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आत्मतत्त्वसमीक्षणम्
कोई तत्त्वज्ञानी ही जो परमात्मा है वही मैं हूँ ऐसा जानता है और मैं वही हूँ ऐसा भाव हो जाने पर उसे कहीं भी भय नहीं होता ।। २२।।
प्रवृत्तौ समता किन्तु परिणामविभेदतः ।
अज्ञानी लिप्यते यत्र ज्ञानी तत्र न लिप्यते । । २३ ॥
ज्ञानी और अज्ञानी की प्रवृत्ति संसार में समान होती हैं किन्तु परिणाम अलगअलग होते हैं। ज्ञानी सांसारिक वातावरण से मुक्त रहते हैं, अज्ञानी उसमें लीन दिखते हैं।।२३।।
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आत्मस्थो लिप्यते नैव पुण्यपापैः कदाचन।
आकाशं खलु धूमेन पद्मपत्रं यथाम्भसा ।।२४।।
आत्मस्थ (आत्मज्ञानी) कभीभी पुण्य या पाप से नहीं बँधते, जैसे धूम से आकाश तथा जल से पद्मपत्र निर्लिप्त रहता है ।।२४।।
अनेकान्ते सुनिष्णातो द्वैताद्वैतविशारदः ।
स्वस्वरूपे लयं याति सत्वरं नात्र संशयः ।। २५ ।।
द्वैत-अद्वैत आदि दर्शनों के पण्डित अनेकान्त (जैन) दर्शन के तत्त्वज्ञ ही (आत्मा) अपने-अपने स्वरूप में शीघ्र ही लीन हो जाता हैं इसमें कोई सन्देह नहीं
है।।२५।।
वीतरागः सदा मुक्तः कर्मबन्धस्तु रागिणः ।
'नाऽहं ' ' न मम' तस्माद्धि मोक्षमन्त्रः प्रकीर्तितः ।। २६ ।।
वीतराग सदा मुक्त होते हैं रागी सदा कर्मबन्धन में बँधे रहते हैं और इसलिए न मैं (शरीर) हूँ न मेरा (धन आदि) है यह मोक्षमन्त्र कहा गया है।।२६।।
ज्ञानगर्भितवैराग्यात्परमोपशमस्तथा ।
क्षपणं सर्वकर्मणां भव्यस्यैव यथार्थतः ।।२७।।
वस्तुतः भव्य का ही ज्ञानयुक्त वैराग्य से सभी कर्मों का क्षय - उपशम होकर नाश होता है।।२७।।