Book Title: Yogkalpalata
Author(s): Girish Parmanand Kapadia
Publisher: Shrutbhuvan Sansodhan Kendra

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Page 110
________________ आशाप्रेमस्तुतिः ९७ आशे! प्रेमवशस्त्वद्य रहस्यं कथयामि ते। अभेद आवयोर्जेयश्चन्द्रचन्द्रिकयोरिव।।४७।। आशे! प्रेम के वशीभूत होकर आज तुम से एक जानने योग्य रहस्य कहता हूँ कि मुझमें-तुझमें चन्द्र और चन्द्रिका की तरह अभेद सम्बन्ध है। ।।४७।। आशे! मे हृदयानन्दं संवय रतिचेष्टितैः। मां करोषि रसज्ञा त्वं सर्वथा प्रणयातुरम्।।४८।। आशे! तुम रसज्ञा हो, अपने हावभाव से मेरे हृदय के आनन्द को बढ़ाकर तुम मुझे हर तरह से प्रेमातुर करती हो। ।।४८।। आशे! ज्ञाते स्वरूपे तु शिवशक्तियुते सदा। रुचिरस्स्याद्वियोगोऽपि नवा वै स्थितिरावयोः।।४९।। आशे! तेरे हमेशा शिवशक्ति से युक्त विख्यात (अर्धनारीश्वर) स्वरूप को जानने के बाद हम दोनों का वियोग भी सुन्दर होगा क्योंकि हम दोनों की स्थिति नयी होगी। ।।४९।। आशे! तेऽद्भुतरूपस्य श्रुत्वैव वर्णनं शुभम्। क्षणादेव परानन्दो जायते पुण्यशालिनाम्।।५०।। आशे! तुम्हारे अद्भुत रूप का कल्याणकारी वर्णन सुनकर पुण्यशालियों को क्षण में ही परमानन्द की अनुभूति होती है। ।।५।।। आशे! नानाविधा ते हि क्रीडा प्रेमसमन्विता। ज्ञायते रम्यभावैर्दा किन्तु वक्तुं न शक्यते॥५१।। आशे! प्रेम से युक्त तुम्हारी अनेक प्रकार की क्रीडा रम्यभाव से ही अनुभव की जाती हैं, उसे शब्दों से नहीं कहा जा सकता। ।।५१।। हास्यकेलिविहारेषु प्रेमपूरितचेतसा। आशे! क्रीडारसानन्दः प्राप्यतेऽत्र त्वया सह।।५२।। आशे! चित्त में प्रेम भर के तुम्हारे साथ कहीं भी हास्य-केलि या विहार में क्रीडा करने से परमानन्द (रसानन्द) की प्राप्ति होती है। ।।५२।।

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