ऐसा चिंतन कर निर्विकल्प में मेरी स्थिरता बनती है।।३७।। सिद्धरूपः शरीरेऽपि निष्कल: परमार्थतः। अत एव नमस्कार! ध्येयरूपोऽहमेव हि।।३८।। शरीर में होते हुए भी मैं परमार्थतः कला (विकार) रहित सिद्धिरूप हूँ। अत एव मैं ही ध्येयरूप हूँ।।।३८।। ध्याता ध्येयं तथा ध्यानं त्रितयं नास्ति नास्ति वै। समापत्तौ नमस्कार! ोकोऽहं चिन्मयः सदा।।३९।। हे! नमस्कार समापत्ति में ध्याता, ध्येय और ध्यान अलग-अलग नहीं होते हैं। उस अवस्था में सिर्फ ज्ञानरूप में होता हूँ।।३९।। नमो मह्यं नमो मह्यं मुक्तोऽहं देहवानपि। तत्त्वार्थस्ते नमस्कार! सिद्धभावो हि शाश्वतः।।४०।। मैं देहयुक्त होते हुए भी मुक्त हूँ इसलिये मैं मुझे ही नमस्कार करता हूँ। हे! नमस्कार, शाश्वत सिद्धभाव ही तेरा तात्त्विक अर्थ है।।४।।। अचिन्त्यशक्तियुक्तत्वात्परमेष्ठिप्रभावतः। त्वं सत्यं हि नमस्कार! स्वर्गमोक्षविधायकः।।४१।। हे! नमस्कार तुम अनन्तशक्ति से युक्त हो अतः परमेष्ठि के प्रभाव से सत्त्व में, तुम स्वर्ग और मोक्ष का कारण हो।।४१।।

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